Navratri special nine forms of Maa Param Shakti!! / navratri vishesh man param shakti ke nau roop!! /नवरात्रि विशेष मां परम् शक्ति के नौ रूप!!
नवरात्रि विशेष मां परम् शक्ति के नौ रूप!!
सुरासम्पूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च।
दधाना हस्तपद्माभ्यां कुष्मांडा शुभदास्तु मे॥
नवरात्रि का पाँचवाँ दिन स्कंदमाता की उपासना का दिन होता है। मोक्ष के द्वार खोलने वाली माता परम सुखदायी हैं। माँ अपने भक्तों की समस्त इच्छाओं की पूर्ति करती हैं। इस देवी की चार भुजाएं हैं। यह दायीं तरफ की ऊपर वाली भुजा से स्कंद को गोद में पकड़े हुए हैं। नीचे वाली भुजा में कमल का पुष्प है। बायीं तरफ ऊपर वाली भुजा में वरदमुद्रा में हैं और नीचे वाली भुजा में कमल पुष्प है।
पहाड़ों पर रहकर सांसारिक जीवों में नवचेतना का निर्माण करने वालीं स्कंदमाता। नवरात्रि में पाँचवें दिन इस देवी की पूजा-अर्चना की जाती है। कहते हैं कि इनकी कृपा से मूढ़ भी ज्ञानी हो जाता है। स्कंद कुमार कार्तिकेय की माता के कारण इन्हें स्कंदमाता नाम से अभिहित किया गया है। इनके विग्रह में भगवान स्कंद बालरूप में इनकी गोद में विराजित हैं। इस देवी की चार भुजाएं हैं।
यह दायीं तरफ की ऊपर वाली भुजा से स्कंद को गोद में पकड़े हुए हैं। नीचे वाली भुजा में कमल का पुष्प है। बायीं तरफ ऊपर वाली भुजा में वरदमुद्रा में हैं और नीचे वाली भुजा में कमल पुष्प है। इनका वर्ण एकदम शुभ्र है। यह कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं। इसीलिए इन्हें पद्मासना भी कहा जाता है। सिंह इनका वाहन है।
शास्त्रों में इसका पुष्कल महत्व बताया गया है। इनकी उपासना से भक्त की सारी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं। भक्त को मोक्ष मिलता है। सूर्यमंडल की अधिष्ठात्री देवी होने के कारण इनका उपासक अलौकिक तेज और कांतिमय हो जाता है। अतः मन को एकाग्र रखकर और पवित्र रखकर इस देवी की आराधना करने वाले साधक या भक्त को भवसागर पार करने में कठिनाई नहीं आती है।
उनकी पूजा से मोक्ष का
मार्ग सुलभ होता है। यह देवी विद्वानों और सेवकों को पैदा करने वाली शक्ति है।
यानी चेतना का निर्माण करने वालीं। कहते हैं कालिदास द्वारा रचित रघुवंशम महाकाव्य
और मेघदूत रचनाएं स्कंदमाता की कृपा से ही संभव हुईं।
सिंहसनगता नित्यं
पद्माश्रितकरद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी
स्कंदमाता यशस्विनी॥
माँ दुर्गा के छठे स्वरूप
का नाम कात्यायनी है। उस दिन साधक का मन 'आज्ञा' चक्र में स्थित होता है। योगसाधना में इस आज्ञा चक्र का
अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है।
नवरात्रि में छठे दिन मां कात्यायनी की पूजा की जाती है।
इनकी उपासना और आराधना से
भक्तों को बड़ी आसानी से अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष चारों फलों की प्राप्ति होती है। उसके रोग,
शोक, संताप और भय नष्ट हो जाते
हैं। जन्मों के समस्त पाप भी नष्ट हो जाते हैं।
कात्य गोत्र में
विश्वप्रसिद्ध महर्षि कात्यायन ने भगवती पराम्बा की उपासना की। कठिन तपस्या की।
उनकी इच्छा थी कि उन्हें पुत्री प्राप्त हो। मां भगवती ने उनके घर पुत्री के रूप
में जन्म लिया। इसलिए यह देवी कात्यायनी कहलाईं।
इनका गुण शोधकार्य है। इसीलिए इस वैज्ञानिक युग
में कात्यायनी का महत्व सर्वाधिक हो जाता है। इनकी कृपा से ही सारे कार्य पूरे जो
जाते हैं। यह वैद्यनाथ नामक स्थान पर प्रकट होकर पूजी गईं।
मां कात्यायनी अमोघ
फलदायिनी हैं। भगवान कृष्ण को पति रूप में पाने के लिए ब्रज की गोपियों ने इन्हीं
की पूजा की थी। यह पूजा कालिंदी यमुना के तट पर की गई थी।
इसीलिए यह ब्रजमंडल की
अधिष्ठात्री देवी के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इनका स्वरूप अत्यंत भव्य और दिव्य
है। यह स्वर्ण के समान चमकीली हैं और भास्वर हैं। इनकी चार भुजाएं हैं। दायीं तरफ
का ऊपर वाला हाथ अभयमुद्रा में है तथा नीचे वाला हाथ वर मुद्रा में। मां के बाँयी
तरफ के ऊपर वाले हाथ में तलवार है व नीचे वाले हाथ में कमल का फूल सुशोभित है।
इनका वाहन भी सिंह है।
इनकी उपासना और आराधना से
भक्तों को बड़ी आसानी से अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष चारों फलों की प्राप्ति होती है। उसके रोग,
शोक, संताप और भय नष्ट हो जाते
हैं। जन्मों के समस्त पाप भी नष्ट हो जाते हैं। इसलिए कहा जाता है कि इस देवी की
उपासना करने से परम पद की प्राप्ति होती है।
चंद्रहासोज्ज्वलकरा
शार्दूलवरवाहना।
कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी
दानवघातिनी॥
माँ दुर्गाजी की सातवीं शक्ति
कालरात्रि के नाम से जानी जाती हैं। दुर्गापूजा के सातवें दिन माँ कालरात्रि की
उपासना का विधान है। इस दिन साधक का मन 'सहस्रार' चक्र में स्थित रहता है। इसके लिए ब्रह्मांड की समस्त
सिद्धियों का द्वार खुलने लगता है।कहा जाता है कि कालरात्रि
की उपासना करने से ब्रह्मांड की सारी सिद्धियों के दरवाजे खुलने लगते हैं और तमाम
असुरी शक्तियां उनके नाम के उच्चारण से ही भयभीत होकर दूर भागने लगती हैं।
नाम से अभिव्यक्त होता है
कि मां दुर्गा की यह सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती है अर्थात जिनके
शरीर का रंग घने अंधकार की तरह एकदम काला है। नाम से ही जाहिर है कि इनका रूप
भयानक है। सिर के बाल बिखरे हुए हैं और गले में विद्युत की तरह चमकने वाली माला
है। अंधकारमय स्थितियों का विनाश करने वाली शक्ति हैं कालरात्रि। काल से भी रक्षा
करने वाली यह शक्ति है।
इस देवी के तीन नेत्र हैं।
यह तीनों ही नेत्र ब्रह्मांड के समान गोल हैं। इनकी सांसों से अग्नि निकलती रहती
