मत्स्य पुराण दो सौ उनचासवाँ अध्याय
अमृत-प्राप्ति के लिये समुद्र-मन्थन का उपक्रम और वारुणी (मदिरा) का प्रादुर्भाव
ऋषय ऊचुः
नारायणस्य माहात्म्यं श्रुत्वा सूत यथाक्रमम् ।
न तृप्तिर्जायतेऽस्माकमतः पुनरिहोच्यताम् ॥ १
कथं देवा गताः पूर्वममरत्वं विचक्षणाः ।
तपसा कर्मणा वापि प्रसादात् कस्य तेजसा ॥ २
ऋषियोंने पूछा- सूतजी ! भगवान् नारायणके माहात्म्यको क्रमशः सुनकर हमलोगोंकी तृप्ति नहीं हो रही है, अतः उसे पुनः बतलाइये। प्राचीनकालमें चतुर देवतालोग तपस्या या कर्मसे अथवा किस देवताकी कृपासे किस प्रकार अमरत्वको प्राप्त हुए थे ? ॥ १-२॥
सूत उवाच
यत्र नारायणो देवो महादेवश्च शूलधृक् ।
तत्रामरत्वे सर्वेषां सहायौ तत्र तौ स्मृती ॥ ३
पुरा देवासुरे युद्धे हताश्च शतशः सुरैः ।
पुनः संजीवनीं विद्यां प्रयोज्य भृगुनन्दनः ॥४
जीवापयति दैत्येन्द्रान् यथा सुप्तोत्थितानिव।
तस्य तुष्टेन देवेन शंकरेण महात्मना ॥ ५
मृतसंजीवनी नाम विद्या दत्ता महाप्रभा।
तां तु माहेश्वरीं विद्यां महेश्वरमुखोद्गताम् ॥ ६
भार्गवे संस्थितां दृष्ट्वा मुमुदुः सर्वदानवाः ।
ततोऽमरत्वं दैत्यानां कृतां शुक्रेण धीमता ॥ ७
या नास्ति सर्वलोकानां देवानां यक्षरक्षसाम्।
न नागानामृषीणां च न च ब्रह्मेन्द्रविष्णुषु ॥ ८
तां लब्ध्वा शंकराच्छुक्रः परां निर्वृतिमागतः ।
ततो देवासुरो घोरः समरः सुमहानभूत् ॥ ९
तत्र देवैर्हतान् दैत्याशुक्रो विद्याबलेन च।
उत्थापयति दैत्येन्द्राँल्लीलयैव विचक्षणः ॥ १०
एवंविधेन शक्रस्तु बृहस्पतिरुदारधीः ।
हन्यमानास्ततो देवाः शतशोऽथ सहस्त्रशः ।। ११
विषण्णवदनाः सर्वे बभूवुर्विकलेन्द्रियाः ।
ततस्तेषु विषण्णेषु भगवान् कमलोद्भवः ।
मेरुपृष्ठे सुरेन्द्राणामिदमाह जगत्पतिः ॥ १२
सूतजी कहते हैं- ऋषियो ! जहाँ भगवान् विष्णु और शूलधारी शंकरजी वर्तमान हैं, वहाँ वे ही दोनों सभी देवताओंकी अमरत्व प्राप्तिमें सहायक माने गये हैं। प्राचीन काल में देवासुर -संग्राम में देवताओंद्वारा मारे गये सैकड़ों राक्षसोंको भृगुनन्दन शुक्राचार्य संजीवनी-विद्याका प्रयोग करके जीवित कर देते थे। तब वे दैत्येन्द्र फिर सोकर उठे हुएकी तरह उठकर लड़ने लगते थे। परम कान्तिमती मूत-संजीवनी विद्या शुक्राचार्यको उनपर प्रसन्न हुए भगवान् शंकरने दी थी। महेश्वरके मुखसे निकली हुई माहेश्वरी विद्याको शुक्राचार्यमें संस्थित देखकर दानवगण अतिशय प्रमुदित थे। इस विद्याके प्रभावसे बुद्धिमान् शुक्राचार्यने राक्षसोंको अमर कर दिया था। जो विद्या न तो सम्पूर्ण लोकों, देवों, यक्षों और राक्षसोंमें थी, न नागों और ऋषियोंमें तथा न ब्रह्मा, इन्द्र और विष्णुमें थी, उसे