ग्रह याग का विधान | grah yaag ka vidhaan

मत्स्य पुराण दो सौ उन्तालीसवाँ अध्याय

ग्रह याग का विधान

मनुरुवाच

ग्रहयज्ञः कथं कार्यों लक्षहोमः कथं नृपैः। 
कोटिहोमोऽपि वा देव सर्वपापप्रणाशनः ॥ १

क्रियते विधिना येन यद् दृष्टं शान्तिचिन्तकैः । 
तत् सर्वं विस्तराद् देव कथयस्व जनार्दन ॥ २ 

मनुजीने पूछा- देव ! राजाओंको ग्रहयज्ञ किस प्रकार करना चाहिये? सभी पापोंको नष्ट करनेवाले लक्षहोम तथा कोटिहोम करनेकी क्या विधि है? जनार्दन ! यह जिस विधिसे किया जाता है तथा शान्तिका चिन्तन करनेवाले जिस विधिसे सम्पन्न किये हों, वह सब विस्तारपूर्वक बतलाइये ॥ १-२ ॥

मत्स्य उवाच

इदानीं कथयिष्यामि प्रसङ्गादेव ते नृप। 
राज्ञा धर्मप्रसक्तेन प्रजानां च हितेप्सुना ॥ ३

ग्रहयज्ञः सदा कार्यों लक्षहोमसमन्वितः । 
नदीनां संगमे चैव सुराणामग्रतस्तथा ॥ ४

सुसमे भूमिभागे च दैवज्ञाधिष्ठितो नृपः । 
गुरुणा चैव ऋत्विग्भिः सार्धं भूमिं परीक्षयेत् ॥ ५

खनेत् कुण्डं च तत्रैव सुसमं हस्तमात्रकम्। 
द्विगुणं लक्षहोमे तु कोटिहोमे चतुर्गुणम् ॥ ६

युग्मास्तु ऋत्विजः प्रोक्ता अष्टौ वै वेदपारगाः। 
कन्दमूलफलाहारा दधिक्षीराशिनोऽपि वा ॥ ७

वेद्यां निधापयेच्चैव रत्नानि विविधानि च।
सिकतापरिवेषाश्च ततोऽग्निं च समिन्धयेत् ॥ ८

गायत्र्या दशसाहस्रं मानस्तोकेन षड्गुणः ।
त्रिंशद् ग्रहाणां मन्त्रैश्च चत्वारो विष्णुदैवतैः ॥ ९

कूष्माण्डैर्जुहुयात् पञ्च कुसुमाद्यैस्तु षोडश।
होतव्या दशसाहस्त्रं बादरैर्जातवेदसि ।। १० 

मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन् ! इस समय प्रसंगवश मैं तुम्हें उसे बतला रहा हूँ। धर्मपरायण एवं प्रजाओंके हितेच्छु राजाको लक्षहोमसहित ग्रहयज्ञ सदा करना चाहिये। इस ग्रहयज्ञको नदियोंके संगम तथा देवताओंके समक्ष समतल भूभागपर करना चाहिये। सर्वप्रथम राजा ज्योतिषीसे परामर्श कर गुरु और ऋत्विजोंके साथ भूमिकी परीक्षा करे। वहाँ एक हाथ गहरा चौकोर कुण्ड बनाये। लक्षहोममें यह कुण्ड दुगुना और कोटिहोममें चौगुना बड़ा बनाना चाहिये। इसके लिये सोलह ऋत्विज् बतलाये गये हैं, जो वेदोंके पारगामी विद्वान् कंद-मूल-फलका आहार करनेवाले अथवा दही-दूधका भोजन करनेवाले हों। यजमान राजा यज्ञवेदीपर विविध प्रकारके रत्न स्थापित करे। बालूद्वारा वेदीके चारों ओर मण्डल बनाकर अग्नि प्रज्वलित कराये। फिर गायत्रीमन्त्रद्वारा दस हजार, 'मानस्तोके०' (ऋ० ३।१३।६, वाजसनेयि १६।१६) आदि मन्त्रद्वारा छः हजार, ग्रहोंके मन्त्रोंसे तीस हजार, विष्णुसूक्तसे चार हजार, कॉहड़ेसे पाँच हजार, पुष्प-समूहसे सोलह हजार तथा बेरके फलोंसे दस हजार आहुतियाँ अग्निमें देनी चाहिये ॥ ३-१० ॥

