वास्तु-चक्र का वर्णन | vaastu-chakr ka varnan

मत्स्य पुराण दो सौ तिरपनवाँ अध्याय

वास्तु-चक्र का वर्णन

सूत उवाच

अथातः सम्प्रवक्ष्यामि गृहकालविनिर्णयम् ।
यथा कालं शुभं ज्ञात्वा सदा भवनमारभेत् ॥ १

सूतजी कहते हैं- ऋषियो। अब मैं गृहनिर्माणके उस समयका निर्णय बतला रहा हूँ, जिस शुभ समयको जानकर मनुष्यको सर्वदा भवनका आरम्भ करना चाहिये। १

चैत्रे व्याधिमवाप्नोति यो गृहं कारयेन्नरः।
वैशाखे धेनुरत्नानि ज्येष्ठे मृत्युं तथैव च ॥ २

आषाढ़े भृत्यरत्नानि पशुवर्गमवाप्नुयात्। 
श्रावणे भृत्यलाभं तु हानिं भाद्रपदे तथा ॥ ३

पत्नीनाशोऽश्विने विद्यात् कार्तिके धनधान्यकम्।
मार्गशीर्षे तथा भक्तं पौषे तस्करतो भयम् ॥ ४

लाभं च बहुशो विन्द्यादग्नि माघे विनिर्दिशेत् । 
फाल्गुने काञ्चनं पुत्रानिति कालबलं स्मृतम् ॥ ५

अश्विनी रोहिणी मूलमुत्तरात्रयमैन्दवम् । 
स्वाती हस्तोऽनुराधा च गृहारम्भे प्रशस्यते ॥ ६

आदित्यभौमवर्ज्यास्तु सर्वे वाराः शुभावहाः । 
वर्ज्य व्याघातशूले च व्यतीपातातिगण्डयोः ॥ ७

विष्कम्भगण्डपरिघवज्रयोगे न कारयेत्। 
श्वेते मैत्रेऽथ माहेन्द्रे गान्धर्वाभिजिति रौहिणे ॥ ८

तथा वैराजसावित्रे मुहूर्ते गृहमारभेत्। 
चन्द्रादित्यबलं लब्ध्वा शुभलग्नं निरीक्षयेत् ॥ ९

स्तम्भोच्छ्रायादि कर्तव्यमन्यत्तु परिवर्जयेत् ।
प्रासादेष्वेवमेवं स्यात् कूपवापीषु चैव हि ॥ १०

जो मनुष्य चैत्रमासमें घर बनाता है, वह व्याधि, वैशाखमें घर बनानेवाला धेनु और रत्न तथा ज्येष्ठमें मृत्युको प्राप्त होता है। आषाढ़में नौकर, रत्न और पशु समूहकी और श्रावणमें नौकरोंकी प्राप्ति तथा भाद्रपदमें हानि होती है। आश्विनमें घर बनानेसे पत्नीका नाश होता है। कार्तिक-मासमें धन-धान्यादिकी तथा मार्गशीर्षमें श्रेष्ठ भोज्यपदार्थोकी प्राप्ति होती है। पौषमें चोरोंका भय और माघमासमें अनेक प्रकारके लाभ होते हैं, किंतु अग्निका भी भय रहता है। फाल्गुनमें सुवर्ण तथा अनेक पुत्रोंकी प्राप्ति होती है। इस प्रकार समयका फल एवं बल बतलाया जाता है। गृहारम्भमें अश्विनी, रोहिणी, मूल, तीनों उत्तरा, मृगशिरा, स्वाती, हस्त और अनुराधा-ये नक्षत्र प्रशस्त कहे गये हैं। रविवार और मङ्गलवारको छोड़कर शेष सभी दिन शुभदायक हैं। व्याघात, शूल, व्यतीपात; अतिगण्ड, विष्कम्भ, गण्ड, परिघ और वज्र-इन योगोंमें गृहारम्भ नहीं करना चाहिये। श्वेत, मैत्र, माहेन्द्र, गान्धव, अभिजित, रौहिण, वैराज और सावित्र-इन मुहूर्तीमें गृहारम्भ करना चाहिये। चन्द्रमा और सूर्यके बलके साथ-ही-साथ शुभ लग्नका भी निरीक्षण करना चाहिये। सर्वप्रथम अन्य कार्योंको छोड़कर स्तम्भारोपण करना चाहिये। यही विधि प्रासाद, कूप एवं बावलियोंके लिये भी मानी गयी है॥ २-१०॥

पूर्व भूमिं परीक्षेत पश्चाद्वास्तुं प्रकल्पयेत्।
श्वेता रक्ता तथा पीता कृष्णा चैवानुपूर्वशः ॥ ११

