अर्जुन के वाराहावतार विषयक प्रश्न करने पर शौनकजी द्वारा भगवत्स्वरूप का वर्णन | arjun ke varahavatar vishayak prashn karne par shaunakaji dvara bhagavatsvarup ka varnan

मत्स्य पुराण दो सौ सैंतालीसवाँ अध्याय

अर्जुन के वाराहावतार विषयक प्रश्न करने पर शौनकजी द्वारा भगवत्स्वरूप का वर्णन

अर्जुन उवाच

प्रादुर्भावान् पुराणेषु विष्णोरमिततेजसः ।
सतां कथयतां विप्र वाराह इति नः श्रुतम् ॥ १

जाने न तस्य चरितं न विधिं न च विस्तरम् ।
न कर्म गुणसंख्यानं न चाप्यन्तं मनीषिणः ॥ २

किमात्मको वराहोऽसौ किं मूर्तिः कास्य देवता।
किं प्रमाणः किं प्रभावः किं वा तेन पुरा कृतम् ॥ ३

एतन्मे शंस तत्त्वेन वाराहं श्रुतिविस्तरम् ।
यथाईं च समेतानां द्विजातीनां विशेषतः ॥ ४

अर्जुनने पूछा- विप्रवर! पुराणोंमें संतोंद्वारा अपरिमित तेजस्वी भगवान् विष्णुके अवतारोंके वर्णनमें हमने वाराह अवतारकी बात सुनी है, किंतु मैं उन बुद्धिमान् भगवान्‌के चरित्र, विस्तार, कर्म, गुण और आराधनाविधिको नहीं जानता। वे वाराह भगवान् किस प्रकारके हैं? उनका स्वरूप कैसा है? उनकी देवशक्ति कैसी है? उनका क्या प्रमाण और कितना प्रभाव है? प्राचीनकालमें उन्होंने क्या कार्य किये हैं? इसलिये पुराणोंमें कही हुई वाराह अवतारकी ये सारी बातें मुझे तथा विशेषकर यहाँ आये हुए इन ब्राह्मणोंको तत्त्वपूर्वक बतलाइये ॥ १-४॥

शौनक उवाच

एतत् ते कथयिष्यामि पुराणं ब्रह्मसम्मितम् ।
महावराहचरितं कृष्णस्याद्भुतकर्मणः ॥ ५

यथा नारायणो राजन् वाराहं वपुरास्थितः । 
दंष्ट्या गां समुद्रस्थामुञ्जहारारिमर्दनः ॥ ६ 

छन्दोगीर्भिरुदाराभिः श्रुतिभिः समलङ्कृतः ।
 मनः प्रसन्नतां कृत्वा निबोध विजयाधुना ॥ ७

इदं पुराणं परमं पुण्यं वेदैश्च सम्मितम् । 
नानाश्रुतिसमायुक्तं नास्तिकाय न कीर्तयेत् ॥ ८

पुराणं वेदमखिलं सांख्यं योगं च वेद यः। 
कात्स्र्येन विधिना प्रोक्तं सौख्यार्थं वेदयिष्यति ॥ ९

विश्वेदेवास्तथा साध्या रुद्रादित्यास्तथाश्विनौ। 
प्रजानां पतयश्चैव सप्त चैव महर्षयः ॥ १०

मनः संकल्पजाश्चैव पूर्वजा ऋषयस्तथा। 
वसवो मरुतश्चैव गन्धर्वा यक्षराक्षसाः ॥ ११

दैत्याः पिशाचा नागाश्च भूतानि विविधानि च।
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा म्लेच्छाश्च ये भुवि ॥ १२

चतुष्पदानि सर्वाणि तिर्यग्योनिशतानि च। 
जङ्गमानि च सत्त्वानि यच्चान्यज्ञ्जीवसंज्ञितम् ॥ १३

पूर्ण युगसहस्त्रे तु ब्राह्मेऽहनि तथागते। 
निर्वाणे सर्वभूतानां सर्वोत्पातसमुद्भवे ॥ १४

हिरण्यरेतास्त्रिशिखस्ततो भूत्वा वृषाकपिः । 
शिखाभिर्विधमँल्लोकानशोषयत वह्निना ॥ १५

