मत्स्य पुराण दो सौ एकसठवाँ अध्याय
सूर्यादि विभिन्न देवताओं की प्रतिमाके स्वरूप, प्रतिष्ठा और पूजा आदिकी विधि
सूतजी
प्रभाकरस्य प्रतिमामिदानीं शृणुत द्विजाः ।
रथस्थं कारयेद् देवं पद्महस्तं सुलोचनम् ॥ १
सूतजी कहते हैं- ब्राह्मणगण। अब आपलोग भगवान् सूर्यकी प्रतिमाके निर्माणकी विधि सुनिये। भगवान् सूर्य देव को रथपर स्थित, सुन्दर नेत्रोंसे सुशोभित और दोनों हाथोंमें कमल धारण किये हुए बनाना चाहिये। १
सप्ताचं चैकचक्रं च रर्थ तस्य प्रकल्पयेत् ।
मुकुटेन विचित्रेण पद्मगर्भसमप्रभम् ॥ २
नानाभरणभूषाभ्यां भुजाभ्यां धृतपुष्करम्।
स्कन्धस्थे पुष्करे ते तु लीलयैव धृते सदा ॥ ३
चोलकच्छन्नवपुषं क्वचिच्चित्रेषु दर्शयेत्।
वस्त्रयुग्मसमोपेतं चरणी तेजसावृतौ ॥ ४
प्रतीहारौ च कर्तव्यौ पार्श्वयोर्दण्डिपिङ्गलौ।
कर्तव्यौ खड्गहस्तौ तौ पार्श्वयोः पुरुषावुभौ ॥ ५
लेखनीकृतहस्तं च पार्श्वे धातारमव्ययम् ।
नानादेवगणैर्युक्तमेवं कुर्याद् दिवाकरम् ॥ ६
अरुणः सारथिश्वास्य पद्मिनीपत्रसंनिभः ।
अश्वौ सुवलयग्रीवावन्तस्थौ तस्य पार्श्वयोः ॥ ७
भुजङ्गरज्जुभिर्वद्धाः सप्ताश्वा रश्मिसंयुताः ।
पद्मस्थं वाहनस्थं वा पद्महस्तं प्रकल्पयेत् ॥ ८
उनके रथमें सात घोड़े और एक पहिया होनी चाहिये। उन्हें विचित्र मुकुटसे युक्त तथा कमलके मध्यवर्ती भागके समान लालवर्णका बनाना चाहिये। वे विविध आभूषणोंसे विभूषित दोनों भुजाओंमें कमल धारण किये हों, वे कमल सदा लीलापूर्वक ऊपर कंधोंतक उठे हुए हों। उनका स्वरूप विशेषकर पैर दो वस्त्रोंसे आवृत हो। प्रायः चित्रोंमें भी उनकी प्रतिमा दो वस्त्रोंसे बकी हुई प्रदर्शित की जानी चाहिये। उनके दोनों चरण तेजसे आवृत हों। मूर्तिके दोनों ओर दण्डी और पिङ्गल नामक दो प्रतीहारोंको रखना चाहिये। उन दोनों पार्श्ववर्ती पुरुषोंके हाथोंमें तलवार बनायी जानी चाहिये। उनके पार्श्वमें एक हाथमें लेखनी लिये हुए अविनाशी धाताकी मूर्ति हो। भगवान् भास्कर अनेकों देवगणोंसे युक्त हों। इस प्रकार भगवान् सूर्यकी प्रतिमाका निर्माण करना चाहिये। सूर्यदेवके सारथि अरुण हैं जो कमलदलके सदृश लाल वर्णके हैं। उनके दोनों बगलमें चलते हुए लंबी गरदनवाले अश्व हों। उन सातों अश्वोंको सर्पको रस्सीसे बाँधकर लगामयुक्त रखना चाहिये। सूर्य-मूर्तिको हाथोंमें कमल लिये हुए कमलपर या वाहनपर स्थित रखना चाहिये ॥ १-८॥
वङ्गेस्तु लक्षणं वक्ष्ये सर्वकामफलप्रदम् ।
दीप्तं सुवर्णवपुषमर्धचन्द्रासने स्थितम् ॥ ९
बालार्कसदृशं तस्य वदनं चापि दर्शयेत्।
यज्ञोपवीतिनं देवं लम्बकूर्चधरं तथा ॥ १०
