अमृतार्थ समुद्र-मन्थन करते समय चन्द्रमा से लेकर विषतक का प्रादुर्भाव | amrutarth samudra-manthan karate samaya chandra maa se lekar vishatak ka pradurbhav

मत्स्य पुराण दो सौ पचासवाँ अध्याय

अमृतार्थ समुद्र-मन्थन करते समय चन्द्रमा से लेकर विषतकका प्रादुर्भाव 

सूत उवाच

नारायणवचः श्रुत्वा बलिनस्ते महोदधौ।
तत्पयः सहिता भूत्वा चक्रिरे भृशमाकुलम् ॥ १

सूतजी कहते हैं-ऋषियो ! भगवान् विष्णुकी बात सुनकर वे बलवान् सम्मिलित होकर उस महासमुद्रमें उसकी जलराशिको अत्यन्त क्षुभित करने लगे। १

ततः शतसहस्त्रांशुसमान इव सागरात्। 
प्रसन्नाभः समुत्पन्नः सोमः शीतांशुरुज्ज्वलः ॥ २

श्रीरनन्तरमुत्पन्ना घृतात् पाण्डुरवासिनी। 
सुरादेवी समुत्पन्ना तुरगः पाण्डुरस्तथा ॥ ३

कौस्तुभश्च मणिर्दिव्यश्चोत्पन्नोऽमृतसम्भवः ।
मरीचिविकचः श्रीमान् नारायण उरोगतः ॥ ४

पारिजातश्च विकचकुसुमस्तबकाञ्चितः ।
अनन्तरमपश्यंस्ते धूममम्बरसंनिभम् ।। ५

आपूरितदिशाभागं दुःसहं सर्वदेहिनाम् । 
तमाघ्राय सुराः सर्वे मूच्छिताः परिलम्बिताः ॥ ६

उपाविशन्नब्धितटे शिरः संगृह्य पाणिना।
ततः क्रमेण दुर्वारः सोऽनलः प्रत्यदृश्यत ॥ ७

ज्वालामालाकुलाकारः समन्ताद् भीषणोऽर्चिषा । 
तेनाग्निना परिक्षिप्ताः प्रायशस्तु सुरासुराः ॥ ८

दग्धाश्चाप्यर्धदग्धाश्च बभ्रमुः सकला दिशः ।
प्रधाना देवदैत्याश्च भीषितास्तेन वह्निना । ९

अनन्तरं समुद्भूतास्तस्माड्डुण्डुभजातयः । 
कृष्णसर्पा महादंष्ट्रा रक्ताश्च पवनाशनाः ॥ १० 

श्वेतपीतास्तथा चान्ये तथा गोनसजातयः । 
मशका भ्रमरा दंशा मक्षिकाः शलभास्तथा ॥ ११

कर्णशल्याः कृकलासा अनेके चैव बभ्रमुः । 
प्राणिनो दंष्ट्रिणो रौद्रास्तथा हि विषजातयः ॥ १२

शार्ङ्गहालाहलामुस्तवत्सकागुरुभस्मगाः ।
नीलपत्रादयश्चान्ये शतशो बहुभेदिनः । 
येषां गन्धेन दह्यन्ते गिरिशृङ्गाण्यपि द्रुतम् ॥ १३

इसके बाद समुद्रसे सौ सूर्योकी भाँति दीप्तिशाली शीतरश्मि उज्ज्वल चन्द्रमा उत्पन्न हुए। तत्पश्चात् समुद्रके जलसे पीले वस्त्रोंसे शोभित लक्ष्मी उत्पन्न हुईं, फिर सुरादेवी तथा पीले रंगका घोड़ा उत्पन्न हुआ। तदनन्तर नारायणके वक्षःस्थलपर शोभित होनेवाली किरणोंसे व्याप्त, शोभा-सम्पन्न तथा अमृतसे उत्पन्न होनेवाली दिव्य कौस्तुभमणि उत्पन्न हुई। पुनः अनेक खिले हुए पुष्पोंके गुच्छोंसे व्याप्त पारिजात प्रकट हुआ। तदुपरान्त देवताओं और दैत्योंने आकाशके समान नीले रंगके धुएँको निकलते हुए देखा, जो सभी दिशाओंमें परिव्याप्त और सभी प्राणियोंके लिये दुःसह था। उसे सूंघकर देवगण मूच्छित होकर गिरने लगे और हाथसे सिरको पकड़कर समुद्र-तटपर बैठ गये। 

