बलि द्वारा विष्णु की निन्दा पर प्रह्लादका उन्हें शाप, बलिका अनुनय, ब्रह्मा जी द्वारा वामन भगवान का स्तवन | bali dvaara vishnu kee ninda par prahlaadaka unhen shaap, balika anunay, brahma jee dvaara vaaman bhagavaan ka stavan

मत्स्य पुराण दो सौ पैंतालीसवाँ अध्याय 

बलि द्वारा विष्णु की निन्दा पर प्रह्लादका उन्हें शाप, बलिका अनुनय, ब्रह्मा जी द्वारा वामन भगवान का स्तवन, भगवान् वामनका देवताओंको आश्वासन तथा उनका बलिके यज्ञके लिये प्रस्थान

शौनक उवाच

निस्तेजसोऽसुरान् दृष्ट्वा समस्तानसुरेश्वरः ।
प्रह्लादमथ पप्रच्छ बलिरात्मपितामहम् ॥ १

शौनकजीने कहा- असुरराज बलिने समस्त दैत्योंको निस्तेज देखकर अपने पितामह प्रह्लादसे प्रश्न किया ॥ १ ॥

बलिरुवाच

तात निस्तेजसो दैत्या निर्दग्धा इव वह्निना। 
किमेते सहसैवाद्य ब्रह्मदण्डहता इव ॥ २

अरिष्टं किं नु दैत्यानां किं कृत्या वैरिनिर्मिता। 
नाशायैषा समुद्भूता यया निस्तेजसोऽसुराः ॥ ३

बलिने पूछा- तात! क्या बात है कि आज सहसा ये दैत्यगण अग्निसे जले हुएके समान निस्तेज और ब्रह्मदण्डसे मारे हुएकी भाँति निर्बल दिखायी पड़ने लगे हैं? क्या दैत्योंके ऊपर कोई अरिष्ट आ गया है? या वैरियोंद्वारा निर्मित कोई कृत्या इनका विनाश करनेके लिये प्रकट हुई है, जिससे ये असुर तेजोहीन हो गये हैं? ॥ २-३॥ 

शौनक उवाच

इति दैत्यपतिर्धीरः पृष्टः पौत्रेण पार्थिव ।
चिरं ध्यात्वा जगादैनमसुरेन्द्रं बलिं तदा ॥ ४

शौनकजीने कहा- राजन् ! इस प्रकार अपने पौत्र बलिद्वारा पूछे जानेपर धैर्यशाली दैत्यपति प्रह्लादने बहुत देरतक ध्यानकर उस असुरनायक बलिसे कहा ॥ ४ ॥

प्रह्लाद उवाच

चलन्ति गिरयो भूमिर्जहाति सहजां धृतिम् ।
सर्वे समुद्राः क्षुभिता दैत्या निस्तेजसः कृताः ॥ ५

सूर्योदये यथा पूर्व तथा गच्छन्ति न ग्रहाः।
देवानां च परा लक्ष्मीः कारणैरनुमीयते ॥ ६

महदेतन्महाबाहो कारणं दानवेश्वर। 
न ह्यल्पमिति मन्तव्यं त्वया कार्यं सुरार्दन ॥ ७

प्रह्लाद बोले- दानवराज बलि ! इस समय पर्वत काँप उठे हैं, पृथ्वीने अपनी स्वाभाविक धीरता छोड़ दी है, सभी समुद्र विक्षुब्ध हो उठे हैं और दैत्यगण तेजोहीन कर दिये गये हैं। ग्रहगण सूर्योदय होनेपर जिस प्रकार पहले सूर्य का अनुगमन करते थे वैसा अब नहीं कर रहे हैं। कुछ कारणोंसे ऐसा अनुमान होता है कि देवताओंकी विशेष अभ्युन्नति होनेवाली है। महाबाहो ! इसका कोई महान् कारण है। सुरार्दन ! तुम्हें इस कार्यको तुच्छ नहीं मानना चाहिये ॥ ५-७ ॥

शौनक उवाच

इत्युक्त्वा दानवपतिं प्रह्लादः सोऽसुरोत्तमः । 
अत्यन्तभक्तो देवेशं जगाम मनसा हरिम् ॥ ८

स ध्यानयोगं कृत्वाथ प्रह्लादः सुमनोहरम्। 
विचारयामास ततो यतो देवो जनार्दनः ॥ ९

स ददर्शोदरेऽदित्याः प्रह्लादो वामनाकृतिम् । 
अन्तःस्थान् बिश्वतं सप्त लोकानादिप्रजापतिम् ॥ १०

तदन्तः स्थान् वसून् रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा। 
साध्यान् विश्वांस्तथादित्यान् गन्धर्वोरगराक्षसान् ॥ ११

विरोचनं स्वतनयं बलिं चासुरनायकम् । 
जम्भं कुजम्भं नरकं बाणमन्यांस्तथासुरान् ॥ १२

आत्मानमुर्वी गगनं वायुमम्भो हुताशनम् । 
समुद्रान् वै द्रुमसरित्सरांसि च पशून् मृगान् ॥ १३