कमण्डलुं वामकरे दक्षिणे त्वक्षसूत्रकम् ।
ज्वालावितानसंयुक्तमजवाहनमुज्ज्वलम् ॥११
कुण्डस्थं वापि कुर्वीत मूर्छिन सप्तशिखान्वितम्।
तथा यमं प्रवक्ष्यामि दण्डपाशधरं विभुम् ॥ १२
महामहिषमारूई कृष्णाञ्जनचयोपमम् ।
सिंहासनगतं चापि दीप्ताग्निसमलोचनम् ॥ १३
महिषश्चित्रगुप्तश्च करालाः किंकरास्तथा।
समन्ताद् दर्शयेत् तस्य सौम्यासौम्यान् सुरासुरान् ॥ १४
राक्षसेन्द्रं तथा वक्ष्ये लोकपालं च नैर्ऋतम्।
नरारूढं महाकार्य रक्षोभिर्बहुभिर्वृतम् ॥ १५
खड्गहस्तं महानीलं कज्ञ्जलाचलसंनिभम्।
नरयुक्तविमानस्थ पीताभरणभूषितम् ॥ १६
वरुणं व प्रवक्ष्यामि पाशहस्तं महाबलम्।
शङ्खस्फटिकवर्णाभं सितहाराम्बरावृतम् ॥ १७
झषासनगतं शान्तं किरीटाङ्गदधारिणम् ।
वायुरूपं प्रवक्ष्यामि धूर्य तु मृगवाहनम् ॥ १८
चित्राम्बरधरं शान्तं युवानं कुञ्चितध्रुवम् ।
मृगाधिरूढं वरदं पताकाध्वजसंयुतम् ॥ १९
अब में सभी प्रकारके अभीष्ट फलोंको देनेवाले अग्निकी प्रतिमाका स्वरूप बतला रहा हूँ। अग्निकी प्रतिमा कनकके समान उदीप्त कान्तिवाली बनानी चाहिये। यह अर्धचन्द्राकार आसनपर स्थित हो। उनका मुख उदयकालीन सूर्यकी भाँति दिखाना चाहिये। अग्निदेवको यज्ञोपवीत तथा लम्बी दाढ़ीसे युक्त बनाना चाहिये। उनके बायें हाथमें कमण्डलु और दाहिने हाथमें रुद्राक्षकी माला हो। उनका वाहन बकरा ज्वालामण्डलसे विभूषित और उज्माल होना चाहिये। मस्तकपर (या मुखमें) सात जिह्वारूपिणी ज्वालाओंसे युक्त इस प्रतिमाको देवमन्दिर अथवा अग्निकुण्डके मध्यमें स्थापित करना चाहिये। अब मैं यमराजकी प्रतिमाके निर्माणकी विधि बतला रहा हूँ। उनके शरीरका रंग काले अंजनके समान हो। वे दण्ड और पाश धारण करनेवाले, ऐश्वर्ययुक्त और विशाल महिषपर आरूढ़ हों अथवा सिंहासनासीन हों। उनके नेत्र प्रदीप्त अग्निके समान हों।
उनके चारों और महिष, चित्रगुप्त, विकराल अनुचरवर्ग, मनोहर आकृतिबाले देवताओं तथा विकृत असुरोंकी प्रतिमाओंको भी प्रदर्शित करना चाहिये। अब मैं लोकपाल राक्षसेन्द्र निऋतिकी प्रतिमाकी निर्माण विधि बतला रहा हूँ। वे मनुष्यपर आरूढ़, विशालकाय, राक्षससमूहोंसे घिरे हुए और हाथमें तलबार लिये हुए हों। उनका वर्ण अत्यन्त नील और कज्जलगिरिके समान दिखायी पड़ता हो। उन्हें पालकीपर सवार और पीले आभूषणोंसे विभूषित बनाना चाहिये। अब मैं महाबली वरुणकी प्रतिमाका वर्णन करता हूँ। वे हाथमें पाश धारण किये हुए स्फटिकमणि और शङ्खके समान श्वेत कान्तिसे युक्त, उज्ज्वल हार और वस्त्रसे विभूषित, झष (बड़ी मछली) पर आसीन, शान्त मुद्रासे सम्पन्न तथा बाजूबन्द और किरीटसे सुशोभित हों। अब मैं वायुदेवकी प्रतिमाका स्वरूप बतला रहा हूँ। उन्हें धूम्र वर्णसे युक्त, मृगपर आसीन, चित्र-विचित्र वस्वधारी, शान्त, युवावस्थासे सम्पन्न, तिरछी भौंहोंसे युक्त, वरदमुद्रा और ध्वज-पताकासे विभूषित बनाना चाहिये ॥ ९-१९ ॥