शंकरजीसे प्राप्तकर शुक्र परम संतुष्ट थे। इसके बाद देवताओं और राक्षसोंमें महान् भीषण युद्ध छिड़ गया। उसमें देवताओंद्वारा मारे गये दैत्येन्द्रोंको परम निपुण आचार्य शुक्र अपनी विद्याके बलसे देखते-ही-देखते तुरंत जीवित कर देते थे। इस प्रकार सैकड़ों-हजारों देवताओंको मारा जाता हुआ देखकर इन्द्र, उदारहृदय बृहस्पति तथा सभी देवताओंके मुख सूख गये और उनकी इन्द्रियाँ विकल हो गयीं। इस प्रकार उनके चिन्तित होनेपर कमलोद्भव जगत्पति भगवान् ब्रह्माने सुमेरु पर्वतपर अवस्थित देवताओंसे इस प्रकार कहा ॥ ३-१२॥
ब्रह्मोवाच
देवाः शृणुत मद्वाक्यं तत्तथैव निरूप्यताम्।
क्रियतां दानवैः सार्धं सख्यमैत्राभिधीयताम् ॥ १३
क्रियताममृतोद्योगो मध्यतां क्षीरवारिधिः ।
सहायं वरुणं कृत्वा चक्रपाणिर्विबोध्यताम् ॥ १४
मन्थानं मन्दरं कृत्वा शेषनेत्रेण वेष्टितम् ।
दानवेन्द्रो बलिः स्वामी स्तोककालं निवेश्यताम् ॥ १५
प्रार्थ्यतां कूर्मरूपश्च पाताले विष्णुरव्ययः ।
प्रार्थ्यतां मन्दरः शैलो मन्थकार्यं प्रवर्त्यताम् ॥ १६
तच्छ्रुत्वा वचनं देवा जग्मुर्दानवमन्दिरम् ।
अलं विरोधेन वयं भृत्यास्तव बलेऽधुना ॥ १७
क्रियताममृतोद्योगो व्रियतां शेषनेत्रकम् ।
त्वया चोत्पादिते दैत्य अमृतेऽमृतमन्थने ॥ १८
भविष्यामोऽमराः सर्वे त्वत्प्रसादान्न संशयः ।
एवमुक्तस्तदा देवैः परितुष्टः स दानवः ॥ १९
यथा वदत हे देवास्तथा कार्यं मयाधुना।
शक्तोऽहमेक एवात्र मथितुं क्षीरवारिधिम् ॥ २०
आहरिष्येऽमृतं दिव्यममृतत्वाय वोऽधुना।
सुदूरादाश्रयं प्राप्तान् प्रणतानपि वैरिणः ॥ २१
यो न पूजयते भक्त्या प्रेत्य चेह विनश्यति।
पालयिष्यामि वः सर्वानधुना स्नेहमास्थितः ॥ २२
एवमुक्त्वा स दैत्येन्द्रो देवैः सह ययौ तदा।
मन्दरं प्रार्थयामास सहायत्वे धराधरम् ॥ २३
मन्था भव त्वमस्माकमधुनामृतमन्थने ।
सुरासुराणां सर्वेषां महत्कार्यमिदं यतः ॥ २४
तथेति मन्दरः प्राह यद्याधारो भवेन्मम ।
यत्र स्थित्वा भ्रमिष्यामि मथिष्ये वरुणालयम् ॥ २५
कल्प्यतां नेत्रकायें यः शक्तः स्याद् भ्रमणे मम।
ततस्तु निर्गतौ देवौ कूर्मशेषौ महाबलौ ॥ २६
विष्णोर्भागी चतुर्थाशाद्धरण्या धारणे स्थितौ ।
ऊचतुर्गर्वसंयुक्तं वचनं शेषकच्छपौ ॥ २७
ब्रह्माजी बोले- देवगण! आपलोग मेरी बात सुनिये और उसके अनुसार काम कीजिये। इस कार्यमें आप लोग दानवों के साथ मित्रता कर लें और अमृत-प्राप्तिके लिये उपाय करें। इसके लिये चक्रपाणि भगवान् विष्णुको उद्बोधित कीजिये और वरुणको सहायक तथा शेषनागरूपी रस्सीसे परिवेष्टित मन्दराचलको मधानी बनाकर क्षीरसमुद्रका मन्थन कीजिये। थोड़े समयके लिये दानवेन्द्र बलिको अध्यक्षरूपमें नियुक्त कर