मत्स्य पुराण दो सौ चालीसवाँ अध्याय
राजाओं की विजयार्थ यात्रा का विधान
मनुरुवाच
इदानीं सर्वधर्मज्ञ सर्वशास्त्रविशारद ।
यात्राकालविधानं मे कथयस्व महीक्षिताम् ॥ १
मनुजीने कहा- सम्पूर्ण धर्मोके ज्ञाता एवं सर्वशास्त्रविशारद भगवन्! अब आप मुझसे राजाओंके यात्राकालिक विधान का वर्णन कीजिये ॥ १॥
मत्स्य उवाच
यदा मन्येत नृपतिराक्रन्देन बलीयसा ।
पाणिग्राहाभिभूतोऽरिस्तदा यात्रां प्रयोजयेत् ॥ २
योधान् मत्वा प्रभूतांश्च प्रभूतं च बलं मम।
मूलरक्षासमर्थोऽस्मि तदा यात्रां प्रयोजयेत् ॥ ३
अशुद्धपार्षिणर्नृपतिर्न तु यात्रां प्रयोजयेत्।
पाणिग्राहाधिकं सैन्यं मूले निक्षिप्य च व्रजेत् ॥ ४
चैत्र्यां वा मार्गशीर्ष्या वा यात्रां यायान्नराधिपः ।
चैत्र्यां पश्येच्च नैदाधं हन्ति पुष्टि च शारदीम् ॥ ५
एतदेव विपर्यस्तं मार्गशीर्ष्या नराधिपः ।
शत्रोर्वा व्यसने यायात् काल एव सुदुर्लभः ॥ ६
दिव्यान्तरिक्षक्षितिजैरुत्पातैः पीडितं परम्।
षडक्षपीडासंतप्तं पीडितं च तथा ग्रहैः ॥ ७
ज्वलन्ती च तथैवोल्का दिशं यां च प्रपद्यते ।
भूकम्पोल्कादि संयाति यां च केतुः प्रसूयते ॥ ८
निर्घातश्च पतेद् यत्र तां यायाद् वसुधाधिपः ।
स्वबलव्यसनोपेतं तथा दुर्भिक्षपीडितम् ॥ ९
सम्भूतान्तरकोपं च क्षिप्रं प्रायादरिं नृपः।
यूकामाक्षीकबहुलं बहुपङ्क तथाविलम् ॥ १०
नास्तिकं भिन्नमर्यादं तथामङ्गलवादिनम्।
अपेतप्रकृतिं चैव निःसारं च तथा जयेत् ॥ ११
मत्स्यभगवान्ने कहा- जिस समय राजा अपनेको किसी भयंकर युद्धसे घिरा हुआ तथा सीमावर्ती शत्रुको पराजित समझ ले, उस समय उसे यात्रा कर देनी चाहिये। साथ ही जब वह यह समझ ले कि हमारे पास बहुसंख्यक योद्धा हैं, हमारी सेना बहुत बड़ी है और मैं अपने दुर्गकी रक्षा करनेमें समर्थ हूँ, उस समय उसके लिये यात्रा करना उचित है। सीमावर्ती राजाके शत्रु बन जानेपर राजाको यात्रा नहीं करनी चाहिये। उस समय वह पार्श्ववर्ती राजासे अधिक सेना प्राप्त कर यात्रा कर सकता है। राजाको चैत्र या मार्गशीर्षकी पूर्णिमाको दिवि-जयार्थ यात्रा करनी चाहिये। चैत्र पूर्णिमा को यात्रा करनेवाला ग्रीष्म ऋतुका दर्शन करेगा तथा शरत्कालीन शीत-भयसे रहित रहेगा। ठीक इसी प्रकार का परिवर्तन मार्गशीर्ष-पूर्णिमाको यात्रा करनेसे होता है। अथवा शत्रुके आपत्तिमें फँसनेपर यात्रा करे, पर ऐसा समय अत्यन्त दुर्लभ है। जो दिव्य, अन्तरिक्ष एवं पृथ्वीजन्य उत्पातोंसे पीड़ित, हाथ-पैर आदि छः इन्द्रियोंकी पीड़ासे संतप्त तथा ग्रहोंद्वारा पीड़ित हो, ऐसे शत्रु राजापर विजय-यात्रा करनी चाहिये। जिस दिशामें जलती हुई उल्का गिरती है, जिस दिशामें भूकम्पादि उत्पात