एकोद्दिष्ट और सपिण्डीकरण श्राद्ध की विधि
सूतजी कहते हैं:
ऋषियों! अब मैं आपको 'एकोद्दिष्ट' श्राद्ध की विधि बताने जा रहा हूँ, जो स्वयं भगवान चक्रपाणि विष्णु ने कहा है। पिताजी की मृत्यु होने पर पुत्रों को शौच से लेकर अन्य कार्य करने चाहिए, जिन्हें सुनिए।
एकोद्दिष्ट श्राद्ध की विधि:
- सूतक और अशौच की अवधि:
- ब्राह्मणों के लिए 10 दिन, क्षत्रियों के लिए 12 दिन, वैश्यों के लिए 15 दिन, और शूद्रों के लिए एक मास का अशौच माना जाता है।
- जिनका मुण्डन संस्कार नहीं हुआ हो, उनके लिए मरणाशौच एक रात और अन्य बच्चों के लिए तीन रातों तक माना गया है।
- पितृ-पिंड दान:
- प्रेतात्मा के लिए 12 दिनों तक पिंडदान करना चाहिए। ये पिंड प्रेत के लिए मार्ग के कलेवा होते हैं, जिससे प्रेतात्मा 12 दिनों तक अपने परिवार को देखता रहता है।
- 10 दिन तक जलघट को पीपल के वृक्ष में बांध कर रखना चाहिए, और ग्यारहवें दिन ग्यारह ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए।
- विधिपूर्वक एकोद्दिष्ट श्राद्ध:
- इस श्राद्ध में एक पवित्रक, अर्घ्य और पिंड का विधान है।
- 'उपतिष्ठताम्' शब्द का उच्चारण करके जल का विसर्जन करें और फिर अन्न को पृथ्वी पर बिखेरें।
- इसके बाद श्राद्ध कार्य के समापन में परिवारजनों के लिए जलदान और अन्न का विसर्जन करें।
सपिण्डीकरण श्राद्ध की विधि:
विश्वेदेवों का पूजन:
- सर्वप्रथम विश्वेदेवों को नियुक्त करें, फिर पितरों और प्रेतात्माओं के स्थान अलग-अलग निर्धारित करें।
- अर्घ्य देने के लिए चंदन, जल और तिल से चार पात्र तैयार करें और उन्हें पितरों के स्थान पर डालें।
पिंडदान और बंटवारा:
- पिंडों को संकल्पपूर्वक पितरों के स्थान पर रख दें।
- चौथे पिंड को स्वर्णशलाका या कुश से तीन भागों में विभक्त कर, उन्हें पितरों के पिंडों में मिला दें।
पितृ रूप में परिवर्तन:
- इस प्रकार से प्रेतात्मा संतुष्ट होकर पितृ रूप में परिवर्तित हो जाता है, और वह उत्तम और अविनाशी पद प्राप्त कर लेता है।
सपिण्डीकरण के बाद:
- यह श्राद्ध पितृ के उद्धार के लिए किया जाता है। इसके बाद पितृ पार्वण श्राद्ध का भागी बनते हैं।
- एक वर्ष बाद सपिण्डीकरण के बाद पितृ को श्रद्धा सहित अन्न और जलदान किया जाता है।
उपसंहार:
एकोद्दिष्ट और सपिण्डीकरण श्राद्ध की विधियाँ पितृ ऋण से मुक्ति और पितृ की शांति के लिए अत्यंत महत्व पूर्ण हैं। इन्हें विधि पूर्वक किया जाना चाहिए ताकि पितृगण संतुष्ट होकर पार्वण श्राद्ध में भाग लें और आत्मा की उन्नति हो।
इति श्रीमात्स्ये महापुराणे सपिण्डीकरणकल्पो नामाष्टादशोऽध्यायः।
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