तदनन्तर क्रमशः वह दुःसह अग्नि दिखायी पड़ी। उसका आकार ज्वालाओंसे व्याप्त था तथा चारों ओर फैली हुई लपटोंसे वह भीषण लग रही थी। उस अग्निसे प्रायः सभी देवता और दानवगण विक्षिप्त हो उठे और कुछ जले तथा कुछ अधजले हुए सभी दिशाओंमें घूमने लगे। इस प्रकार सभी प्रधान देव तथा दैत्यगण उस अग्निसे भयभीत हो गये। कुछ देरके बाद उस अग्निसे डुण्डुभ जातिके सर्प उत्पन्न हुए। उसी प्रकार काले, विशाल दाढ़ोंवाले, लाल, वायु पीकर रहनेवाले, श्वेत, पीले तथा अन्य गोनस जातिवाले सर्प तथा मशक, भ्रमर, डैसा, मक्खियाँ, पतंगे, कर्णशल्य, गिरगिट आदि अनेकों जीव उत्पन्न होकर इधर-उधर घूमने लगे। इनके अतिरिक्त अति भीषण दादोंवाले बहुत-से जीव तथा विषकी अनेकों जातियाँ उत्पन्न हुई-जैसे शार्ङ्ग, हालाहल, मुस्त, वत्स, अगुरु, भस्मग और नील-पत्र आदि। इसी प्रकार अन्य सैकड़ों भेदोपभेदवाले विष उत्पन्न हुए, जिनकी गन्धसे पर्वतोंक शिखर भी तुरंत ही जलने लगे ॥ २-१३॥ 

अनन्तरं नीलरसौघभृङ्ग-भिन्नाञ्जनाभं विषमं श्वसन्तम् ।
कायेन लोकान्तरपूरकेण केशैश्च वह्निप्रतिमैर्ध्वलद्भिः ॥ १४

सुवर्णमुक्ताफलभूषिताङ्गं किरीटिनं पीतदुकूलजुष्टम् ।
नीलोत्पलाभं कुसुमैः कृतार्थं गर्जन्तमम्भोधरभीमवेगम् ॥ १५ 

अद्राक्षुरम्भोनिधिमध्यसंस्थं सविग्रहं देहिभयाश्रयं तम्।
विलोक्य तं भीषणमुग्रनेत्रं भूताश्च वित्रेसुरथापि सर्वे ॥ १६

केचिद् विलोक्यैव गता ह्यभावं निः संज्ञतां चाप्यपरे प्रपन्नाः। 
वेमुर्मुखेभ्योऽपि च फेनमन्ये केचित् त्ववाप्ता विषमामवस्थाम् ॥ १७

श्वासेन तस्य निर्दग्धास्ततो विष्ण्विन्द्रदानवाः । 
दग्धाङ्गारनिभा जाता ये भूता दिव्यरूपिणः । 
ततस्तु सम्भ्रमाद् विष्णुस्तमुवाच सुरात्मकम् ॥ १८

तदनन्तर देवताओं और दानवोंने सागरके मध्यमें स्थित एक ऐसा स्वरूप देखा, जिसको शरीर-कान्ति नीलरस, भ्रमर और घिसे हुए अञ्जनके समान काली थी, जो विषमरूपसे श्वास ले रहा था और शरीरसे लोकान्तरको व्याप्त कर लिया था, जिसके केश जलती हुई अग्निके समान दिखायी पड़ रहे थे, जिसका शरीर सुवर्ण और मोतियोंसे विभूषित था, जो किरीट धारण किये हुए था, जिसके शरीरपर पीताम्बर सुशोभित था और देहकी कान्ति नीले कमलके समान थी, जो पुष्पोंद्वारा अलंकृत और मेघकी तरह अत्यन्त भयंकर रूपसे गर्जना कर रहा था तथा प्राणियोंके लिये शरीरधारी भयका आश्रयस्थान था। उस भीषण एवं उग्र नेत्रवाले स्वरूपको देखकर सभी प्राणी भयभीत हो उठे। कितने तो देखते ही चल बसे, कितने मूर्छित हो गये, कुछ मुखसे फेन उगलने लगे और कुछ लोग विषम अवस्थाको प्राप्त हो गये। उसकी श्वाससे विष्णु, इन्द्र और दानव सभी जलने लगे। थोड़ी देर पहले जो दिव्य रूपवाले थे, वे जले हुए अंगारके समान हो गये। तब भगवान् विष्णुने भयभीत होकर उस सुरात्मकसे इस प्रकार प्रश्न किया ॥ १४-१८॥ 

