वामन-प्रादुर्भाव प्रसंग में श्री भगवान द्वारा अदिति को वरदान | vaaman-praadurbhaav prasang mein shree bhagavaan dvaara aditi ko varadaan

मत्स्य पुराण दो सौ चौवालीसवाँ अध्याय 

वामन-प्रादुर्भाव प्रसंग में श्री भगवान द्वारा अदिति को वरदान

ऋषय ऊचुः

राजधर्मस्त्वया सूत कथितो विस्तरेण तु।
तथैवाद्भुतमङ्गल्यं स्वप्नदर्शनमेव च ॥ १

विष्णोरिदानीं माहात्म्यं पुनर्वक्तुमिहार्हसि।
कथं स वामनो भूत्वा बबन्ध बलिदानवम्। 
क्रमतः कीदृशं रूपमासील्लोकत्रये हरेः ॥ २

ऋषियोंने पूछा- सूतजी! आपने विस्तारपूर्वक राजधर्मका वर्णन तो कर दिया, उसी प्रकार अद्भुत शकुन एवं स्वप्न दर्शन का भी निरूपण कर दिया। अब आप पुनः भगवान् विष्णुके माहात्म्यका वर्णन कीजिये। किस प्रकार भगवान्ने वामनस्वरूप धारणकर दानवराज बलिको बाँधा था और नापते समय किस प्रकार भगवान्‌का वह शरीर बढ़कर तीनों लोकोंमें व्याप्त हो गया था ? ॥ १-२ ॥

सूत उवाच

एतदेव पुरा पृष्टः कुरुक्षेत्रे तपोधनः ।
शौनकस्तीर्थयात्रायां वामनायतने पुरा ॥ ३

यदा समयभेदित्वं द्रौपद्याः पार्थिवं प्रति।
अर्जुनेन कृतं तत्र तीर्थयात्रां तदा ययौ ॥ ४

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे वामनायतने स्थितः।
दृष्ट्वा स वामनं तत्र अर्जुनो वाक्यमब्रवीत् ॥ ५

सूतजी कहते हैं- मुनिगण ! इसी वृत्तान्तको प्राचीन काल में तीर्थ-यात्राके समय कुरुक्षेत्रके वामनायतनमें अर्जुनने तपस्वी शौनकजीसे पूछा था। जिस समय उन्होंने द्रौपदीके साथ एकान्तमें बैठे हुए युधिष्ठिरके नियमोंका उल्लङ्घन किया था, उस समय वे उस पापकी शान्तिके लिये तीर्थयात्रामें गये हुए थे। उस समय धर्ममय कुरुक्षेत्रके वामनायतनमें पहुँचकर वामनभगवान्‌का दर्शन कर अर्जुनने इस प्रकार प्रश्न किया था ॥ ३-५॥

अर्जुन उवाच

किं निमित्तमयं देवो वामनाकृतिरिज्यते।
वराहरूपी भगवान् कस्मात् पूज्योऽभवत् पुरा ।
कस्माच्च वामनस्येद‌मिष्टं क्षेत्रमजायत ॥ ६

अर्जुनने पूछा- महर्षे! किस फलकी प्राप्तिके लिये वामनभगवान्‌की पूजा की जाती है? प्राचीन काल में वराहरूपधारी भगवान् किस कारण पूज्य माने गये और किस निमित्तसे यह क्षेत्र भगवान् वामनको प्रिय हुआ है ? ॥६॥

शौनक उवाच

वामनस्य च वक्ष्यामि वराहस्य च धीमतः। 
त्यक्त्त्वातिविस्तरं भूयो माहात्म्यं कुरुनन्दन । ७

पुरा निर्वासिते शक्रे सुरेषु विजितेषु च। 
चिन्तयामास देवानां जननी पुनरुद्भवम् ॥ ८

अदितिर्देवमाता च परमं दुश्चरं तपः ।
तीनं चचार वर्षाणां सहस्त्रं पृथिवीपते ।। ९

आराधनाय कृष्णस्य वाग्यता वायुभोजना।
दैत्यैर्निराकृतान् दृष्ट्वा तनयान् कुरुनन्दन ॥ १०