कुबेरं च प्रवक्ष्यामि कुण्डलाभ्यामलङ्कृतम्।
महोदरे महाकार्य निध्यष्टकसमन्वितम् ॥ २०
गुह्यकैर्बहुभिर्युक्तं धनव्ययकरैस्तथा।
हारकेयूररचितं सिताम्बरधरं सदा ॥ २९
गदाधरं च कर्तव्यं वरदं मुकुटान्वितम् ।
नरयुक्तविमानस्थमेवं रीत्या च कारयेत् ॥ २२
तथैवेशं प्रवक्ष्यामि धवलं धवलेक्षणम्।
त्रिशूलपाणिनं देवं त्र्यक्षं वृषगतं प्रभुम् ॥ २३
मातृणां लक्षणं वक्ष्ये यथावदनुपूर्वशः ।
ब्रह्माणी ब्रह्मसदृशी चतुर्वक्त्रा चतुर्भुजा ॥ २४
हंसाधिरूढा कर्तव्या साक्षसूत्रकमण्डलुः ।
महेश्वरस्य रूपेण तथा माहेश्वरी मता ।। २५
जटामुकुटसंयुक्ता वृषस्था चन्द्रशेखरा।
कपालशूलखट्वाङ्गवरदाढ्या चतुर्भुजा ॥ २६
कुमाररूपा कौमारी मयूरवरवाहना।
रक्तवस्वधरा तद्वच्छूलशक्तिधरा मता ॥ २७
हारकेयूरसम्पन्ना कृकवाकुधरा तथा।
वैष्णवी विष्णुसहशी गरुडे समुपस्थिता ।। २८
चतुर्बाहुच वरदा शङ्खचक्रगदाधरा।
सिंहासनगता वापि बालकेन समन्विता ॥ २९
वाराहीं च प्रवक्ष्यामि महिषोपरि संस्थिताम् ।
वराहसदृशी देवी शिरचामरधारिणी ॥ ३०
गदाचक्रधरा तद्वद् दानवेन्द्रविनाशिनी।
इन्द्राणीमिन्द्रसदृशीं वज्रशूलगदाधराम् ॥ ३१
गजासनगतां देवीं लोचनैर्बहुभिर्वृताम् ।
तप्तकाञ्चनवर्णाभां दिव्याभरणभूषिताम् ॥ ३२
अब मैं कुबेरकी प्रतिमाका वर्णन कर रहा हूँ। वे दो कुण्डलोंसे अलंकृत, तोंदयुक्त, विशालकाय, आठ निधियोंसे संयुक्त, बहुतेरे गुह्यकोंसे घिरे हुए, धन व्यय करनेके लिये उद्यत करोंसे युक, केयूर और हारसे विभूषित, बेत वस्त्रधारी, वरदमुद्रा, गदा और मुकुटसे विभूषित तथा पालकीपर सवार हों। इस प्रकार उनकी प्रतिमा निर्मित करानी चाहिये। अब मैं सामर्थ्यशाली ईशानदेवकी प्रतिमाका वर्णन कर रहा हूँ। उनके शरीरकी कान्ति तथा नेत्र क्षेत हों। वे सामर्थ्यशाली देव तीन नेत्रोंसे मुक्त तथा हाथमें त्रिशूल लिये हुए वृषभपर आरूढ़ हों। अब मैं मातृकाओंकी प्रतिमाओंका लक्षण आनुपूर्वी यथार्थरूपसे बता रहा हूँ। ब्रह्माणीकी प्रतिमाको ब्रहराजीके समान चार मुख, चार भुजाएँ, अक्षसूत्र और कमण्डलुसे विभूषित तथा हंसपर आसीन बनानी चाहिये। इसी प्रकार भगवान् महेश्वरके अनुरूप माहेश्वरीकी प्रतिमा मानी गयी है।
