सत्यवान को जीवन लाभ तथा पत्नी सहित राजा को नेत्र ज्योति एवं राज्य की प्राप्ति | satyavaan ko jeevan laabh tatha patnee sahit raaja ko netr jyoti evan raajy kee praapti

मत्स्य पुराण दो सौ चौदहवाँ अध्याय

सत्यवान को जीवन लाभ तथा पत्नी सहित राजा को नेत्र ज्योति एवं राज्य की प्राप्ति 

मत्स्य उवाच

सावित्री तु ततः साध्वी जगाम् वरवर्णिनी।
पथा यथागतेनैव यत्रासीत् सत्यवान् मृतः ॥ १

सा समासाद्य भर्तारं तस्योत्सङ्गगतं शिरः । 
कृत्वा विवेश तन्वङ्गी लम्बमाने दिवाकरे ॥ २

सत्यवानपि निर्मुक्तो धर्मराजाच्छनैः शनैः । 
उन्मीलयत नेत्राभ्यां प्रास्फुरच्च नराधिप ॥ ३

ततः प्रत्यागतप्राणः प्रियां वचनमब्रवीत् । 
क्वासौ प्रयातः पुरुषो यो मामप्यपकर्षति ॥ ४

न जानामि वरारोहे कश्चासौ पुरुषः शुभे। 
वनेऽस्मिश्चारुसर्वाङ्गि सुप्तस्य च दिनं गतम् ॥ ५ 

उपवासपरिश्रान्ता दुःखिता भवती मया। 
अस्मद्दुहृदयेनाद्य पितरौ दुःखितौ तथा। 
द्रष्टुमिच्छाम्यहं सुभ्रु गमने त्वरिता भव ॥ ६

मत्स्यभगवान्ने कहा- तदनन्तर पतिव्रता सुन्दरी सावित्री वहाँसे जिस मार्गसे गयी थी, उसी मार्गसे लौटकर उस स्थान पर आयी, जहाँ सत्यवान्‌का मृत शरीर पड़ा हुआ था। तब कृशाङ्गी सावित्री पतिके निकट जाकर उसके सिरको अपनी गोदमें रखकर पूर्ववत् बैठ गयी। उस समय भगवान् भास्कर अस्ताचलको जा रहे थे। नरेश्वर । धर्मराजसे मुक्त हुए सत्यवान्ने भी धीरे-धीरे आँखें खोली और अंगड़ाई ली। तत्पश्चात् प्राणोंके लौट आनेपर उसने अपनी स्त्री सावित्रीसे इस प्रकार कहा- वह पुरुष कहाँ चला गया, जो मुझे खींचकर लिये जा रहा था। सुन्दरि! मैं नहीं जानता कि वह पुरुष कौन था! सर्वाङ्गसुन्दरि! इस वनमें सोते हुए मेरा पूरा दिन बीत गया और शुभे! तुम भी उपवाससे परिश्रान्त एवं दुःखी हुई तथा मुझ जैसे दुष्टसे आज माता-पिताको भी दुःख भोगना पड़ा। सुन्दर भौंहोंवाली! मैं उन्हें देखना चाहता हूँ, चलो, जल्दी चलो' ॥ १-६॥

सावित्र्युवाच

आदित्योऽस्तमनुप्राप्तो यदि ते रुचितं प्रभो।
आश्रम तु प्रयास्यावः श्वशुरौ हीनचक्षुषौ ॥ ७

यथावृत्तं च तत्रैव तव वक्ष्ये यथाश्रमे ।
एतावदुक्त्वा भर्तारं सह भर्चा तदा ययौ ॥ ८

आससादाश्रमं चैव सह भर्त्रा नृपात्मजा ।
एतस्मिन्नेव काले तु लब्धचक्षुर्महीपतिः ॥ ९

द्युमत्सेनः सभार्यस्तु पर्यतप्यत भार्गव। 
प्रियं पुत्रमपश्यन् वै स्नुषां चैवाथ कर्शिताम् ॥ १०

आश्वास्यमानस्तु तथा स तु राजा तपोधनैः ।
ददर्श पुत्रमायान्तं स्नुषया सह काननात् ॥ ११

सावित्री तु वरारोहा सह सत्यवता तदा।
ववन्दे तत्र राजानं सभार्य क्षत्रपुङ्गवम् ॥ १२

परिष्वक्तस्तदा पित्रा सत्यवान् राजनन्दनः ।
अभिवाद्य ततः सर्वान् वने तस्मिस्तपोधनान् ॥ १३

उवास तत्र तां रात्रिमृषिभिः सर्वधर्मवित् । 
सावित्र्यपि जगादाथ यथावृत्तमनिन्दिता ।। १४

व्रतं समापयामास तस्यामेव तदा निशि। 
ततस्तूर्येस्त्रियामान्ते ससैन्यस्तस्य भूपतेः ॥ १५ 

आजगाम जनः सर्वो राज्यार्थाय निमन्त्रणे। 
विज्ञापयामास तदा तत्र प्रकृतिशासनम् ।। १६