है। यह गर्दभ की सवारी करती हैं। ऊपर उठे हुए दाहिने हाथ की वर मुद्रा भक्तों को
वर देती है। दाहिनी ही तरफ का नीचे वाला हाथ अभय मुद्रा में है। यानी भक्तों हमेशा
निडर, निर्भय रहो।
बायीं तरफ के ऊपर वाले हाथ
में लोहे का कांटा तथा नीचे वाले हाथ में खड्ग है। इनका रूप भले ही भयंकर हो लेकिन
यह सदैव शुभ फल देने वाली मां हैं। इसीलिए यह शुभंकरी कहलाईं। अर्थात इनसे भक्तों
को किसी भी प्रकार से भयभीत या आतंकित होने की कतई आवश्यकता नहीं। उनके
साक्षात्कार से भक्त पुण्य का भागी बनता है।
कालरात्रि की उपासना करने
से ब्रह्मांड की सारी सिद्धियों के दरवाजे खुलने लगते हैं और तमाम असुरी शक्तियां
उनके नाम के उच्चारण से ही भयभीत होकर दूर भागने लगती हैं। इसलिए दानव, दैत्य, राक्षस और भूत-प्रेत उनके स्मरण
से ही भाग जाते हैं। यह ग्रह बाधाओं को भी दूर करती हैं और अग्नि, जल, जंतु, शत्रु और रात्रि भय दूर हो जाते हैं। इनकी कृपा से भक्त हर
तरह के भय से मुक्त हो जाता है।
एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना
खरास्थिता।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी
तैलाभ्यक्तशरीरिणी॥
वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा।
वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा
कालरात्रिर्भयंकरी॥
माँ दुर्गाजी की आठवीं
शक्ति का नाम महागौरी है। दुर्गापूजा के आठवें दिन महागौरी की उपासना का विधान है।
नवरात्रि में आठवें दिन महागौरी शक्ति की पूजा की जाती है। नाम से प्रकट है कि
इनका रूप पूर्णतः गौर वर्ण है। इनकी उपमा शंख, चंद्र और कुंद के फूल से दी गई है। अष्टवर्षा भवेद् गौरी यानी इनकी आयु आठ साल
की मानी गई है। इनके सभी आभूषण और वस्त्र सफेद हैं। इसीलिए उन्हें श्वेताम्बरधरा
कहा गया है। इनकि चार भुजाएं हैं और वाहन वृषभ है इसीलिए वृषारूढ़ा भी कहा गया है
इनको।
इनके ऊपर वाला दाहिना हाथ
अभय मुद्रा है तथा नीचे वाला हाथ त्रिशूल धारण किया हुआ है। ऊपर वाले बांए हाथ में
डमरू धारण कर रखा है और नीचे वाले हाथ में वर मुद्रा है। इनकी पूरी मुद्रा बहुत
शांत है।
पति रूप में शिव को प्राप्त
करने के लिए महागौरी ने कठोर तपस्या की थी। इसी कारण से इनका शरीर काला पड़ गया
लेकिन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने इनके शरीर को गंगा के पवित्र जल से
धोकर कांतिमय बना दिया। उनका रूप गौर वर्ण का हो गया। इसीलिए यह महागौरी कहलाईं।
यह अमोघ फलदायिनी हैं और
इनकी पूजा से भक्तों के तमाम कल्मष धुल जाते हैं। पूर्वसंचित पाप भी नष्ट हो जाते
हैं। महागौरी का पूजन-अर्चन, उपासना-आराधना कल्याणकारी
है। इनकी कृपा से अलौकिक सिद्धियां भी प्राप्त होती हैं।
एक और मान्यता के अनुसार एक
भूखा सिंह भोजन की तलाश में वहां पहुंचा जहां देवी ऊमा तपस्या कर रही होती है।
देवी को देखकर सिंह की भूख बढ़ गई, लेकिन वह देवी के तपस्या से
उठने का प्रतीक्षा करते हुए वहीं बैठ गया। इस प्रतीक्षा में वह काफी कमज़ोर हो
गया। देवी जब तप से उठी तो सिंह की दशा देखकर उन्हें उस पर बहुत दया आ गई। उन्होने
द्याभाव और प्रसन्न्ता से उसे भी अपना वाहन बना लिया क्योंकि वह उनकी तपस्या पूरी
होने के प्रतीक्षा में स्वंय भी तप कर बैठा।
कहते है जो स्त्री मां की
पूजा भक्ति भाव सहित करती हैं उनके सुहाग की रक्षा देवी स्वंय करती हैं।
श्वेते वृषे समारूढ़ा
श्वेताम्बरधरा शुचिः।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा॥
अन्य नाम: इन्हें
अन्नपूर्णा, ऐश्वर्य प्रदायिनी, चैतन्यमयी भी कहा जाता है।
माँ दुर्गा की नौवीं शक्ति
का नाम सिद्धिदात्री हैं। ये सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली हैं।[8]
नवरात्र के नौवें दिन इनकी उपासना की जाती है।
मान्यता है कि इस दिन शास्त्रीय विधि-विधान और
पूर्ण निष्ठा के साथ साधना करने वाले साधक को सभी सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती
है। इस देवी के दाहिनी तरफ नीचे वाले हाथ में चक्र, ऊपर वाले हाथ में गदा तथा बायीं तरफ के नीचे वाले हाथ में शंख और ऊपर वाले हाथ
में कमल का पुष्प है।
इनका वाहन सिंह है और यह कमल पुष्प पर भी आसीन
होती हैं। नवरात्र में यह अंतिम देवी हैं। हिमाचल के नंदापर्वत पर इनका प्रसिद्ध
तीर्थ है।
माना जाता है कि इनकी पूजा
करने से बाकी देवीयों कि उपासना भी स्वंय हो जाती है।
यह देवी सर्व सिद्धियां
प्रदान करने वाली देवी हैं। उपासक या भक्त पर इनकी कृपा से कठिन से कठिन कार्य भी
आसानी से संभव हो जाते हैं। अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व आठ सिद्धियां होती हैं। इसलिए इस देवी की
सच्चे मन से विधि विधान से उपासना-आराधना करने से यह सभी सिद्धियां प्राप्त की जा
सकती हैं।
कहते हैं भगवान शिव ने भी
इस देवी की कृपा से यह तमाम सिद्धियां प्राप्त की थीं। इस देवी की कृपा से ही शिव
जी का आधा शरीर देवी का हुआ था। इसी कारण शिव अर्द्धनारीश्वर नाम से प्रसिद्ध हुए।
इस देवी के दाहिनी तरफ नीचे
वाले हाथ में चक्र, ऊपर वाले हाथ में गदा तथा
बायीं तरफ के नीचे वाले हाथ में शंख और ऊपर वाले हाथ में कमल का पुष्प है।
विधि-विधान से नौंवे दिन इस
देवी की उपासना करने से सिद्धियां प्राप्त होती हैं। इनकी साधना करने से लौकिक और
परलौकिक सभी प्रकार की कामनाओं की पूर्ति हो जाती है।
मां के चरणों में शरणागत होकर हमें निरंतर
नियमनिष्ठ रहकर उपासना करनी चाहिए। इस देवी का स्मरण, ध्यान, पूजन हमें इस संसार की असारता का बोध कराते हैं
और अमृत पद की ओर ले जाते हैं।
सिद्ध गन्धर्व
यक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि।
सेव्यमाना सदा भूयाात्
सिद्धिदा सिद्धिदायिनी।।
नव दुर्गा महत्व !!!!!!!!