शौनकजी बोले- अर्जुन ! मैं तुमसे अद्भुतकर्मा भगवान् श्रीकृष्णके महावाराह अवतारके चरित्रको, जो पुराणोंमें वर्णित तथा ब्रह्मसम्मित है, कह रहा हूँ। राजन् ! जिस प्रकार शत्रुसंहारक भगवान् विष्णुने वराह-रूप धारणकर समुद्र-स्थित पृथ्वीका दाढ़ोंपर रखकर उद्धार किया था तथा जिस प्रकार उदार श्रुतियोंने वैदिक वाणीद्वारा उनका अभिनन्दन किया था, यह सब इस समय मनको प्रसन्न करके सुनो। अर्जुन। यह पुराण परम पुण्यमय, वेदोंद्वारा अनुमोदित तथा अनेकों श्रुतियोंसे सम्पन्न है, इसे नास्तिक व्यक्तिसे नहीं कहना चाहिये। जो सभी पुराणों, वेदों, सांख्य और योगको पूरी विधिके साथ जानता है, उसीसे इसकी कथा कहनी चाहिये; क्योंकि वही इसके अर्थको जान सकेगा। विश्वेदेवगण, साध्यगण, रुद्रगण, आदित्यगण, अश्विनीकुमार, प्रजापतिगण, सातों महर्षि, ब्रह्माके मानसिक संकल्पसे सर्वप्रथम उत्पन्न हुए सनकादि ब्रह्मर्षि, वसुगण, मरुद्गण, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, दैत्य, पिशाच, नाग, विविध प्रकारके जीव, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, म्लेच्छ आदि जितनी जातियाँ पृथ्वीपर हैं, सभी चौपाये, सैकड़ों तिर्यग्योनियाँ, जङ्गम प्राणी तथा अन्य जो जीव नामधारी हैं-इन सभीको एक हजार युग बीतनेके पश्चात् ब्रह्माका दिन आनेपर जब सभी प्रकारके उत्पात होने लगते हैं और सभी प्राणियोंका विनाश हो जाता है, तब हिरण्यरेता भगवान् जो वृषाकपि नामसे विख्यात हैं, तीन अग्निशिखाओंसे युक्त होकर अपनी उग्र ज्वालाओंद्वारा सभी लोकोंका विनाश करते हुए अग्निके प्रभावसे दग्ध कर देते हैं॥ ५-१५॥

दह्यमानास्ततस्तस्य तेजोराशिभिरुद्गतैः । 
विवर्णवर्णा दग्धाङ्गा हतार्चिष्मद्भिराननैः ॥ १६

साङ्गोपनिषदो वेदा इतिहासपुरोगमाः । 
सर्वविद्याः क्रियाश्चैव सर्वधर्मपरायणाः ॥ १७

ब्रह्माणमग्रतः कृत्वा प्रभवं विश्वतोमुखम् । 
सर्वदेवगणाश्चैव त्रयस्त्रिंशत् तु कोटयः ॥ १८

तस्मिन्नहनि सम्प्राप्ते तं हंसं महदक्षरम्। 
प्रविशन्ति महात्मानं हरिं नारायणं प्रभुम् ॥ १९

तेषां भूयः प्रवृत्तानां निधनोत्पतिरुच्यते ।
यथा सूर्यस्य सततमुदयास्तमने इह ॥ २०

पूर्णे युगसहस्त्रान्ते कल्पो निःशेष उच्यते। 
यस्मिन् जीवकृतं सर्वे निःशेषं समतिष्ठत ।। २१

संहृत्य लोकानखिलान् सदेवासुरमानुषान् । 
कृत्वा सुसंस्थां भगवानास्त एको जगद्‌गुरुः ॥ २२

स स्त्रष्टा सर्वभूतानां कल्पान्तेषु पुनः पुनः । 
अव्ययः शाश्वतो देवो यस्य सर्वमिदं जगत् ॥ २३

नष्टार्ककिरणे लोके चन्द्रग्रहविवर्जिते । 
त्यक्तधूमाग्निपवने क्षीणयज्ञवष‌क्रिये ॥ २४

अपक्षिगणसम्पाते सर्वप्राणिहरे पथि।
अमर्यादाऽऽकुले रौद्रे सर्वतस्तमसावृते ॥ २५

अदृश्ये सर्वलोकेऽस्मिन्नभावे सर्वकर्मणाम्। 
प्रशान्ते सर्वसम्पाते नष्टे वैरपरिग्रहे ॥ २६

