अमृत का प्राकट्य, मोहिनी रूप धारी भगवान विष्णु द्वारा देवताओं का अमृत-पान तथा देवासुरसंग्राम | amrt ka praakaty, mohinee roop dhaaree bhagavaan vishnu dvaara devataon ka amrt-paan tatha devaasurasangraam

मत्स्य पुराण दो सौ इक्यावनवाँ अध्याय 

अमृत का प्राकट्य, मोहिनी रूप धारी भगवान विष्णु द्वारा देवताओं का अमृत-पान तथा देवासुरसंग्राम 

सूत उवाच

मध्यमाने पुनस्तस्मिञ्जलधौ समदृश्यत।
धन्वन्तरिः स भगवानायुर्वेदप्रजापतिः ॥ १

सूतजी कहते हैं-ऋषियो! पुनः उस समुद्रके मथे जानेपर आयुर्वेदके प्रजापति भगवान् धन्वन्तरि दीख पड़े। पुनः लोगों के चित्तको उन्मत्त कर देने वाली एवं बड़ी आँखोंवाली मदिरा उत्पन्न हुई।१

मदिरा चायताक्षी सा लोकचित्तप्रमाथिनी। 
ततोऽमृतं च सुरभिः सर्वभूतभयापहा ॥ २

जग्राह कमलां विष्णुः कौस्तुभं च महामणिम्। 
गजेन्द्रं च सहस्राक्षो हयरत्नं च भास्करः ॥ ३

धन्वन्तरि च जग्राह लोकारोग्यप्रवर्तकम्। 
छत्रं जग्राह वरुणः कुण्डले च शचीपतिः ॥ ४

पारिजाततरुं वायुर्जग्राह मुदितस्तथा। 
धन्वन्तरिस्ततो देवो वपुष्मानुदतिष्ठत ॥ ५

श्वेतं कमण्डलुं बिभ्रदमृतं यत्र तिष्ठति। 
एतदत्यद्भुतं दृष्ट्वा दानवानां समुत्थितः ॥ ६

अमृतार्थे महानादो ममेदमिति जल्पताम् । 
ततो नारायणो मायामास्थितो मोहिनीं प्रभुः ॥ ७

स्त्रीरूपमतुलं कृत्वा दानवानभिसंसृतः । 
ततस्तदमृतं तस्यै ददुस्ते मूढचेतनाः। 
स्त्रियै दानवदैतेयाः सर्वे तद्गतमानसाः ॥ ८

अथास्त्राणि च मुख्यानि महाप्रहरणानि च।
प्रगृह्याभ्यद्रवन् देवान् सहिता दैत्यदानवाः ॥ ९

ततस्तदमृतं देवो विष्णुरादाय वीर्यवान्।
जहार दानवेन्द्रेभ्यो नरेण सहितः प्रभुः ॥ १०

तदनन्तर अमृत प्रकट हुआ, फिर सभी प्राणियों के भयको दूर करनेवाली कामधेनु उत्पन्न हुई। उस समय भगवान् विष्णुने लक्ष्मी और महामणि कौस्तुभको तथा हजार नेत्रोंवाले इन्द्रने गजराज ऐरावतको ग्रहण किया। सूर्यने अश्वरत्न उच्चैः श्रवा और लोकमें आरोग्यके प्रवर्तक धन्वन्तरिको स्वीकार किया। वरुणने छत्रको और शचीपति इन्द्रने दोनों कुण्डलोंको ग्रहण किया। वायुदेवने बड़ी प्रसन्नतासे पारिजात वृक्षको ग्रहण किया। इसके बाद शरीरधारी धन्वन्तरि उठकर खड़े हुए। वे एक श्वेतवर्णका कमण्डलु धारण किए हुए थे, जिसमें अमृत भरा था। उस अत्यन्त अद्भुत पात्रको देखकर अमृतके लिये 'यह मेरा है, यह मेरा है' ऐसा बकनेवाले दानवोंके दलमें महान् कोलाहल मच गया। तब भगवान् विष्णुने मोहिनी मायाका आश्रय लिया। वे स्त्रीका अनुपम रूप धारण कर दानवोंके समीप उपस्थित हुए। तब उन मुग्ध चित्तवाले दैत्योंने उस अमृत को उस स्त्रीके हाथोंमें समर्पित कर दिया; क्योंकि उन सभी दैत्यों और दानवोंका मन उसपर मोहित हो गया था। तदनन्तर वे सभी दैत्य-दानव संगठित होकर मुख्य-मुख्य महान् शस्त्रास्त्रोंको लेकर देवताओंपर टूट पड़े। इस समय नरके साथ-साथ पराक्रमी एवं सामर्थ्यशाली भगवान् विष्णुने उस अमृतको दानवेन्द्रोंसे छीन लिया ॥ २-१० ॥

