अङ्गस्फुरण के शुभा शुभ फल | angasphuran ke shubha shubh phal

मत्स्य पुराण दो सौ एकतालीसवाँ अध्याय

अङ्गस्फुरण के शुभा शुभ फल 

मनुरुवाच

ब्रूहि मे त्वं निमित्तानि अशुभानि शुभानि च। 
सर्वधर्मभृतां श्रेष्ठ त्वं हि सर्वविदुच्यसे ॥ १

मनुजीने पूछा- सम्पूर्ण धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ भगवन्! चूँकि आप सर्वज्ञ कहे जाते हैं, इसलिये अब आप मुझे शुभाशुभसूचक शकुनोंके लक्षण बतलाइये ॥ १॥

मत्स्य उवाच

अङ्गदक्षिणभागे तु शस्तं प्रस्फुरणं भवेत्।
अप्रशस्तं तथा वामे पृष्ठस्य हृदयस्य च ॥ २

मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन् । शरीरके दाहिने भागमें स्फुरण होना शुभ तथा पीठ, हृदय और बायें भागका स्फुरण अशुभ फलदायक होता है॥ २॥ 

मनुरुवाच

अङ्गानां स्पन्दनं चैव शुभाशुभविचेष्टितम्।
तन्मे विस्तरतो ब्रूहि येन स्यां तद्विदो भुवि ॥ ३

मनुजीने पूछा- भगवन् ! अङ्गोंका स्फुरण जिस शुभा-शुभकी सूचना देनेवाला होता है, उसे मुझे विस्तार पूर्वक बतलाइये, जिस से मैं भूतल पर उसका ज्ञाता हो जाऊँ ॥ ३॥ 

मत्स्य उवाच

पृथ्वीलाभो भवेन्मूर्छिन ललाटे रविनन्दन। 
स्थानं विवृद्धिमायाति भ्रूनसोः प्रियसंगमः ॥ ४

भृत्यलब्धिश्चाक्षिदेशे दृगुपान्ते धनागमः । 
उत्कण्ठोपगमो मध्ये दृष्टं राजन् विचक्षणैः ॥ ५ 

हग्बन्धने सङ्गरे च जयं शीघ्रमवाप्नुयात्। 
योषि‌द्भोगोऽपाङ्गदेशे श्रवणान्ते प्रियश्रुतिः ॥ ६ 

नासिकायां प्रीतिसौख्यं प्रजाप्तिरधरोष्ठजे। 
कण्ठे तु भोगलाभः स्याद् भोगवृद्धिरथांसयोः ॥ ७

सुहृत्स्नेहश्च बाहुभ्यां हस्ते चैव धनागमः 
पृष्ठे पराजयः सद्यो जयो वक्षःस्थले भवेत् ॥ ८

मत्स्यभगवान् बोले- रविनन्दन ! सिरके स्फुरणसे पृथ्वीका लाभ होता है, ललाटके स्फुरणसे स्थानको वृद्धि होती है, भौंह और नासिकाके स्फुरणसे प्रियजनोंका समागम होता है। राजन् ! नेत्रोंके फड़कनेसे सेवककी तथा नेत्रोंके समीप स्फुरण होनेसे धनकी प्राप्ति होती है। नेत्रोंके मध्य भागमें स्फुरण होनेसे उत्कण्ठा बढ़ती है, ऐसा विचक्षणोंने अनुभव किया है। नेत्र-पलकोंके फड़कनेसे संग्राममें शीघ्र ही विजय प्राप्त होती है। नेत्रापाङ्गकि स्फुरणसे स्त्री-लाभ, कानके फड़कनेसे प्रियवार्ता-श्रवण, नासिका स्फुरणसे प्रीति एवं सौख्य, निचले होंठके फड़कनेसे संतान प्राप्ति, कण्ठ स्फुरणसे भोग-लाभ तथा दोनों कंधोंके स्फुरणसे भोगकी वृद्धि होती है। बाहुओंके फड़कनेसे मित्र-स्नेहकी प्राप्ति, हाथके स्फुरणसे धनकी प्राप्ति, पीठके फड़कनेसे युद्धमें पराजय तथा छातीके स्फुरणसे विजय-प्राप्ति होती है ॥४-८॥ 

कुक्षिभ्यां प्रीतिरु‌द्दिष्टा स्त्रियाः प्रजननं स्तने। 
स्थानभ्रंशो नाभिदेशे अन्त्रे चैव धनागमः ॥ ९

जानुसंधौ परैः संधिर्बलवद्भिर्भवेन्नृप।
देशैकदेशनाशोऽथ जङ्घाभ्यां रविनन्दन ॥ १०

उत्तमं स्थानमाप्नोति पद्भ्यां प्रस्फुरणान्नृप। 
सलाभं चाध्वगमनं भवेत् पादतले नृप ॥ ११

लाञ्छनं पिटकं चैव ज्ञेयं स्फुरणवत् तथा।
विपर्ययेण विहितः सर्वः स्त्रीणां फलागमः ॥ १२

अप्रशस्ते तदा वामे त्वप्रशस्तं विशेषतः । 
दक्षिणेऽपि प्रशस्तेऽङ्गे प्रशस्तं स्याद् विशेषतः ॥ १३

अतोऽन्यथा सिद्धिप्रजल्पनात् तु फलस्य शस्तस्य च निन्दितस्य ।
अनिष्टचिह्नोपगमे द्विजानां कार्य सुवर्णेन तु तर्पणं स्यात् ॥ १४

दोनों कुक्षियोंके फड़कनेसे प्रेम की वृद्धि कही गयी है, स्तनके स्फुरणसे स्त्रीसे संतानोत्पत्ति होती है। राजन् ! नाभिके स्फुरणसे स्थानसे च्युत होना पड़ता है, आँतके फड़कनेसे धनकी प्राप्ति तथा जानुके संधिभागके स्फुरणसे बलवान् शत्रुओंके साथ संधि हो जाती है। रविनन्दन ! फिल्लियोंके फड़कनेसे राजाके देशके किसी भागका नाश होता है। नृप। दोनों पैरोंके स्फुरणसे उत्तम स्थानकी प्राप्ति होती है। राजन् ! पैरोंके तलुओंके फड़कनेसे लाभदायिनी यात्रा होती है। अङ्गस्फुरणके समान ही लक्षण (कालेदाग) एवं पिटकों (छोटे मांसपिण्ड, जो जन्मसे ही बालकोंके अङ्गोंमें उत्पन्न होते हैं) के भी फलाफलको जानना चाहिये। स्त्रियोंके लिये ये सभी फलागम विपरीत होते हैं। बायें भागके अप्रशस्त अङ्गोंके स्फुरणसे विशेष अशुभ होता है। इसी प्रकार दाहिने भागमें भी शुभ अङ्गोंके स्फुरणसे विशेष शुभ होता है। इस शुभ एवं अशुभ फलके सिद्धि-कथनके अतिरिक्त अनिष्ट चिह्नके प्रकट होनेपर ब्राह्मणोंको सुवर्णदान देकर संतुष्ट करना चाहिये ॥ ९-१४॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे यात्रानिमित्तकदेहस्यन्दनं नामैकचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २४१ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें अङ्गस्फुरण नामक दो सौ एकतालीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २४१ ॥

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