2. ब्रह्मचारिणी- जड़ में
ज्ञान का प्रस्फुरण, चेतना का संचार भगवती के
दूसरे रूप का प्रादुर्भाव है। जड़ चेतन का संयोग है। प्रत्येक अंकुरण में इसे देख
सकते हैं
3. चंद्रघंटा-भगवती का तीसरा
रूप है यहाँ जीव में वाणी प्रकट होती है जिसकी अंतिम परिणिति मनुष्य में बैखरी
(वाणी) है।
4. कुष्मांडा- अर्थात अंडे को
धारण करने वाली; स्त्री ओर पुरुष की
गर्भधारण, गर्भाधान शक्ति है जो भगवती की ही शक्ति है,
जिसे समस्त प्राणीमात्र में देखा जा सकता है।
5. स्कन्दमाता- पुत्रवती
माता-पिता का स्वरूप है अथवा प्रत्येक पुत्रवान माता-पिता स्कन्द माता के रूप हैं।
6. कात्यायनी- के रूप में वही
भगवती कन्या की माता-पिता हैं। यह देवी का छठा स्वरुप है।
7. कालरात्रि- देवी भगवती का
सातवां रूप है जिससे सब जड़ चेतन मृत्यु को प्राप्त होते हैं ओर मृत्यु के समय सब
प्राणियों को इस स्वरूप का अनुभव होता है।भगवती के इन सात स्वरूपों के दर्शन सबको
प्रत्यक्ष सुलभ होते हैं परन्तु आठवां ओर नौवां स्वरूप सुलभ नहीं है।
8. भगवती का आठवां स्वरूप
महागौरी गौर वर्ण का है।
9. भगवती का नौंवा रूप
सिद्धिदात्री है। यह ज्ञान अथवा बोध का प्रतीक है, जिसे जन्म जन्मांतर की साधना से पाया जा सकता है। इसे प्राप्त कर साधक परम
सिद्ध हो जाता है। इसलिए इसे सिद्धिदात्री कहा है।
नवदुर्गा आयुर्वेद ,एक मत यह कहता है कि ब्रह्माजी के दुर्गा कवच में वर्णित नवदुर्गा नौ विशिष्ट औषधियों में हैं।
(1) प्रथम शैलपुत्री (हरड़) : -
कई प्रकार के रोगों में काम आने वाली औषधि हरड़ हिमावती है जो देवी शैलपुत्री का
ही एक रूप है। यह आयुर्वेद की प्रधान औषधि है। यह पथया, हरीतिका, अमृता, हेमवती, कायस्थ, चेतकी और श्रेयसी सात प्रकार की होती है।
(2) ब्रह्मचारिणी (ब्राह्मी) :
- ब्राह्मी आयु व याददाश्त बढ़ाकर,
रक्तविकारों को दूर कर स्वर को मधुर बनाती है। इसलिए इसे
सरस्वती भी कहा जाता है।
(3) चंद्रघंटा (चंदुसूर) :
- यह एक ऎसा पौधा है जो धनिए के समान है।
यह औषधि मोटापा दूर करने में लाभप्रद है इसलिए इसे चर्महंती भी कहते हैं।
(4) कूष्मांडा (पेठा) : - 👌 इस औषधि से पेठा मिठाई बनती है। इसलिए इस रूप को पेठा कहते हैं। इसे कुम्हड़ा
भी कहते हैं जो रक्त विकार दूर कर पेट को साफ करने में सहायक है। मानसिक रोगों में
यह अमृत समान है।
(5) स्कंदमाता (अलसी) : - देवी
स्कंदमाता औषधि के रूप में अलसी में विद्यमान हैं। यह वात, पित्त व कफ रोगों की नाशक औषधि है।
(6) कात्यायनी (मोइया) : - देवी
कात्यायनी को आयुर्वेद में कई नामों से जाना जाता है जैसे अम्बा, अम्बालिका व अम्बिका। इसके अलावा इन्हें मोइया भी कहते हैं।
यह औषधि कफ, पित्त व गले के रोगों का
नाश करती है।
(7) कालरात्रि (नागदौन) :- यह देवी नागदौन औषधि के रूप में जानी जाती हैं।
यह सभी प्रकार के रोगों में लाभकारी और मन एवं मस्तिष्क के विकारों को दूर करने
वाली औषधि है।
(8) महागौरी (तुलसी) : - तुलसी
सात प्रकार की होती है सफेद तुलसी, काली तुलसी, मरूता, दवना, कुढेरक, अर्जक और षटपत्र। ये रक्त
को साफ कर ह्वदय रोगों का नाश करती है।
(9) सिद्धिदात्री (शतावरी)
: - दुर्गा का नौवां रूप सिद्धिदात्री है
जिसे नारायणी शतावरी कहते हैं। यह बल, बुद्धि एवं विवेक के
लिए उपयोगी है।
माता पार्वती
हे पर्वतराज नन्दिनी तेरी
जय जय जय, जय जय जय
पार्वती, उमा या गौरी मातृत्व, शक्ति, प्रेम, सौंदर्य, सद्भाव, विवाह, संतान की देवी हैं। देवी
पार्वती कई अन्य नामों से जानी जाती है, वह सर्वोच्च हिंदू
देवी परमेश्वरी आदि पराशक्ति (शिवशक्ति) की पूर्ण साकार रूप या अवतार है और शाक्त
सम्प्रदाय या हिन्दू धर्म मे एक उच्चकोटि या प्रमुख देवी है और उनके कई गुण और पहलू
हैं। उनके प्रत्येक पहलुओं को एक अलग नाम के साथ व्यक्त किया जाता है, जिससे उनके भारत की क्षेत्रीय हिंदू कहानियों में 10000 से अधिक नाम मिलते हैं। लक्ष्मी और सरस्वती के साथ,
वह हिंदू देवी-देवताओं (त्रिदेवी) की त्रिमूर्ति का निर्माण
करती हैं। माता पार्वती हिंदू भगवान शिव की पत्नी हैं । वह पर्वत राजा हिमवान और
रानी मैना की बेटी हैं। पार्वती हिंदू देवताओं गणेश, कार्तिकेय, अशोकसुंदरी की मां हैं।
पुराणों में उन्हें श्री विष्णु की बहन कहाँ गया है। शिव विश्व के चेतना है तो
पार्वती विश्व की ऊर्जा हैं।
अन्य नाम - शक्ति, सती, शिवानी, शाकम्भरी , शताक्षी, दुर्गा
संबंध- देवी
निवासस्थान - जब अविवाहित
हिमालय, अन्यथा कैलाश
मंत्र - ॥ॐ ऐं ह्रीं क्लीं
चामुण्डयै विच्चै॥
अस्त्र - त्रिशूल, पास, अंकुशा, शंख, चक्रम, क्रॉसबो, कमल
जीवनसाथी - शिव
संतान - कार्तिकेय, गणेश, अशोक सुंदरी
सवारी - वृषभ,सिंह,शेर
शिव पार्वती
ललिता सहस्रनाम में पार्वती
(ललिता के रूप में) के 1,000 नामों की सूची है। पार्वती के सबसे प्रसिद्ध दो में से एक उमा और
अपर्णा हैं। स्कन्द पुराण के अनुसार,देवी पार्वती के
द्वारा दुर्गमसुर को मारने के बाद देवी पार्वती का नाम दुर्गा पड़ा। उमा नाम का
उपयोग सती (शिव की पहली पत्नी, जो पार्वती के रूप में
पुनर्जन्म हुआ है) के लिए किया जाता है, रामायण में देवी
पार्वती को उमा नाम से भी संबोधित किया गया है,देवी पार्वती को अपर्णा के रूप में संदर्भित किया जाता है ('जो सबका भरण पोषण करती है')। देवी पार्वती अंबिका ('प्रिय मां'), शक्ति ('शक्ति'), माताजी ('पूज्य माता'), माहेश्वरी ('महान देवी'), दुर्गा (अजेय), भैरवी ('क्रूर'), भवानी ('उर्वरता') आदि नामों से जानी जाती
हैं। पार्वती प्रेम और भक्ति की देवी हैं, या कामाक्षी;
प्रजनन, बहुतायत और भोजन / पोषण की
देवी अन्नपूर्णा कहा गया है । देवी पार्वती एक क्रूर महाकाली भी है जो तलवार उठाती