गते स्वभावसंस्थाने लोके नारायणात्मके । 
परमेष्ठी हृषीकेशः शयनायोपचक्रमे ॥ २७

उस दिनके प्राप्त होनेपर निकलती हुई तेजोराशिसे जिनके शरीर जल गये थे तथा झुलसे हुए मुखोंसे जिनका रंग बदल गया था, वे छहों अङ्गॉसहित वेद, उपनिषद्, इतिहास, सभी विद्याएँ, सम्पूर्ण धार्मिक क्रियाएँ और तैंतीस करोड़ सभी देवगण सम्पूर्ण विश्वके उत्पत्तिस्थानरूप ब्रह्माको आगे करके हंसस्वरूप उन भगवान् विष्णुमें, जो सर्वोत्कृष्ट, अविनाशी, महान् आत्मबलसे सम्पन्न और जलशायी हैं, प्रविष्ट हो जाते हैं। उनका पुनः प्रकट होना उसी प्रकार जन्म-मृत्यु कहा जाता है, जैसे इस लोकमें सूर्यका निरन्तर उदय और अस्त होता रहता है। एक हजार युग पूर्ण होनेपर कल्पकी समाप्ति कही जाती है, जिसमें सभी जीवोंके कार्य भी समाप्त हो जाते हैं। उस समय अकेले जगद्‌गुरु भगवान् विष्णु देवता, असुर और मानवसहित सभी लोकोंका संहारकर और उन्हें अपनेमें समाविष्ट कर विद्यमान रहते हैं। यह सारा जगत् जिनका अंशरूप है, वे सनातन अविनाशी भगवान् प्रत्येक कल्पकी समाप्तिपर बारंबार सभी जीवोंकी सृष्टि करते हैं। जब लोकमें सूर्यकी किरणें नष्ट हो जाती हैं, चन्द्रमा और ग्रह लुप्त हो जाते हैं, धूम, अग्नि और पवन दूर हो जाते हैं, यज्ञोंमें वषट्‌कारकी ध्वनि अस्त हो जाती है, पक्षिगणोंका उड़ना बंद हो जाता है, मार्गमें सभी प्राणियोंका अपहरण होने लगता है, भीषणता मर्यादाकी सीमाके बाहर पहुँच जाती है, चारों ओर निविड़ अन्धकार छा जाता है, सारा लोक अदृश्य हो जाता है, सभी कर्मोंका अभाव हो जाता है, सारी उत्पत्ति प्रशान्त हो जाती है, वैरभाव नष्ट हो जाता है और सब कुछ नारायणरूपी लोकमें विलीन हो जाता है, उस समय इन्द्रियोंके स्वामी परमेष्ठी शयनके लिये उद्यत होते हैं॥ १६-२७॥ 

पीतवासा लोहिताक्षः कृष्णो जीमूतसन्निभः । 
शिखासहस्त्रविकचजटाभारं समुद्वहन् ॥ २८

श्रीवत्सलक्षणधरं रक्तचन्दनभूषितम्।
वक्षो बिभ्रन्महाबाहुः सविद्युदिव तोयदः ॥ २९

पुण्डरीकसहस्त्रेण स्त्रगस्य शुशुभे शुभा। 
पत्नी चास्य स्वयं लक्ष्मीर्देहमावृत्य तिष्ठति ॥ ३०

ततः स्वपिति शान्तात्मा सर्वलोकशुभावहः । 
किमप्यमितयोगात्मा निद्रायोगमुपागतः ॥ ३१

ततो युगसहस्त्रे तु पूर्णे स पुरुषोत्तमः । 
स्वयमेव विभुर्भूत्वा बुध्यते विबुधाधिपः ॥ ३२

ततश्चिन्तयते भूयः सृष्टि लोकस्य लोककृत् । 
नरान् देवगणांश्चैव पारमेष्ठठ्येन कर्मणा ॥ ३३

ततः संचिन्तयन् कार्यं देवेषु समितिञ्जयः । 
सम्भवं सर्वलोकस्य विदधाति सतां गतिः ॥ ३४ 

कर्ता चैव विकर्ता च संहर्ता वै प्रजापतिः । 
नारायणः परं सत्यं नारायणः परं पदम् ॥ ३५ 

नारायणः परो यज्ञो नारायणः परा गतिः । 
स स्वयम्भूरिति ज्ञेयः स स्त्रष्टा भुवनाधिपः ॥ ३६

स सर्वमिति विज्ञेयो होष यज्ञः प्रजापतिः । 
यद् वेदितव्यस्त्रिदशैस्तदेष परिकीर्त्यते ॥ ३७