अधिक होते हैं तथा पुच्छल तारा उदित होता है, उसी दिशामें राजाको विजयार्थ यात्रा करनी चाहिये। जो अपनी सेनाके विद्रोहसे युक्त, दुर्भिक्षसे पीड़ित तथा आन्तरिक विद्रोहसे प्रभावित हो, ऐसे शत्रुपर राजाको तुरंत आक्रमण कर देना चाहिये। जिसके देशमें ढील, मक्खी, कीचड़ और गंदगीकी बहुतायत हो, जो नास्तिक, मर्यादारहित, अमङ्गलवादी, दुश्चरित्र और पराक्रमहीन हो ऐसे शत्रुको वशमें कर लेना उचित है॥ २-११ ॥
विद्विष्टनायकं सैन्यं तथा भिन्नं परस्परम् ।
व्यसनासक्तनृपतिं बलं राजाभियोजयेत् ॥ १२
सैनिकानां न शस्त्राणि स्फुरन्त्यङ्गानि यत्र च ।
दुःस्वप्नानि च पश्यन्ति बलं तदभियोजयेत् ॥ १३
उत्साहबलसम्पन्नः स्वानुरक्तबलस्तथा ।
तुष्टपुष्टबलो राजा परानभिमुखो व्रजेत् ॥ १४
शरीरस्फुरणे धन्ये तथा दुःस्वप्ननाशने।
निमित्ते शकुने धन्ये जाते शत्रुपुरं व्रजेत् ॥ १५
ऋक्षेषु षट्सु शुद्धेषु ग्रहेष्वनुगुणेषु च।
प्रश्नकाले शुभे जाते परान् यायान्नराधिपः ॥ १६
एवं तु दैवसम्पन्नस्तथा पौरुषसंयुतः ।
देशकालोपपन्नां तु यात्रां कुर्यान्नराधिपः ॥ १७
स्थले नक्रस्तु नागस्य तस्यापि सजले वशे।
उलूकस्य निशि ध्वाङ्ङ्क्षः स च तस्य दिवा वशे ॥ १८
जिस राजाकी प्रजा या सेनानायक उसका शत्रु हो गया हो अथवा उसके मन्त्री सेना आदिमें भी परस्पर विद्वेष हो, वह स्वयं किसी विपत्तिमें पड़ गया हो, ऐसे शत्रुपर अपनी सेनाको चढ़ाईका आदेश दे देना चाहिये। जिस राजाके सैनिकोंके अस्त्र एवं अङ्ग प्रस्फुरित न होते हों तथा उन्हें बुरे स्वप्न दौख पड़ते हों, उनपर जब शुभ अङ्ग फड़कते हों, दुःस्वप्न न दिखायी पड़ते हों तथा शुभ शकुन दिखायी पड़ रहे हों, उस समय धावा बोल देना चाहिये। उत्साह एवं पराक्रमसे संयुक्त तथा अपनेमें अनुराग करनेवाली, संतुष्ट एवं परिपुष्ट विशाल सेनासे सम्पन्न राजा शत्रुओंपर आक्रमण कर दे। शत्रुकी राजधानीपर चढ़ाई करनी चाहिये। जन्म-नक्षत्र आदि छः नक्षत्रोंके शुद्ध होनेपर, शुभ ग्रहोंकी स्थिति अनुकूल होनेपर तथा प्रश्न करनेपर शुभदायक उत्तर मिलनेपर राजाको शत्रुओंपर आक्रमण करना चाहिये। इस प्रकार दैवबल तथा पराक्रमसे संयुक्त राजा देश एवं कालके अनुसार शत्रुपर चढ़ाई करे। स्थलपर मगर हाथीके वशमें होता है, किंतु जलमें हाथी नाकके वशमें हो जाता है। इसी प्रकार रात्रिमें काक उल्लूके अधीन हो जाता है, किंतु दिनमें उल्लू काकके वशमें होता है। इसी प्रकार राजाको देश एवं कालका विचारकर शत्रुपर विजय-यात्रा करनी चाहिये ॥ १२-१८ ॥
एवं देशं च कालं च ज्ञात्वा यात्रां प्रयोजयेत् ।
पदातिनागबहुलां सेनां प्रावृषि योजयेत् ॥ १९
हेमन्ते शिशिरे चैव रथवाजिसमाकुलाम्।