श्रियो मन्त्रेण होतव्याः सहस्त्राणि चतुर्दश।
शेषाः पञ्चसहस्त्रास्तु होतव्यास्त्विन्द्रदैवतैः ॥ ११

हुत्वा शतसहस्त्रं तु पुण्यस्नानं समाचरेत् ।
कुम्भैः षोडशसंख्यैश्च सहिरण्यैः सुमङ्गलैः ॥ १२

स्नापयेद् यजमानं तु ततः शान्तिर्भविष्यति। 
एवं कृते तु यत्किंचिद् ग्रहपीडासमुद्भवम् ॥ १३ 

तत् सर्वं नाशमायाति दत्त्वा वै दक्षिणां नृप। 
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन प्रधाना दक्षिणा स्मृता ॥ १४

 हस्त्यश्वरथयानानि भूमिवस्त्रयुगानि च। 
अनुडुद्‌गोशतं दद्याद् ऋत्विजां चैव दक्षिणाम् ॥ १५ 

यथाविभवसारं तु वित्तशाठ्यं न कारयेत् । 
मासे पूर्णे समाप्तस्तु लक्षहोमो नराधिप । १६ 

लक्षहोमस्य राजेन्द्र विधानं परिकीर्तितम् । 
इदानीं कोटिहोमस्य शृणु त्वं कथयाम्यहम् ॥ १७

गङ्गातटेऽथ यमुनासरस्वत्योनरेश्वर ।
नर्मदादेविकायास्तु तटे होमो विधीयते ॥ १८ 

तत्रापि ऋत्विजः कार्या रविनन्दन षोडश। 
सर्वहोमे तु राजर्षे दद्याद् विप्रेऽथवा धनम् ॥ १९

ऋत्विगाचार्यसहितो दीक्षां सांवत्सरीं स्थितः । 
चैत्रे मासे तु सम्प्राप्ते कार्त्तिके वा विशेषतः ॥ २०

इसी प्रकार श्रीसूक्तसे चौदह हजार आहुतियाँ देनी चाहिये और शेष पाँच हजार आहुतियाँ इन्द्र देवताके मन्त्रोंसे देनी चाहिये। फिर एक लाख आहुतियोंसे हवन कर पुण्यस्नान" सम्पन्न करे। तत्पश्चात् सुवर्णयुक्त सोलह मङ्गल-कलशोंसे यजमानको स्नान कराये, तब शान्तिकी प्राप्ति होती है। नृप। ऐसा करके दक्षिणा देनेपर ग्रहपीडासे उत्पन्न जो कुछ कष्ट होता है, वह सब नष्ट हो जाता है। इसीलिये सभी प्रकारसे दक्षिणाको ही प्रधान माना गया है। उस समय राजा अपनी सम्पत्तिके अनुकूल ऋत्विजोंको हाथी, घोड़े, रथ, वाहन, भूमि, जोड़े वस्त्र, बैल तथा सौ गौएँ दक्षिणारूपमें दे, कृपणता न करे। नराधिप ! लक्षहोम एक मासमें समाप्त होता है। राजेन्द्र ! इस प्रकार मैंने लक्षहोमका विधान आपको बतला दिया। अब मैं कोटिहोमका विधान बतला रहा हूँ, आप सुनिये। नरेश्वर। गङ्गा, यमुना और सरस्वतीके अथवा नर्मदा और देविका (सरयू) के तटपर इस हवनके करनेका विधान है। रविनन्दन! इस कोटिहोममें भी सोलह ऋत्विजोंका वरण करना चाहिये। राजर्षे! सभी हवन-कार्योंमें ब्राह्मणोंको धन देना चाहिये। यजमान ऋत्विज्ञ और आचार्यके साथ वर्षभरकी दीक्षा ग्रहण करे। राजन् ! चैत्र अथवा विशेषतया कार्तिकका महीना आनेपर इस यज्ञको प्रारम्भ करना चाहिये। इसी प्रकार प्रतिवर्ष करनेका विधान है ॥ ११-२०॥