श्रीभगवानुवाच

को भवानन्तकप्रख्यः किमिच्छसि कुतोऽपि च। 
किं कृत्वा ते प्रियं जायेदेवमाचक्ष्व मेऽखिलम् ॥ १९

तच्च तस्य वचः श्रुत्वा विष्णोः कालाग्निसंनिभः । 
उवाच कालकूटस्तु भिन्नदुन्दुभिनिःस्वनः ॥ २०

श्रीभगवान्ने पूछा- यमराजके समान आप कौन हैं? क्या चाहते हैं? और कहाँ से आ रहे हैं? क्या करनेसे आपकी कामना पूर्ण होगी? ये सभी बातें मुझे बताइये। भगवान् विष्णु की वह बात सुनकर कालाग्निके समान भयंकर एवं फटी हुई दुन्दुभिके समान बोलने वाला कालकूट बोला ॥ १९-२०॥

कालकूट उवाच

अहं हि कालकूटाख्यो विषोऽम्बुधिसमुद्भवः ।
यदा तीव्रतरामषैः परस्परवधैषिभिः ॥ २१

सुरासुरैर्विमथितो दुग्धाम्भोनिधिरद्भुतः ।
सम्भूतोऽहं तदा सर्वान् हन्तुं देवान् सदानवान् ॥ २२

सर्वानिह हनिष्यामि क्षणमात्रेण देहिनः । 
मां वा ग्रसत वै सर्वे यात वा गिरिशान्तिकम् ॥ २३ 

श्रुत्वैतद् वचनं तस्य ततो भीताः सुरासुराः । 
ब्रह्मविष्णू पुरस्कृत्य गतास्ते शङ्करान्तिकम् ॥ २४ 

निवेदितास्ततो द्वाःस्थैस्ते गणेशैः सुरासुराः । 
अनुज्ञाताः शिवेनाथ विविशुर्गिरिशान्तिकम् ॥ २५ 

मन्दरस्य गुहां हैमीं मुक्तामणिविभूषिताम् । 
सुस्वच्छमणिसोपानां वैदूर्यस्तम्भमण्डिताम् ॥ २६ 

तत्र देवासुरैः सर्वैर्जानुभिर्धरणिं गतैः । 
ब्रह्माणमग्रतः कृत्वा इदं स्तोत्रमुदाहृतम् ॥ २७

कालकूटने कहा- विष्णो! मैं समुद्रसे उत्पन्न हुआ कालकूट नामक विष हूँ। जब परस्पर एक-दूसरेके वध के अभिलाषी देवता तथा दैत्योंद्वारा उग्र वेगसे अद्भुत क्षीरसागर मथा गया, तब मैं उन सभी देवताओं और दानवोंका संहार करनेके लिये उत्पन्न हुआ हूँ। मैं क्षणभरमें ही सभी शरीरधारियोंका संहार कर सकता हूँ। अतः ये सभी लोग या तो मुझे निगल जाय अथवा शंकरको शरणमें जायें। कालकूटकी वह बात सुनकर देवता और असुर भयभीत हो गये, तब वे ब्रह्मा और विष्णुको आगे करके शंकरजीके पास जानेके लिये प्रस्थित हुए। वहाँ पहुँचनेपर द्वारपाल गणेश्वरोंने जाकर शिवजीसे देवताओं और दैत्योंके आगमनकी सूचना दी। तब शंकरजीसे आज्ञा पाकर वे लोग शिवजीके निकट मन्दराचलकी उस सुवर्णमयी गुफामें गये, जो मुक्तामणियोंसे विभूषित थी, जिसमें स्वच्छ मणि जटित सीढ़ियाँ लगी थीं और जो वैदूर्य मणिके स्तम्भसे शोभायमान थी। वहाँ ब्रह्माजीको आगे कर सभी देवताओं और असुरोंने पृथिवीपर घुटने टेककर शिवजीको (पञ्चाङ्ग) नमस्कार किया और फिर वे इस स्तोत्रका पाठ करने लगे ॥ २१-२७॥