खरोष्टबहुलां सेनां तथा ग्रीष्मे नराधिपः ॥ २०
चतुरङ्गबलोपेतां वसन्ते वा शरद्यथ ।
सेना पदातिबहुला यस्य स्यात् पृथिवीपतेः ॥ २१
अभियोज्यो भवेत् तेन शत्रुर्विषममाश्रितः ।
गम्ये वृक्षावृते देशे स्थितं शत्रु तथैव च ॥ २२
किञ्चित्पङ्के तथा यायाद् बहुनागो नराधिपः ।
रथाश्वबहुलो यायाच्छत्रं समपथस्थितम् ॥ २३
तमाश्रयन्तो बहुलास्तांस्तु राजा प्रपूजयेत् ।
खरोष्ट्रबहुलो राजा शत्रुर्बन्धेन संस्थितः ॥ २४
बन्धनस्थोऽभियोज्यो ऽरिस्तथा प्रावृषि भूभुजा।
हिमपातयुते देशे स्थितं ग्रीष्मेऽभियोजयेत् ॥ २५
यवसेन्धनसंयुक्तः कालः पार्थिव हैमनः ।
शरद्वसन्तौ धर्मज्ञ कालौ साधारणौ स्मृतौ ॥ २६
विज्ञाय राजा हितदेशकालौ दैवं त्रिकालं च तथैव बुद्ध्वा ।
यायात् परं कालविदां मतेन संचिन्त्य सार्धं द्विजमन्त्रविद्भिः ।। २७
राजाको वर्षा ऋतुमें पैदल और हाथियोंकी सेनाको, हेमन्त और शिशिर ऋतुमें अधिक रथ और घोड़ोंसे सम्पन्न सेनाको ग्रीष्म ऋतुमें गधे और ऊँटोंसे भरी हुई सेनाको तथा वसन्त और शरद् ऋतुमें चतुरंगिणी सेनाको यात्रामें लगाना उचित है। जिस राजाके पास पैदल सेना अधिक हो, उसे विषम स्थानपर स्थित शत्रुपर आक्रमण करना चाहिये। राजाको चाहिये कि जो शत्रु अधिक वृक्षोंसे युक्त देशमें या कुछ कीचड़वाले स्थानपर स्थित हो, उसपर हाथियों की सेनाके साथ चढ़ाई करे। समतल भूमिमें स्थित शत्रुपर रथ और घोड़ोंकी सेना साथ लेकर चढ़ाई करनी चाहिये। जिस शत्रुओंके पास बहुत बड़ी सेना हो, राजाको चाहिये कि उनका आदर-सत्कार करे, अर्थात् उनके साथ संधि कर ले। वर्षा ऋतुमें अधिक संख्यामें गधे और ऊँटोंकी सेना रखनेवाला राजा यदि शत्रुके बन्धनमें पड़ गया हो तो उस अवस्थामें भी उसे वर्षा ऋतुमें चढ़ाई करनी चाहिये। जिस देशमें बरफ गिरती हो, वहाँ राजा ग्रीष्म ऋतुमें आक्रमण करे। पार्थिव ! हेमन्त और शिशिर ऋतुओंका समय काष्ठ तथा घास आदि साधनोंसे युक्त होनेसे यात्राके लिये बहुत अनुकूल रहता है। धर्मज्ञ। इसी प्रकार शरद् और वसन्त ऋतुओंके काल भी अनुकूल माने गये हैं। राजाको देश-काल और त्रिकालज्ञ ज्योतिषीसे यात्राकी स्थितिको भलीभाँति समझकर उसी प्रकार पुरोहित और मन्त्रियोंक साथ परामर्श कर विजय-यात्रा करनी चाहिये ॥ १९-२७॥
इति श्रीमात्ये महापुराणे यात्रानिमित्तकालयोग्यचिन्ता नाम चत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २४० ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें यात्राकाल-विधान नामक दो सौ चालीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २४० ॥
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