है, गंभीर सिर की माला पहनती है, और अपने भक्तों की रक्षा करती है और दुनिया और प्राणियों की
दुर्दशा करने वाली सभी बुराईयों को नष्ट करती है। देवी पार्वती को स्वर्ण, गौरी, काली या श्यामा के रूप में
संबोधित किया जाता है, इनका एक शांत रूप गौरी है,
तो दूसरा भयंकर रूप काली है।
इतिहास में पार्वती
पर्वती शब्द वैदिक साहित्य
में प्रयोग नही किया जाता था। इसके बजाय, अंबिका, रुद्राणी का प्रयोग किया गया है। उपनिषद काल (वेदांत काल)
के दूसरे प्रमुख उपनिषद केनोपनिषद में देवी पार्वती का जिक्र मिलता है,वहाँ उन्हें हेमवती उमा नाम से जाना जाता है तथा वहां पर
उन्हें ब्रह्मविद्या भी जानने को मिलता है और इन्हें दुनिया की माँ की तरह दिखाया
गया है। यहां देवी पार्वती को सर्वोच्च परब्रह्म की शक्ति, या आवश्यक शक्ति के रूप में प्रकट किया गया है। उनकी प्राथमिक भूमिका एक
मध्यस्थ के रूप में है, जो अग्नि, वायु और वरुण को ब्रह्म ज्ञान देती है, जो राक्षसों के एक समूह की हालिया हार के बारे में घमंड कर
रहे थे। देवी का सती-पार्वती नाम महाकाव्य काल (400 ईसा पूर्व -400 ईस्वी) में प्रकट होता है,जहाँ वह शिव की पत्नी है। वेबर का सुझाव है कि जैसे शिव
विभिन्न वैदिक देवताओं रुद्र और अग्नि का संयोजन है, वैसे ही पुराण पाठ में पार्वती रुद्र की पत्नियों की एक संयोजन है। दूसरे
शब्दों में, पार्वती की प्रतीकात्मकता
और विशेषताएं समय के साथ उमा, हेमावती, अंबिका,गौरी को एक पहलू में और
अधिक क्रूर, विनाशकारी काली, नीरति के रूप में विकसित हुईं।
शारीरिक रूप और प्रतीक
देवी पार्वती को आमतौर पर
निष्पक्ष, सुंदर और परोपकारी के रूप में दर्शाया जाता है।
वह आमतौर पर एक लाल पोशाक (अक्सर एक साड़ी) पहनती है ।और क्रोध अवस्था मे काली के
रूप में भी दर्शाया गया है। जब शिव के साथ चित्रित किया जाता है, तो वह आमतौर पर दो भुजाओं के साथ दिखाई देती है, लेकिन जब वह अकेली हो तो उसे चार हाथों में चित्रित किया जा
सकता है। इन हाथों में त्रिशूल, दर्पण, माला, फूल (जैसे कमल) हो सकते
हैं। प्राचीन मंदिरों में, पार्वती की मूर्ति अक्सर एक
बछड़े या गाय के पास चित्रित होती है - भोजन का एक स्रोत। उनकी मूर्ति के लिए
कांस्य मुख्य धातु रहा है, जबकि पत्थर आम सामग्री रहा
है।
देवी पार्वती के अन्य रूप संपादित करें
देवी पार्वती दुर्गा के रूप
कई हिंदू कहानियां पार्वती
के वैकल्पिक पहलुओं को प्रस्तुत करती हैं, जैसे कि क्रूर,
हिंसक पहलू। उनका रूप एक क्रोधित, रक्त-प्यासे, उलझे हुए बालों वाली देवी,
खुले मुंह वाली और एक टेढ़ी जीभ के साथ किया गया है। इस
देवी की पहचान आमतौर पर भयानक महाकाली (समय) के रूप में की जाती है। लिंग पुराण के
अनुसार, पार्वती ने शिव के अनुरोध पर एक असुर (दानव)
दारुक को नष्ट करने के लिए अपने नेत्र से काली को प्रकट किया। दानव को नष्ट करने
के बाद भी, काली के प्रकोप को नियंत्रित नहीं किया जा सका।
काली के क्रोध को कम करने के लिए, शिव उनके पैरों के नीचे जा
कर सो गए,जब काली का पैर शिव के छाती पर पड़ा तो काली का
जीभ शर्म से बाहर निकल आया, और काली शांत हो गई। स्कंद
पुराण में, पार्वती एक योद्धा-देवी का रूप धारण करती हैं और
दुर्ग नामक एक राक्षस को हरा देती हैं जो भैंस का रूप धारण करता है। इस पहलू में,
उन्हें दुर्गा के नाम से जाना जाता है।
देवी भागवत पुराण के अनुसार,
पार्वती अन्य सभी देवियो की वंशावली हैं। इन्हें कई रूपों
और नामों के साथ पूजा जाता है। देवी पार्वती का रूप या अवतार उसके भाव पर निर्भर
करता है। उदाहरण के लिए:
दुर्गा पार्वती का एक भयानक
रूप है, और कुछ ग्रंथों में लिखा है कि पार्वती ने
दुर्गा के रूप में राक्षस दुर्गमासुर का वध किया था। नवदुर्गा नामक नौ रूपों में
दुर्गा की पूजा की जाती है। नौ पहलुओं में से प्रत्येक में पार्वती के जीवन के एक
बिंदु को दर्शाया गया है। वह दुर्गा के रूप में भी राक्षस महिषासुर, शुंभ और निशुंभ के वध के लिए भी पूजी जाती हैं। वह बंगाली
राज्यों में अष्टभुजा दुर्गा, और तेलुगु राज्यों में
कनकदुर्गा के रूप में पूजी जाती हैं।
महाकाली पार्वती का सबसे
क्रूर रूप है,यह समय और परिवर्तन की देवी
के रूप में, साहस और अंतिम सांसारिक
प्रलय का प्रतिनिधित्व करती है। काली, दस महाविद्याओं में
से एक देवी हैं,जो नवदुर्गा की तरह हैं जो
पार्वती की अवतार हैं। काली को दक्षिण में भद्रकाली और उत्तर में दक्षिणा काली के
रूप में पूजा जाता है। पूरे भारत में उन्हें महाकाली के रूप में पूजा जाता है। वह
त्रिदेवियों में से एक देवी है और त्रिदेवी का स्रोत भी है। वह परब्रह्म की पूर्ण
शक्ति है, क्योंकि वह सभी प्राण ऊर्जाओं की माता है। वह
आदिशक्ति का सक्रिय रूप है। वह तामस गुण का प्रतिनिधित्व करती है, और वह तीनो गुणों से परे है, महाकाली शून्य अंधकार का भौतिक रूप है जिसमें ब्रह्मांड मौजूद है, और अंत में महाकाली सबकुछ अपने भीतर घोल लेती है। वह
त्रिशक्ति की "क्रिया शक्ति" हैं, और अन्य शक्ति का स्रोत है। वह कुंडलिनी शक्ति है जो हर मौजूदा जीवन रूप के
मूल में गहराई से समाया रहता है।
देवी पार्वती का उपनिषद में वर्णन
108 उपनिषदों में से दूसरे
सबसे प्रमुख उपनिषद "केनोपनिषद" के तृतिया और चतुर्थ खण्ड में देवी
पार्वती का वर्णन है,यहाँ पर इन्हें हैमवती उमा
नाम से पुकारा गया है। जहाँ पर वो ब्रह्मविद्या, परब्रह्म की शक्ति और सांसारिक माँ के रूप में दिखाई गई हैं और इनको परब्रह्म
और देवो के बीच मे मध्यास्था करते हुए दिखया गया है।
▪️कथा
परब्रह्म ने देवताओं को
अपने द्वारा विजय दिलवाई । परब्रह्म की उस विजय से देवताओं को अहंकार हो गया । वे