वयोमनुष्यानखिलांस्तथैव च सरीसृपान्। 
समस्तलोकस्त्रष्टारं ब्रह्माणं भवमेव च। 
ग्रहनक्षत्रनागांश्च दक्षाद्यांश्च प्रजापतीन् ॥ १४

स पश्यन् विस्मयाविष्टः प्रकृतिस्थःक्षणात् पुनः । 
प्रह्लादः प्राह दैत्येन्द्रं बलिं वैरोचनिं तदा ॥ १५ 

शौनकजीने कहा-परम भक्त असुरश्रेष्ठ प्रह्लाद दानवराज बलिसे ऐसा कहकर मन-ही-मन देवेश्वर श्रीहरिकी शरणमें गये। तत्पश्चात् प्रह्लाद परम मनोहर ध्यानयोगका आश्रय लेकर देवाधिदेव जनार्दनका ध्यान करने लगे। तब उन्होंने अदितिके उदरमें वामनरूपमें उन आदिप्रजापतिको देखा जिनके भीतर सातों लोक विराजमान थे। उस समय प्रह्लादने भगवान्‌के भीतर वसु, रुद्र, अश्विनीकुमार, मरुद्गण, साध्यगण, विश्वेदेव, आदित्य, गन्धर्व, नाग, राक्षस, अपना पुत्र विरोचन, असुरराज बलि, जम्भ, कुजम्भ, नरक, बाण तथा अन्य असुरगण, स्वयं अपने-आप, पृथ्वी, आकाश, वायु, जल, अग्नि, समुद्र, वृक्ष, नदियाँ, सरोवर, पशु, मृग, पक्षी, मनुष्य, सर्पादि जीव, सभी लोकोंके सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, शिव, ग्रह, नक्षत्र, नाग तथा दक्ष आदि प्रजापतियोंको भी देखा। यह देखकर प्रह्लाद आश्चर्यचकित हो गये। पुनः क्षणभर बाद स्वस्थ होनेपर उन्होंने विरोचन-पुत्र असुरराज बलिसे इस प्रकार कहा ॥ ८-१५॥

प्रह्लाद उवाच

वत्स ज्ञातं मया सर्वं यदर्थं भवतामियम्। 
तेजसो हानिरुत्पन्ना तच्छृणु त्वमशेषतः ॥ १६ 


देवदेवो जगद्योनिरयोनिर्जगदादिकृत्। 
अनादिरादिर्विश्वस्य वरेण्यो वरदो हरिः ॥ १७

परावराणां परमः परः परवतामपि। 
प्रमाणं च प्रमाणानां सप्तलोकगुरोर्गुरुः ॥ १८

प्रभुः प्रभूणां परमः पराणा-मनादिमध्यो भगवाननन्तः ।
त्रैलोक्यमंशेन सनाथमेष कर्तुं महात्मादितिजोऽवतीर्णः ॥ १९

न यस्य रुद्रो न च पद्मयोनि-नेंन्द्रो न सूर्येन्दुमरीचिमुख्याः ।
जानन्ति दैत्याधिप यत्स्वरूपं स वासुदेवः कलयावतीर्णः ॥ २०

योऽसौ कलांशेन नृसिंहरूपी जघान पूर्व पितरं ममेशः।
यः सर्वयोगीशमनोनिवासः स वासुदेवः कलयावतीर्णः ॥ २१

यमक्षरं वेदविदो विदित्वा विशन्ति यज्ञानविधूतपापाः ।
यस्मिन् प्रविष्टा न पुनर्भवन्ति तं वासुदेवं प्रणमामि नित्यम् ॥ २२

प्रह्लाद बोले- वत्स ! जिस कारण तुम राक्षसोंके तेज की यह हानि उत्पन्न हुई है उस सारे रहस्यको मैं जान गया। उसे तुम पूर्णरूपसे सुनो। जो देवाधिदेव, जगत्‌के उत्पत्तिस्थान, अजन्मा, जगत्के आदिकर्ता, अनादि, विश्वके आदि, सर्वश्रेष्ठ, वरदायक, पापनाशक, परावरोंमें उत्तम, परात्पर, प्रमाणोंके प्रमाण, सातों लोकोंके गुरुके गुरु, प्रभुके प्रभु, पर-से-परे, आदि-मध्य-अन्तसे रहित तथा महान् आत्मबलसे सम्पन्न हैं, वे भगवान् अपने अंशसे त्रिलोकीको सनाथ करनेके लिये अदितिके गर्भसे अवतीर्ण हो रहे हैं। दैत्यपते ! जिनके स्वरूपको रुद्र, पद्मयोनि ब्रह्मा, इन्द्र, सूर्य, चन्द्रमा, मरीचि प्रभृति महर्षिगण नहीं जानते, वे भगवान् वासुदेव अपनी कलासे उत्पन्न हो रहे हैं। जिन भगवान्ने पूर्वकालमें अपनी एक कलाद्वारा नृसिंहरूपमें अवतीर्ण होकर मेरे पिता (हिरण्यकशिपु) का वध किया था तथा जो सभी योगिराजोंके मनमें निवास करनेवाले हैं, वे भगवान् वासुदेव अपनी कलासे अवतीर्ण हो रहे हैं। जिनके ज्ञानसे पापमुक्त हुए वेदवेत्ता जिन अव्यय भगवान्‌को जानकर उनमें प्रवेश करते हैं तथा जिनमें प्रवेश कर पुनः जन्म नहीं धारण करते, उन भगवान् वासुदेवको मैं नित्य प्रणाम करता हूँ ॥ १६-२२॥