देवदानवा ऊचुः

नमस्तुभ्यं विरूपाक्ष नमस्ते दिव्यचक्षुषे।
नमः पिनाकहस्ताय वज्रहस्ताय धन्विने ॥ २८

नमस्त्रिशूलहस्ताय दण्डहस्ताय धूर्जटे।
नमस्त्रैलोक्यनाथाय भूतग्रामशरीरिणे ॥ २९

नमः सुरारिहन्त्रे च सोमाग्न्यर्काग्र्यचक्षुषे। 
ब्रह्मणे चैव रुद्राय नमस्ते विष्णुरूपिणे॥ ३०

ब्रह्मणे वेदरूपाय नमस्ते देवरूपिणे । 
सांख्ययोगाय भूतानां नमस्ते शम्भवाय ते ॥ ३१

मन्मथाङ्गविनाशाय नमः कालक्षयंकर। 
रंहसे देवदेवाय नमस्ते वसुरेतसे ॥ ३२

एकवीराय सर्वाय नमः पिङ्गकपर्दिने। 
नमस्तुभ्यं उमाभत्रै यज्ञत्रिपुरघातिने ॥ ३३

शुद्धबोधप्रबुद्धाय मुक्तकैवल्यरूपिणे । 
लोकत्रयविधात्रे च वरुणेन्द्राग्निरूपिणे ॥ ३४

ऋग्यजुःसामरूपाय पुरुषायेश्वराय च। 
अग्र्याय चैव चोग्राय विप्राय श्रुतिचक्षुषे ।। ३५

रजसे चैव सत्त्वाय तमसे तिमिरात्मने। 
अनित्यनित्यभावाय नमो नित्यचरात्मने ॥ ३६

व्यक्ताय चैवाव्यक्ताय व्यक्ताव्यक्ताय वै नमः । 
भक्तानामार्तिनाशाय प्रियनारायणाय च ॥ ३७

उमाप्रियाय शर्वाय नन्दिवक्त्राञ्चिताय च। 
ऋतुमन्वन्तकल्पाय पक्षमासदिनात्मने ।। ३८

नानारूपाय मुण्डाय वरूथपृथुदण्डिने। 
नमः कपालहस्ताय दिग्वासाय शिखण्डिने ॥ ३९

धन्विने रथिने चैव यतये ब्रह्मचारिणे। 
इत्येवमादिचरितैः स्तुतं तुभ्यं नमो नमः ॥४०

एवं सुरासुरैः स्थाणुः स्तुतस्तोषमुपागतः । 
उवाच वाक्यं भीतानां स्मितान्वितशुभाक्षरम् ॥ ४१ 

देवताओं और दानवोंने कहा- विरूपाक्ष! आपको नमस्कार है। दिव्य नेत्रधारी आपको प्रणाम है। आप अपने हाथोंमें पिनाक, वज्र और धनुष धारण करनेवाले हैं, आपको अभिवादन है। हाथमें त्रिशूल और दण्ड धारण करनेवाले जटाधारीको नमस्कार है। आप त्रिलोकीनाथ और प्राणिसमूहके शरीररूप हैं, आपको प्रणाम है। देव-शत्रुओंका संहार करनेवाले तथा चन्द्रमा, अग्नि और सूर्यरूप नेत्र धारण करनेवालेको अभिवादन है। ब्रह्मा, विष्णु और रुद्ररूप आपको नमस्कार है। आप ब्रह्मस्वरूप, वेदस्वरूप और देवरूप हैं, आपको प्रणाम है। आप सांख्ययोगस्वरूप और प्राणियोंका कल्याण करनेवाले हैं, आपको अभिवादन है। कामदेवके शरीरके विनाशक और कालके क्षयकर्ता आपको नमस्कार है। आप वेगशाली, देवाधिदेव और वसुरेता हैं, आपको प्रणाम है। सर्वश्रेष्ठ वीर, सर्वस्वरूप और पीले रंगकी जटा धारण करनेवालेको अभिवादन है।