ततो देवगणाः सर्वे पपुस्तदमृतं तदा।
विष्णोः सकाशात् सम्प्राप्य संग्रामे तुमुले सति ॥ ११

ततः पिबत्सु तत्कालं देवेष्वमृतमीप्सितम् । 
राहुर्विबुधरूपेण दानवोऽप्यपिबत् तदा ॥ १२

तस्य कण्ठमनुप्राप्ते दानवस्यामुते तदा।
आख्यातं चन्द्रसूर्याभ्यां सुराणां हितकाम्यया ॥ १३

ततो भगवता तस्य शिरश्छिन्नमलंकृतम् । 
चक्रायुधेन चक्रेण पिबतोऽमृतमोजसा ॥ १४

तच्छैलशृङ्गप्रतिमं दानवस्य शिरो महत्। 
चक्रेणोत्कृत्तमपतच्चालयद् वसुधातलम् ॥ १५ 

ततो वैरविनिर्बन्धः कृतो राहुमुखेन वै। 
शाश्वतश्चन्द्रसूर्याभ्यां प्रसह्याद्यापि बाधते ॥ १६

विहाय भगवांश्चापि स्त्रीरूपमतुलं हरिः। 
नानाप्रहरणैर्भीमैर्दानवान् समकम्पयत् । 
प्रासाः सुविपुलास्तीक्ष्णाः पतन्तश्च सहस्रशः ॥ १७

तेऽसुराश्चक्रनिर्भिन्ना वमन्तो रुधिरं बहु। 
असिशक्तिगदाभिन्ना निपेतुर्धरणीतले ॥ १८

भिन्नानि पट्टिशैश्चापि शिरांसि युधि दारुणैः। 
तप्तकाञ्चनमाल्यानि निपेतुरनिशं तदा ॥ १९

रुधिरेणावलिप्ताङ्गा निहताश्च महासुराः। 
अद्रिणामिव कूटानि धातुरक्तानि शेरते ॥ २०

ततो हलहलाशब्दः सम्बभूव समन्ततः । 
अन्योन्यं छिन्दतां शस्त्रैरादित्ये लोहितायति ॥ २९

परिधैश्चायसैः पातैः सन्निकषैश्च मुष्टिभिः । 
निघ्नतां समरेऽन्योन्यं शब्दो दिवमिवास्पृशत् ॥ २२

छिन्धि भिन्धि प्रधावेति पातयाभिसरेति वै। 
विश्रूयन्ते महाघोराः शब्दास्तत्र समन्ततः ॥ २३

एवं सुतुमुले युद्धे वर्तमाने महाभये । 
नरनारायणौ देवौ समाजग्मतुराहवम् ॥ २४

तत्र दिव्यं धनुर्दृष्ट्वा नरस्य भगवानपि।
चिन्तयामास वै चक्रं विष्णुर्दानवसूदनः ॥ २५

तदनन्तर सभी देवता उस तुमुल युद्धके बीच ही विष्णु भगवान्‌से उस अमृतको लेकर पान करने लगे। उस अभिलषित अमृत को पीते समय देवताओंके मध्य में देवरूपधारी राहु नामक दानव भी अमृतका पान करने लगा। वह अमृत उसके कण्ठदेशतक ही पहुँच पाया था कि देवताओंकी कल्याण-भावनासे प्रेरित होकर चन्द्रमा और सूर्यने उसके भेदको प्रकट कर दिया। तब अमृत पीते हुए उस दानवके अलंकृत सिरको भगवान्ने अपने पराक्रमसे चक्रद्वारा काट दिया। फिर तो उस दानवका चक्रसे कटा हुआ पर्वतशिखरकी भाँति विशाल मस्तक वसुधातलको कैपाता हुआ भूतलपर गिर पड़ा। तभीसे राहुके उस मुखने चन्द्रमा और सूर्यके साथ अटूट वैर निश्चित कर दिया, जो आज भी उन्हें पीड़ा पहुँचाता है। तत्पश्चात् विष्णु भी उस अनुपम स्त्रीरूपको त्यागकर विविध प्रकारके भयंकर शस्त्रास्त्रों द्वारा दानवोंको प्रकम्मित करने लगे। उस समय विशाल और तीखी धारवाले हजारों भाले दानवों पर गिरने लगे। 