भूतान्यशेषाणि यतो भवन्ति यथोर्मयस्तोयनिधेरजस्त्रम् ।
लयं च यस्मिन् प्रलये प्रयान्ति तं वासुदेवं प्रणमाम्यचिन्त्यम् ॥ २३

न यस्य रूपं न बलप्रभावौ न यस्य भावः परमस्य पुंसः ।
विज्ञायते शर्वपितामहाद्यै-स्तं वासुदेवं प्रणमाम्यजस्त्रम् ॥ २४

रूपस्य चक्षुर्ग्रहणे त्वगिष्टा स्पर्शे ग्रहीत्री रसना रसस्य। 
श्रोत्रं च शब्दग्रहणे नराणां घ्राणं च गन्धग्रहणे नियुक्तम् ॥ २५

येनैकदंष्ट्राग्रसमुद्धतेयं धराचलान् धारयतीह सर्वान् । 
यस्मिंश्च शेते सकलं जगच्च तमीशमाद्यं प्रणतोऽस्मि विष्णुम् ॥ २६

न घ्राणचक्षुः श्रवणादिभिर्यः सर्वेश्वरो वेदितुमक्षयात्मा ।
शक्यस्तमीड्यं मनसैव देवं ग्राहां नतोऽहं हरिमीशितारम् ॥ २७

अंशावतीर्णेन च येन गर्भहृतानि तेजांसि महासुराणाम्।
नमामि तं देवमनन्तमीश-मशेषसंसारतरोः कुठारम् ॥ २८

देवो जगद्योनिरयं महात्मा स षोडशांशेन महासुरेन्द्र । 
स देवमातुर्जठरं प्रविष्टो हृतानि वस्तेन बलाद् वपूंषि ॥ २९

समस्त प्राणी समुद्रसे लहरोंकी भाँति जिनसे निरन्तर उत्पन्न होते हैं और प्रलयकालमें पुनः जिनमें लय हो जाते हैं, उन अचिन्त्य वासुदेवको मैं नमस्कार करता हूँ। जिन परम पुरुषके स्वरूप, बल, प्रभाव और भावको शिव तथा ब्रह्मा आदि देवगण भी नहीं समझ पाते, उन भगवान् वासुदेवको मैं सर्वदा नमस्कार करता हूँ। जिन भगवान् वासुदेवने मनुष्योंको स्वरूप देखनेके लिये नेत्र, स्पर्शके लिये चमड़ा, रसास्वादनके लिये जिह्वा, शब्द सुननेके लिये कान तथा सुगन्ध ग्रहण करनेके लिये नासिका दी है, जिन्होंने अपने एक दाँतके अग्रभागपर इस पृथ्वीको, जो सभी पर्वतोंको धारण करती है, धारण किया है, तथा जिनमें यह समस्त जगत् शयन करता है, उन आदिभूत भगवान् विष्णुको मैं नमस्कार करता जो अक्षयात्मा सर्वेश्वर नासिका, नेत्र और कान आदि इन्द्रियोंद्वारा जाने नहीं जा सकते, जिन्हें केवल मनद्वारा ग्रहण किया जा सकता है उन पूज्य परमेश्वर भगवान् विष्णुको मैं प्रणाम करता हूँ। जिन्होंने गर्भमें अपने अंशमात्रसे अवतीर्ण होकर बड़े-बड़े दैत्योंके तेजोंका हरण कर लिया है, जो समस्त संसाररूपी वृक्षके लिये कुठारस्वरूप हैं उन अनन्त परमात्मदेवको मैं नमस्कार करता हूँ। महासुरेन्द्र ! जो ये महान् आत्मबलसे सम्पन्न एवं जगत्‌के उत्पत्तिस्थान भगवान् विष्णु हैं, ये अपने सोलह अंशोंसे माता अदितिके उदमें प्रविष्ट हुए हैं, उन्होंने ही बलपूर्वक तुमलोगोंके शरीरको निस्तेज कर दिया है॥ २३-२९ ॥ 

बलिरुवाच

तात कोऽयं हरिर्नाम यतो नो भयमागतम् । 
सन्ति मे शतशो दैत्या वासुदेवबलाधिकाः ॥ ३०

विप्रचित्तिः शिविः शङ्‌कुरयःशङ्कुस्तथैव च । 
अयःशिराश्चाश्वशिरा भङ्गकारी महाहनुः ॥ ३१

प्रतापः प्रघसः शुम्भः कुकुरश्च सुदुर्जयः ।
एते चान्ये च मे सन्ति दैतेया दानवास्तथा ॥ ३२