दीजिये। पातालमें स्थित कूर्मरूप अव्यय भगवान् विष्णुकी और मन्दराचलकी प्रार्थना कीजिये। तत्पश्चात् समुद्र-मन्थनका कार्य प्रारम्भ कीजिये। उस कथनको सुनकर देवगण दानवराजके महलमें पहुँचे और कहने लगे- 'बले! अब विरोध बंद कीजिये, हमलोग तो आपके भृत्य हैं। आप अमृत-प्राप्तिके लिये उद्योग करें और शेषनागको रस्सीके रूपमें वरण करें। दैत्य ! अमृत मन्थन रूप कार्यमें आपके द्वारा अमृतके उत्पन्न हो जानेपर आपकी कृपासे हम सभी लोग निःसंदेह अमर हो जायेंगे।' देवताओंद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर दानवराज बलि उस समय प्रसन्न हो गया और कहने लगा-'देवगण! जैसा आपलोग कह रहे हैं,
मुझे इस समय वैसा ही करना चाहिये। मैं तो अकेला ही क्षीरसागर का मन्थन करनेमें समर्थ हूँ। इस समय मैं आपलोगों की अमरताके निमित्त दिव्य अमृत ले आऊँगा। जो सुदूरसे आश्रयके लिये आये हुए शरणागत वैरियोंको भक्तिपूर्वक सम्मानित नहीं करता, उसका यह लोक और परलोक- दोनों नष्ट हो जाते हैं। इस समय मैं आप सभी लोगोंकी स्नेहपूर्वक रक्षा करूँगा।' ऐसा कहकर दैत्येन्द्र बलि देवताओंके साथ तुरंत चल पड़ा और सहायताके लिये मन्दराचलसे प्रार्थना करते हुए बोला- 'मन्दर ! चूँकि इस समय हम सभी देवताओं और असुरोंका यह महान् कार्य उपस्थित हो गया है, अतः इस अमृत मन्थनके कार्यमें तुम मथानी बन जाओ।' मन्दराचलने कहा- 'यदि मुझे कोई आधार मिले तो मुझे स्वीकार है जिसपर स्थित होकर मैं भ्रमण करूँगा और वरुणालयको मथ डालूँगा। साथ ही मेरे भ्रमण करते समय जो समर्थ हो सके, ऐसा किसीको नेतीके कार्यके लिये चुनिये।' तदनन्तर महाबली कूर्म और शेषनाग दोनों देवता पातालसे ऊपर आये। ये दोनों भगवान् विष्णुके चतुर्थांश भाग हैं और पृथ्वीको धारण करनेके लिये नियुक्त हैं। तब शेष और कच्छप गर्वपूर्ण वचन बोले ॥ १३-२७॥
कूर्य उवाच
त्रैलोक्यधारणेनापि न ग्लानिर्मम जायते।
किमु मन्दरकात् क्षुद्राद् गुटिकासंनिभादिह ॥ २८
कूर्मने कहा- मुझे तो इस त्रिलोकीको धारण करनेपर भी थकावट नहीं होती तो भला इस कार्यमें गुटिकाके समान क्षुद्र मन्दरको धारण करनेकी क्या बात है ? ॥ २८ ॥
शेष उवाच
ब्रह्माण्डवेष्टनेनापि ब्रह्माण्डमथनेन वा।
न मे ग्लानिर्भवेद् देहे किमु मन्दरवर्तने ॥ २९
तत उत्पाट्य तं शैलं तत्क्षणात् क्षीरसागरे।
चिक्षेप लीलया नागः कूर्मश्चाधः स्थितस्तदा ॥ ३०
निराधारं यदा शैलं न शेकुर्देवदानवाः ।
मन्दरभ्रामणं कर्तुं क्षीरोदमथने तथा ॥ ३१
नारायणनिवासं ते जग्मुर्बलिसमन्विताः ।
यत्रास्ते देवदेवेशः स्वयमेव जनार्दनः ॥ ३२
तत्रापश्यन्त तं देवं सितपद्मप्रभं शुभम्।