वृथापुत्राहमस्मीति निर्वेदात् प्रणता हरिम्। 
तुष्टाव वाग्भिरिष्टाभिः परमार्थावबोधिनी।
देवदेवं हृषीकेशं नत्वा सर्वगतं हरिम् ॥ ११

शौनकजी बोले- कुरुनन्दन ! मैं भगवान् वामन एवं ज्ञानस्वरूप वराहके माहात्म्यको संक्षेपमें पुनः तुम्हें बतला रहा हूँ। प्राचीनकालमें दानवोंद्वारा देवताओंके पराजित हो जानेपर तथा इन्द्रको निर्वासित कर दिये जानेपर देवमाता अपने पुत्रोंके पुनरुत्थानके लिये चिन्ता करने लगीं। राजन् ! देवमाता अदितिने एक हजार वर्षोंतक परम दुष्कर तप किया। उस समय वे मौन होकर वायुका आहार करती हुई श्रीकृष्णकी आराधनामें तत्पर थीं। कुरुनन्दन । वे अपने पुत्रोंको दैत्योंद्वारा तिरस्कृत हुआ देखकर 'मैं निष्फल पुत्रवाली हूँ', इस दुःखसे दुःखी होकर श्रीहरिकी शरणागत हुईं। तत्पश्चात् परमार्थको समझनेवाली अदिति देवाधिदेव, इन्द्रियोंके स्वामी, सर्वव्यापी श्रीहरिको नमस्कार कर अभीष्ट वाणीद्वारा उनकी स्तुति करने लगीं ॥ ७-११॥

अदितिरुवाच

नमः सर्वार्तिनाशाय नमः पुष्करमालिने। 
नमः परमकल्याण कल्याणायादिवेधसे । १२

नमः पङ्कजनेत्राय नमः पङ्कजनाभये। 
श्रियः कान्ताय दान्ताय परमार्थाय चक्रिणे ॥ १३

नमः पङ्कजसम्भूतिसम्भवायात्मयोनये। 
नमः शङ्खासिहस्ताय नमः कनकरेतसे ॥ १४

तथाऽऽत्मज्ञानविज्ञानयोगिचिन्त्यात्मयोगिने ।
निर्गुणायाविशेषाय हरये ब्रह्मरूपिणे । १५

जगत्प्रतिष्ठितं यत्र जगतां यो न दृश्यते। 
नमः स्थूलातिसूक्ष्माय तस्मै देवाय शाङ्गिणे ॥ १६

यं न पश्यन्ति पश्यन्तो जगदप्यखिलं नराः। 
अपश्यद्भिर्जगत्यत्र स देवो हृदि संस्थितः ॥ १७

यस्मिन्नेव विनश्येत यस्यैतद‌खिलं जगत् ।
तस्मै समस्तजगतामाधाराय नमो नमः ॥ १८

आद्यः प्रजापतिपतिर्यः प्रभूणां पतिः परः। 
पतिः सुराणां यस्तस्मै नमः कृष्णाय वेधसे ।। १९

यः प्रवृत्तौ निवृत्तौ च इज्यते कर्मभिः स्वकैः । 
स्वर्गापवर्गफलदो नमस्तस्मै गदाभृते ॥ २०

यश्चिन्त्यमानो मनसा सद्यः पापं व्यपोहति । 
नमस्तस्मै विशुद्धाय पराय हरिवेधसे ॥ २१

यं बुद्ध्वा सर्वभूतानि देवदेवेशमव्ययम् ।
न पुनर्जन्ममरणे प्राप्नुवन्ति नमामि तम् ॥ २२

यो यज्ञे यज्ञपरमैरीज्यते यज्ञसंज्ञितः ।
तं यज्ञपुरुषं विष्णुं नमामि प्रभुमीश्वरम् ॥ २३