महाबला महावीर्या भूभारोद्धरणक्षमाः ।
एषामेकैकशः कृष्णो न वीर्यार्धन सम्मितः ॥ ३३

बलिने कहा-तात! यह हरि कौन है जिससे हम लोगोंको भय प्राप्त हो गया है? मेरे पास तो उस वासुदेवसे भी अधिक बलवान् सैकड़ों दैत्य हैं। विप्रचित्ति, शिवि, शङ्कु, अयः शङ्कु, अयः शिरा, अश्वशिरा, भङ्गकारी, महाहनु, प्रताप, प्रघस, शुम्भ, अत्यन्त कठिनाईसे जीतने योग्य कुकुर-ये तथा इनके अतिरिक्त और भी दैत्य एवं दानव मेरे अधिकारमें हैं। ये सभी महाबली, महान् पराक्रमी तथा पृथ्वीके भारको उठानेमें समर्थ हैं। इनमेंसे एक-एकके आधे पराक्रमसे भी कृष्णकी कोई समानता नहीं है॥ ३०-३३॥

शौनक उवाच

पौत्रस्यैतद् वचः श्रुत्वा प्रह्लादो दैत्यपुंगवः । 
धिग्धिगित्याह स बलिं वैकुण्ठाक्षेपवादिनम् ॥ ३४ 

शौनकजी बोले- दैत्यश्रेष्ठ प्रह्लाद अपने पौत्रकी यह बात सुनकर भगवान्‌की निन्दा करनेवाले उस बलिको धिक्कारते हुए बोले ॥ ३४॥

प्रह्लाद उवाच

विनाशमुपयास्यन्ति मन्ये दैतेयदानवाः । 
येषां त्वमीदृशो राजा दुर्बुद्धिरविवेकवान् ॥ ३५

देवदेवं महाभागं वासुदेवमजं विभुम् । 
त्वामृते पापसंकल्पः कोऽन्य एवं वदिष्यति ।। ३६

य एते भवता प्रोक्ताः समस्ता दैत्यदानवाः । 
सब्रह्मकास्तथा देवाः स्थावरानन्तभूमयः ॥ ३७

त्वं चाहं च जगच्चेदं साद्रिद्रुमनदीनदम् । 
समुद्रद्वीपलोकाश्च न समं केशवस्य हि ॥ ३८

यस्यातिवन्द्यवन्द्यस्य व्यापिनः परमात्मनः । 
एकांशेन जगत् सर्वं कस्तमेवं प्रवक्ष्यति ॥ ३९

ऋते विनाशाभिमुखं त्वामेकमविवेकिनम् । 
कुबुद्धिमजितात्मानं वृद्धानां शासनातिगम् ॥ ४०

शोच्योऽहं यस्य मे गेहे जातस्तव पिताधमः । 
यस्य त्वमीदृशः पुत्रो देवदेवस्य निन्दकः ॥ ४१

तिष्ठत्वेषा हि संसारसम्भृताघविनाशिनी । 
कृष्णे भक्तिरहं तावदवेक्ष्यो भवता न किम् ॥ ४२

प्रह्लादने कहा- मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जिनका तुम-जैसा अविवेकी एवं दुर्बुद्धि राजा है, उन दैत्यों और दानवोंका विनाश हो जायगा। तुम्हारे अतिरिक्त दूसरा कौन ऐसा पापी होगा जो देवाधिदेव, महाभाग, अजन्मा एवं सर्वव्यापी वासुदेवको ऐसा कहेगा? तुमने जिनका नाम गिनाया है ये सभी दैत्य-दानव, ब्रह्मासहित देवगण, चराचर जगत्, तुम, मैं, पर्वत, वृक्ष, नदी और नदोंसहित यह संसार, समुद्र, द्वीप और लोक ये सभी भगवान् केशवकी समानता नहीं कर सकते। जिन सर्वव्यापी एवं वन्दनीयोंके भी वन्दनीय परमात्माके एक अंशसे यह सारा जगत् उत्पन्न हुआ है, उन्हें अकेले तुम-जैसे अविवेकी, विनाशोन्मुख, कुबुद्धि, अजितात्मा, वृद्धोंकी आज्ञाका उल्लङ्घन करनेवालेके सिवा दूसरा कौन ऐसा कहेगा ? अब तो शोचनीय मैं हुआ, जिसके घरमें तुम्हारा नीच पिता उत्पन्न हुआ, जिसके तुम इस प्रकार देवाधिदेव विष्णुकी निन्दा करनेवाले पुत्र हुए। संसारमें जन्म लेकर उपार्जित किये गये पापोंको नष्ट करनेवाली भगवान् कृष्णके चरणोंमें हमारी भक्ति अक्षुण्ण बनी रहे, भले ही मैं तुम्हारे द्वारा अपमानित क्यों न होऊँ ? ॥ ३५-४२॥

न मे प्रियतमः कृष्णादपि देहो महात्मनः । 
इति जानात्ययं लोको न भवान् दितिजाधम ॥ ४३

जानन्नपि प्रियतरं प्राणेभ्योऽपि हरिं मम। 
निन्दां करोषि तस्य त्वमकुर्वन् गौरवं मम ॥ ४४ 

विरोचनस्तव गुरुर्गुरुस्तस्याप्यहं बले। 
ममापि सर्वजगतां गुरोर्नारायणो गुरुः ॥ ४५

निन्दां करोषि यस्तस्मिन् कृष्णे गुरुगुरोर्गुरौः । 
यस्मात्तस्मादिहैश्वर्यादचिराद् भ्रंशमेष्यसि ।। ४६