वे जटां-मुकुटसे अलंकृत, वृषभासीन, मस्तकपर चन्द्रमासे विभूषित, क्रमशः कपाल, शूल, खट्वाङ्ग और वरमुद्रासे सुशोभित चार भुजाओंसे सम्पन्न हों। कौमारीकी प्रतिमा स्वामिकार्तिकेयके समान निर्मित करानी चाहिये। वे श्रेष्ठ मयूरपर सवार, लाल वस्त्रसे सुशोभित, शूल और शक्ति धारण करनेवाली, हार और केयूरसे विभूषित तथा मुर्गा लिये हुए हों। वैष्णवीकी मूर्ति विष्णुभगवान्के समान हो। वे गरुड़पर आसीन हों, उनके चार भुजाएँ हॉ, जिनमें क्रमशः शङ्ख, चक्र, गदा और वरद-मुद्रा हो। अथवा वे एक बालकसे युक्त सिंहासनपर बैठी हुई हों। अब मैं वाराहीकी प्रतिमाका प्रकार बतलाता हूँ। वे देवी महिषपर बैठी हुई वराहके समान रहती हैं। उनके सिरपर चामर झलता रहना चाहिये। वे हाथोंमें गदा और चक्र लिये हुए बड़े-बड़े दानवोंके विनाशके लिये संनद्ध रहती हैं। इन्द्राणीको इन्द्रके समान वत्र, शूल, गदा धारण किये हुए हाथीपर विराजमान बनाना चाहिये। वे देवी बहुत-से नेत्रोंसे युक्त, तप्त सुवर्णक समान कान्तिमती और दिव्य आभरणोंसे भूषित रहती हैं॥ २०-३२॥
तीक्ष्णखड्गधरां तद्वद् वक्ष्ये योगेश्वरीमिमाम्।
दीर्घजिह्वामूर्खकेशीमस्थिखण्डैश मण्डिताम् ॥ ३३
दंष्ट्राकरालवदनां कुर्याच्चैव कृशोदरीम्।
कपालमालिनीं देवीं मुण्डमालाविभूषिताम् ।। ३४
कपालं वामहस्ते तु मांसशोणितपूरितम् ।
मस्तिष्काक्तं च विधाणां शक्तिकां दक्षिणे करे ।। ३५
गृधस्था वायसस्था वा निर्मासा विनतोदरी।
करालवदना तद्वत् कर्तव्या सा त्रिलोचना ।। ३६
चामुण्डा बद्धघण्टा वा द्वीपिचर्मधरा शुभा।
दिग्वासाः कालिका तद्वद् रासभस्था कपालिनी ।॥ ३७
सुरक्तपुष्याभरणा वर्धनीध्वजसंयुता ।
विनायकं च कुर्वीत मातृणामन्तिके सदा ।। ३८
वीरेश्वरश्च भगवान् वृषारूडो जटाधरः।
वीणाहस्तस्त्रिशूली च मातृणामग्रतो भवेत् ॥ ३९
अब मैं भगवती योगेश्वरी चामुण्डाकी प्रतिमाका वर्णन करता हूँ। वे तीखी तलवार, लम्बी जिह्वा, ऊपर उठे केश तथा हनियोंके टुकड़ोंसे विभूषित रहती हैं। उन्हें विकराल दाड़ोंसे युक्त मुखवाली, दुर्बल उदरसे युक्त, कपालोंकी माला धारण किये और मुण्ड-मालाओंसे विभूषित बनाना चाहिये। उनके बायें हाथमें खोपड़ीसे युक्त एवं रक्त और मांससे पूर्ण खप्पर और दाहिने हाथमें शक्ति हो। वे गृध्र या काकपर बैठी हों। उनका शरीर मांसरहित, उदर भीतर घुसा और मुख अत्यन्त भीषण हो। उन्हें तीन नेत्रोंसे सम्पन्न घण्टा लिये हुए व्याघ्र-चर्मसे सुशोभित या निर्वस्त्र बनाना चाहिये। उसी प्रकार कालिकाको कपाल धारण किये हुए गधेपर सवार बनाना चाहिये। वे लाल पुष्पोंके आभरणोंसे विभूषित तथा झाड़की ध्वजासे युक्त हों। इन मातृकाओंके समीप सर्वदा गणेशकी प्रतिमा भी रखनी चाहिये तथा मातृकाओंके आगे जटाधारी, हाथोंमें वीणा और त्रिशूल लिये हुए वृषभाख्य भगवान् वीरेश्वरको स्थापित करना चाहिये ॥ ३३-३९॥