उमाके पति तथा यज्ञ एवं त्रिपुरका विनाश करनेवाले आपको नमस्कार है। आप शुद्ध ज्ञानसे परिपूर्ण, मुक्त कैवल्यरूप, तीनों लोकोंके विधाता, वरुण, इन्द्र और अग्निके स्वरूप, ऋक्, यजुः और सामवेदरूप, पुरुषोत्तम, परमेश्वर, सर्वश्रेष्ठ, भयंकर, ब्राह्मणस्वरूप, श्रुतिरूप नेत्रवाले, सत्त्व, रजस्, तमस् तीनों गुणोंसे युक्त अन्धकारस्वरूप, अनित्य और नित्य भावसे सम्पन्न तथा नित्यचरात्मा हैं। आपको प्रणाम है। आप व्यक्त, अव्यक्त और व्यक्ताव्यक्त हैं, आपको अभिवादन है। आप भक्तोंकी पीड़ाके विनाशक, नारायणके मित्र, उमाके प्रियतम, संहारकर्ता, नन्दीके मुखसे सुशोभित, मन्वन्तर-कल्प-ऋतु-मास-पक्ष-दिनरूप, अनेक रूपधारी, मुण्डित सिरवाले, स्थूल दण्ड और कवच धारण करनेवाले, खप्परधारी, दिगम्बर, चूडाधारी, धनुषधारी, महारथी, संन्यासी और ब्रह्मचारी हैं, आपको नमस्कार है। इस प्रकारके अनेकों चरित्रोंसे स्तुत होनेवाले आपको बारंबार प्रणाम है। इस प्रकार देवासुरोंद्वारा स्तवन किये जानेपर शंकरजी प्रसन्न हो गये। तब वे उन भयभीत देवासुरोंसे मुसकराते हुए सुन्दर अक्षरोंसे युक्त वचन बोले ॥ २८-४१॥

श्रीशंकर उवाच

किमर्थमागता बूत त्रासम्लानमुखाम्बुजाः ।
किं वाभीष्टं ददाम्यद्य कार्म प्रव्रत मा चिरम्।
इत्युक्तास्ते तु देवेन प्रोचुस्तं ससुरासुराः ॥ ४२

भगवान् श्रीशंकरने कहा- देवता एवं दानवो। तुम्हारे मुखकमल भयके कारण मलिन दीख रहे हैं, बतलाओ, तुमलोग यहाँ किसलिये आये हो? मैं आज तुमलोगोंको कौन-सी अभीष्ट वस्तु दूँ, यह निर्भय होकर बतलाओ, देर मत करो। भगवान् शंकरद्वारा ऐसा कहे जानेपर देवासुरोंने उनसे इस प्रकार कहा ॥ ४२॥

सुरासुरा ऊचुः

अमृतार्थे महादेव मध्यमाने महोदधौ। 
विषमद्भुतमुद्भूतं लोकसंक्षयकारकम् ॥ ४३

स उवाचाथ सर्वेषां देवानां भयकारकः । 
सर्वान् वो भक्षयिष्यामि अथवा मां पिबन्त्वथ ॥ ४४

तमशक्ता वयं ग्रस्तुं सोऽस्माञ्शक्तो बलोत्कटः ।
एष निःश्वासमात्रेण शतपर्वसमद्युतिः ।॥ ४५

विष्णुः कृष्णः कृतस्तेन यमश्च विषमात्मवान्।
मूच्छिताः पतिताश्चान्ये विप्रणाशं गताः परे ।। ४६

अर्थोऽनर्थक्रियां याति दुर्भगाणां यथा विभो।
दुर्बलानां च संकल्पो यथा भवति चापदि ॥ ४७

विषमेतत् समुद्भूतं तस्माद् वामृतकाङ्क्षया। 
अस्माद् भयान्मोचय त्वं गतिस्त्वं च परायणम् ॥ ४८