मम देवो जगन्नाथो बले तावज्ञ्जनार्दनः । 
भवत्वहमुपेक्ष्यस्ते प्रीतिमानस्तु मे गुरुः ॥ ४७

एतावन्मात्रमप्येवं निन्दितस्त्रिजगद्गुरुः । 
नावेक्षितं त्वया यस्मात् तस्माच्छापं ददामि ते ॥ ४८

यथा मे शिरसश्छेदादिदं गुरुतरं वचः । 
त्वयोक्तमच्युताक्षेपि राज्यभ्रष्टस्तथा पत ॥ ४९

यथा च कृष्णान्न परं परित्राणं भवार्णवे। 
तथाचिरेण पश्येयं भवन्तं राज्यविच्युतम् ॥ ५० 

दैत्याधम ! भगवान् (विष्णु) से बढ़कर मुझे अपना शरीर भी प्रिय नहीं है, इसे यह संसार जानता है, किंतु तुम्हें विदित नहीं है। मेरे प्राणोंसे भी बढ़कर प्रिय भगवान् विष्णुको जानते हुए भी तुम मेरे गौरवकी रक्षा न करते हुए उनकी निन्दा कर रहे हो। बलि ! तुम्हारा गुरु विरोचन है और मैं उसका भी गुरु हूँ तथा मेरे एवं समस्त संसारके गुरुके भी गुरु नारायण हैं। चूँकि तुम उन गुरुओंके गुरु विष्णुकी निन्दा कर रहे हो, इसलिये इस लोकमें शीघ्र ही ऐश्वर्यसे भ्रष्ट हो जाओगे। बलि ! जगदीश्वर जनार्दन मेरे देवता हैं। वे मेरे गुरु मुझपर प्रसन्न रहें, भले ही मैं तुम्हारे द्वारा उपेक्षित हो जाऊँ। (मुझे इसकी परवा नहीं है।) चूँकि तुमने बिना विचारे त्रिलोकीके गुरु भगवान्‌की जो इस प्रकार इतनी निन्दा की है, इसीलिये मैं तुम्हें शाप दे रहा हूँ। जिस प्रकार तुमने मेरा सिर काट लेनेसे भी बढ़कर यह भगवान् अच्युतकी निन्दा करनेवाला वचन कहा है, उसी प्रकार तुम राज्यसे भ्रष्ट होकर (अवनतिके गर्तमें) गिर जाओ। जिस प्रकार इस संसारसागरमें विष्णुसे बढ़कर अन्य कोई शरणदाता नहीं है, (मेरी यह बात सत्य है तो) मैं शीघ्र ही तुम्हें राज्यसे च्युत हुआ देखें ॥ ४३-५० ॥

शौनक उवाच

इति दैत्यपतिः श्रुत्वा गुरोर्वचनमप्रियम् । 
प्रसादयामास गुरुं प्रणिपत्य पुनः पुनः ॥ ५१

शौनकजी बोले- दैत्यराज बलिने अपने पितामह प्रह्लादकी ऐसी अप्रिय बात सुनकर उन्हें बारम्बार प्रणाम कर सभी प्रकारसे प्रसन्न करते हुए इस प्रकार कहना आरम्भ किया ॥ ५१ ॥

बलिरुवाच

प्रसीद तात मा कोपं कुरु मोहहते मयि। 
बलावलेपमत्तेन मयैतद् वाक्यमीरितम् ॥ ५२

मोहोपहतविज्ञानः पापोऽहं दितिजोत्तम। 
यच्छप्तोऽस्मि दुराचारस्तत्साधु भवता कृतम् ॥ ५३

राज्यभ्रंशं वसुभ्रंशं सम्प्राप्स्यामीति न त्वहम्। 
विषण्णोऽस्मि यथा तात तवैवाविनये कृते ॥ ५४

त्रैलोक्यराज्यमैश्वर्यमन्यद्वा नाति दुर्लभम् । 
संसारे दुर्लभास्ते तु गुरवो ये भवद्विधाः ॥ ५५ 

तत् प्रसीद न मे कोपं कर्तुमर्हसि दैत्यप। 
त्वत्कोपदृष्ट्या ताताहं परितप्ये न शापतः ॥ ५६

बलिने कहा-तात। प्रसन्न हो जाइये। अज्ञानसे मारे हुए मुझपर क्रोध मत कीजिये। मैंने बलके गर्वसे उन्मत्त होकर ऐसी बात कह दी है। दैत्यश्रेष्ठ ! मेरा सारा ज्ञान मोहसे नष्ट हो गया है, मैं पापी और दुराचारी हूँ। अतः आपने जो मुझे यह शाप दिया है, वह अच्छा ही किया है। तात! मैं राज्यसे च्युत और सम्पत्तिसे रहित हो जाऊँगा इससे मैं उतना दुःखी नहीं हूँ जितना आपके साथ अविनयपूर्ण व्यवहार करनेसे मुझे कष्ट हो रहा है। त्रिलोकीका राज्य, ऐश्वर्य अथवा अन्य कोई भी वस्तु अत्यन्त दुर्लभ नहीं है, परंतु आपके समान जो गुरुजन हैं, वे विश्वमें अवश्य दुर्लभ हैं। इसलिये दैत्योंके पालक ! आप प्रसन्न हो जाइये, मुझपर क्रोध न कीजिये। तात ! मैं आपकी क्रोधपूर्ण दृष्टिसे दुःखी हो रहा हूँ, शापसे नहीं ॥ ५२-५६॥