अदिति बोलीं- सभीके दुःखोंका नाश करने वाले आपको नमस्कार है। कमल-मालाधारी को प्रणाम है। परम कल्याणके भी कल्याणस्वरूप एवं आदिविधाताको अभिवादन है। आप कमलनेत्र, कमलनाभि, लक्ष्मीपति, दमनकर्ता, परमार्थस्वरूप और चक्रधारी हैं, आपको बारंबार नमस्कार है। ब्रह्माकी उत्पत्तिके स्थानस्वरूप एवं आत्मयोनिको प्रणाम है। आप हाथोंमें शङ्ख और खड्ग धारण करनेवाले एवं स्वर्णरता हैं, आपको बारंबार अभिवादन है। आप आत्मज्ञान-विज्ञानके योगियोंद्वारा चिन्तनीय, आत्मयोगी, निर्गुण, अविशेष, ब्रह्मस्वरूप श्रीहरि हैं। आप समस्त जगत्में स्थित हैं, परंतु जगत्द्वारा देखे नहीं जाते, आप स्थूल और अति सूक्ष्मस्वरूप हैं आप शार्ङ्ग-धनुषधारी देवको नमस्कार है। 

सम्पूर्ण जगत्‌को देखते हुए भी मनुष्य जिसे देख नहीं पाते, वह देवता इस जगत्में उन्हींके हृदयमें स्थित हैं। यह सारा जगत् उन्हींमें लीन हो जाता है। जिसका यह समस्त जगत् है और जो समस्त जगत्‌के आधार हैं, उन्हें वारंवार प्रणाम है। जो आद्य प्रजापतियोंमें अग्रगण्य, प्रभुकि भी प्रभु, परात्पर और देवताओंके स्वामी हैं, उन आदिकर्ता कृष्ण को अभिवादन है। जो प्रवृत्ति और निवृत्तिमें अपने कर्मोंद्वारा पूजित होते हैं तथा स्वर्ग और अपवर्गके फलदाता हैं, उन गदाधारीको नमस्कार है। जो मनसे चिन्तन किये जानेपर शीघ्र ही पापको नष्ट कर देते हैं, उन आदिकर्ता परात्पर विशुद्ध हरिको प्रणाम है। समस्त प्राणी जिन अविनाशी देवदेवेश्वरको जानकर पुनः जन्म-मरणको नहीं प्राप्त होते, उन्हें अभिवादन है। जो यज्ञपरायण लोगोंद्वारा यज्ञमें यज्ञनामसे पूजित होते हैं, उन सामर्थ्यशाली परमेश्वर यज्ञपुरुष विष्णुको मैं नमस्कार करती हूँ। १२-२३॥

गीयते सर्ववेदेषु वेदविद्भिर्विदां पतिः ।
यस्तस्मै वेदवेद्याय विष्णवे जिष्णवे नमः ॥ २४

यतो विश्वं समुत्पन्नं यस्मिश्च लयमेष्यति।
विश्वागमप्रतिष्ठाय नमस्तस्मै महात्मने ।। २५

ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तं येन विश्वमिदं ततम् ।
मायाजालं समुत्तर्तुं तमुपेन्द्रं नमाम्यहम् ॥ २६

यस्तु तोयस्वरूपस्थो बिभर्त्यखिलमीश्वरः ।
विश्वं विश्वपतिं विष्णुं तं नमामि प्रजापतिम् ॥ २७

यमाराध्य विशुद्धेन मनसा कर्मणा गिरा।
तरन्त्यविद्यामखिलां तमुपेन्द्रं नमाम्यहम् ॥ २८

विषादतोषरोषाद्यौर्योऽजखं सुखदुःखजैः ।
नृत्यत्यखिलभूतस्थस्तमुपेन्द्रं नमाम्यहम् ॥ २९

मूर्त तमोऽसुरमयं तद्वधाद् विनिहन्ति यः । 
रात्रिजं सूर्यरूपीव तमुपेन्द्रं नमाम्यहम् ॥ ३०

कपिलादिस्वरूपस्थो यश्चाज्ञानमयं तमः । 
हन्ति ज्ञानप्रदानेन तमुपेन्द्रं नमाम्यहम् ॥ ३१