योगनिद्रासुनिरतं पीतवाससमच्युतम् ॥ ३३
हारकेयूरनद्धाङ्गमहिपर्यङ्कसंस्थितम् ।
पादपद्येन पद्मायाः स्पृशन्तं नाभिमण्डलम् ॥ ३४
स्वपक्षव्यजनेनाथ वीज्यमानं गरुत्मता ।
स्तूयमानं समन्ताच्च सिद्धचारणकिंनरैः ॥ ३५
आम्नायैर्मूर्तिमद्भिश्च स्तूयमानं समन्ततः ।
सव्यबाहूपधानं तं तुष्टुवुर्देवदानवाः ।
कृताञ्जलिपुटाः सर्वे प्रणताः सर्वतोदिशम् ॥ ३६
शेषनागने कहा- जब समस्त ब्रह्माण्डका वेष्टन बनने तथा उसका मन्थन करनेसे मेरे शरीरमें शिथिलता नहीं आती तो मन्दरके घुमानेसे कौन-सा कष्ट होगा? ऐसा कहकर नागने लीलापूर्वक उसी क्षण उस मन्दराचलको उखाड़कर क्षीरसागरमें डाल दिया। उस समय कूर्म उसके नीचे स्थित हुए। किंतु क्षीरसमुद्रका मन्थन आरम्भहोनेपर जब देवता और दानव उस आधारशून्य मन्दराचलको घुमानेमें समर्थ न हो सके, तब वे बलिको साथ लेकर भगवान् नारायणके निवासस्थानपर गये, जहाँ देवाधिदेव भगवान् जनार्दन विराजमान थे। वहाँ उन्होंने श्वेत कमलके समान कान्तियुक्त एवं कल्याणकारी भगवान् अच्युतको देखा, जिनके शरीरपर पीताम्बर झलक रहा था, जो योगनिद्रामें निमग्न थे, जिनका शरीर हार और केयूरसे विभूषित था, जो शेषनागकी शय्यापर शयन कर रहे थे और अपने चरणकमलसे लक्ष्मी के नाभि मण्डल का स्पर्श कर रहे थे, गरुड़ अपने डैनेरूपी पंखसे जिनपर हवा कर रहे थे, चारों ओरसे सिद्ध, चारण और किन्नर जिनकी स्तुतिमें तन्मय थे, मूर्तिमान् वेद चारों ओरसे जिनकी स्तुति कर रहे थे तथा जो अपनी बार्थी भुजाको तकिया बनाये हुए थे। तब वे सभी देव-दानव सब ओरसे हाथ जोड़कर प्रणाम करके उन भगवान्की स्तुति करने लगे ॥ २९-३६ ॥
देवदानवा ऊचुः
नमो लोकत्रयाध्यक्ष तेजसा जितभास्कर।
नमो विष्णो नमो जिष्णो नमस्ते कैटभार्दन ॥ ३७
नमः सर्गक्रियाकर्ते जगत्पालयते नमः ।
रुद्ररूपाय शर्वाय नमः संहारकारिणे ॥ ३८
नमः शूलायुधाधृष्य नमो दानवघातिने।
नमः क्रमत्रयाक्रान्त त्रैलोक्यायाभवाय च ॥ ३९
नमः प्रचण्डदैत्येन्द्रकुलकालमहानल।
नमो नाभिहृदोद्भूतपद्मगर्भ महाबल ।। ४०
पद्मभूत महाभूत कर्जे हर्ने जगत्प्रिय।
जनिता सर्वलोकेश क्रियाकारणकारिणे ।। ४१
अमरारिविनाशाय महासमरशालिने ।
लक्ष्मीमुखाब्जमधुप नमः कीर्तिनिवासिने ॥ ४२
अस्माकममरत्वाय नियतां नियतामयम् ।
मन्दरः सर्वशैलानामयुतायुतविस्तृतः ॥ ४३
अनन्तबलबाहुभ्यामवष्टभ्यैकपाणिना ।
मध्यताममृतं देव स्वधास्वाहार्थकामिनाम् ॥ ४४
ततः श्रुत्वा स भगवान् स्तोत्रपूर्वं वचस्तदा।
विहाय योगनिद्रां तामुवाच मधुसूदनः ॥ ४५