समझने लगे कि यह हमारी ही विजय है । हमारी ही महिमा है । यह जानकर परब्रह्म
देवताओं के सामने यक्ष के रूप में प्रकट हुए । और वे (देवता) परब्रह्म को ना जान
सके कि ‘यह यक्ष कौन है’? तब उन्होंने (देवों ने) अग्नि से कहा कि, ‘हे जातवेद ! इसे जानो कि यह यक्ष कौन है’ । अग्नि ने कहा – ‘बहुत अच्छा’। अग्नि यक्ष के समीप गया । परब्रह्म ने अग्नि से पूछा –
‘तू कौन है’ ? अग्नि ने कहा –
‘मैं अग्नि हूँ, मैं ही जातवेदा हूँ’। ऐसे तुझ अग्नि में क्या सामर्थ्य है ?’ अग्नि ने कहा – ‘इस पृथ्वी में जो
कुछ भी है उसे जलाकर भस्म कर सकता हूँ’। तब यक्ष ने एक
तिनका रखकर कहा कि ‘इसे जला’ । अपनी सारी शक्ति लगाकर भी उस तिनके को जलाने में समर्थ न
होकर वह लौट गया । वह उस यक्ष को जानने में समर्थ न हो सका ।
तब उन्होंने ( देवताओं ने)
वायु से कहा – ‘हे वायु ! इसे जानो कि यह
यक्ष कौन है’ । वायु ने कहा – ‘बहुत अच्छा’ । वायु यक्ष के समीप गया । उसने
वायु से पूछा – ‘तू कौन है’ । वायु ने कहा – ‘मैं वायु हूँ,
मैं ही मातरिश्वा हूँ’ । ‘ऐसे तुझ वायु में क्या सामर्थ्य है’ ? वायु ने कहा – ‘इस पृथ्वी में जो
कुछ भी है उसे ग्रहण कर सकता हूँ’। तब यक्ष ने एक तिनका रखकर
कहा कि ‘इसे ग्रहण कर’ । अपनी सारी शक्ति लगाकर भी उस तिनके को ग्रहण करने में समर्थ न होकर वह लौट
गया । वह उस यक्ष को जानने में समर्थ न हो सका ।
तब उन्होंने (देवताओं ने)
इन्द्र से कहा – ‘हे मघवन् ! इसे जानो कि यह
यक्ष कौन है’ । इन्द्र ने कहा – ‘बहुत अच्छा’ । इंद्र खुद यक्ष के समीप
गया । उसके सामने यक्ष (परब्रह्म) अन्तर्धान हो गए । वह इन्द्र उसी आकाश में अतिशय
शोभायुक्त देवी हेमवती उमा (पार्वती) को देखा और उनके पास आ पहुँचा, और उनसे पूछा कि ‘यह यक्ष कौन था’
॥ देवी पार्वती ने स्पष्ट कहा की– वह यक्ष ‘ब्रह्म है’ । ‘उस ब्रह्म की ही विजय में
तुम इस प्रकार महिमान्वित हुए हो’ । तब से ही इन्द्र ने यह
जाना कि ‘यह ब्रह्म है’ । इस प्रकार ये देव – जो कि अग्नि, वायु और इन्द्र हैं, अन्य देवों से श्रेष्ठ हुए । उन्होंने ही इस ब्रह्म का समीपस्थ स्पर्श किया और
उन्होंने ही सबसे पहले देवी के द्वारा जाना कि ‘यह ब्रह्म है’। इसी प्रकार इन्द्र अन्य
सभी देवों से अति श्रेष्ठ हुआ । उसने ही इस ब्रह्म का सबसे समीपस्थ स्पर्श किया ।
उसने ही सबसे पहले जाना कि ‘यह ब्रह्म है’||
इसके अलावा और भी कई
उपनिषदों में देवी पार्वती का वर्णन मिलता है जहाँ देवी कुछ अलग नाम से भी जानी
जाती है।
पूर्वजन्म
पार्वती पूर्वजन्म में दक्ष
प्रजापति की पुत्री सती थीं तथा उस जन्म में भी वे भगवान शंकर की ही पत्नी थीं।
सती ने अपने पिता दक्ष प्रजापति के यज्ञ में, अपने पति का अपमान न सह पाने के कारण, स्वयं को योगाग्नि
में भस्म कर दिया था। तथा हिमनरेश हिमावन के घर पार्वती बन कर अवतरित हुईं |
तपस्या
पार्वती को भगवान शिव को
पति के रूप में प्राप्त करने के लिये वन में तपस्या करने चली गईं। अनेक वर्षों तक
कठोर उपवास करके घोर तपस्या की तत्पश्चात वैरागी भगवान शिव ने उनसे विवाह करना
स्वीकार किया।
पार्वती की परीक्षा
भगवान शंकर ने पार्वती के
अपने प्रति अनुराग की परीक्षा लेने के लिये सप्तऋषियों को पार्वती के पास भेजा।
उन्होंने पार्वती के पास जाकर उसे यह समझाने के अनेक प्रयत्न किये कि शिव जी औघड़,
अमंगल वेषधारी और जटाधारी हैं और वे तुम्हारे लिये उपयुक्त
वर नहीं हैं। उनके साथ विवाह करके तुम्हें सुख की प्राप्ति नहीं होगी। तुम उनका
ध्यान छोड़ दो। किन्तु पार्वती अपने विचारों में दृढ़ रहीं। उनकी दृढ़ता को देखकर
सप्तऋषि अत्यन्त प्रसन्न हुये और उन्हें सफल मनोरथ होने का आशीर्वाद देकर शिव जी
के पास वापस आ गये। सप्तऋषियों से पार्वती के अपने प्रति दृढ़ प्रेम का वृत्तान्त
सुन कर भगवान शंकर अत्यन्त प्रसन्न हुये।
सप्तऋषियों ने शिव जी और पार्वती के विवाह का लग्न मुहूर्त आदि निश्चित कर दिया।
शिव जी के साथ विवाह
निश्चित दिन शिव जी बारात
ले कर हिमालय के घर आये। वे बैल पर सवार थे। उनके एक हाथ में त्रिशूल और एक हाथ
में डमरू था। उनकी बारात में समस्त देवताओं के साथ उनके गण भूत, प्रेत, पिशाच आदि भी थे। सारे
बाराती नाच गा रहे थे। सारे संसार को प्रसन्न करने वाली भगवान शिव की बारात अत्यंत
मन मोहक थी, ब्रह्मा जी की उपस्थिति में
विवाह समारोह शुरू हो गया। इस तरह शुभ घड़ी और शुभ मुहूर्त में शिव जी और पार्वती
का विवाह हो गया और पार्वती को साथ ले कर शिव जी अपने धाम कैलाश पर्वत पर सुख
पूर्वक रहने लगे।
देवी पार्वती को समर्पित त्यौहार उत्सव
▪️हरतालिका तीज
हरतालिका तीज को हरतालिका
व्रत या तीजा भी कहते हैं। यह व्रत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को हस्त
नक्षत्र के दिन होता है। इस दिन कुमारी और सौभाग्यवती स्त्रियाँ गौरी-शंकर की पूजा
करती हैं। विशेषकर उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल और बिहार में मनाया जाने वाला यह
त्योहार करवाचौथ से भी कठिन माना जाता है क्योंकि जहां करवाचौथ में चांद देखने के
बाद व्रत तोड़ दिया जाता है वहीं इस व्रत में पूरे दिन निर्जल व्रत किया जाता है
और अगले दिन पूजन के पश्चात ही व्रत तोड़ा जाता है। सौभाग्यवती स्त्रियां अपने
सुहाग को अखण्ड बनाए रखने और अविवाहित युवतियां मन मुताबिक वर पाने के लिए
हरितालिका तीज का व्रत करती हैं। इस दिन विशेष रूप से गौरी−शंकर का ही पूजन किया
जाता है। इस दिन व्रत करने वाली स्त्रियां सूर्योदय से पूर्व ही उठ जाती हैं और
नहा धोकर पूरा श्रृंगार करती हैं। पूजन के लिए केले के पत्तों से मंडप बनाकर