यस्याक्षिणी चन्द्रसूर्यौ सर्वलोकशुभाशुभम् । 
पश्यतः कर्म सततमुपेन्द्रं तं नमाम्यहम् ॥ ३२

यस्मिन् सर्वेश्वरे सर्वं सत्यमेतन्मयोदितम्। 
नानृतं तमजं विष्णुं नमामि प्रभवाप्ययम् ॥ ३३

यच्च तत्सत्यमुक्तं मे भूयांश्चातो जनार्दनः । 
सत्येन तेन सकलाः पूर्यन्तां मे मनोरथाः ॥ ३४

विद्वानोंके स्वामी जो भगवान् वेदवेत्ताओंद्वारा सम्पूर्ण वेदोंमें गाये जाते हैं, उन वेदोंद्वारा जाननेयोग्य विजयशील विष्णुको प्रणाम है। जिससे विश्व उत्पन्न हुआ है और जिसमें यह लीन हो जायगा, उन वेद-मर्यादाके रक्षक महात्मा विष्णुको अभिवादन है। जिसके द्वारा ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त इस विश्वका विस्तार हुआ है, उन उपेन्द्रको मायाजाल से उद्धार पानेके लिये मैं नमस्कार करती हूँ। जो ईश्वर जलरूपसे स्थित होकर सम्पूर्ण विश्वका भरण-पोषण करते हैं, उन विश्वेश्वर प्रजापति विष्णुको मैं प्रणाम करती हूँ। विशुद्ध मन, वचन एवं कर्मद्वारा जिनकी आराधना कर मनुष्य सम्पूर्ण अविद्याको पार कर जाते हैं, उन उपेन्द्रको मैं अभिवादन करती हूँ। जो सभी चराचर जीवोंमें विद्यमान रहकर सुख-दुःखसे उत्पन्न हुए दुःख, संतोष और क्रोध आदिके वशीभूत हो निरन्तर नाचते रहते हैं, उन उपेन्द्रको मैं नमस्कार करती हूँ। जो रात्रिजन्य अन्धकारको सूर्यकी तरह असुरमय मूर्तिमान् अन्धकारका विनाश करते हैं, उन उपेन्द्रको मैं प्रणाम करती हूँ। जो कपिल आदि महर्षियोंक रूपमें स्थित होकर ज्ञानदानद्वारा अज्ञानान्धकारको दूर करते हैं, उन उपेन्द्रको मैं अभिवादन करती हूँ। जिनके नेत्रस्वरूप चन्द्रमा और सूर्य समस्त संसारके शुभाशुभ कर्मोंको बराबर देखते रहते हैं, उन उपेन्द्रको मैं नमस्कार करती हूँ। जिन सर्वेश्वरके लिये मैंने इन सभी विशेषणोंको सत्यरूपसे वर्णन किया है, मिथ्या नहीं, उन अजन्मा एवं उत्पत्ति-विनाशके कारणभूत विष्णुको मैं प्रणाम करती हूँ। मैंने उनके विषयमें जितनी सत्य बातें कही हैं, जनार्दन उससे भी बढ़कर हैं। इस सत्यके फलस्वरूप मेरे सभी मनोरथ पूर्ण हो जायँ ॥ २४-३४॥

शौनक उवाच

एवं स्तुतः स भगवान् वासुदेव उवाच ताम्। 
अदृश्यः सर्वभूतानां तस्याः संदर्शने स्थितः ॥ ३५

शौनकजीने कहा- इस प्रकार स्तुति किये जानेपर भगवान् वासुदेव, जो समस्त प्राणियोंके लिये अदर्शनीय हैं, अदिति के समक्ष उपस्थित होकर उनसे इस प्रकार बोले ॥ ३५ ॥

श्रीभगवानुवाच

मनोरथांस्त्वमदिते यानिच्छस्यभिवाञ्छितान्।
तांस्त्वं प्राप्स्यसि धर्मज्ञे मत्प्रसादान्न संशयः ॥ ३६