विप्रादः शस्यते भूमिरतः कार्य परीक्षणम्।
विप्राणां मधुरास्वादा कटुका क्षत्रियस्य तु ॥ १२

तिक्ता कषाया च तथा वैश्यशूद्रेषु शस्यते।
अरत्निमात्रे वै गर्ते स्वनुलिप्ते च सर्वशः ॥ १३

घृतमामशरावस्थं कृत्वा वर्त्तिचतुष्टयम् ।
ज्वालयेद् भूपरीक्षार्थं तत्पूर्ण सर्वदिङ्मुखम् ॥ १४

दीप्तौ पूर्वादि गृह्णीयाद् वर्णानामनुपूर्वशः ।
वास्तुः सामूहिको नाम दीप्यते सर्वतस्तु यः ॥ १५

शुभदः सर्ववर्णानां प्रासादेषु गृहेषु च।
रत्निमात्रमधोगर्ने परीक्ष्यं खातपूरणे ॥ १६

अधिके श्रियमाप्नोति न्यूने हानिं समे समम्।
फालकृष्टेऽथवा देशे सर्वबीजानि वापयेत् ॥ १७

त्रिपञ्चसप्तरात्रे च यत्रारोहन्ति तान्यपि।
ज्येष्ठोत्तमा कनिष्ठा भूर्वर्जनीयतरा सदा ॥ १८

पञ्चगव्यौषधिजलैः परीक्षित्वा च सेचयेत्।
एकाशीतिपदं कृत्वा रेखाभिः कनकेन च ॥ १९ 

पश्चात् पिष्टेन चालिप्य सूत्रेणालोड्य सर्वतः । 
दश पूर्वायता लेखा दश चैवोत्तरायताः ॥ २०

सर्ववास्तुविभागेषु विज्ञेया नवका नव। 
एकाशीतिपदं कृत्वा वास्तुवित् सर्ववास्तुषु ॥ २१ 

पहले भूमिकी परीक्षाकर फिर बादमें वहाँ गृहका निर्माण करना चाहिये। श्वेत, लाल, पीली और काली-इन चार वर्णोंवाली पृथिवी क्रमशः ब्राह्मणादि चारों वर्णोंके लिये प्रशंसित मानी गयी है। इसके बाद उसके स्वादकी परीक्षा करनी चाहिये। ब्राह्मणके लिये मधुर स्वादवाली, क्षत्रियके लिये कड़वी, वैश्यके लिये तिक्त तथा शूद्रके लिये कसैली स्वादवाली पृथ्वी उत्तम मानी गयी है। तत्पश्चात् भूमिकी पुनः परीक्षाके लिये एक हाथ गहरा गड्डा खोदकर उसे सब ओरसे भलीभाँति लीप-पोतकर स्वच्छ कर दे। फिर एक कच्चे पुरवेमें भी भरकर उसमें चार बत्तियाँ जला दे और उसे उसी गड्डेमें रख दे। उन बत्तियोंकी लौ क्रमशः चारों दिशाओंकी ओर हों। यदि पूर्व दिशाकी बत्ती अधिक कालतक जलती रहे तो ब्राह्मणके लिये उसका फल शुभ होता है। इसी प्रकार क्रमशः उत्तर, पश्चिम और दक्षिणकी बत्तियोंको क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्रों के लिये कल्याणकारक समझना चाहिये। यदि वह वास्तुदीपक चारों दिशाओंमें जलता रहे तो प्रासाद एवं साधारण गृह-निर्माणके लिये वहाँकी भूमि सभी वर्षोंके लिये शुभदायिनी है। एक हाथ गहरा गड्डा खोदकर उसे उसी मिट्टीसे पूर्ण करते समय इस प्रकार परीक्षा करे कि यदि मिट्टी शेष रह जाय तो श्रीकी प्राप्ति होती है, 