प्रारम्भः करणीयो वा वत्सरं वत्सरं नृप।
यजमानः पयोभक्षी फलाशी च तथानघ ॥ २१

यवादिव्रीहयो माषास्तिलाश्च सह सर्षपैः ।
पालाशाः समिधः शस्ता वसोर्धारा तथोपरि ॥ २२

मासेऽथ प्रथमे दद्याद् ऋग्भ्यः क्षीरभोजनम्।
द्वितीये कृसरां दद्याद् धर्मकामार्थसाधनीम् ॥ २३

तृतीये मासि संयावो देयो वै रविनन्दन।
चतुर्थे मोदका देया विप्राणां प्रीतिमावहन् ॥ २४

पञ्चमे दधिभक्तं तु षष्ठे वै सक्नुभोजनम्।
पूपाश्च सप्तमे देया ह्यष्टमे घृतपूपकाः ॥ २५

षष्ट्‌योदनं च नवमे दशमे यवषष्टिका।
एकादशे समाषं तु भोजनं रविनन्दन ॥ २६

द्वादशे त्वथ सम्प्राप्ते मासे रविकुलोद्वह। 
षड्रसैः सह भक्ष्यैश्च भोजनं सार्वकामिकम् ॥ २७

देया द्विजानां राजेन्द्र मासि मासि च दक्षिणाः । 
अहतवासः संवीतो दिनार्थं होमयेच्छुचिः ॥ २८ 

तस्मात् सदोत्थितैर्भाव्यं यजमानैः सह द्विजैः । 
इन्द्राद्यादिसुराणां च प्रीणनं सार्वकामिकम् ॥ २९ 

कृत्वा सुराणां राजेन्द्र पशुघातसमन्वितम्। 
सर्वदानानि देवानामग्निष्टोमं च कारयेत् ॥ ३० 

अनघ ! (अनुष्ठानके समय) यजमानको दुग्ध अथवा फलका आहार करना चाहिये। जौ आदि अन्न, उड़द, तिल, सरसों और पलाशकी लकड़ी इस होममें प्रशंसित हैं। इसके ऊपर वसुधारा छोड़नी चाहिये। पहले महीनेमें ऋत्विजोंको दुग्धका भोजन देना चाहिये। दूसरे महीनेमें धर्म, अर्थ और कामकी साधिका खिचड़ी खिलानी चाहिये। रविनन्दन ! तीसरे महीनेमें गोझिया देनी चाहिये। चौथे महीनेमें ब्राह्मणोंको प्रसन्न करते हुए लड्डू दे। पाँचवें महीनेमें दही और भात, छठे महीनेमें सत्तूका भोजन, सातवें महीनेमें मालपुआ और आठवें मासमें मालपुआ और घी दे। रविनन्दन! नवें महीनेमें साठीका भात, दसवेंमें जौ-मिश्रित साठीका भात तथा ग्यारहवें महीनेमें उड़दयुक्त भोजन देना चाहिये। सूर्यकुलोत्पन्न ! बारहवें महीनेके आनेपर छहों रसोंसे युक्त सभी कामनाओंकी पूर्ति करनेवाला भोजन दे। राजेन्द्र ! उन ब्राह्मणोंको प्रतिमास दक्षिणा भी देनी चाहिये। मध्याह्नके समय पवित्र वस्त्र धारण कर हवन करनेका विधान है। इसलिये यजमानको ब्राह्मणोंके साथ सर्वदा यज्ञ करनेके लिये उत्साहयुक्त रहना चाहिये। इन्द्र आदि देवताओंको प्रसन्न करना चाहिये, यह सभी मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला है। राजेन्द्र ! फिर देवताओंके उ‌द्देश्यसे बलि देकर सभी प्रकारके दानकर्मोंको सम्पादित करे। साथ ही अग्निष्टोमका अनुष्ठान करे ॥ २१-३० ॥

एवं कृत्वा विधानेन पूर्णाहुतिः शते शते। 
सहस्त्रे द्विगुणा देया यावच्छतसहस्त्रकम् ॥ ३१

पुरोडाशस्ततः साध्यो देवतार्थे च ऋत्विजैः । 
युक्तो वसन् मानवैश्च पुनः प्राप्तार्चनान् द्विजान् ॥ ३२

प्रीणयित्वा सुरान् सर्वान् पितृनेव ततः क्रमात् । 
कृत्वा शास्त्रविधानेन पिण्डानां च समर्पणम् ॥ ३३ 