गौरी−शंकर की प्रतिमा स्थापित की जाती है। इसके साथ पार्वती जी को सुहाग का सारा
सामान चढ़ाया जाता है। रात में भजन, कीर्तन करते हुए
जागरण कर तीन बार आरती की जाती है और शिव पार्वती विवाह की कथा सुनी जाती है।
नवरात्रि
पार्वती की श्रद्धा में एक
और लोकप्रिय त्योहार नवरात्रि है, जिसमें नौ दिनों तक उनकी
सभी रूपो की पूजा की जाती है। पूर्वी भारत में विशेष रूप से बंगाल, ओडिशा, झारखंड और असम के साथ-साथ
भारत के कई अन्य हिस्सों जैसे कि गुजरात में उनके नौ रूप यानी शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री की पूजा की
जाती है।
और भी कई स्थानीय त्यौहार
है जो देवी पार्वती को समर्पित है।
▪️देवी पार्वती भारतीय उपमहाद्वीप के बाहर
उमा या दुर्गा की मूर्ति के
रूप में देवी पार्वती दक्षिण पूर्व एशिया में पाई गई हैं। 8वीं शताब्दी की पार्वती कम्बोडिया और 14 वीं शताब्दी की पार्वती जावा द्वीप ,इंडोनेशिया
देवी पार्वती की प्रतिमा या
मूर्तिकला, दक्षिण एशिया के मंदिरों और साहित्य में पाई गई
हैं। उदाहरण के लिए, कम्बोडिया में खमेर के
प्रारंभिक शैव शिलालेख, जो पांचवीं शताब्दी ईस्वी
के आस पास के समय की है, उनमें पार्वती (उमा) और शिव
का उल्लेख है। कई प्राचीन और मध्यकालीन
युग के कंबोडियन मंदिर, पत्थर की कला और नदी तल की
नक्काशी पाई गई है जो पार्वती और शिव को समर्पित हैं। बोइसेलियर ने वियतनाम में
उमा के साक्ष्य की खोज चम्पा युग के मंदिरों में की है। शिव के साथ पार्वती को उमा के रूप में समर्पित
दर्जनों प्राचीन मंदिर इंडोनेशिया और मलेशिया के द्वीपों में पाए गए हैं। दुर्गा
के रूप में पार्वती का अवतार दक्षिण-पूर्व एशिया में भी पाया गया है। जावा (द्वीप)
में कई मंदिर शिव-पार्वती को समर्पित हैं जो पहली सहस्राब्दी ईस्वी की दूसरी छमाही
से हैं और कुछ बाद की शताब्दियों के। माँ
दुर्गा के चिह्न और पूजा के साक्ष्य 10 वीं से 13 वीं शताब्दी के बीच की मिली है।
माँ श्री ब्रह्मचारिणी (Maa Bramhcharini)
द्वितीय दुर्गा :-
“दधना कर पद्याभ्यांक्षमाला
कमण्डलम।
देवी प्रसीदमयी
ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥“
श्री दुर्गा का द्वितीय रूप
श्री ब्रह्मचारिणी हैं। यहां ब्रह्मचारिणी का तात्पर्य तपश्चारिणी है। इन्होंने
भगवान शंकर को पति रूप से प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। अतः ये
तपश्चारिणी और ब्रह्मचारिणी के नाम से विख्यात हैं। नवरात्रि के द्वितीय दिन इनकी
पूजा औरअर्चना की जाती है।
जो दोनो कर-कमलो मे
अक्षमाला एवं कमंडल धारण करती है। वे सर्वश्रेष्ठ माँ भगवती ब्रह्मचारिणी मुझसे पर
अति प्रसन्न हों। माँ ब्रह्मचारिणी सदैव अपने भक्तो पर कृपादृष्टि रखती है एवं
सम्पूर्ण कष्ट दूर करके अभीष्ट कामनाओ की पूर्ति करती है।
नवरात्री दुर्गा पूजा दूसरे
तिथि – माता ब्रह्मचारिणी की पूजा :
नवरात्र के दूसरे दिन माँ
ब्रह्मचारिणी की पूजा-अर्चना का विधान है. देवी दुर्गा का यह दूसरा रूप भक्तों एवं
सिद्धों को अमोघ फल देने वाला है. देवी ब्रह्मचारिणी की उपासना से तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार, संयम की वृद्धि होती है.
माँ ब्रह्मचारिणी की कृपा से मनुष्य को सर्वत्र सिद्धि और विजय की प्राप्ति होती
है, तथा जीवन की अनेक समस्याओं एवं परेशानियों का
नाश होता है.
★ब्रह्मचारिणी – नवरात्री दूसरा दिन★
देवी ब्रह्मचारिणी का स्वरूप
पूर्ण ज्योर्तिमय है. मां दुर्गा की नौ शक्तियों में से द्वितीय शक्ति देवी
ब्रह्मचारिणी का है. ब्रह्म का अर्थ है तपस्या और चारिणी यानी आचरण करने वाली
अर्थात तप का आचरण करने वाली
मां ब्रह्मचारिणी. यह देवी
शांत और निमग्न होकर तप में लीन हैं. मुख पर कठोर तपस्या के कारण अद्भुत तेज और
कांति का ऐसा अनूठा संगम है जो तीनों लोको को उजागर कर रहा है.
देवी ब्रह्मचारिणी के
दाहिने हाथ में अक्ष माला है और बायें हाथ में कमण्डल होता है. देवी ब्रह्मचारिणी
साक्षात ब्रह्म का स्वरूप हैं अर्थात तपस्या का मूर्तिमान रूप हैं. इस देवी के कई
अन्य नाम हैं जैसे
तपश्चारिणी, अपर्णा और उमा इस दिन साधक का मन ‘स्वाधिष्ठान ’चक्र में स्थित होता है. इस
चक्र में अवस्थित साधक मां ब्रह्मचारिणी जी की कृपा और भक्ति को प्राप्त करता है.
★ब्रह्मचारिणी पूजा विधि★
देवी ब्रह्मचारिणी जी की
पूजा का विधान इस प्रकार है, सर्वप्रथम आपने जिन
देवी-देवताओ एवं गणों व योगिनियों को कलश में आमत्रित किया है उनकी फूल, अक्षत, रोली, चंदन, से पूजा करें उन्हें दूध,
दही, शर्करा, घृत, व मधु से स्नान करायें व
देवी को जो कुछ भी प्रसाद अर्पित कर रहे हैं उसमें से एक अंश इन्हें भी अर्पण
करें. प्रसाद के पश्चात आचमन और फिर पान, सुपारीभेंट कर इनकी
प्रदक्षिणा करें. कलश देवता की पूजा के पश्चात इसी प्रकार नवग्रह, दशदिक्पाल, नगर देवता, ग्राम देवता, की पूजा करें. इनकी
पूजा के पश्चात मॉ ब्रह्मचारिणी की पूजा करें.देवी की पूजा करते समय सबसे पहले
हाथों में एक फूल लेकर प्रार्थना करें “दधाना
करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू. देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा”..इसके पश्चात् देवी को पंचामृत स्नान करायें और फिर भांति
भांति से फूल, अक्षत, कुमकुम, सिन्दुर, अर्पित करें देवी को अरूहूल का फूल (लाल रंग का एकविशेष
फूल) व कमल काफी पसंद है उनकी माला पहनायें. प्रसाद और आचमन के
पश्चात् पान सुपारी भेंट कर
प्रदक्षिणा करें और घी व कपूर मिलाकर देवी की आरती करें. अंत में क्षमा प्रार्थना
करें “आवाहनं न जानामि न जानामि वसर्जनं, पूजां चैव न जानामि क्षमस्व परमेश्वरी..