प्रह्लाद उवाच

वत्स कोपेन मोहो मे जनितस्तेन ते मया। 
शापो दत्तो विवेकश्च मोहेनापहृतो मम ॥ ५७

यदि मोहेन मे ज्ञानं नाक्षिप्तं स्मान्महासुर । 
तत्कथं सर्वगं जानन् हरिं किंचिच्छपाम्यहम् ॥ ५८

योऽयं शापो मया दत्तो भवतोऽसुरपुङ्गव ।
भाव्यमेतेन नूनं ते तस्मान्मा त्वं विषीद वै ॥५९

अद्यप्रभृति देवेशे भगवत्यच्युते हरौ।
भवेथा भक्तिमानीशे स ते त्राता भविष्यति ॥ ६०

शापं प्राप्याथ मां वीर संस्मरेथाः स्मृतस्त्वया।
यथा तथा यतिष्येऽहं श्रेयसा योज्यसे यथा ॥ ६१

एवमुक्त्वा स दैत्येन्द्रं विरराम महामतिः ।
अजायत स गोविन्दो भगवान् वामनाकृतिः ॥ ६२

अवतीर्णे जगन्नाथे तस्मिन् सर्वामरेश्वरे।
देवाश्च मुमुचुर्दुःखं देवमातादितिस्तथा ॥ ६३

ववुर्वाताः सुखस्पर्शा विरजस्कमभून्नभः ।
धर्मे च सर्वभूतानां तदा मतिरजायत ॥ ६४

नोद्वेगश्चाप्यभूत् तत्र मनुजेन्द्रासुरेष्वपि ।
तदादि सर्वभूतानां भूम्यम्बरदिवौकसाम् ॥ ६५

तं जातमात्रं भगवान् ब्रह्या लोकपितामहः ।
जातकर्मादिकं कृत्वा कृष्णं दृष्ट्वा च पार्थिव।
तुष्टाव देवदेवेशमृषीणां चैव शृण्वताम् ॥ ६६

प्रह्लाद बोले- वत्स ! कोपके कारण मुझे मोह उत्पन्न हो गया, जिससे अभिभूत होकर मैंने तुम्हें शाप दे दिया; क्योंकि मोहने मेरे विवेकको नष्ट कर दिया था। महासुर ! यदि मोहके द्वारा मेरा ज्ञान नष्ट न हुआ होता तो भगवान् विष्णुको सर्वव्यापी जानता हुआ मैं शाप क्यों देता ? असुरश्रेष्ठ ! मैंने तुम्हें जो यह शाप दिया है, यह तुम्हारे लिये अवश्य घटित होगा, अतः तुम विषाद मत करो। आजसे जो देवेश्वर, कभी च्युत न होनेवाले और शास्ता हैं, उन भगवान् श्रीहरिके प्रति तुम भक्तिमान् हो जाओ। वे ही तुम्हारे रक्षक होंगे। वीर। इस शापके घटित होनेपर तुम मेरा स्मरण करना। तुम जैसे स्मरण करोगे वैसे ही मैं ऐसा प्रयत्न करूँगा कि जिससे तुम कल्याणके भागी होओगे। दैत्यराज बलिसे ऐसा कहकर महामतिमान् प्रह्लाद चुप हो गये। उधर भगवान् गोविन्द वामनरूपमें प्रकट हुए। सम्पूर्ण देवताओंके स्वामी उन जगन्नाथके अवतरित होनेपर देवगण तथा देवमाता अदिति दुःखसे विमुक्त हो गयीं। उस समय सुख-स्पर्शी वायु बहने लगी, आकाश निर्मल हो गया और सभी प्राणियोंकी बुद्धि धर्ममें संलग्न हो गयी। तभीसे राजाओं और राक्षसोंके तथा पृथ्वी, आकाश और स्वर्गमें निवास करनेवाले सभी जीवोंके मनोंमें उद्वेग नहीं हुआ। राजन् ! भगवान्‌के उत्पन्न होते ही लोकपितामह भगवान् ब्रह्माने उनका जातकर्म आदि संस्कार किया। तत्पश्चात् उन देवदेवेश्वर श्रीविष्णुका दर्शन कर वे ऋषियोंके सुनते हुए उनकी स्तुति करने लगे ॥ ५७-६६ ॥

ब्रह्मोवाच

जयाद्येश जयाजेय जय सर्वात्मकात्मक ।
जय जन्मजरापेत जयानन्त जयाच्युत ॥ ६७

जयाजित जयामेय जयाव्यक्तस्थिते जय।
परमार्थार्थ सर्वज्ञ ज्ञानज्ञेयात्मनिः सृत ॥ ६८

जयाशेषजगत्साक्षिञ्जगत्कर्तर्जगद्गुरो ।
जगतोऽस्यन्तकृद् देव स्थिति पालयितुं जय ॥ ६९ 