न्यून हो जाय तो हानि होती है तथा सम रहनेसे समभाव होता है। अथवा भूमिको हलद्वारा जुतवाकर उसमें सभी प्रकारके बीज बो दे। यदि वे बीज तीन, पाँच तथा सात रातोंमें अकुरित हो जाते हैं तो उनके फल इस प्रकार जानने चाहिये। तीन रातवाली भूमि उत्तम, पाँच रातवाली भूमि मध्यम तथा सात रातवाली कनिष्ठ है। कनिष्ठ भूमिको सर्वथा त्याग देना चाहिये। इस प्रकार भूमि-परीक्षा कर पञ्चगव्य और ओषधियोंके जलसे भूमिको सींच दे और सुवर्णकी सलाईद्वारा रेखा खींचकर इक्यासी कोष्ठ बनावे। (कोष्ठ बनानेका ढंग इस प्रकार है-) पिष्टकसे चुपड़े हुए सूतसे दस रेखाएँ पूर्वसे पश्चिम तथा दस रेखाएँ उत्तरसे दक्षिणकी ओर खींचे। सभी प्रकारके वास्तु-विभागोंमें इस नव-नव (९४९) अर्थात् इक्यासी कोष्ठका वास्तु जानना चाहिये। वास्तुशास्त्रको जाननेवाला सभी प्रकारके वास्तुसम्बन्धी कार्योंमें इसका उपयोग करे ॥ ११-२१॥

पदस्थान् पूजयेद् देवांस्त्रिंशत् पञ्चदशैव तु । 
द्वात्रिंशद् बाह्यतः पूज्याः पूज्याश्चान्तस्त्रयोदश ॥ २२

नामतस्तान् प्रवक्ष्यामि स्थानानि च निबोधत। 
ईशानकोणादिषु तान् पूजयेद्धविषा नरः ॥ २३

शिखी चैवाथ पर्जन्यो जयन्तः कुलिशायुधः । 
सूर्यसत्यौ भृशश्चैव आकाशो वायुरेव च ॥ २४

पूषा च वितथश्चैव बृहत्क्षतयमावुभौ । 
गन्धर्वो भृङ्गराजश्च मृगः पितृगणस्तथा ॥ २५ 

दौवारिकोऽथ सुग्रीवः पुष्पदन्तो जलाधिपः । 
असुरः शोषपापौ च रोगोऽहिमुख्य एव च ॥ २६

भल्लाटः सोमसर्पों च अदितिश्च दितिस्तथा । 
बहिर्द्वात्रिंशदेते तु तदन्तस्तु ततः शृणु ॥ २७

ईशानादिचतुष्कोणसंस्थितान् पूजयेद् बुधः । 
आपश्चैवाथ सावित्रो जयो रुद्रस्तथैव च ॥ २८

मध्ये नवपदे ब्रह्मा तस्याष्टौ च समीपगान्। 
साध्यानेकान्तरान् विद्यात् पूर्वाद्यान् नामतः शृणु ॥ २९

अर्थमा सविता चैव विवस्वान् विबुधाधिपः । 
अष्टमश्चापवत्सस्तु परितो ब्रह्मणः स्मृताः ।
मित्रोऽथ राजयक्ष्मा च तथा पृथ्वीधरः स्मृतः ॥ ३०

आपश्चैवापवत्सश्च पर्जन्योऽग्निर्दितिस्तथा ॥ ३१

पदिकानां तु वर्गोऽयमेवं कोणेष्वशेषतः । 
तन्मध्ये तु बहिर्विशद् द्विपदास्ते तु सर्वशः ॥ ३२

अर्थमा च विवस्वांश्च मित्रः पृथ्वीधरस्तथा।
ब्रह्मणः परितो दिक्षु त्रिपदास्ते तु सर्वशः ॥ ३३

फिर उन कोष्ठोंमें स्थित पैंतालीस देवताओंकी पूजा करे। उनमें बत्तीसकी बाहरसे तथा तेरहकी भीतरसे पूजा करनी चाहिये। मैं उनके नाम और स्थान बतला रहा हूँ, आपलोग सुनिये। (इन्हें जानकर) मनुष्यको ईशान आदि कोणोंमें हविष्यद्वारा उन-उन देवताओंकी पूजा करनी चाहिये। शिखी, पर्जन्य, जयन्त, इन्द्र, सूर्य, सत्य, भृश, अन्तरिक्ष, वायु, पूषा, वितथ, बृहत्क्षत, यम, गन्धर्व, भृङ्गराज, मूग, पितृगण, दौवारिक, सुग्रीव, पुष्पदन्त, जलाधिप, असुर, शोष, पाप, रोग, अहि, मुख्य, भल्लाट, सोम, सर्प, अदिति और दिति- ये बत्तीस बाह्य देवता हैं। बुद्धिमान् पुरुषको ईशान आदि चारों कोणोंमें स्थित इन देवताओंकी पूजा करनी चाहिये। अब वास्तु चक्रके भीतरी देवताओंके नाम सुनिये आप, सावित्र, जय, रुद्र- ये चार चारों ओरसे तथा मध्यके नौ कोष्ठोंमें ब्रह्मा और उनके समीप अन्य आठ देवताओंकी भी पूजा करनी चाहिये। (ये सब मिलकर मध्यके तेरह देवता होते हैं।) ब्रह्माके चारों ओर स्थित ये आठ देवता, जो क्रमशः पूर्वादि दिशाओंमें दो-दोके क्रमसे स्थित रहते हैं, साध्यनामसे कहे जाते हैं। उनके नाम सुनिये-अर्यमा, सविता, विवस्वान्, विबुधाधिप, मित्र, राजयक्ष्मा, पृथ्वीधर तथा आठवें आपवत्स। आप, आपवत्स, पर्जन्य, अग्नि तथा दिति- ये पाँच देवताओंके वर्ग हैं। (इनकी पूजा अग्निकोणमें करनी चाहिये।) उनके बाहर बीस देवता हैं जो दो पदोंमें रहते हैं। अर्थमा, विवस्वान्, मित्र और पृथ्वीधर ये चार ब्रह्माके चारों ओर तीन-तीन पदोंमें स्थित रहते हैं॥ २२-३३॥ 

