राजा की मृत्यु तथा देश के विनाश सूचक लक्षण और उनकी शान्ति | raaja kee mrtyu tatha desh ke vinaash soochak lakshan aur unakee shaanti

मत्स्य पुराण दो सौ अड़तीसवाँ अध्याय

राजा की मृत्यु तथा देश के विनाश सूचक लक्षण और उनकी शान्ति 

गर्ग उवाच

प्रासादतोरणा‌ट्टालद्वारप्राकारवेश्मनाम् ।
निर्निमित्तं तु पतनं दृढानां राजमृत्यवे ॥ १

गर्गजीने कहा- ब्रह्मन् ! सुदृढ़ राजभवन, तोरण, अट्टालिका, प्रवेशद्वार, परकोटा और घरका अकारण गिरना राजाकी मृत्युका कारण होता है। १

रजसा वाथ धूमेन दिशो यत्र समाकुलाः ।
आदित्यचन्द्रताराश्च विवर्णा भयवृद्धये ॥ २

राक्षसा यत्र दृश्यन्ते ब्राह्मणाश्च विधर्मिणः । 
ऋतवश्च विपर्यस्ता अपूज्यः पूज्यते जनैः ॥ ३

नक्षत्राणि वियोगीनि तन्महद्भयलक्षणम्।
केतूदयोपरागो च छिद्रं वा शशिसूर्ययोः ॥ ४

ग्रहर्क्षविकृतिर्यत्र तत्रापि भयमादिशेत्। 
स्त्रियश्च कलहायन्ते बाला निघ्नन्ति बालकान् ॥ ५

क्रियाणामुचितानां च विच्छित्तिर्यत्र जायते। 
हूयमानस्तु यत्राग्निर्दीप्यते न च शान्तिषु ॥ ६

पिपीलिकाश्च क्रव्यादा यान्ति चोत्तरतस्तथा। 
पूर्णकुम्भाः स्त्रवन्ते च हविर्वा विप्रलुप्यते ॥ ७

मङ्गल्याश्च गिरो यत्र न श्रूयन्ते समंततः । 
क्षवथुर्बाधते वाथ प्रहसन्ति नदन्ति च ॥ ८

न च देवेषु वर्तन्ते यथावद् ब्राह्मणेषु च।
मन्दघोषाणि वाद्यानि वाद्यन्ते विस्वराणि च ॥ ९

गुरुमित्रद्विषो यत्र शत्रुपूजारता नराः । 
ब्राह्मणान् सुहृदो मान्यान् जनो यत्रावमन्यते ॥ १०

शान्तिमङ्गलहोमेषु नास्तिक्यं यत्र जायते।
राजा वा प्रियते तत्र स देशो वा विनश्यति ॥ ११

जहाँ दिशाएँ धूलि अथवा धूएँसे व्याप्त दिखायी पड़ती हैं तथा सूर्य, चन्द्रमा और ताराओंका रंग बदल जाता है तो यह भी भय-वृद्धिका सूचक है। जहाँ राक्षस दिखायी पड़ते हों, ब्राह्मण विधर्मी हों, ऋतुओंका विपर्यय हो, लोग अपूज्यकी पूजा करते हों और नक्षत्रगण आकाशसे नीचे गिरने लगें तो यह महान् भयका लक्षण है। जहाँ केतुका उदय, ग्रहण, चन्द्र-सूर्यके बिम्बमें छिद्र तथा ग्रह और नक्षत्रोंमें विकार दिखायी दे, वहाँ भी भयकी सम्भावना कहनी चाहिये। जहाँ स्त्रियाँ आपसमें झगड़ने लगें, बालक बच्चोंको मारने लगें, उचित कार्योंका विनाश होने लगे, शान्तिकर्मीमें आहुति देनेपर भी अग्नि उद्दीप्त न हो, पिपीलिका और मांसभक्षी पक्षी उत्तर दिशा होकर जायें, भरे हुए घटोंमें रखी हुई वस्तुओंका चूना, हविका नष्ट हो जाना, चारों ओरसे माङ्गलिक वाणियोंका न सुना जाना, लोगोंमें कास-रोगकी पीड़ा, जनतामें अकारण हँसी और गानेकी अभिरुचि, देवता और ब्राह्मणोंके प्रति उचित बर्तावका अभाव, बाजोंका मन्द एवं विकृत स्वरमें बजना, लोगोंमें गुरु एवं मित्रोंसे द्वेष तथा शत्रुकी पूजामें अभिरुचि, ब्राह्मण, मित्र और माननीय लोगोंका अपमान तथा शान्तिपाठ, माङ्गलिक कार्य और हवनादिमें नास्तिकताका प्रभाव दिखायी पड़े, वहाँका राजा मर जाता है अथवा वह देश विनष्ट हो जाता है ॥ २-११ ॥

राज्ञो विनाशे सम्प्राप्ते निमित्तानि निबोध मे।
ब्राह्मणान् प्रथमं द्वेष्टि ब्राह्मणैश्च विरुध्यते ॥ १२

ब्राह्मणस्वानि चादत्ते ब्राह्मणांश्च जिघांसति । 
न च स्मरति कृत्येषु याचितश्च प्रकुप्यति ॥ १३

रमते निन्दया तेषां प्रशंसां नाभिनन्दति ।
अपूर्व तु करं लोभात् तथा पातयते जने ॥ १४

एतेष्वभ्यर्चयेच्छक्रं सपत्नीकं द्विजोत्तम।
भोज्यानि चैव कार्याणि सुराणां बलयस्तथा।
सन्तो विप्राश्च पूज्याः स्युस्तेभ्यो दानं च दीयताम् ।। १५ 

गावश्च देया द्विजपुङ्गवेभ्यो भुवस्तथा काञ्चनमम्बराणि ।
होमश्च कार्योऽमरपूजनं च एवं कृते पापमुपैति शान्तिम् ॥ १६

द्विजोत्तम ! अब मैं राजाका विनाश उपस्थित होनेपर उत्पन्न होनेवाले निमित्तोंको बतला रहा हूँ, सुनिये। वह राजा सर्वप्रथम ब्राह्मणोंसे द्वेष करने लगता है, ब्राह्मणोंसे विरोध करता है, ब्राह्मणोंकी सम्पत्तिको हड़प लेता है, ब्राह्मणोंके मारनेका उपक्रम करता है, उसे सत्कार्योंके सम्पादनका स्मरण नहीं होता, वह माँगनेपर क्रुद्ध होता है, ब्राह्मणोंकी निन्दामें विशेष रुचि रखता है और प्रशंसाका अभिनन्दन नहीं करता, लोभवश लोगोंपर नया-नया कर लगाता है-ऐसे अवसरपर शचीसहित इन्द्रकी पूजा करनी चाहिये तथा ब्राह्मणोंको भोजन और अन्य देवताओंके उद्देश्यसे बलि प्रदान करना चाहिये। सत्पुरुषों एवं ब्राह्मणोंकी पूजा कर उन्हें दान देना चाहिये। श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको गौएँ, पृथ्वी, सुवर्ण और वस्त्रादिका दान, देवताओंकी पूजा तथा हवन करना चाहिये। ऐसा करनेसे पाप शान्त हो जाता है ॥ १२-१६ ॥ 

इति श्रीमात्स्ये महापुराणेऽद्भुतशान्तावुत्पातप्रशमनं नामाष्टात्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २३८॥ 

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके अद्भुतशान्ति-प्रसङ्गमें उत्पात प्रशमन नामक दो सौ अड़तीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २३८ ॥

टिप्पणियाँ