श्रियं देवीं प्रवक्ष्यामि नवे वयसि संस्थिताम्।
सुयौवनां पीनगण्डां रक्तौष्ठीं कुञ्चितध्रुवम् ॥ ४०
पीनोन्नतस्तनतटां मणिकुण्डलधारिणीम्।
सुमण्डलं मुखं तस्याः शिरः सीमन्तभूषणम् ॥ ४१
पद्मस्वस्तिकशर्वा भूषितां कुन्तलालकैः ।
कञ्झुकाबद्धगात्री च हारभूषौ पयोधरी ॥ ४२
नागहस्तोपमौ बाहू केयूरकटकोज्ज्वली।
पर्या हस्ते प्रदातव्यं श्रीफलं दक्षिणे भुजे ॥ ४३
मेखलाभरर्णा तद्वत् तप्तकाञ्चनसप्रभाम्।
नानाधरणसम्पन्नां शोभनाम्बरधारिणीम् ॥ ४४
पार्श्वे तस्याः स्त्रियः कार्याश्चामरव्यग्रपाणयः ।
पद्मासनोपविष्टा तु पद्मसिंहासनस्थिता ।। ४५
करिभ्यां स्नाप्यमानासौ भृङ्गाराभ्यामनेकशः ।
प्रक्षालयन्तौ करिणी भृङ्गाराभ्यां तथापरौ ॥ ४६
अब में लक्ष्मीकी प्रतिमाका प्रकार बतला रहा हूँ। वे नवीन अवस्थामें स्थित, नवयौवनसम्पन्न, उन्नत कपोलसे युक्त, लाल ओष्ठोंवाली, तिरछी भौहोंसे युक्त तथा मणिनिर्मित कुण्डलोंसे विभूषित हों। उनका मुखमण्डल सुन्दर और सिर सिंदूरभरे मौगसे विभूषित हो। वे पद्म, स्वस्तिक और शङ्खसे तथा घुँघराले बालोंसे सुशोभित हों। उनके शरीरमें चोली बँधी हो और दोनों भुजाएँ हाथीके शुण्डादण्डकी भाँति स्थूल तथा केयूर और कङ्कणसे विभूषित हों। उनके बायें हाथमें कमल और दाहिने हाथमें श्रीफल होना चाहिये। उनकी शरीरकान्ति तपाये हुए स्वर्णके समान गौर वर्णकी हो। वे करधनीसे विभूषित, विविध आभूषणोंसे सम्पन्न तथा सुन्दर साड़ीसे सुसज्जित हों। उनके पार्श्वमें चैवर धारण करनेवाली स्त्रियोंकी प्रतिमाएँ निर्मित करनी चाहिये। वे पद्मसिंहासनपर पद्मासनसे स्थित हों। उन्हें दो हाथी शुण्डमें गडुए लिये हुए लगातार स्नान करा रहे हों तथा दो अन्य हाथी भी उनपर घटद्वारा जल छोड़ रहे हों। उस समय लोकेश्वरों, गन्धवों और यक्षोंद्वारा उनकी स्तुति की जा रही हो ॥ ४०-४६॥
स्तूयमाना च लोकेशैस्तथा गन्धर्वगुह्यकैः ।
तथैव यक्षिणी कार्या सिद्धासुरनिषेविता ॥ ४७
पार्श्वयोः कलशी तस्यास्तोरणे देवदानवाः ।
नागाश्चैव तु कर्तव्याः खड्गखेटकधारिणः ।॥ ४८
अधस्तात् प्रकृतिस्तेषां नाभेरूवं तु पौरुषी।
फणाश्च मूर्छिन कर्तव्या द्विजिह्वा बहवः समाः ॥ ४९
पिशाचा राक्षसाचैव भूतवेतालजातयः ।
निर्मासाश्चैव ते सर्वे रौद्रा विकृतरूपिणः ॥ ५०
क्षेत्रपालश्च कर्तव्यो जटिलो विकृताननः।
दिग्वासा जटिलस्तद्वच्छ्वगोमायुनिषेवितः ॥ ५१
कपालं वामहस्ते तु शिरः केशसमावृतम्।
दक्षिणे शक्तिकां दद्यादसुरक्षयकारिणीम् ॥ ५२