शृणुष्व सुमहाभागे वरो यस्ते हृदि स्थितः ।
तमाशु ब्रियतां कामं श्रेयस्ते सम्भविष्यति ।
मद्दर्शनं हि विफलं न कदाचिद् भविष्यति ॥ ३७

श्रीभगवान्ने कहा- धर्मज्ञा अदिते! तुम जिन अभीष्ट मनोरथोंको प्राप्त करना चाहती हो उन्हें तुम मेरी कृपासे प्राप्त करोगी, इसमें संदेह नहीं है। महाभाग्यशालिनि ! सुनो, तुम्हारे हृदयमें जो वरदान स्थित है उसे शीघ्र ही इच्छानुसार माँग लो। तुम्हारा कल्याण होगा; क्योंकि मेरा दर्शन कभी विफल नहीं होता ॥ ३६-३७॥ 

अदितिरुवाच

यदि देव प्रसन्नस्त्वं मद्भक्त्या भक्तवत्सल । 
त्रैलोक्याधिपतिः पुत्रस्तदस्तु मम वासवः ॥ ३८

हृतं राज्यं हताश्चास्य यज्ञभागा महासुरैः ।
त्वयि प्रसन्ने वरदे तान् प्राप्नोतु सुतो मम ॥ ३९

हृतं राज्यं न दुःखाय मम पुत्रस्य केशव।
सापत्नाद् दायनिर्भशो बाधां नः कुरुते हृदि ॥ ४०

अदिति बोलीं- भक्तवत्सल देव! यदि आप मेरी भक्तिसे प्रसन्न हैं तो मेरा पुत्र इन्द्र पुनः त्रिलोकीका स्वामी हो जाय। महान् असुरोंद्वारा मेरे पुत्रका राज्य छीन लिया गया है तथा उसके यज्ञभागोंपर भी अधिकार कर लिया गया है। अब आप जैसे वरदानीके प्रसन्न हो जानेपर मेरा पुत्र पुनः उन्हें प्राप्त करे। केशव। मेरे पुत्रका छीना हुआ राज्य मुझे उतना कष्ट नहीं दे रहा है, जितना सौतेले पुत्रोंद्वारा मेरे पुत्रोंका अपने हिस्सेसे भ्रष्ट हो जाना मेरे हृदयमें चुभ रहा है॥ ३८-४० ॥

श्रीभगवानुवाच

कृतः प्रसादो हि मया तव देवि यथेप्सितः ।
स्वांशेन चैव ते गर्भे सम्भविष्यामि कश्ययात् ॥ ४१

तव गर्भसमुद्भूतस्ततस्ते ये सुरारयः।
तानहं निहनिष्यामि निवृत्ता भव नन्दिनि ॥ ४२

श्रीभगवान्ने कहा- देवि! मैंने तुम्हारे इच्छानुसार तुमपर कृपा की है। मैं अपने अंशसे युक्त कश्यपके सम्पर्कसे तुम्हारे गर्भसे उत्पन्न होऊँगा। इस प्रकार तुम्हारे गर्भसे उत्पन्न होकर मैं देवताओंके उन सभी शत्रुओंका वध करूँगा। नन्दिनि! अब तुम तपसे निवृत्त हो जाओ ॥ ४१-४२ ॥

अदितिरुवाच

प्रसीद देवदेवेश नमस्ते विश्वभावन।
नाहं त्वामुदरे देव वोढुं शक्ष्यामि केशव ।। ४३

यस्मिन् प्रतिष्ठितं विश्वं यो विश्वं स्वयमीश्वरः ।
तमहं नोदरेण त्वां वोढुं शक्ष्यामि दुर्धरम् ॥ ४४

अदिति बोलीं- जगत्कर्ता देवेश्वर! आपको नमस्कार है। आप मुझपर कृपा कीजिये। केशव। मैं आपको गर्भमें धारण करनेमें समर्थ नहीं हो सकती। यह सारा विश्व जिसमें स्थित है तथा जो स्वयं इस विश्वके स्वामी हैं, उन दुर्धर्ष आपको मैं अपने गर्भमें धारण करनेमें सर्वथा असमर्थ हूँ ॥ ४३-४४॥ 