वंशानिदानीं वक्ष्यामि ऋजूनपि पृथक् पृथक्।
वायुं यावत् तथा रोगात् पितृभ्यः शिखिनं पुनः ॥ ३४

मुख्याद् भृशं तथा शोषाद् वितथं यावदेव तु ।
सुग्रीवाददितिं यावन्मृगात् पर्जन्यमेव च ॥ ३५ 

एते वंशाः समाख्याताः क्वचिच्च जयमेव तु । 
एतेषां यस्तु सम्पातः पदं मध्यं समं तथा ॥ ३६ 

मर्म चैतत् समाख्यातं त्रिशूलं कोणगं च यत्। 
स्तम्भं न्यासेषु वर्ज्यानि तुलाविधिषु सर्वदा ॥ ३७

कीलोच्छिष्टोपघातादि वर्जयेद् यत्नतो जनः । 
सर्वत्र वास्तुनिर्दिष्टो पितृवैश्वानरायतः ॥ ३८

मूर्धन्यग्निः समादिष्टो मुखे चापः समाश्रितः । 
पृथ्वीधरोऽर्थ्यमा चैव स्कन्धयोस्तावधिष्ठितौ ।। ३९

वक्षःस्थले चापवत्सः पूजनीयः सदा बुधैः । 
नेत्रयोर्दितिपर्जन्यौ श्रोत्रेऽदितिजयन्तकौ ।। ४०

सर्पेन्द्रावंससंस्थौ तु पूजनीयौ प्रयत्नतः ।
सूर्यसोमादयस्तद्वद् बाह्वोः पञ्च च पञ्च च ॥ ४१ 

रुद्रश्च राजयक्ष्मा च वामहस्ते समास्थितौ ।
सावित्रः सविता तद्वद्धस्तं दक्षिणमास्थिती ॥ ४२

विवस्वानथ मित्रश्च जठरे संव्यवस्थिती। 
पूषा च पापयक्ष्मा च हस्तयोर्मणिबन्धने ॥ ४३ 

तथैवासुरशोषौ च वामपार्श्व समाश्रितौ। 
पार्श्वे तु दक्षिणे तद्वद् वितथः सबृहत्क्षतः ॥ ४४ 

ऊर्वोऽर्यमाम्बुपौ ज्ञेयी जान्वोर्गन्धर्वपुष्पकौ। 
जङ्ख्योभृङ्गसुग्रीवौ स्फिक्स्थौ दौवारिको मृगः ॥ ४५

जयशक्री तथा मेढ़े पादयोः पितरस्तथा। 
मध्ये नवपदे ब्रह्मा हृदये स तु पूज्यते ॥ ४६ 

अब मैं उनके वंशोंको पृथक् पृथक् संक्षेपमें कह रहा हूँ। वायुसे लेकर रोगपर्यन्त, पितृगणसे शिखीपर्यन्त, मुख्यसे भृशपर्यन्त, शोषसे वितथपर्यन्त, सुग्रीवसे अदितिपर्यन्त तथा मृगसे पर्जन्यपर्यन्त- ये ही वंश कहे जाते हैं। कहीं-कहीं मृगसे लेकर जयपर्यन्त वंश कहा गया है। पदके मध्यमें इनका जो सम्पात है, वह पद, मध्य तथा सम नामसे प्रसिद्ध है। त्रिशूल और कोणगामी मर्मस्थल कहे जाते हैं, जो सर्वदा स्तम्भन्यास और तुलाकी विधिमें वर्जित माने गये हैं। मनुष्यके लिये यलपूर्वक देवताके पदोंपर कीलें गाड़ना, जूठन फेंकना तथा चोटें पहुँचाना वर्जित है। यह वास्तु-चक्र, सर्वत्र पितृवर्गीय वैश्वानरके अधीन माना गया है। 