जय शेष जयाशेष जयाखिलहृदिस्थित। 
जयादिमध्यान्त जय सर्वज्ञाननिधे जय ॥ ७०

मुमुक्षुभिरनिर्देश्य स्वयंदृष्ट जयेश्वर। 
योगिनां मुक्तिफलद दमादिगुणभूषण ॥ ७९

जयातिसूक्ष्म दुर्जेय जय स्थूल जगन्मय।
जय स्थूलातिसूक्ष्म त्वं जयातीन्द्रिय सेन्द्रिय ॥ ७२

जय स्वमायायोगस्थ शेषभोगशयाक्षर।
जयैकदंष्ट्राप्रान्ताग्रसमुद्धृतवसुंधर ॥ ७३

ब्रह्मा बोले- आदि परमेश्वर! आपकी जय हो। अजेय ! आपकी जय हो। सर्वात्मस्वरूप ! आपकी जय हो। आप जन्म एवं वृद्धतासे विमुक्त, अन्तरहित तथा कभी च्युत होनेवाले नहीं हैं, आपकी जय हो, जय हो, जय हो। आप अजित, अमेय और अव्यक्त स्थितिवाले हैं, आपकी जय हो, जय हो, जय हो। आप परमार्थके प्रयोजनस्वरूप, सर्वज्ञ, ज्ञान द्वारा जानने योग्य और अपनी महिमासे प्रकट होनेवाले हैं, आपकी जय हो। आप सम्पूर्ण जगत्‌के साक्षी, जगत्‌के कर्ता और जगत्‌के गुरु हैं, आपकी जय हो। देव! आप जगत्‌की स्थिति, पालन और अन्त करनेवाले हैं, आपकी जय हो। आप शेषरूप, अशेषरूप तथा सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें स्थित रहनेवाले हैं, आपकी जय हो, जय हो, जय हो। आप जगत्‌के आदि, मध्य और अन्त हैं, आपकी जय हो। सर्वज्ञाननिधे ! आपकी जय हो। आप मोक्षार्थीजनोंद्वारा अज्ञात, स्वयंदृष्ट, ईश्वर, योगियोंको मुक्तिरूप फल प्रदान करनेवाले और दम आदि गुणोंसे विभूषित हैं, आपकी जय हो। आप अत्यन्त सूक्ष्म, दुर्जेय, स्थूल, जगन्मय, इन्द्रियवान् और अतीन्द्रिय हैं, आपकी बारंबार जय हो। आप अपनी योगमायामें स्थित रहनेवाले, शेषनागके फणपर शयन करनेवाले और अव्यय हैं, आपकी जय हो। आप एक दाँतके अग्रभागपर वसुंधराको उठाकर रख लेनेवाले (आदिवराह) हैं, आपकी जय हो ॥ ६७-७३ ॥ 

नृकेसरिन् जयारातिवक्षः स्थलविदारण। 
साम्प्रतं जय विश्वात्मन् जय वामन केशव ॥ ७४

निजमायापटच्छन्न जगन्मूर्ते जनार्दन। 
जयाचिन्त्य जयानेकस्वरूपैकविध प्रभो ॥ ७५

वर्धस्व वर्धिताशेषविकारप्रकृते हरे। 
त्वय्येषा जगतामीशे संस्थिता धर्मपद्धतिः ॥ ७६

न त्वामहं न चेशानो नेन्द्राद्यास्त्रिदशा हरे। 
न ज्ञातुमीशा मुनयः सनकाद्या न योगिनः ॥ ७७

त्वन्मायापटसंवीतो जगत्यत्र जगत्पते।
कस्त्वां वेत्स्यति सर्वेश त्वत्प्रसादं विना नरः ।। ७८

त्वमेवाराधितो येन प्रसादसुमुख प्रभो।
स एव केवलो देव वेत्ति त्वां नेतरे जनाः ॥ ७९

नन्दीश्वरेश्वरेशान प्रभो वर्धस्व वामन।
प्रभवायास्य विश्वस्य विश्वात्मन् पृथुलोचन ॥ ८०

शत्रुके वक्षःस्थलको विदीर्ण करनेवाले नृसिंह ! आपकी जय हो। विश्वात्मन् । इस समय आप वामनरूपमें प्रकट हैं, आपकी जय हो। केशव। आपकी जय हो। जगन्मूर्ति जनार्दन ! आप अपनी मायाके आवरणसे छिपे रहते हैं, आपकी जय हो। प्रभो! आप अचिन्त्य, अनेक स्वरूप धारण करनेवाले और एकरूप हैं, आपकी जय हो। हरे! आप सम्पूर्ण प्रकृतिके विकारोंसे युक्त है, आपकी वृद्धि हो। आप परमेश्वरमें जगत्की यह धर्ममर्यादा स्थित है। हरे। न मैं, न शंकर, न इन्द्रादि देवगण, न सनकादि मुनिगण और न योगीजन ही आपको जाननेमें समर्थ हैं। जगदीश्वर सर्वेश ! इस जगत्में आपकी मायारूपी वस्त्रसे लिपटा हुआ कौन मनुष्य आपकी कृपाके बिना आपको जान सकता है। प्रसन्नतासे सुन्दर मुखवाले देव। जिसने आपकी आराधना की है, केवल वही आपको जानता है, अन्य लोग नहीं। विश्वात्मन् ! आप बड़े-बड़े नेत्रोंसे सुशोभित एवं नन्दीश्वरके स्वामी शंकररूप हैं। सामर्थ्यशाली वामन! आप इस विश्वकी उन्नतिके लिये वृद्धिको प्राप्त हों ॥ ७४-८० ॥