भक्तानुकम्पी भावज्ञो भुवनादीश्वरो विभुः । 
यज्ञाग्रभुक् सर्वहविः सौम्यः सोमः स्मरान्तकृत् ॥ ४९

त्वमेको नो गतिर्देव गीर्वाणगणशर्मकृत् । 
रक्षास्मान् भक्षसंकल्पाद् विरूपाक्ष विषज्वरात् ॥ ५० 

तच्छ्रुत्वा भगवानाह भगनेत्रान्तकृद् भवः ॥ ५१

देवासुर बोले- महादेव! अमृतके लिये महासागरको मथते समय अद्भुत विष उत्पन्न हुआ है, जो सभी लोकोंका विनाश करनेवाला है। सभी देवताओंको भयभीत करनेवाले उस विषने स्वयं कहा है कि 'मैं तुम सभीको खा जाऊँगा, अन्यथा तुमलोग मुझे पी जाओ।' ऐसी दशामें हमलोग उस विषको पान करनेमें सर्वथा असमर्थ हैं, किंतु वह महाबली विष हमलोगोंको खा सकता है। उसने अपने निःश्वासमात्रसे सैकड़ों चन्द्रमाके समान कान्तिमान् भगवान् विष्णुको कृष्णवर्ण तथा यमराजको विक्षिप्त कर दिया है। कुछ लोग मूर्छित हो गये हैं और कुछ नष्ट हो गये। भगवन् ! जिस प्रकार अभागोंके अर्थ भी अनर्थके कारण बन जाते हैं तथा आपत्तिकालमें दुर्बलोंक संकल्प विपरीत फल देनेवाले हो जाते हैं, उसी प्रकार अमृतको अभिलाषासे युक्त हमलोगोंके लिये यह विष उत्पन्न हुआ है। अतः आप इस भयसे हमलोगोंको मुक्त कौजिये, आप ही एकमात्र हम सबके शरणदाता हैं। आप भक्तोंपर अनुकम्पा करनेवाले, मनके भावोंके ज्ञाता, सभी भुवनोंके ईश्वर, सर्वव्यापक, यज्ञोंमें सर्वप्रथम भाग ग्रहण करनेवाले, सकल हवनीय द्रव्यस्वरूप, सौम्य, उमाके साथ स्थित और कामदेवके विनाशक हैं। देवताओंका कल्याण करनेवाले देव! एकमात्र आप ही हमलोगोंके शरणदाता हैं। विरूपाक्ष ! (सबको) खा लेनेके विचारवाले इस विषके कष्टसे हमलोगोंकी रक्षा कीजिये। यह सुनकर भगदेवताके नेत्रोंका विनाश करनेवाले भगवान् शंकरने कहा ॥ ४३-५१ ॥

देवदेव उवाच

भक्षयिष्याम्यहं घोरं कालकूटं महाविषम्।
तथान्यदपि यत्कृत्यं कृच्छ्रसाध्यं सुरासुराः ।
तच्चापि साधयिष्यामि तिष्ठध्वं विगतज्वराः ॥ ५२

इत्युक्ता हृष्टरोमाणो वाष्पगद्गदकण्ठिनः ।
आनन्दाश्रुपरीताक्षाः सनाथा इव मेनिरे।
सुरा ब्रह्मादयः सर्वे समाश्वस्ताः सुमानसाः ॥ ५३ 

ततोऽव्रजद् द्रुतगतिना ककुद्मिना हरोऽम्बरे पवनगतिर्जगत्पतिः । 
प्रधावितैरसुरसुरेन्द्रनायकैः स्ववाहनैर्विचलितशुभ्रचामरैः ।
पुरःसरैः स तु शुशुभे शुभाश्रयैः शिवो वशी शिखिकपिशोर्वजूटकः ।। ५४

आसाद्य दुग्धसिन्धुं तं कालकूटं विषं यतः ।
ततो देवो महादेवो विलोक्य विषमं विषम् ॥ ५५

छायास्थानकमास्थाय सोऽपिबद् वामपाणिना ।
पीयमाने विषे तस्मिंस्ततो देवा महासुराः ॥ ५६

जगुश्च ननृतुश्चापि सिंहनादांश्च पुष्कलान्।
चकुः शक्रमुखाद्याश्च हिरण्याक्षादयस्तथा ॥ ५७