विचक्षुषस्ते नृपते येन राज्यं पुरा हृतम्। 
अमात्यैः स हतो राजा भवांस्तस्मिन् पुरे नृपः ॥ १७

एतच्छ्रुत्वा ययौ राजा बलेन चतुरङ्गिणा।
लेभे च सकलं राज्यं धर्मराजान्महात्मनः ॥ १८

भ्रातृणां तु शतं लेभे सावित्र्यपि वराङ्गना।
एवं पतिव्रता साध्वी पितृपक्षं नृपात्मजा ॥ १९

उज्जहार वरारोहा भर्तृपक्षं तथैव च।
मोक्षयामास भर्तारं मृत्युपाशवशं गतम् ॥ २०

सावित्री बोली-प्रभो! सूर्य तो अस्त हो गये। पर यदि आपको पसंद हो तो हमलोग आश्रमको लौट चलें; क्योंकि मेरे सास-श्वशुर अंधे हैं। मैं वहीं आश्रममें यह सब घटित हुआ वृत्तान्त आपको बतलाऊँगी। सावित्री उस समय पतिसे ऐसा कहकर पतिके साथ ही चल पड़ी और वह राजकुमारी पतिके साथ आश्रमपर आ पहुँची। भार्गव । इसी समय पत्नीसहित द्युमत्सेनको नेत्र-ज्योति प्राप्त हो गयी। वे अपने प्रिय पुत्र और दुबली-पतली पुत्रवधूको न देखकर दुःखी हो रहे थे। उस समय तपस्वी ऋषि राजाको सान्त्वना दे रहे थे। इतनेमें ही उन्होंने पुत्रवधूके साथ पुत्रको वनसे आते हुए देखा। उस समय सुन्दरी सावित्रीने सत्यवान्‌के साथ सपत्नीक क्षत्रियश्रेष्ठ राजा द्युमत्सेनको प्रणाम किया। पिताने राजकुमार सत्यवान्‌को गले लगाया। तब सभी धर्मोको जाननेवाले सत्यवान्ने उस वनमें निवास करनेवाले तपस्वियों को अभिवादनकर रातमें ऋषियोंके साथ वहीं निवास किया। 

उस समय अनिन्दितचरित्रा सावित्रीने जैसी घटना घटित हुई थी उसका वर्णन किया और उसी रातमें अपने व्रतको भी समाप्त किया। तदनन्तर तीन पहर बीत चुकनेपर राजाकी सारी प्रजा सेनासहित तुरुही आदि बाजोंको बजाते हुए राजाको पुनः राज्य करनेके लिये निमन्त्रण देने आयी और यह सूचना दी कि राज्यमें आपका शासन अब पूर्ववत् हो। राजन् ! नेत्रहीन होनेके कारण जिस राजाने आपके राज्यको छीन लिया था, वह राजा मन्त्रियोंद्वारा मार डाला गया। अब उस नगरमें आप ही राजा हैं। यह सुनकर राजा चतुरंगिणी सेनाके साथ वहाँ गये और महात्मा धर्मराजकी कृपासे पुनः अपने सम्पूर्ण राज्यको प्राप्त किये। सुन्दरी सावित्रीने भी सौ भाइयोंको प्राप्त किया। इस प्रकार साध्वी पतिव्रता सुन्दरी राजकुमारी सावित्रीने अपने पितृपक्ष तथा पतिपक्ष-दोनोंका उद्धार किया और मृत्युके पाशमें बँधे हुए अपने पतिको मुक्त किया ॥ ७-२०॥

तस्मात् साध्व्यः स्त्रियः पूज्याः सततं देववन्नरैः ।
तासां राजन् प्रसादेन धार्यते वै जगत्त्रयम् ॥ २१

तासां तु वाक्यं भवतीह मिथ्या न जातु लोकेषु चराचरेषु।
तस्मात् सदा ताः परिपूजनीयाः कामान् समग्रानभिकामयानैः ॥ २२

यश्चेदं शृणुयान्नित्यं सावित्र्याख्यानमुत्तमम् । 
स सुखी सर्वसिद्धार्थो न दुःखं प्राप्नुयान्नरः ॥ २३

राजन् ! इसलिये मनुष्योंको सदा साध्वी स्त्रियोंकी देवताओंके समान पूजा करनी चाहिये; क्योंकि उनकी कृपासे ये तीनों लोक स्थित हैं। उन पतिव्रता स्त्रियोंके वाक्य इस चराचर जगत्में कभी भी मिथ्या नहीं होते, इसलिये सभी मनोरथोंकी कामना करनेवालोंको सर्वदा इनकी पूजा करनी चाहिये। जो मनुष्य सावित्रीके इस सर्वोत्तम आख्यानको नित्य सुनता है, वह सभी प्रयोजनोंमें सफलता प्राप्तकर सुखका अनुभव करता है और कभी भी दुःखका भागी नहीं होता ॥ २१-२३॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे सावित्र्युपाख्यानसमाप्तिर्नाम चतुर्दशाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २९४ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें सावित्री-उपाख्यान-समाप्ति नामक दो सौ चौदहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २१४ ॥ 

टिप्पणियाँ