चन्द्रमा की उत्पत्ति और उनके संघर्ष की कथा
चन्द्रमा, जिनकी ज्योति और प्रभाव रात्रि को जगमगाते हैं, उनकी उत्पत्ति एक अद्भुत और गहरी कथा से जुड़ी है। इस लेख में हम चन्द्रमा की उत्पत्ति, दक्ष प्रजापति की कन्याओं से उनका विवाह, राजसूय यज्ञ का आयोजन, उनकी तारापर आसक्ति, भगवान शिव के साथ संघर्ष और अंततः ब्रह्माजी की मध्यस्थता से युद्ध का शांत होना देखेंगे।
चन्द्रमा की उत्पत्ति:
शास्त्रों के अनुसार, चन्द्रमा की उत्पत्ति ब्रह्माजी के मानसपुत्र महर्षि अत्रि के तप से हुई। महर्षि अत्रि ने ब्रह्मा की आज्ञा से कठोर तपस्या की। उनके तप के प्रभाव से, जो ब्रह्मा, विष्णु और शिव के अंतःस्थल में निवास करते हैं, वही परम तत्व उनके मन और नेत्रों में प्रकट हुआ। भगवान शिव के अंश से चन्द्रमा का जन्म हुआ, जो एक दिव्य रूप में प्रकट हुए।
महर्षि अत्रि की तपस्या का प्रभाव इतना प्रबल था कि चन्द्रमा ने अपनी ज्योति से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाशित किया। जब दिशाएँ उस तेज को संभालने में असमर्थ हो गईं, तो उन्होंने उसे छोड़ दिया। तब चतुर्मुख ब्रह्मा ने उस गर्भ को उठाकर उसे एक शक्तिशाली पुरुष रूप में परिणत किया और उसे पितामह के रथ पर बैठाकर अपने लोक में ले गए। यहीं से चन्द्रमा की कहानी एक नई दिशा में मुड़ती है।
चन्द्रमा का दक्ष प्रजापति की कन्याओं से विवाह:
इसके बाद चन्द्रमा का विवाह दक्ष प्रजापति की सत्ताईस कन्याओं से हुआ। वे कन्याएँ परम रूप और तेजस्विता से संपन्न थीं। चन्द्रमा ने उनके साथ गहरे संबंध स्थापित किए, लेकिन चन्द्रमा की अंतरंगता अधिकतर तारों और आकाशीय जगत के प्रति थी। यह उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ था, क्योंकि इस संबंध ने उनकी शांति और सौम्यता को एक नई दिशा दी।
राजसूय यज्ञ और भगवान विष्णु से वरदान:
चन्द्रमा ने भगवान विष्णु की आराधना कर एक राजसूय यज्ञ का आयोजन किया। इस यज्ञ में भगवान विष्णु के आशीर्वाद से उन्हें इन्द्रलोक पर विजय प्राप्त करने की इच्छा हुई, ताकि देवता उनके घर आकर अपने हिस्से का भाग ग्रहण कर सकें। भगवान विष्णु ने उनके वरदान को स्वीकार किया, और यज्ञ के समापन के बाद चन्द्रमा ने शांति की प्राप्ति की।
चन्द्रमा का तारापर आसक्ति और भगवान शिव से संघर्ष:
कुछ समय बाद, चन्द्रमा ने ताराके साथ अपने रिश्ते को और गहरा किया, जिससे बृहस्पति और भगवान शिव दोनों चिंतित हो गए। भगवान शिव, जो त्रिपुरासुर के शत्रु और रुद्र के रूप में प्रसिद्ध थे, ने चन्द्रमा के साथ युद्ध करने का निर्णय लिया। युद्ध इतना भयंकर था कि ब्रह्मा और अन्य देवता भी संकट में पड़ गए। दोनों के बीच युद्ध में दिव्य अस्त्रों की बौछार हो रही थी, जिससे सम्पूर्ण लोक कांप उठा।
ब्रह्माजी का मध्यस्थता और शांति:
जब युद्ध उग्र रूप ले लिया, तो ब्रह्माजी ने बीच-बचाव किया और चन्द्रमा से कहा कि वे अपने युद्ध को समाप्त करें। ब्रह्माजी ने चन्द्रमा से कहा कि उन्होंने बिना कारण ही यह संघर्ष शुरू किया, जिससे उन्हें शुक्लपक्ष में शांति की प्राप्ति नहीं हो पाई और वे कृष्णपक्ष में पाप ग्रहण करेंगे।
चन्द्रमा की शांति और बृहस्पति से पुनः मिलन:
चन्द्रमा ने ब्रह्माजी की आज्ञा मानी और शांति से युद्ध को समाप्त किया। बृहस्पति ने अपनी पत्नी ताराको ग्रहण किया, और शिवजी के साथ खुशी-खुशी अपने घर लौट गए।
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