शौनक उवाच

एवं स्तुतो हृषीकेशः स तदा वामनाकृतिः ।
प्रहस्य भावगम्भीरमुवाचाब्जसमुद्भवम् ॥ ८१

स्तुतोऽहं भवता पूर्वमिन्द्राद्यौः कश्यपेन च। 
मया च वः प्रतिज्ञातमिन्द्रस्य भुवनत्रयम् ॥ ८२

भूयश्चाहं स्तुतोऽदित्या तस्याश्चापि प्रतिश्रुतम् । 
यथा शक्राय दास्यामि त्रैलोक्यं हतकण्टकम् ॥ ८३

सोऽहं तथा करिष्यामि यथेन्द्रो जगतः पतिः । 
भविष्यति सहस्त्राक्षः सत्यमेतद् ब्रवीमि वः ॥ ८४

ततः कृष्णाजिनं ब्रह्मा हृषीकेशाय दत्तवान् । 
यज्ञोपवीतं भगवान् ददौ तस्मै बृहस्पतिः ॥ ८५

आषाढमददाद् दण्डं मरीचिर्ब्रह्मणः सुतः । 
कमण्डलुं वसिष्ठश्च कौशं वेदमथाङ्गिराः ॥ ८६

अक्षसूत्रं च पुलहः पुलस्त्यः सितवाससी। 
उपतस्थुश्च तं वेदाः प्रणवस्वरभूषणाः ॥ ८७

शास्त्राण्यशेषाणि तथा सांख्ययोगोक्तयश्च याः ।
स वामनो जटी दण्डी छत्री धृतकमण्डलुः ॥ ८८

सर्वदेवमयो भूप बलेरध्वरमभ्यगात् । 
यत्र यत्र पदं भूयो भूभागे वामनो ददौ ॥ ८९

ददाति भूमिर्विवरं तत्र तत्रातिपीडिता। 
स वामनो जडगतिमृदु गच्छन् सपर्वताम्। 
साब्धिद्वीपवतीं सर्वां चालयामास मेदिनीम् ॥ ९० 

शौनकजी बोले- राजन् ! ब्रह्माद्वारा इस प्रकार स्तुति किये जानेपर वामनस्वरूपधारी भगवान् हृषीकेशने उस समय हँसकर कमलजन्मा ब्रह्मासे भावोंसे युक्त गम्भीर वाणीमें कहा- 'ब्रह्मन् ! प्राचीनकालमें इन्द्रादि देवताओंके साथ कश्यपने तथा आपने मेरी स्तुति की थी, उस समय मैंने आपलोगोंसे इन्द्रको त्रिभुवन दिलानेकी प्रतिज्ञा की थी। पुनः अदितिने भी मेरी स्तुति की थी और मैंने उससे भी प्रतिज्ञा की थी कि इन्द्रको कण्टकरहित त्रिलोकीका राज्य समर्पित करूँगा। वही मैं ऐसा प्रयत्न करूँगा, जिससे सहस्राक्ष इन्द्र पुनः जगत्के अधिपति होंगे, यह मैं आपलोगोंसे सत्य कह रहा हूँ।' तदनन्तर ब्रह्माने हृषीकेशको कृष्णमृगका चर्म दिया। भगवान् बृहस्पतिने उन्हें यज्ञोपवीत प्रदान किया। ब्रह्माके पुत्र महर्षि मरीचिने उन्हें पलाश-दण्ड, वसिष्ठने कमण्डलु, अङ्गिराने कुशासन और वेद, पुलहने अक्षसूत्र तथा पुलस्त्यने दो श्वेत वस्त्र समर्पित किये। फिर प्रणवके स्वरोंसे विभूषित वेद, सम्पूर्ण शास्त्र और सांख्ययोगकी उक्तियाँ उनके निकट उपस्थित हुईं। राजन् । तत्पश्चात् सर्वदेवमय भगवान् वामन जटा, दण्ड, छत्र और कमण्डलु धारण करके बलिके यज्ञकी ओर प्रस्थित हुए। उस समय भगवान् वामन पृथ्वीतलपर जहाँ-जहाँ अपने चरणोंको रखते थे वहाँ-वहाँ अत्यन्त पीड़ित होनेके कारण पृथ्वीमें दरारें पड़ जाती थीं। इस प्रकार धीरे-धीरे मंद गतिसे चलते हुए भगवान् वामनने पर्वतों, समुद्रों और द्वीपोंसहित समूची पृथ्वीको चलायमान कर दिया ॥ ८१-९०॥ 

इति श्रीमाल्ये महापुराणे वामनप्रादुर्भावे वामनोत्पत्तिर्नाम पञ्चचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २४५ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें वामन-प्रादुर्भाव-प्रसंगमें वामन-जन्म नामक दो सौ पैंतालीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २४५ ॥

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