वास्तु के प्रादुर्भाव की कथा | vaastu ke praadurbhaav kee katha

मत्स्य पुराण दो सौ बावनवाँ अध्याय

वास्तु के प्रादुर्भाव की कथा

ऋषय ऊचुः

प्रासादभवनादीनां निवेशं विस्तराद् वद।
कुर्यात् केन विधानेन कश्च वास्तुरुदाहृतः ॥ १

ऋषियोंने पूछा- सूतजी! अब आप हमलोगोंको राजभवन आदिके संनिवेशकी और उनके बनाये जाने की विधि विस्तारपूर्वक बतलाइये। साथ ही वास्तु क्या कहलाता है, इसपर भी प्रकाश डालिये ॥ १ ॥

सूत उवाच

भृगुरत्रिर्वसिष्ठश्च विश्वकर्मा मयस्तथा।
नारदो नग्नजिच्चैव विशालाक्षः पुरंदरः ॥ २

ब्रह्मा कुमारो नन्दीशः शौनको गर्ग एव च। 
वासुदेवोऽनिरुद्धश्च तथा शुक्रबृहस्पती ॥ ३

अष्टादशैते विख्याता वास्तुशास्त्रोपदेशकाः । 
संक्षेपेणोपदिष्टं यन्मनवे मत्स्यरूपिणा ॥ ४

तदिदानीं प्रवक्ष्यामि वास्तुशास्त्रमनुत्तमम् ।
पुरान्धकवधे घोरे घोररूपस्य शूलिनः ॥ ५

ललाटस्वेदसलिलमपतद् भुवि भीषणम्।
करालवदनं तस्माद् भूतमुद्भूतमुल्बणम् ॥ ६

ग्रसमानमिवाकाशं सप्तद्वीपां वसुंधराम् । 
ततोऽन्धकानां रुधिरमपिबत् पतितं क्षितौ ॥ ७

तेन तत् समरे सर्वं पतितं यन्महीतले। 
तथापि तृप्तिमगमन्न तद् भूतं यदा तदा ॥ ८

सदाशिवस्य पुरतस्तपश्चक्रे सुदारुणम् । 
क्षुधाविष्टं तु तद् भूतमाहर्तुं जगतीत्रयम् ॥ ९

ततः कालेन संतुष्टो भैरवस्तस्य चाह वै। 
वरं वृणीष्व भद्रं ते यद‌भीष्टं तवानघ ॥ १०

सूतजी कहते हैं-ऋषियो। भृगु, अत्रि, वसिष्ठ, विश्वकर्मा, मय, नारद, नग्नजित्, भगवान् शंकर, इन्द्र, ब्रह्मा, कुमार, नन्दीश्वर, शौनक, गर्ग, वासुदेव, अनिरुद्ध, शुक्र तथा बृहस्पति-ये अठारह वास्तुशास्त्रकै उपदेष्टा माने गये हैं। जिसे मत्स्यरूपधारी भगवान्‌ने संक्षेपमें मनुके प्रति उपदेश किया था, उसी श्रेष्ठ वास्तुशास्त्रको मैं आपलोगोंसे बतला रहा हूँ। प्राचीन कालमें भयंकर अन्धक-वधके समय विकराल रूपधारी भगवान् शंकरके ललाटसे पृथ्वीपर स्वेदविन्दु गिरे थे। उससे एक भीषण एवं विकराल मुखवाला उत्कट प्राणी उत्पन्न हुआ। वह ऐसा प्रतीत होता था मानो सातों द्वीपोंसहित वसुंधरा तथा आकाशको निगल जायगा। तत्पश्चात् वह पृथ्वीपर गिरे हुए अन्धकोंके रक्तका पान करने लगा। इस प्रकार वह उस युद्धमें पृथ्वीपर गिरे हुए सारे रक्तको पान कर गया। किंतु इतनेपर भी जब वह तृप्त न हुआ, तब भगवान् सदाशिवके सम्मुख अत्यन्त घोर तपस्यामें संलग्न हो गया। भूखसे व्याकुल होनेपर जब वह पुनः त्रिलोकीको भक्षण करनेके लिये उद्यत हुआ, तब उसकी तपस्यासे संतुष्ट होकर भगवान् शंकर उससे बोले- 'निष्पाप । तुम्हारा कल्याण हो, अब तुम्हारी जो अभिलाषा हो, वह वर माँग लो' ॥ २-१० ॥

