मत्स्य पुराण दो सौ सैंतीसवाँ अध्याय
पशु-पक्षी सम्बन्धी उत्पात और उनकी शान्ति
गर्ग उवाच
प्रविशन्ति यदा ग्राममारण्या मृगपक्षिणः ।
अरण्यं यान्ति वा ग्राम्याः स्थलं यान्ति जलोद्भवाः ॥ १
गर्गजीने कहा- ब्रह्मन् ! जब जंगली पशु-पक्षी ग्रामोंमें प्रवेश करने लगें या ग्रामीण पशु-पक्षी जंगलोंमें चले जायें, जलमें रहने वाले जीव-जन्तु भूमिपर रेंगने लगें या भूमिके जीव जलमें चले जाएँ ।१
स्थलजाश्च जलं यान्ति घोरं वाशन्ति निर्भयाः ।
राजद्वारे पुरद्वारे शिवाश्चाप्यशिवप्रदाः ॥ २
दिवा रात्रिंचरा वापि रात्रावपि दिवाचराः ।
ग्राम्यास्त्यजन्ति ग्रामं च शून्यतां तस्य निर्दिशेत् ॥ ३
दीप्ता वाशन्ति संध्यासु मण्डलानि च कुर्वते।
वाशन्ति विस्वरं यत्र तदाप्येतत्फलं लभेत् ॥ ४
प्रदोषे कुक्कुटो वाशेद्धेमन्ते वापि कोकिलः ।
अर्कोदयेऽर्काभिमुखी शिवा रौति भयं वदेत् ॥ ५
गृहं कपोतः प्रविशेत् क्रव्यादो मूर्छिन लीयते।
मधु वा मक्षिकाः कुर्युर्मृत्युर्गृहपतेर्भवेत् ॥ ६
प्राकारद्वारगेहेषु तोरणापणवीथिषु।
केतुच्छत्रायुधाद्येषु क्रव्यादं प्रपतेद् यदि ॥ ७
जायन्ते वाथ वल्मीका मधु वा स्यन्दते यदि।
स देशो नाशमायाति राजा वा प्रियते तथा ॥ ८
अमङ्गलदायक शृगाल राजद्वार या नगरद्वार पर निर्भय होकर बोलना आरम्भ कर दें, दिनमें घूमनेवाले रात्रिमें और रात्रिमें घूमनेवाले दिनमें घूमने लगें तथा ग्राममें रहनेवाले जीव ग्रामको छोड़ दें, तब उस ग्रामकी शून्यताका निर्देश करना चाहिये। जब ग्रामोंमें पशु आदि जीवगण क्रोधोन्मत्त हो मण्डल बनाकर क्रूर स्वरमें चिल्लाने लगें, तब भी यही फल प्राप्त होता है। सायंकालमें मुर्गा बाँग देने लगे, हेमन्त ऋतुमें कोकिल बोले और सूर्योदयके समय सूर्याभिमुखी हो शृगाली चिल्लाये तो भयका आगमन कहना चाहिये। घरमें कबूतर घुस आये, मस्तकपर मांसभक्षी पक्षी बैठ जाय और घरके भीतर मधुमक्खियाँ छत्ते लगायें तो उस घरके स्वामीकी मृत्यु होती है। यदि दुर्गादिके परकोटे, प्रवेशद्वार, राजभवन, तोरण (सिंहद्वार), बाजार, गली, पताका, ध्वज और अस्त्र-शस्त्रादिपर मांसभक्षी पक्षी बैठ जाय अथवा घरमें बिमवट हो जाय या छत्तेसे मधु चूने लगे तो उस देशका विनाश हो जाता है तथा राजाकी मृत्यु हो जाती है ॥ १-८॥
मूषकाशलभान् दृष्ट्वा प्रभूतं क्षुद्धयं भवेत्।
काष्ठोल्मुकास्थिशृङ्गाढ्याः श्वानो मर्कटवेदनाः ॥ ९
दुर्भिक्षं वेदना ज्ञेया काका धान्यमुखा यदि।
जनानभिभवन्तीह निर्भया रणवेदिनः ॥ १०
काको मैथुनसक्तश्च श्वेतस्तु यदि दृश्यते।
राजा वा प्रियते तत्र स च देशो विनश्यति ॥ ११
उलूको वाशते यत्र नृपद्वारे तथा गृहे।
ज्ञेयो गृहपतेर्मृत्युर्धननाशस्तथैव च ॥ १२
मृगपक्षिविकारेषु कुर्याद्धोमं सदक्षिणम्।
देवाः कपोता इति वा जप्तव्याः पञ्चभिर्द्विजैः ॥ १३
गावश्च देया विधिवद् द्विजानां सकाञ्चना वस्त्रयुगोत्तरीयाः ।
एवं कृते शान्तिमुपैति पापं मृगैर्द्विजैर्वा विनिवेदितं यत् ॥ १४
चूहे और शलभ अधिक परिमाणमें दिखायी पड़ें तो दुर्भिक्ष पड़ता है। लकड़ीके लुआठे, हड्डियाँ, सींगवाले जानवर, कुत्ते और बन्दरोंकी अधिकता होनेपर देशमें व्याधियाँ फैलनेका भय रहता है। यदि कौए चोंचमें अन्न लेकर निर्भयता पूर्वक लोगोंपर टूट पड़ते हों तो दुर्भिक्ष और रण छिड़नेकी सम्भावना समझनी चाहिये। यदि श्वेत कौआ मैथुन करते हुए दिखलायी पड़ जाय तो उस देशका राजा मर जाता है अथवा वह देश विनष्ट हो जाता है। जहाँ राजाके द्वार तथा घरपर उल्लू बोलता हो, वहाँ उस घरके स्वामीकी मृत्यु तथा सम्पत्तिका विनाश जानना चाहिये। इस प्रकार पशु-पक्षीसम्बन्धी उत्पातोंके होनेपर दक्षिणासहित हवन करना चाहिये या पाँच ब्राह्मणोंको 'देवाः कपोता' -इस मन्त्रका जप करना चाहिये। ब्राह्मणोंको विधिपूर्वक सुवर्ण तथा दुपट्टेसहित दो वस्त्रोंसे युक्त गौओंका दान करना चाहिये। ऐसा करनेसे पशुओं एवं पक्षियोंद्वारा सूचित किया गया पाप शान्त हो जाता है॥ ९-१४॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणेऽद्भुतशान्तौ मृगपक्षिवैकृत्यं नाम सप्तत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २३७॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराण के अद्भुतशान्ति प्रसंगमें पशु-पक्षी-विकार-शान्ति नामक दो सी सैंतीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २३७॥
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