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि द्विभुजं कुसुमायुधम्।
पार्श्वे चाश्वमुखं तस्य मकरध्वजसंयुतम् ॥ ५३
दक्षिणे पुष्यबाणं च वामे पुष्पमयं धनुः ।
प्रीतिः स्याद् दक्षिणे तस्य भोजनोपस्करान्विता ॥ ५४
रतिश्च वामपार्श्वे तु शयनं सारसान्वितम्।
पटश्च पटहश्चैव खरः कामातुरस्तथा ॥ ५५
पार्श्वतो जलवापी च वनं नन्दनमेव च।
सुशोभनश्च कर्तव्यो भगवान् कुसुमायुधः ॥ ५६
संस्थानमीषद्धको स्याद् विस्मयस्मितवकाकम्।
एतदुद्देशतः प्रोक्तं प्रतिमालक्षणं मया।
विस्तरेण न शक्नोति बृहस्पतिरपि द्विजाः ॥ ५७
इसी प्रकार यक्षिणीकी प्रतिमा सिद्धों तथा असुरोंद्वारा सेवित बनानी चाहिये। उसके दोनों और दो कलश और तोरणमें देवताओं, दानवों और नागोंकी प्रतिमा रखनी चाहिये, जो खड्ग और डाल धारण किये हुए हों। नीचे की ओर उन नागोंका प्राकृतिक शरीर और नाभिसे ऊपर मनुष्यको आकृति रहनी चाहिये। सिरपर बराबरीसे दिखायी पड़नेवाले दो जिद्धाओंसे युक्त बहुत-से फण बनाने चाहिये। पिशाच, राक्षस, भूत और बेताल जातियोंक लोगोंको भी बनाना चाहिये, वे सभी मांसरहित, विकृत रूपवाले और भयंकर हों। क्षेत्रमालकी प्रतिमा जटाओंसे युत, विकृत मुखवाली, नग्न, श्रृंगालों और कुत्तोंसे सेवित बनानी चाहिये। उसका सिर केशोंसे आच्छादित हो। उसके बायें हाथमें कपाल और दाहिने हाथमें असुर-विनाशिनी शक्ति होनी चाहिये। अब इसके बाद मैं दो भुवाओंवाले कामदेवकी प्रतिमाका वर्णन कर रहा हूँ। उनकी एक और अश्वमुख मकरध्वजकी रचना करनी चाहिये। उसके दाहिने हाथमें पुष्म-बाप और बायें हाथमें पुष्पमय धनुष होना चाहिये। उनकी दाहिनी और भोजनको सामग्रियोंसे युक्त प्रीतिकी तथा बायीं ओर रतिको प्रतिमा शम्यासन एवं सारस पक्षीसे युक्त होनी चाहिये। उनके बगलमें वस्त्र, नगाड़ा तथा कामलोलुप गधा होना चाहिये। प्रतिमाके एक बगलमें जलसे पूर्व बावली तथा नन्दनवन हो। इस तरह ऐश्वर्यशाली कामदेवको पाम सुन्दर बनाना चाहिये। प्रतिमाको मुद्रा कुच्छ करू कुछ विस्मययुक्त और कुछ मुस्कराती हुई हो। ब्राह्मणो। मैंने संक्षेपमें यह प्रतिमाओंका लक्षण बठलाया है। इनका विस्तारपूर्वक वर्णन तो बृहस्पति भी नहीं कर सकते ॥ ४७-५७॥
इति श्रीमालये महापुराणे देवतार्थानुकीर्तन प्रतिमालक्षणं नाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २६१ ॥
इस प्रकार श्रीमात्स्यमहापुराणमें देवताचर्चानुकीर्तन-प्रसङ्गमें प्रतिमा-लक्षण नामक दो सौ एकसठवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ २६१ ॥
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