देवताओं और दैत्योंने कहा- त्रिलोकीनाथ ! आप अपने तेजसे सूर्यको पराजित करनेवाले हैं, आपको नमस्कार है। विष्णुको प्रणाम है। जिष्णुको अभिवादन है। आप कैटभका वध करनेवाले हैं, आपको नमस्कार है। सृष्टि-कर्म करनेवालेको प्रणाम है। आप जगत्के पालनकर्ता हैं, आपको अभिवादन है। आप रुद्ररूपसे संहार करनेवाले हैं, आप शर्वको नमस्कार है। त्रिशूलरूप आयुधसे धर्षित न होनेवाले आपको प्रणाम है। दानवोंका वध करनेवाले आपको अभिवादन है। आप तीन पगसे त्रिलोकीको आक्रान्त कर लेनेवाले और अजन्मा हैं, आपको नमस्कार है। आप प्रचण्ड दैत्येन्द्रोंके कुलके लिये कालरूप महान् अग्नि हैं, आपको प्रणाम है। महाबल ! आपके नाभि-कुण्डसे पद्मकी उत्पत्ति हुई है, आपको अभिवादन है। आप पद्मको उत्पन्न करनेवाले, महाभूत, जगत्के कर्ता, हर्ता और प्रिय, सभीके जनक, सभी लोकोंके स्वामी, कार्य और कारण- दोनोंका निर्माण करनेवाले, अमरोंके शत्रुओंका विनाश करनेके लिये महान् समर करनेवाले, लक्ष्मीके मुखकमलके मधुप और यशमें निवास करनेवाले हैं, आपको नमस्कार है। आप हमलोगोंकी अमरत्व प्राप्तिके लिये सभी पर्वतोंमें विशाल मन्दराचलको, जो अयुतायुत योजन विस्तृत है, अवश्य धारण कीजिये। देव! आप अपनी अनन्त बलशालिनी भुजाओंद्वारा पर्वतको रोककर एक हाथसे स्वाहा स्वधाके अभिलाषी देवताओंके उपकारार्थ अमृतका मन्थन कीजिये। तदनन्तर भगवान् मधुसूदन उस स्तुतिपूर्ण वचनको सुनकर उस योगनिद्राका परित्याग कर इस प्रकार बोले ॥ ३७-४५ ॥
श्रीभगवानुवाच
स्वागतं विबुधाः सर्वे किमागमनकारणम्।
यस्मात् कार्यादिह प्राप्तास्तद् ब्रूत विगतज्वराः ।। ४६
नारायणेनैवमुक्ताः प्रोचुस्तत्र दिवौकसः ।
अमरत्वाय देवेश मध्यमाने महोदधौ ॥ ४७
यथामृतत्वं देवेश तथा नः कुरु माधव।
त्वया विना न तच्छक्यमस्माभिः कैटभार्दन ॥ ४८
प्राप्तुं तदमृतं नाथ ततोऽग्रे भव नो विभो।
इत्युक्तश्च ततो विष्णुरप्रधृष्योऽरिमर्दनः ।। ४९
जगाम देवैः सहितो यत्रासौ मन्दराचलः ।
वेष्टितो भोगिभोगेन धृतश्चामरदानवैः ॥ ५०
विषभीतास्ततो देवा यतः पुच्छं ततः स्थिताः ।
मुखतो दैत्यसंघास्तु सैंहिकेयपुरःसराः ॥ ५१
सहस्त्रवदनं चास्य शिरः सव्येन पाणिना ।
दक्षिणेन बलिर्देहं नागस्याकृष्टवांस्तथा ॥ ५२
दधारामृतमन्थानं मन्दरं चारुकन्दरम्।
नारायणः स भगवान् भुजयुग्मद्वयेन तु ॥ ५३
ततो देवासुरैः सर्वैर्जयशब्दपुरः सरम् ।
दिव्यं वर्षशतं साग्रं मथितः क्षीरसागरः ॥ ५४
ततः श्रान्तास्तु ते सर्वे देवा दैत्यपुरःसराः ।
श्रान्तेषु तेषु देवेन्द्रो मेघो भूत्वाम्बुशीकरान् ॥ ५५
