शुक्राचार्य का वृषपर्वा को फटकारना और शर्मिष्ठा को दासी बनाना | shukracharya ka vrushaparva ko fatkarana aura sharmishtha ko dasi banana

शुक्राचार्य का वृषपर्वा को फटकारना और शर्मिष्ठा को दासी बनाना

श्रीमद्भागवद गीता में धर्म और अधर्म के बीच के संघर्ष को बार-बार दर्शाया गया है, और इसी संघर्ष को हम श्रीमद्वात्स्यपुराण में भी देख सकते हैं। इस लेख में हम जानेंगे कि कैसे शुक्राचार्य ने वृषपर्वा को फटकारते हुए अपनी पुत्री देवयानी के सम्मान की रक्षा की और किस प्रकार शर्मिष्ठा ने देवयानी की इच्छा पूरी करने के लिए अपने अहंकार को त्याग दिया।

शुक्राचार्य और वृषपर्वा के बीच का संवाद

शौनक जी कहते हैं कि एक दिन शुक्राचार्य ने वृषपर्वा से मिलने का निर्णय लिया। वृषपर्वा राजसिंहासन पर बैठा हुआ था, और जैसे ही शुक्राचार्य उसके पास पहुंचे, उन्होंने उसे आड़े हाथों लिया। शुक्राचार्य ने कहा, "राजन्! अधर्म का फल तुरंत नहीं मिलता, लेकिन यह धीरे-धीरे सभी पर प्रकट होता है। जैसे धरती पर बीज बोने के बाद समय के साथ पौधा उगता है और फल देता है, वैसे ही अधर्म भी अपने परिणाम देता है।"

शुक्राचार्य ने वृषपर्वा को चेतावनी दी कि उसके द्वारा किए गए पापों का परिणाम न केवल उसे, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी भुगतना पड़ेगा। उन्होंने यह भी कहा कि वह अपने घर में रहने वाले कच के वध और अपनी बेटी देवयानी के साथ किए गए अनुचित व्यवहार के कारण वृषपर्वा को छोड़ देंगे।

वृषपर्वा की माफी और शर्मिष्ठा का समर्पण

वृषपर्वा, जो पहले ही शुक्राचार्य की बातों से प्रभावित था, ने अपनी गलती मानी और उससे माफी मांगी। शुक्राचार्य ने उसे कहा कि उसे अपनी पुत्री देवयानी को प्रसन्न करना होगा, क्योंकि देवयानी के बिना वह किसी भी प्रकार की शांति नहीं पा सकते थे।

वृषपर्वा ने तुरंत अपनी बेटी शर्मिष्ठा को बुलाया और उसे देवयानी की इच्छा पूरी करने का आदेश दिया। शर्मिष्ठा ने देवयानी की दासी बनने का संकल्प लिया और अपनी जाति के सभी सम्मान को त्याग दिया। शर्मिष्ठा ने देवयानी से कहा, "तुम्हारी इच्छा पूरी करने के लिए मैं एक हजार कन्याओं के साथ तुम्हारी दासी बनूंगी।"

देवयानी और शर्मिष्ठा का संवाद

देवयानी ने शर्मिष्ठा की बातों को सुनकर कहा, "तुम एक उच्च कुल की बेटी हो, फिर मेरी दासी कैसे बन सकती हो?" शर्मिष्ठा ने इसका उत्तर दिया, "मुझे इस कष्टपूर्ण स्थिति से अपने जाति-भाइयों को सुख पहुँचाना है, और इसके लिए मुझे अपनी स्थिति को बदलना होगा।"

निष्कर्ष

यह कथा हमें यह सिखाती है कि धर्म और अधर्म के बीच संघर्ष न केवल व्यक्तिगत जीवन में, बल्कि पारिवारिक और सामूहिक जीवन में भी होता है। शुक्राचार्य ने अपनी पुत्री के सम्मान की रक्षा करते हुए वृषपर्वा को चेतावनी दी, और शर्मिष्ठा ने अपने अहंकार को त्यागकर देवयानी की इच्छा पूरी की। इस प्रकार, यह घटना हमें सिखाती है कि हमें कभी भी अपने धर्म और कर्तव्यों से पीछे नहीं हटना चाहिए, और न ही किसी भी स्थिति में आत्मसम्मान और सम्मान की रक्षा करनी चाहिए।

टिप्पणियाँ