स्तुवन्तश्चैव देवेशं प्रसन्नाश्चाभवंस्तदा।
कण्ठदेशे ततः प्राप्ते विषे देवमथाब्रुवन् ॥ ५८

विरिञ्चिप्रमुखा देवा बलिप्रमुखतोऽसुराः । 
शोभते देव कण्ठस्ते गात्रे कुन्दनिभप्रभे ॥ ५९

भृङ्गमालानिभं कण्ठेऽप्यत्रैवास्तु विषं तव। 
इत्युक्तः शंकरो देवस्तथा प्राह पुरान्तकृत् ॥ ६०

पीते विषे देवगणान् विमुच्य गतो हरो मन्दरशैलमेव।
तस्मिन् गते देवगणाः पुनस्तं ममन्थुरब्धिं विविधप्रकारैः ।। ६१

देवाधिदेव बोले- देवासुरगण ! मैं उस कालकूट नामक महान् भयंकर विषको तो पी ही जाऊँगा, इसके अतिरिक्त तुमलोगोंका जो कोई अन्य भी कष्टसाध्य कार्य होगा, उसे भी सिद्ध कर दूँगा, तुम लोग चिन्तारहित हो जाओ। इस प्रकार कहे जानेपर ब्रह्मा आदि सभी देवताओंका मन प्रसन्न हो गया, वे भलीभाँति आश्वस्त हो गये, उनके शरीर रोमाञ्चित हो उठे, कण्ठ आँसुओंसे गद्‌गद हो गये, नेत्रोंमें आनन्दात्रु छलक आये और वे उस समय अपनेको सनाथ मानने लगे। तदनन्तर जगत्पति भगवान् शंकर वेगशाली नन्दिकेश्वरपर आरूढ़ होकर वायुके समान वेगसे आकाश मार्ग से उस ओर चले। उस समय असुरों तथा सुरोंके अधिपतिगण अपने-अपने वाहनोंपर आरूढ़ हो चमर डुलाते हुए उनके आगे-आगे दौड़ रहे थे। इस प्रकार अग्निकी ज्वाला से भूरे रंगवाली जटासे युक्त इन्द्रियजयी भगवान् शिव मङ्गलके आधारस्वरूप उन देवताओं के साथ शोभायमान हो रहे थे। 

तदनन्तर वे जहाँसे कालकूट विष उत्पन्न हुआ था, उस क्षीरसागरपर पहुँचे। तत्पश्चात् भगवान् महादेवने उस विषम विषको देखकर एक छायायुक्त स्थानमें बैठकर अपने बायें हाथसे उसे पी लिया। उस विषके पी लिये जानेपर इन्द्रादि देव तथा हिरण्याक्ष प्रभृति असुर हर्षपूर्वक नाचने-गाने और भयंकर सिंहनाद करने लगे तथा देवेशको स्तुति करते हुए प्रसन्न हो गये। उस समय विषके भगवान् शंकरके गलेमें पहुँचनेपर ब्रह्मादि देवता और बलि आदि असुरोंने उनसे इस प्रकार कहा-'देव! कुन्दकी-सौ उज्ज्वल कान्तिवाले आपके शरीरमें कण्ठकी विचित्र शोभा हो रही है। अब यह भृङ्गावलीकी भाँति काला विष यहीं आपके कण्ठमें स्थित रहे।' इस प्रकार कहे जानेपर त्रिपुरविनाशक भगवान् शंकरने 'तथास्तु-वैसा ही हो' यों कहकर उसे स्वीकार कर लिया। इस प्रकार विषपान कर लेनेके बाद शंकरजी देवताओंको वहीं छोड़ पुनः मन्दराचलको चले गये। उनके चले जानेपर देवगण पुनः उस समुद्रको विविध प्रकारसे मथने लगे ॥ ५२-६१ ॥

इति श्रीमाल्ये महापुराणेऽमृतमन्धने कालकूटोत्पत्तिर्नाम पञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २५० ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके अमृतमन्थन प्रसंगमें कालकूटोत्पत्ति नामक दो सौ पचासौँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २५० ॥ 

टिप्पणियाँ