भगवान के चक्रसे छिन्न-भिन्न अङ्गोंवाले राक्षसगण अत्यधिक रक्त वमन करते हुए तलवार और गदाके प्रहारसे घायल होकर पृथ्वीतलपर गिरने लगे। उस समय उस युद्धमें तपाये हुए स्वर्णकी मालाओंसे सुशोभित असुरोंके सिर भीषण पट्टिशोंके प्रहारसे विदीर्ण होकर निरन्तर गिर रहे थे। वहाँ रक्तसे लथपथ हुए अङ्गोंवाले मारे गये महान् असुर गेरूसे रंगे हुए पर्वतोंके शिखरोंकी भाँति सो रहे थे। तदनन्तर सूर्यके लाल हो जानेपर परस्पर एक-दूसरेको शस्त्रों द्वारा काटनेवालोंका महान् कोलाहल चारों ओर गूँज उठा। उस समरमें लोहनिर्मित परियों और मुष्टियोंके प्रहारसे एक-दूसरेको मारनेवालोंका शब्द आकाश-मण्डलका स्पर्श-सा कर रहा था। उस समय वहाँ चारों ओर 'काट डालो, विदीर्ण कर दो, दौड़ो, गिरा दो, आगे बढ़ो'-इस प्रकारके महान् भयंकर शब्द सुनायी पड़ रहे थे। इस प्रकार महान् भयकारक घमासान युद्धके चलते समय भगवान् नर-नारायण युद्धस्थलमें उपस्थित हुए। वहाँ नरके दिव्य धनुषको देखकर दैत्यसूदन भगवान् नारायणने भी अपने सुदर्शन चक्रका स्मरण किया ॥ ११-२५॥

ततोऽम्बराच्चिन्तितमात्रमागतं महाप्रभं चक्रममित्रनाशनम्।
विभावसोस्तुल्यमकुण्ठमण्डलं सुदर्शनं भीममसह्यविक्रमम् ॥ २६

तदागतं ज्वलितहुताशनप्रभं भयंकरः करिकरबाहुरच्युतः ।
महाप्रभं दनुकुलदैत्यदारणं तथोज्ज्वलज्वलनसमानविग्रहम् ॥ २७

मुमोच वै तदतुलमुग्रवेगवान् महाप्रभं रिपुनगरावदारणम् ।
संवर्तकज्वलनसमानवर्चसं पुनःपुनर्व्यपतत वेगवत् तदा ॥ २८

व्यदारयद् दितितनयान् सहस्त्रशः करेरितं पुरुषवरेण संयुगे। 
दहत् क्वचिज्ज्वलन इवानिलेरितः प्रसह्य तानसुरगणानकृन्तत ॥ २९

तत्प्रेरितं वियति मुहुः क्षितौ तदा पपौ रणे रुधिरमथो पिशाचवत्।
अथासुरा गिरिभिरदीनमानसा मुहुर्मुहुः सुरगणमर्दयंस्तदा ॥ ३०

महाबला विगलितमेघवर्चसः सहस्त्रशो गगनमहाप्रपातिनः ।
अथासुरा भयजननाः प्रपेदिरे सपादपा बहुविधमेधरूपिणः ॥ ३१

महाद्रयः प्रविगलिताग्रसानवः परस्परं द्रुतमभिपत्य सस्वराः ।
ततो मही प्रचलितसाद्रिकानना तदाद्रिपाताभिहता समन्ततः ॥ ३२

परस्परं समभिनिगर्जतां मुहू रणाजिरे भृशमभिसम्प्रवर्तिते।
नरस्ततो वरकनकाग्रभूषणै र्महेषुभिः पवनपथं समावृणोत् ॥ ३३

विदारयन् गिरिशिखरायि पत्रिभि-र्महाभये सुरगणविग्रहे तदा।
ततो महीं लवणजलं च सागरं महासुराः प्रविविशुरर्दिताः सुरैः ॥ ३४