★ब्रह्मचारिणी की मंत्र :
या देवी सर्वभूतेषु माँ
ब्रह्मचारिणी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै
नमस्तस्यै नमो नम:।।
दधाना कर पद्माभ्याम
अक्षमाला कमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मई
ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।।
★ब्रह्मचारिणी की ध्यान :
वन्दे वांछित
लाभायचन्द्रार्घकृतशेखराम्।
जपमालाकमण्डलु
धराब्रह्मचारिणी शुभाम्॥
गौरवर्णा स्वाधिष्ठानस्थिता
द्वितीय दुर्गा त्रिनेत्राम।
धवल परिधाना ब्रह्मरूपा
पुष्पालंकार भूषिताम्॥
परम वंदना पल्लवराधरां कांत
कपोला पीन।
पयोधराम् कमनीया लावणयं
स्मेरमुखी निम्ननाभि नितम्बनीम्॥
★ब्रह्मचारिणी की स्तोत्र
पाठ :
तपश्चारिणी त्वंहि तापत्रय
निवारणीम्।
ब्रह्मरूपधरा ब्रह्मचारिणी
प्रणमाम्यहम्॥
शंकरप्रिया त्वंहि
भुक्ति-मुक्ति दायिनी।
शान्तिदा ज्ञानदा
ब्रह्मचारिणीप्रणमाम्यहम्॥
★ब्रह्मचारिणी की कवच :
त्रिपुरा में हृदयं पातु
ललाटे पातु शंकरभामिनी।
अर्पण सदापातु नेत्रो,
अर्धरी च कपोलो॥
पंचदशी कण्ठे पातुमध्यदेशे
पातुमहेश्वरी॥
षोडशी सदापातु नाभो गृहो च
पादयो।
अंग प्रत्यंग सतत पातु
ब्रह्मचारिणी।
नवरात्री में दुर्गा
सप्तशती पाठ किया जाता हैं
देवी ब्रह्मचारिणी कथा
माता ब्रह्मचारिणी हिमालय
और मैना की पुत्री हैं. इन्होंने देवर्षि नारद जी के कहने पर भगवान शंकर की ऐसी
कठोर तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने इन्हें मनोवांछित वरदान दिया.
जिसके फलस्वरूप
यह देवी भगवान भोले नाथ की
वामिनी अर्थात पत्नी बनी. जो व्यक्ति अध्यात्म और आत्मिक आनंद की कामना रखते हैं
उन्हें इस देवी की पूजा से सहज यह सब प्राप्त होता है. देवी का दूसरा स्वरूप योग
साधक को साधना के केन्द्र के उस सूक्ष्मतम अंश से साक्षात्कार करा देता है जिसके
पश्चात व्यक्ति की
ऐन्द्रियां अपने नियंत्रण
में रहती और साधक मोक्ष का भागी बनता है. इस देवी की प्रतिमा की पंचोपचार सहित
पूजा करके जो साधक स्वाधिष्ठान चक्र (Swadhisthan Chakra) में मन को स्थापित करता है उसकी साधना सफल हो जाती है और व्यक्ति की कुण्डलनी
शक्ति जागृत हो जाती है. जो व्यक्ति भक्ति भाव एवं श्रद्धादुर्गा पूजा के दूसरे
दिन मॉ ब्रह्मचारिणी की पूजा करते हैं उन्हें सुख, आरोग्य की प्राप्ति होती है और प्रसन्न रहता है, उसे किसी प्रकार का भय नहीं सताता है
नवदुर्गा हिन्दू धर्म में
माता दुर्गा अथवा पार्वती के नौ रूपों को एक साथ कहा जाता है। इन नवों दुर्गा को
पापों के विनाशिनी कहा जाता है, हर देवी के अलग अलग वाहन
हैं, अस्त्र शस्त्र हैं परंतु यह सब एक हैं।
दुर्गा सप्तशती ग्रन्थ के
अंतर्गत देवी कवच स्तोत्र में निम्नांकित श्लोक में नवदुर्गा के नाम क्रमश: दिये
गए हैं--
प्रथमं शैलपुत्री च
द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति
कूष्माण्डेति चतुर्थकम्।।
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं
कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति
महागौरीति चाष्टमम्।।
नवमं सिद्धिदात्री च
नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।
उक्तान्येतानि नामानि
ब्रह्मणैव महात्मना:।।
देवी दुर्गा के नौ रूप होते
हैं, दुर्गाजी पहले स्वरूप में 'शैलपुत्री' के नाम से जानी जाती हैं।
ये ही नवदुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं। पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री रूप में
उत्पन्न होने के कारण इनका नाम 'शैलपुत्री' पड़ा।
नवरात्र पूजन में प्रथम दिवस इन्हीं की पूजा और
उपासना की जाती है। इनका वाहन वृषभ है, इसलिए यह देवी
वृषारूढ़ा के नाम से भी जानी जाती हैं। इस देवी ने दाएं हाथ में त्रिशूल धारण कर
रखा है और बाएं हाथ में कमल सुशोभित है। यही सती के नाम से भी जानी जाती हैं।
वन्दे वांच्छितलाभाय
चंद्रार्धकृतशेखराम्।
वृषारूढ़ां शूलधरां
शैलपुत्रीं यशस्विनीम् ॥
एक बार जब सती के पिता
प्रजापति दक्ष ने यज्ञ किया तो इसमें सारे देवताओं को निमंत्रित किया, पर भगवान शंकर को नहीं। सती अपने पिता के यज्ञ में जाने के
लिए विकल हो उठीं। शंकरजी ने कहा कि सारे देवताओं को निमंत्रित किया गया है,
उन्हें नहीं। ऐसे में वहां जाना उचित नहीं है। परन्तु सती
संतुष्ट नही हुईं।
सती का प्रबल आग्रह देखकर
शंकरजी ने उन्हें यज्ञ में जाने की अनुमति दे दी। सती जब घर पहुंचीं तो सिर्फ मां
ने ही उन्हें स्नेह दिया। बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास के भाव थे। भगवान
शंकर के प्रति भी तिरस्कार का भाव था। दक्ष ने भी उनके प्रति अपमानजनक वचन कहे।
इससे सती को क्लेश पहुंचा। वे अपने पति का यह अपमान न सह सकीं और योगाग्नि द्वारा
अपनेआप को जलाकर भस्म कर लिया।
इस दारुण दुख से व्यथित
होकर शंकर भगवान ने तांडव करते हुये उस यज्ञ का विध्वंस करा दिया। यही सती अगले
जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्मी और शैलपुत्री कहलाईं।
शैलपुत्री का विवाह भी फिर से भगवान शंकर से हुआ। शैलपुत्री शिव की अर्द्धांगिनी
बनीं। इनका महत्व और शक्ति अनंत है।
अन्य नाम: सती, पार्वती, वृषारूढ़ा, हेमवती और भवानी भी इसी देवी के अन्य नाम हैं।
नवरात्र पर्व के दूसरे दिन
माँ ब्रह्मचारिणी की पूजा-अर्चना की जाती है। साधक इस दिन अपने मन को माँ के चरणों
में लगाते हैं। ब्रह्म का अर्थ है तपस्या और चारिणी यानी आचरण करने वाली। इस
प्रकार ब्रह्मचारिणी का अर्थ हुआ तप का आचरण करने वाली।
भगवान शंकर को पति रूप में
प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। इस कठिन तपस्या के कारण इस देवी को
तपश्चारिणी अर्थात् ब्रह्मचारिणी नाम से अभिहित किया।
कहते है मां ब्रह्मचारिणी