उसके मस्तकपर अग्नि और मुखमें जलका निवास है, दोनों स्कन्धोंपर पृथ्वीधर तथा अर्थमा अधिष्ठित हैं। बुद्धिमान्‌को वक्षःस्थलपर आपवत्सकी पूजा करनी चाहिये। नेत्रोंमें दिति और पर्जन्य तथा कानोंमें अदिति और जयन्त हैं। कंधोंपर सर्प और इन्द्रकी प्रयत्नपूर्वक पूजा करनी चाहिये। इसी प्रकार बाहुओंमें सूर्य और चन्द्रमासे लेकर पाँच-पाँच देवता स्थित हैं। रुद्र और राजयक्ष्मा-ये दोनों बायें हाथपर अवस्थित हैं। उसी प्रकार सावित्र और सविता दाहिने हाथपर स्थित हैं। विवस्वान् और मित्र-ये उदरमें तथा पूषा और पापयक्ष्मा-ये हाथोंके मणिबन्धोंमें स्थित हैं। उसी प्रकार असुर और शोष-ये बायें पार्श्वमें तथा दाहिने पार्श्वमें वितथ और बृहत्क्षत स्थित हैं। ऊरुभागोंपर यम और वरुण, घुटनोंपर गन्धर्व और पुष्पक, दोनों जंघोंपर क्रमशः भृङ्ग और सुग्रीव, दोनों नितम्बोंपर दौवारिक और मृग, लिङ्गस्थानपर जय और शक्र तथा पैरोंपर पितृगण स्थित हैं। मध्यके नौ पदोंमें, जो हृदय कहलाता है, ब्रह्माको पूजा होती है॥ ३४-४६ ॥

चतुःषष्टिपदो वास्तुः प्रासादे ब्रह्मणा स्मृतः । 
ब्रह्मा चतुष्पदस्तत्र कोणेष्वर्धपदस्तथा ।। ४७

बहिष्कोणेषु वास्तौ तु सार्धाश्चोभयसंस्थिताः । 
विंशतिद्विपदाश्चैव चतुःषष्टिपदे स्मृताः ॥ ४८

गृहारम्भेषु कण्डूतिः स्वाम्यङ्गे यत्र जायते। 
४९ शल्यं त्वपनयेत् तत्र प्रासादे भवने तथा ॥

सशल्यं भयदं यस्मादशल्यं शुभदायकम्। 
हीनाधिकाङ्गतां वास्तोः सर्वथा तु विवर्जयेत् ॥ ५०

नगरग्रामदेशेषु सर्वत्रैवं विवर्जयेत्। 
चतुःशालं त्रिशालं च द्विशालं चैकशालकम् । 
नामतस्तान् प्रवक्ष्यामि स्वरूपेण द्विजोत्तमाः ॥ ५१ 

ब्रह्माने प्रासादके निर्माणमें चौंसठ पदोंवाले वास्तुको श्रेष्ठ बतलाया है। उसके चार पदोंमें ब्रह्मा तथा उनके कोणोंमें आपवत्स, सविता आदि आठ देवगण स्थित हैं। वास्तुके बाहरवाले कोणोंमें भी अग्नि आदि आठ देवताओंका निवास है तथा दो पदोंमें जयन्त आदि बीस देवता स्थित हैं। इस प्रकार चौंसठ पदवाले वास्तुचक्रमें देवताओंकी स्थिति बतलायी गयी है। गृहारम्भके समय गृहपतिके जिस अङ्गमें खुजली जान पड़े, महल तथा भवनमें वास्तुके उसी अङ्गपर गड़ी हुई शल्य या कीलको निकाल देना चाहिये; क्योंकि शल्यसहित गृह भयदायक और शल्यरहित कल्याणकारक होता है। वास्तुका अधिक एवं हीन अङ्गका होना सर्वथा त्याज्य है। इसी प्रकार नगर, ग्राम और देश सभी जगहपर इन दोषोंका परित्याग करना चाहिये। द्विजवरो! अब मैं चतुःशाल, त्रिशाल, द्विशाल तथा एकशालवाले भवनकि नाम और स्वरूपका वर्णन करूँगा ॥ ४७-५१ ॥ 

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे एकाशीतिपदवास्तुनिर्णयो नाम त्रिपञ्चाशद‌धिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २५३ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें इक्यासीपद निर्णय नामक दो सौ तिरपनवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २५३॥

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