वियद्गतं ज्वलितहुताशनप्रभं सुदर्शनं परिकुपितं निशम्य च।
ततः सुरैर्विजयमवाप्य मन्दरः स्वमेव देशं गमितः सुपूजितः ॥ ३५

वितत्य खं दिवमथ चैव सर्वश-स्ततो गताः सलिलधरा यथागतम्।
ततोऽमृतं सुनिहितमेव चक्रिरे सुराः परां मुदमभिगम्य पुष्कलाम् ।
ददुश्च तं निधिममृतस्य रक्षितं किरीटिने बलिभिरथामरैः सह ॥ ३६

तदनन्तर स्मरण करते ही वह असह्य प्रभावशाली, अत्यन्त कान्तिमान्, शत्रुनाशक, सूर्यके समान तेजस्वी, विस्तृत मण्डलोंवाला भयंकर सुदर्शन चक्र आकाशमार्गसे नीचे उतरा। तब हाथीकी शुण्डके समान बाहुवाले उग्र वेगशाली भगवान् विष्णुने प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी दानवकुलसंहारक धधकती हुई अग्निके सदृश शरीरवाले परम कान्तिशाली भयंकर चक्रको आया हुआ देखकर उसे दैत्यसेनापर चला दिया। फिर तो रिपुके नगरोंका विध्वंस करनेवाला, संवर्तक नामक प्रलयाग्निके समान तेजस्वी, अनुपम कान्तिमान् वह सुदर्शन चक्र बारंबार वेगपूर्वक शत्रुओंपर प्रहार करने लगा। युद्ध भूमि में पुरुषोत्तमके हाथसे छोड़े गये उस चक्क्रने हजारों दैत्योंको विदीर्ण कर दिया। उसने वायुसे प्रेरित अग्निकी भाँति कहीं सेनाओंको भस्म कर दिया तो कहीं उन असुरोंको बलपूर्वक काट डाला। रणभूमिमें भगवान्‌के हाथसे प्रेरित वह सुदर्शन चक्र बारंबार आकाशमें तथा पृथ्वीतलपर पिशाचके समान रक्तपान करने लगा। 

इसके बाद निर्भय चित्तवाले असुर पर्वतोंद्वारा बारंबार देवताओंको सेनाको नष्ट करने लगे। हजारों महाबलवान् असुर जलरहित मेधोंके समान आकाशमण्डलसे नीचे गिर रहे थे, जिससे वे अतिशय भयंकर हो गये थे। उनके द्वारा फेंके गये वृक्ष मेघोंके समान दिखायी पड़ते थे। विशाल पर्वत, जिनकी चोटियाँ छिन्न-भिन्न हो गयी थीं, शब्द करते हुए एक-दूसरेसे टकरा रहे थे। उन पर्वतोंके गिरनेसे अभिहत हुई पर्वत-वनोंसहित सारी पृथ्वी कम्पायमान हो गयी। इस प्रकार जब युद्धस्थलमें एक-दूसरेपर भीषण गर्जन करते हुए बारंबार घात प्रतिघात होने लगा और दानवोंने देव-सेनाओंको आतंकित कर दिया, तब नरने सुन्दर सुवर्णजटित अग्रभागवाले अपने विशाल बाणों से वायु मार्ग को अवरुद्ध कर दिया और बाणोंके प्रहारसे पर्वत शिखरोंको विदीर्ण कर दिया। इस प्रकार देवताओंद्वारा ताड़ित किये गये बड़े-बड़े असुर योद्धा पाताल एवं खारे समुद्रमें प्रविष्ट हो गये। जलती हुई अग्निके समान कान्तिमान् एवं अतिशय कोपमें भरे हुए सुदर्शन चक्रको आकाशमें गया हुआ सुनकर देवगण विजयी हुए। तदनन्तर मन्दराचलको आदरपूर्वक अपने स्थानपर स्थापित कर दिया गया और सभी दिशाओं तथा आकाशमें फैले हुए बादलसमूह भी जैसे आये थे वैसे ही चले गये। तत्पश्चात् देवगण परम हर्षपूर्वक अमृतको सुरक्षित कर लिये और उसकी संचित निधिको बलवान् देवताओंके साथ किरीटधारी भगवान्‌को सुरक्षाके लिये सौंप दिया गया ॥ २६-३६ ॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणेऽमृतमन्धनं नामैकपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २५१ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें अमृतमन्थन नामक दो सौ इक्यावनवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २५१ ॥

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