देवी की कृपा से सर्वसिद्धि प्राप्त होती है। दुर्गा पूजा के दूसरे दिन देवी के
इसी स्वरूप की उपासना की जाती है। इस देवी की कथा का सार यह है कि जीवन के कठिन
संघर्षों में भी मन विचलित नहीं होना चाहिए।
दधाना
करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मयि
ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥
पूर्वजन्म में इस देवी ने
हिमालय के घर पुत्री रूप में जन्म लिया था और नारदजी के उपदेश से भगवान शंकर को
पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। इस कठिन तपस्या के कारण इन्हें
तपश्चारिणी अर्थात् ब्रह्मचारिणी नाम से अभिहित किया गया। एक हजार वर्ष तक
इन्होंने केवल फल-फूल खाकर बिताए और सौ वर्षों तक केवल जमीन पर रहकर शाक पर
निर्वाह किया।
कुछ दिनों तक कठिन उपवास
रखे और खुले आकाश के नीचे वर्षा और धूप के घोर कष्ट सहे। तीन हजार वर्षों तक टूटे
हुए बिल्व पत्र खाए और भगवान शंकर की आराधना करती रहीं। इसके बाद तो उन्होंने सूखे
बिल्व पत्र खाना भी छोड़ दिए। कई हजार वर्षों तक निर्जल और निराहार रह कर तपस्या
करती रहीं। पत्तों को खाना छोड़ देने के कारण ही इनका नाम अपर्णा नाम पड़ गया।
कठिन तपस्या के कारण देवी
का शरीर एकदम क्षीण हो गया। देवता, ऋषि, सिद्धगण, मुनि सभी ने ब्रह्मचारिणी
की तपस्या को अभूतपूर्व पुण्य कृत्य बताया, सराहना की और कहा "हे देवी आज तक किसी ने इस तरह की कठोर तपस्या नहीं की।
यह तुम्हीं से ही संभव थी। तुम्हारी मनोकामना परिपूर्ण होगी और भगवान चंद्रमौलि
शिवजी तुम्हें पति रूप में प्राप्त होंगे। अब तपस्या छोड़कर घर लौट जाओ। जल्द ही
तुम्हारे पिता तुम्हें बुलाने आ रहे हैं।"
माँ दुर्गाजी की तीसरी
शक्ति का नाम चंद्रघंटा है। नवरात्रि उपासना में तीसरे दिन की पूजा का अत्यधिक
महत्व है और इस दिन इन्हीं के विग्रह का पूजन-आराधन किया जाता है। इस दिन साधक का
मन 'मणिपूर' चक्र में प्रविष्ट
होता है।
इस देवी की कृपा से साधक को
अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते हैं। दिव्य सुगंधियों का अनुभव होता है और कई तरह की
ध्वनियां सुनाई देने लगती हैं।
देवी का यह स्वरूप परम
शांतिदायक और कल्याणकारी माना गया है। इसीलिए कहा जाता है कि हमें निरंतर उनके
पवित्र विग्रह को ध्यान में रखकर साधना करना चाहिए। उनका ध्यान हमारे इहलोक और
परलोक दोनों के लिए कल्याणकारी और सद्गति देने वाला है। इस देवी के मस्तक पर घंटे
के आकार का आधा चंद्र है। इसीलिए इस देवी को चंद्रघंटा कहा गया है। इनके शरीर का
रंग सोने के समान बहुत चमकीला है। इस देवी के दस हाथ हैं। वे खड्ग और अन्य
अस्त्र-शस्त्र से विभूषित हैं।
सिंह पर सवार इस देवी की
मुद्रा युद्ध के लिए उद्धत रहने की है। इसके घंटे सी भयानक ध्वनि से अत्याचारी
दानव-दैत्य और राक्षस काँपते रहते हैं। नवरात्रि में तीसरे दिन इसी देवी की पूजा
का महत्व है। इस देवी की कृपा से साधक को अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते हैं। दिव्य
सुगंधियों का अनुभव होता है और कई तरह की ध्वनियां सुनाईं देने लगती हैं। इन
क्षणों में साधक को बहुत सावधान रहना चाहिए।
इस देवी की आराधना से साधक
में वीरता और निर्भयता के साथ ही सौम्यता और विनम्रता का विकास होता है। इसलिए
हमें चाहिए कि मन, वचन और कर्म के साथ ही काया
को विहित विधि-विधान के अनुसार परिशुद्ध-पवित्र करके चंद्रघंटा के शरणागत होकर
उनकी उपासना-आराधना करना चाहिए। इससे सारे कष्टों से मुक्त होकर सहज ही परम पद के
अधिकारी बन सकते हैं। यह देवी कल्याणकारी है।
पिण्डजप्रवरारूढ़ा
चण्डकोपास्त्रकेर्युता।
प्रसादं तनुते मह्यं
चंद्रघण्टेति विश्रुता॥
नवरात्र-पूजन के चौथे दिन
कूष्माण्डा देवी के स्वरूप की ही उपासना की जाती है। इस दिन साधक का मन 'अदाहत' चक्र में अवस्थित होता है।
नवरात्रि में चौथे दिन देवी
को कुष्मांडा के रूप में पूजा जाता है। अपनी मंद, हल्की हंसी के द्वारा अण्ड यानी ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इस देवी को
कुष्मांडा नाम से अभिहित किया गया है। जब सृष्टि नहीं थी, चारों तरफ अंधकार ही अंधकार था, तब इसी देवी ने अपने
ईषत् हास्य से ब्रह्मांड की रचना की थी। इसीलिए इसे सृष्टि की आदिस्वरूपा या
आदिशक्ति कहा गया है।
इस देवी की आठ भुजाएं हैं,
इसलिए अष्टभुजा कहलाईं। इनके सात हाथों में क्रमशः कमण्डल,
धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा हैं। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों
को देने वाली जप माला है। इस देवी का वाहन सिंह है और इन्हें कुम्हड़े की बलि
प्रिय है। संस्कृति में कुम्हड़े को कुष्मांड कहते हैं इसलिए इस देवी को
कुष्मांडा।
इस देवी का वास सूर्यमंडल
के भीतर लोक में है। सूर्यलोक में रहने की शक्ति क्षमता केवल इन्हीं में है।
इसीलिए इनके शरीर की कांति और प्रभा सूर्य की भांति ही दैदीप्यमान है। इनके ही तेज
से दसों दिशाएं आलोकित हैं। ब्रह्मांड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में इन्हीं का
तेज व्याप्त है।
अचंचल और पवित्र मन से
नवरात्रि के चौथे दिन इस देवी की पूजा-आराधना करना चाहिए। इससे भक्तों के रोगों और
शोकों का नाश होता है तथा उसे आयु, यश, बल और आरोग्य प्राप्त होता है। यह देवी अत्यल्प सेवा और भक्ति से ही प्रसन्न
होकर आशीर्वाद देती हैं। सच्चे मन से पूजा करने वाले को सुगमता से परम पद प्राप्त
होता है।
विधि-विधान से पूजा करने पर
भक्त को कम समय में ही कृपा का सूक्ष्म भाव अनुभव होने लगता है। यह देवी
आधियों-व्याधियों से मुक्त करती हैं और उसे सुख समृद्धि और उन्नति प्रदान करती
हैं। अंततः इस देवी की उपासना में भक्तों को सदैव तत्पर रहना चाहिए।
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