समाप्तौ तस्य होमस्य विप्राणामथ दक्षिणाम्। 
समां चैव तुलां कृत्वा बध्वा शिक्यद्वयं पुनः ॥ ३४ 

आत्मानं तोलयेत् तत्र पत्नीं चैव द्वितीयकाम् । 
सुवर्णेन तथाऽऽत्मानं रजतेन तथा प्रियाम् ॥ ३५ 

तोलयित्वा ददेत् राजा वित्तशाठ्यविवर्जितः । 
ददेच्छतसहस्त्रं तु रूप्यस्य कनकस्य च ॥ ३६

सर्वस्वं वा ददेत् तत्र राजसूयफलं लभेत् ।
एवं कृत्वा विधानेन विप्रांस्तांश्च विसर्जयेत् ॥ ३७

प्रीयतां पुण्डरीकाक्षः सर्वयज्ञेश्वरो हरिः ।
तस्मिस्तुष्टे जगत् तुष्टं प्रीणिते प्रीणितं भवेत् ॥ ३८

एवं सर्वोपघाते तु देवमानुषकारिते।
इयं शान्तिस्तवाख्याता यां कृत्वा सुकृती भवेत् ॥ ३९

न शोचेज्जन्ममरणे कृताकृतविचारणे। 
सर्वतीर्थेषु यत् स्नानं सर्वयज्ञेषु यत्फलम्।
तत्फलं समवाप्नोति कृत्वा यज्ञत्रयं नृप ॥ ४० 

इस प्रकार विधि पूर्वक ग्रहयाग सम्पन्न कर शत होममें सौ, हजार होममें हजार से लेकर लक्ष होमतक दो सौ पूर्णाहुतियाँ देनी चाहिये। तत्पश्चात् ऋत्विजोंको देवताओंके लिये पुरोडाश देना चाहिये। उन्हें क्रमशः उन्हीं आगत मनुष्यों में ही उपस्थित समझना चाहिये। फिर क्रमशः पूजित ब्राह्मणों और देवताओंको प्रसन्न करके सभी पितरों को शास्त्रोक्त विधिके अनुसार पिण्ड समर्पित करे। इस होमके समाप्त होनेपर ब्राह्मणोंको दक्षिणा दे। तदुपरान्त राजा को चाहिये कि कृपणताको छोड़कर समान भागवाली तराजू बनवाकर उसमें दो पलड़े बाँध दे और उसपर पत्नी सहित अपनेको तौले। उस समय अपनेको सुवर्णसे तथा पत्नीको चाँदीसे तौलनेका विधान है। तौलनेके बाद उसे ब्राह्मणको दे देना चाहिये। पुनः चाँदी तथा सुवर्णकी बनी हुई एक लक्ष मुद्राका दान करे अथवा सर्वस्व दान कर दे। ऐसा करनेसे उसे राजसूय-यज्ञका फल प्राप्त होता है। इस प्रकार विधिपूर्वक यज्ञ करके उन ब्राह्मणोंको विदा करे और कहे- 'सभी यज्ञोंके स्वामी कमलनेत्र भगवान् विष्णु प्रसन्न हों; क्योंकि उनके संतुष्ट होनेपर समस्त जगत् संतुष्ट और प्रसन्न होनेपर प्रसन्न होता है।' इस प्रकार देवताओं तथा मनुष्योंद्वारा की गयी सभी बाधाओंके लिये यह शान्ति कही गयी है, जिसे मैंने तुम्हें बताया है और जिसका अनुष्ठान करनेसे मनुष्य पुण्यवान् होता है और उसे जन्म-मृत्यु तथा उचित-अनुचितके विचारके समय चिन्ता नहीं करनी पड़ती। राजन् ! सभी तीर्थोंमें स्नान करने और सभी यज्ञोंके अनुष्ठानसे जो फल प्राप्त होता है, वह फल इन तीनों यज्ञोंको करनेवाला मनुष्य प्राप्त कर लेता है॥ ३१-४०॥ 

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे ग्रहयज्ञविधानं नामैकोनचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २३९ ॥ 

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें ग्रहयज्ञविधान नामक दो सौ उन्तालीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २३९॥

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