तमुवाच ततो भूतं त्रैलोक्यग्रसनक्षमम्। 
भवामि देवदेवेश तथेत्युक्तं च शूलिना ॥ ११

ततस्तत् त्रिदिवं सर्व भूमण्डलमशेषतः ।
स्वदेहेनान्तरिक्षं च रुन्धानं प्रपतद् भुवि ॥ १२

भीतभीतैस्ततो देवैर्ब्रह्मणा चाथ शूलिना।
दानवासुररक्षोभिरवष्टब्धं समन्ततः । १३

येन यत्रैव चाक्रान्तं स तत्रैवावसत् पुनः ।
निवासात् सर्वदेवानां वास्तुरित्यभिधीयते ॥ १४

अवष्टब्धेन तेनापि विज्ञप्ताः सर्वदेवताः ।
प्रसीदध्वं सुराः सर्वे युष्माभिर्निश्चलीकृतः ॥ १५

स्थास्याम्यहं किमाकारो ह्यवष्टब्धो ह्यधोमुखः । 
ततो ब्रह्मादिभिः प्रोक्तं वास्तुमध्ये तु यो बलिः ॥ १६

आहारो वैश्वदेवान्ते नूनमस्य भविष्यति। 
वास्तूपशमनो यज्ञस्तवाहारो भविष्यति ॥ १७

यज्ञोत्सवादौ च बलिस्तवाहारो भविष्यति।
वास्तुपूजामकुर्वाणस्तवाहारो भविष्यति ॥ १८

अज्ञानात् तु कृतो यज्ञस्तवाहारो भविष्यति। 
एवमुक्तस्ततो हृष्टः स वास्तुरभवत् तदा।
वास्तुयज्ञः स्मृतस्तस्मात् ततः प्रभृति शान्तये ॥ १९

तब उस प्राणीने शिवजीसे कहा- 'देवदेवेश। मैं तीनों लोकों को ग्रस लेने के लिये समर्थ होना चाहता हूँ।' इस पर त्रिशूल धारी शिवजीने कहा- 'ऐसा ही होगा'। फिर तो वह प्राणी अपने विशाल शरीरसे स्वर्ग, सम्पूर्ण भूमण्डल और आकाश को अवरुद्ध करता हुआ पृथ्वीपर आ गिरा। तब भयभीत हुए देवताओं तथा ब्रह्मा, शिव, दानव, दैत्य और राक्षसों द्वारा वह स्तम्भित कर दिया गया। उस समय जिसने उसे जहाँ पर आक्रान्त कर रखा था, वह वहीं निवास करने लगा। इस प्रकार सभी देवताओंके निवास करनेके कारण वह वास्तु नामसे विख्यात हुआ। तब उस दबे हुए प्राणीने भी सभी देवताओंसे निवेदन किया- 'देवगण! आपलोग मुझपर प्रसन्न हों। आप लोगों द्वारा मैं दबाकर निश्चल बना दिया गया हूँ। भला इस प्रकार अवरुद्ध कर दिये जानेपर नीचे मुख किये हुए मैं किस तरह कबतक स्थित रह सकूँगा।' उसके ऐसा निवेदन करनेपर ब्रह्मा आदि देवताओंने कहा- 'वास्तुके प्रसङ्गमें तथा वैश्वदेवके अन्तमें जो बलि दी जायगी, वह निश्चय ही तुम्हारा आहार होगी। वास्तु शान्तिके लिये जो यज्ञ होगा, वह भी तुम्हें आहारके रूपमें प्राप्त होगा। यज्ञोत्सबमें दी गयी बलि भी तुम्हें आहाररूपमें प्राप्त होगी। वास्तु-पूजा न करनेवाले भी तुम्हारे आहार होंगे। अज्ञानसे किया गया यज्ञ भी तुम्हें आहाररूपमें प्राप्त होगा।' ऐसा कहे जानेपर वह वास्तु नामक प्राणी प्रसन्न हो गया। इसी कारण तबसे शान्ति के लिये वास्तु-यज्ञका प्रवर्तन हुआ ॥ ११-१९॥ 

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे वास्तुभूतोद्भवो नाम द्विपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २५२ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें वास्तु-प्रादुर्भाव नामक दो सौ बावनवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २५२॥ 

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