श्रीभगवानुवाच

सत्यमात्थ महाभागे मयि सर्वमिदं जगत्।
प्रतिष्ठितं न मां शक्ता वोढुं सेन्द्रा दिवौकसः ॥ ४५

किंत्वहं सकलॉल्लोकान् सदेवासुरमानुषान् । 
जङ्गमान् स्थावरान् सर्वांस्त्वां च देवि सकश्यपाम्। 
धारयिष्यामि भद्रं ते तदलं सम्भ्रमेण ते ।। ४६

न ते ग्लानिर्न ते खेदो गर्भस्थे भविता मयि । 
दाक्षायणि प्रसादं ते करोम्यन्यैः सुदुर्लभम् ॥ ४७

गर्भस्थे मयि पुत्राणां तव योऽरिर्भविष्यति ।
तेजसस्तस्य हानिं च करिष्ये मा व्यथां कृथाः ॥ ४८

श्रीभगवान्ने कहा- महाभागे! तुम सच कह रही हो। यह सारा जगत् मुझमें स्थित है, अतः इन्द्रसहित समस्त देवता मेरा भार वहन करनेमें समर्थ नहीं हो सकते, किंतु देवि। मैं देवताओं, असुरों और मनुष्योंसहित सभी लोकोंको, सम्पूर्ण चराचरको तथा कश्यपसहित तुमको धारण करूँगा। तुम्हारा कल्याण हो, अब तुम्हें विकल नहीं होना चाहिये। तुम्हारे गर्भमें मेरे स्थित होनेपर तुम्हें न तो ग्लानि होगी, न खेद होगा। दाक्षायणि! मैं तुमपर ऐसी कृपा करूँगा जो दूसरोंके लिये परम दुर्लभ है। मेरे गर्भमें स्थित रहनेपर तुम्हारे पुत्रोंका जो शत्रु होगा उसके तेजोबलको मैं विनष्ट कर दूँगा। तुम दुःख मत करो ॥ ४५-४८ ॥

शौनक उवाच

एवमुक्त्वा ततः सद्यो यातोऽन्तर्धानमीश्वरः । 
सापि कालेन तं गर्भमवाप कुरुसत्तम ॥ ४९

गर्भस्थिते ततः कृष्णे चचाल सकला क्षितिः ।
चकम्पिरे महाशैलाः क्षोभं जग्मुस्तथाब्धयः ॥ ५०

यतो यतोऽदितिर्याति ददाति ललितं पदम् ।
ततस्ततः क्षितिः खेदान्ननाम वसुधाधिप ॥ ५१

दैत्यानामथ सर्वेषां गर्भस्थे मधुसूदने।
बभूव तेजसां हानिर्यथोक्तं परमेष्ठिना ॥ ५२

शौनकजी बोले- कुरुश्रेष्ठ! ऐसा कहकर भगवान् तुरंत अन्तर्हित हो गये। समयानुसार अदितिने भी उस गर्भको धारण किया। भगवान् विष्णुके गर्भस्थित होनेपर सारी पृथ्वी डगमगाने लगी, बड़े-बड़े पर्वत काँपने लगे तथा समुद्रमें ज्वार-भाटा उठने लगा। वसुधाधिप। अदिति जिधर जिधर जाती थीं और अपना सुन्दर पद रखती थीं, वहाँ-वहाँ भारके कारण पृथ्वी विनम्र हो जाती थी। भगवान् विष्णुके गर्भस्थ होनेपर सभी दैत्योंके तेज बिलकुल मन्द हो गये, जैसा कि भगवान्ने अदितिसे पहले कहा था ॥ ४९-५२॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे वामनप्रादुर्भावेऽदितिवरप्रदानं नाम चतुश्चत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः २४४॥ 

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें वामनप्रादुर्भाव-प्रसंगमें अदितिको वरदान नामक दो सौ चौवालीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २४४ ॥ 

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