उस समय महाबाहु भगवान् पीताम्बरधारी, लाल नेत्रोंसे युक्त, काले मेघकी-सी कान्तिसे सम्पन्न, हजारों शिखाओंसे युक्त जटाभारको वहन करनेवाले, श्रीवत्सके चिह्नसे सुशोभित एवं लाल चन्दनसे विभूषित वक्षः स्थलको धारण करते हुए बिजलीसहित मेघकी भाँति शोभायमान होते हैं। हजारों कमल पुष्पोंकी बनी हुई सुन्दर माला उनकी शोभा बढ़ाती है। उनकी पत्नी स्वयं लक्ष्मी उनके शरीरको आच्छादित करके विद्यमान रहती हैं। तत्पश्चात् शान्तात्मा, सभी लोकोंके कल्याणकारी और परम योगी भगवान् कुछ योगनिद्राका आश्रय लेकर शयन करते हैं। फिर एक हजार युग व्यतीत होनेपर देवेश्वर भगवान् पुरुषोत्तम सर्वव्यापी होकर अपने-आप ही जागते हैं। तदनन्तर लोककर्ता भगवान् ब्रह्माके कर्मद्वारा मनुष्यों और देवताओंकी सृष्टिके विषयमें पुनः विचार करते हैं। तत्पश्चात् सत्पुरुषोंके आश्रयरूप एवं रणविजयी भगवान् देवताओंके विषयमें कार्यकी चिन्तना करते हुए सारे लोककी सृष्टि करते हैं। वे ही परमात्मा इस समस्त सृष्टिके कर्ता, विकर्ता, संहर्ता और प्रजापति हैं। नारायण ही परम सत्य, नारायण ही परम पद, नारायण ही परम यज्ञ और नारायण ही परमगति हैं। उन्हें ही स्वयम्भू, सभी भुवनोंका अधीश्वर और स्रष्टा जानना चाहिये। उन्हींको सर्वरूप समझना चाहिये। ये यज्ञस्वरूप और प्रजापति हैं। देवताओंद्वारा जो जाननेयोग्य है, वह ये ही कहे जाते हैं॥ २८-३७ ॥ 

यत्तु वेद्यं भगवतो देवा अपि न तद् विदुः ।
प्रजानां पतयः सर्वे ऋषयश्च सहामरैः ॥ ३८

नास्यान्तमधिगच्छन्ति विचिन्वन्त इति श्रुतिः ।
यदस्य परमं रूयं न तत् पश्यन्ति देवताः ॥ ३९

प्रादुर्भावे तु यद् रूपं तदर्चन्ति दिवौकसः ।
दर्शितं यदि तेनैव तदवेक्षन्ति देवताः ॥ ४०

यन्न दर्शितवानेष कस्तदन्वेष्टुमीहते।
ग्रामणीः सर्वभूतानामग्निमारुतयोर्गतिः ॥ ४१

तेजसस्तपसश्चैव निधानममृतस्य च।
चतुराश्रमधर्मेश श्चातुर्होत्रफलाशनः ॥ ४२

चतुः सागरपर्यन्तश्चतुर्युगनिवर्तकः ।
तदेष संहृत्य जगत् कृत्वा गर्भस्थमात्मनः । 
मुमोचाण्डं महायोगी धृतं वर्षसहस्त्रकम् ॥ ४३

सुरासुरद्विजभुजगाप्सरोगणै-हुँमौषधिक्षितिधरयक्षगुह्यकैः ।
प्रजापतिः श्रुतिभिरसंकुलं किल तदासृजज्ञ्जगदिदमात्मना प्रभुः ॥ ४४ 

भगवान्‌का जो स्वरूप जाननेयोग्य है, उसे देवगण भी नहीं जानते। सभी प्रजापति, देवतागण और ऋषिगण खोजते रहते हैं, किंतु इनका अन्त नहीं पाते- ऐसी श्रुति है। इस परमात्माका जो परम स्वरूप है, उसे देवतालोग भी नहीं देख पाते। उनके प्रादुर्भावकालमें जिस स्वरूपके दर्शन होते हैं, देवगण उसीकी पूजा करते हैं। यदि उन्होंने स्वयं ही अपने रूपको दिखा दिया तो देवगण उसे देख पाते हैं। वे जिस रूपका दर्शन नहीं कराते, उसकी खोज करनेके लिये कौन तत्पर हो सकता है? जो सभी जीवोंके नायक, अग्नि और वायुकी गति, तेज, तपस्या और अमृतके निधान, चारों आश्रमधमौके स्वामी, चातुहर्होत्र यज्ञके फलका भक्षण करनेवाले, चारों समुद्रोंतक व्याप्त और चारों युगोंकी निवृत्ति करनेवाले हैं, वे ही महायोगी भगवान् इस जगत्का संहारकर अपने उदरमें रख लेते हैं और हजार वर्षांतक धारण करनेके पश्चात् उस अण्डको उत्पन्न कर देते हैं। तत्पश्चात् प्रजापति भगवान् अपने शरीरसे सुर, असुर, द्विज, सर्प, अप्सराओंके समूह, समस्त वृक्ष, ओषधि, पर्वत, यक्ष, गुह्य और श्रुतियोंसे युक्त इस जगत्‌की सृष्टि करते हैं ॥ ३८-४४ ॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे वराहप्रादुर्भावे सप्तचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २४७ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें वराहप्रादुर्भाव नामक दो सौ सैंतालीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २४७ ॥

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