श्रीभगवान्ने कहा- देवगण ! आप सब लोगोंका स्वागत है। आपलोगोंके यहाँ आगमनका क्या उद्देश्य है? आपलोग जिस कार्यके लिये यहाँ आये हैं। उसे निश्चिन्त होकर बतलाइये। नारायणके ऐसा कहनेपर देवताओंने कहा- 'देवेश ! हमलोग अमरत्व-प्राप्तिके लिये समुद्रका मन्थन करना चाहते हैं। भगवान् माधव ! हमें जिस उपायसे अमरत्वकी प्राप्ति हो सके, आप वैसा करें। कैटभशत्रो! आपके बिना हमलोग उस अमृतको प्राप्त नहीं कर सकते, अतः सर्वव्यापी नाथ! आप हमलोगोंके अग्रणी बनें।' उनके ऐसा कहनेपर शत्रुनाशक अजेय भगवान् विष्णु देवताओंके साथ उस स्थानपर गये, जहाँ मन्दराचल था। उस समय वह मन्दराचल शेषनागके फणोंसे लिपटा हुआ था तथा देवता और दानवगण उसे पकड़े हुए थे। उस समय विषके भयसे डरकर देवगण तो नागकी पूँछकी ओर और राहुको अगुआ बनाकर दैत्यगण मुखकी ओर स्थित थे। बलि शेषनागके हजार मुखवाले सिरको बायें हाथसे तथा देहको दाहिने हाथसे पकड़कर खींच रहा था। भगवान् नारायणने सुन्दर कन्दराओंसे सुशोभित अमृतके मन्थन-दण्डस्वरूप मन्दराचलको अपनी दोनों भुजाओंसे पकड़ा। इस प्रकार सभी देवताओं तथा दैत्योंने मिलकर जय-जयकार करते हुए सौ दिव्य वर्षोंसे भी अधिक कालतक क्षीरसागरका मन्धन करते रहे, तब दैत्योंसहित वे सभी देवता थक गये। उन लोगोंके थक जानेपर देवराज इन्द्र मेषरूप धारणकर उनके ऊपर अमृतके समान जलकणोंकी वृष्टि करने लगे और शीतल वायु बहने लगी ॥ ४६-५५ ॥
ववर्षांमृतकल्पांस्तान् ववौ वायुश्च शीतलः ।
भग्नप्रायेषु देवेषु शान्तेषु कमलासनः ॥ ५६
मध्यतां मध्यतां सिन्धुरित्युवाच पुनः पुनः ।
अवश्यमुद्योगवतां श्रीरपारा भवेत् सदा ॥ ५७
ब्रह्मप्रोत्साहिता देवा ममन्धुः पुनरम्बुधिम् ।
भ्राम्यमाणे ततः शैले योजनायुतशेखरे ॥ ५८
निपेतुर्हस्तियूथानि वराहशरभादयः ।
श्वापदायुतलक्षाणि तथा पुष्यफलद्रुमाः ॥ ५९
ततः फलानां वीर्येण पुष्पौषधिरसेन च।
क्षीरमम्बुधिर्ज सर्वं दधिरूपमजायत ॥ ६०
ततस्तु सर्वजीवेषु चूर्णितेषु सहस्त्रशः ।
तदम्बुमेदसोत्सर्गाद् वारुणी समपद्यत ॥ ६१
वारुणीगन्धमाघ्राय मुमुदुर्देवदानवाः ।
तदास्वादेन बलिनो देवदैत्यादयोऽभवन् ॥ ६२
ततोऽतिवेगाज्ञ्जगृहुर्नागेन्द्रं सर्वतोऽसुराः ।
मन्थानं मन्थयष्टिस्तु मेरुस्तत्राचलोऽभवत् ।। ६३
अभवच्चाग्रतो विष्णुर्भुजमन्दरबन्धनः ।
सवासुकिफणालग्नपाणिः कृष्णो व्यराजत ॥ ६४
यथा नीलोत्पलैर्युक्तो ब्रह्मदण्डोऽतिविस्तरः ।
ध्वनिर्मेघसहस्त्रस्य जलधेरुत्थितस्तदा ।। ६५
उस समय प्रायः सभी देवताओंके शिथिल एवं शान्त हो जानेपर ब्रह्मा पुनः पुनः इस प्रकार कहने लगे-'अरे । समुद्रका मन्थन करते चलो। उद्योगी पुरुषोंको सदा अपार लक्ष्मी अवश्य प्राप्त होती है।' ब्रह्माद्वारा इस प्रकार उत्साहित किये जानेपर देवासुरगण पुनः समुद्रका मन्थन करने लगे। इसके बाद दस हजार योजन विस्तृत शिखरवाले मन्दराचलके घुमाये जानेपर (उसके शिखरोंपरसे) हाथियोंक समूह, शूकर, अष्टापद शरभ करोड़ों हिंसक पशु आदि तथा पुष्पों और फलोंसे लदे हुए वृक्ष समुद्रमें गिरने लगे। उन गिरे हुए फलोंके सारभाग तथा पुष्पों और ओषधियोंके रससे क्षीर सागर का जल दहीके रूपमें परिवर्तित हो गया। तदनन्तर उन सभी जीवोंके हजारों प्रकारसे चूर्ण हो जाने पर उनकी मज्जा और जलके संयोगसे वारुणी उत्पन्न हुई। उस वारुणीकी गन्धको सूँधकर देवता और दानव परम प्रसन्न हुए और उसके आस्वादनसे वे बलवान् हो गये। तब असुरोंने अत्यन्त वेगपूर्वक मथानी और शेषनागको चारों ओरसे पुनः पकड़ा। उस समय सुमेरु पर्वत मथानीका डंडा बना। भगवान् विष्णुने अग्रसर होकर अपनी भुजासे मन्दराचल को बाँध लिया। उस समय वासुकिके फणोंपर रखा हुआ उनका साँवला हाथ ऐसा शोभायमान हो रहा था मानो नीले कमलोंसे युक्त अत्यन्त विशाल ब्रह्मदण्ड हो। तत्पश्चात् समुद्रसे हजारों मेघकी-सी गर्जना उद्भूत हुई ॥ ५६-६५ ॥
भागे द्वितीये मघवानादित्यस्तु ततः परम्।
ततो रुद्रा महोत्साहा वसवो गुह्यकादयः ॥ ६६
पुरतो विप्रचित्तिश्च नमुचिर्वृत्रशम्बरौ ।
द्विमूर्धा वज्रदंष्ट्रश्च सैंहिकेयो बलिस्तथा ॥ ६७
एते चान्ये च बहवो मुखभागमुपस्थिताः ।
ममन्थुरम्बुधिं दृप्ता बलतेजोविभूषिताः ॥ ६८
बभूवात्र महाघोषो महामेघरवोपमः ।
उदधेर्मथ्यमानस्य मन्दरेण सुरासुरैः ॥ ६९
तत्र नानाजलचरा विनिर्धूता महाद्रिणा।
विलयं समुपाजग्मुः शतशोऽथ सहस्त्रशः ॥ ७०
वारुणानि च भूतानि विविधानि महीधरः ।
पातालतलवासीनि विलयं समुपानयत् ॥ ७१
तस्मिंश्च भ्राम्यमाणेऽद्रौ संघृष्टाश्च परस्परम्।
न्यपतन् पतगोपेताः पर्वताग्रान्महाद्रुमाः ॥ ७२
तेषां संघर्षणाच्चाग्निरर्चिभिः प्रज्वलन् मुहुः ।
विद्युद्भिरिव नीलाभ्रमवृणोन्मन्दरं गिरिम् ॥ ७३
ददाह कुञ्जरांश्चैव सिंहांश्चैव विनिःसृतान्।
विगतासूनि सर्वाणि सत्त्वानि विविधानि च ।। ७४
शेषनागके दूसरे भागमें इन्द्र, उसके बाद आदित्य, उसके बाद महान् उत्साही रुद्रगण, वसुगण तथा गुह्यक आदि थे। आगेकी ओर विप्रचित्ति, नमुचि, वृत्र, शम्बर, द्विमूर्धा, वज्रदंष्ट्र, राहु तथा बलि थे। ये तथा इनके सिवा अन्य बहुत-से राक्षस मुखभागमें उपस्थित थे। बल और तेजसे विभूषित एवं गर्वसे भरे हुए वे सभी समुद्रका मन्थन कर रहे थे। देवताओं और दानवोंद्वारा मन्दराचलकी मथानीसे मन्थन किये जाते हुए समुद्रसे मेघगर्जनके समान भीषण ध्वनि निकलने लगी। वहाँ उस महान् मन्दराचलसे पिसे हुए नाना प्रकारके सैकड़ों-हजारों जलचर नष्ट हो गये। उस पर्वतने वरुणलोकके पाताललोकवासी अनेकों प्रकारके प्राणियोंको विनाशके पथपर पहुँचा दिया। उस पर्वतके घुमाये जाते समय उस मन्दराचलके ऊपर उगे हुए विशाल वृक्ष पक्षियोंसहित परस्परके संघर्षणसे टूट-टूटकर गिर रहे थे। उनके संघर्षणसे उत्पन्न हुई अग्निने बारंबार प्रज्वलित होकर अपनी लपटोंसे मन्दराचलको उसी प्रकार आच्छादित कर लिया, जैसे बिजलियाँ नीले मेघको ढक लेती हैं। उस अग्निने पर्वतसे निकले हुए सिंहों और हाथियोंको तथा अनेकों प्रकारके प्राणरहित सभी जीवोंको भस्म कर दिया ॥ ६६-७४॥
तमग्निममरश्रेष्ठः प्रदहन्तमितस्ततः ।
वारिणा मेघजेनेन्द्रः शमयामास सर्वतः ॥ ७५
ततो नानारसास्तत्र सुनुवुः सागराम्भसि ।
महाद्रुमाणां निर्यासा बहवश्चौषधीरसाः ॥ ७६
तेषाममृतवीर्याणां रसानां पयसैव च।
अमरत्वं सुरा जग्मुः काञ्चनच्छविसंनिभाः ॥ ७७
अथ तस्य समुद्रस्य तञ्जातमुदकं पयः ।
रसान्तरैर्विमिश्रश्च ततः क्षीरादभूद् घृतम् ॥ ७८
ततो ब्रह्माणमासीनं देवा वचनमब्रुवन्।
श्रान्ताः स्म सुभृशं ब्रह्मन् नोद्भवत्यमृतं च यत् ॥ ७९
ऋते नारायणात् सर्वे दैत्या देवोत्तमास्तथा।
चिरायितमिदं चापि सागरस्य तु मन्थनम् ।। ८०
ततो नारायणं देवं ब्रह्मा वचनमब्रवीत् ।
विधत्स्वैषां बलं विष्णो भवानेव परायणम् ॥ ८१
तब देवश्रेष्ठ इन्द्रने इधर-उधर जलाती हुई उस अग्निको बादलके जलसे चारों ओरसे शान्त कर दिया। तदनन्तर उस समुद्रके जलमें नाना प्रकारके रस, विशाल वृक्षोंके रस और ओषधियोंके रस अधिक मात्रामें टपकने लगे। उन अमृतके समान गुणकारी रसोंसे युक्त जलसे सुवर्णकी भाँति देदीप्यमान देवगण अमरताको प्राप्त हो गये। समुद्रका जल दुग्धके रूपमें परिणत हो गया था पुनः अनेक प्रकारके रसोंके मिश्रणसे वह दुग्धसे घृतके रूपमें परिवर्तित हो गया। तब वहाँ बैठे हुए ब्रह्मासे देवताओंने इस प्रकार कहा- 'ब्रह्मन्! हमलोग बहुत थक गये हैं, किंतु जो अभीतक अमृत नहीं निकला, इसका कारण यह है कि भगवान् विष्णुको छोड़कर हम सभी देवगण तथा दैत्यगण समुद्रको मथनेमें देरी कर रहे हैं।' तब ब्रह्माने भगवान् विष्णुसे इस प्रकार कहा- 'विष्णो! इन सबको बल प्रदान कीजिये; क्योंकि आप ही इनके शरणदाता हैं' ॥ ७५-८१ ॥
विष्णुरुवाच
बलं ददामि सर्वेषां कर्मैतद् ये समास्थिताः ।
क्षुभ्यतां क्रमशः सर्वैर्मन्दरः परिवर्त्यताम् ॥ ८२
भगवान् विष्णु बोले- इस मन्थन कार्यमें जितने लोग सम्मिलित हैं, उन सबको मैं बल प्रदान करता हूँ। अब सभी लोग मिलकर क्रमशः मन्दर पर्वतको घुमायें और सागरको क्षुब्ध करें ॥ ८२ ॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणेऽमृतमन्धने एकोनपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २४९ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें अमृत मन्थन नामक दो सौ उनचासवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २४९ ॥
टिप्पणियाँ