मत्स्य पुराण एक सौ बयालीसवाँ अध्याय
युगों की काल-गणना तथा त्रेता युग का वर्णन
ऋषय ऊचुः
चतुर्युगाणि यानि स्युः पूर्वे स्वायम्भुवेऽन्तरे ।
एषां निसर्ग संख्यां च श्रोतुमिच्छामो विस्तरात् ॥ १
ऋषियोंने पूछा- सूतजी ! पूर्व काल में स्वायम्भुव-मन्वन्तर में जिन चारों युगों का प्रवर्तन हुआ है, उनकी सृष्टि और संख्याके विषयमें हमलोग विस्तारपूर्वक सुनना चाहते हैं ॥ १ ॥
सूत उवाच
पृथिवीद्युप्रसङ्गेन मया तु प्रागुदाहृतम् ।
एतच्चतुर्युगं त्वेवं तद् वक्ष्यामि निबोधत ।
तत्प्रमाणं प्रसंख्याय विस्तराच्चैव कृत्स्नशः ॥ २
लौकिकेन प्रमाणेन निष्याद्याब्दं तु मानुषम्।
तेनापीह प्रसंख्याय वक्ष्यामि तु चतुर्युगम् ॥ ३
काष्ठा निमेषा दश पञ्च चैव त्रिंशच्च काष्ठां गणयेत् कलां तु।
त्रिंशत्कलाश्चैव भवेन्मुहूर्त- स्तंस्त्रिशता रात्र्यहनी समेते ॥ ४
अहोरात्रे विभजते सूर्यो मानुषलौकिके।
रात्रिः स्वप्राय भूतानां चेष्टायै कर्मणामहः ॥ ५
पित्र्ये रात्र्यहनी मासः प्रविभागस्तयोः पुनः ।
कृष्णपक्षस्त्वहस्तेषां शुक्लः स्वप्नाय शर्वरी ॥ ६
त्रिंशद् ये मानुषा मासाः पैत्रो मासः स उच्यते।
शतानि त्रीणि मासानां षष्ट्या चाभ्यधिकानि तु।
पैत्रः संवत्सरो होष मानुषेण विभाव्यते ॥ ७
मानुषेणैव मानेन वर्षाणां यच्छतं भवेत्।
पितृणां तानि वर्षाणि संख्यातानि तु त्रीणि वै।
दश च द्वयधिका मासाः पितृसंख्येह कीर्तिताः ॥ ८
लौकिकेन प्रमाणेन अब्दो यो मानुषः स्मृतः ।
एतद्दिव्यमहोरात्रमित्येषा वैदिकी श्रुतिः ॥ ९
सूतजी कहते हैं- ऋषियो! पृथ्वी और आकाशके प्रसङ्गसे मैंने पहले ही इन चारों युगोंका वर्णन कर दिया है, फिर भी (यदि आपलोगोंको उनको सुननेकी अभिलाषा है तो) संख्यापूर्वक उनके प्रमाणको विस्तारके साथ समूचे रूपमें बतला रहा हूँ, सुनिये। लौकिक प्रमाणके द्वारा मानवीय वर्षका आश्रय लेकर उसीके अनुसार गणना करके चारों युगोंका प्रमाण बतला रहा हूँ। पंद्रह निमेष (आँखके खोलने और मूँदनेका समय) की एक काष्ठा और तीस काष्ठाकी एक कला मानी जाती है। तीस कलाका एक मुहूर्त होता है और तीस मुहूर्तके रात-दिन दोनों होते हैं। सूर्य मानवीय लोकमें दिन-रातका विभाजन करते हैं। उनमें रात्रि जीवोंके शयन करनेके लिये और दिन कर्ममें प्रवृत्त होनेके लिये है। पितरोंके रात-दिनका एक लौकिक मास होता है। उनमें रात-दिनका विभाग है। पितरोंके लिये कृष्णपक्ष दिन है और शुक्लपक्ष शयन करनेके लिये रात्रि है। मनुष्योंके तीस मासका पितरोंका एक मास कहा जाता है। इस प्रकार तीन सौ साठ मानव-मासोंका एक पितृवर्ष होता है। यह गणना मानवीय गणनाके अनुसार की जाती है। मानवीय गणनाके अनुसार एक सौ वर्ष पितरोंके तीन वर्षके बराबर माने गये हैं। इस प्रकार पितरोंके बारहों महीनोंकी संख्या बतलायी जा चुकी है। लौकिक प्रमाणके अनुसार जिसे एक मानव-ऐसी वैदिकी श्रुति है॥२-९॥
दिव्ये रात्र्यहनी वर्षं प्रविभागस्तयोः पुनः ।
अहस्तु यदुदक्चैव रात्रिर्या दक्षिणायनम् ।
एते रात्र्यहनी दिव्ये प्रसंख्याते तयोः पुनः ॥ १०
त्रिंशद् यानि तु वर्षाणि दिव्यो मासस्तु स स्मृतः ।
मानुषाणां शतं यच्च दिव्या मासास्त्रयस्तु वै।
तथैव सह संख्यातो दिव्य एष विधिः स्मृतः ॥ ११
त्रीणि वर्षशतान्येवं षष्टिर्वर्षास्तथैव च।
दिव्यः संवत्सरो होष मानुषेण प्रकीर्तितः ॥ १२
त्रीणि वर्षसहस्त्राणि मानुषेण प्रमाणतः ।
त्रिंशदन्यानि वर्षाणि स्मृतः सप्तर्षिवत्सरः ॥ १३
नव यानि सहस्त्राणि वर्षाणां मानुषाणि च।
वर्षाणि नवतिश्चैव ध्रुवसंवत्सरः स्मृतः ॥ १४
षट्त्रिंशत् तु सहस्राणि वर्षाणां मानुषाणि च।
षष्टिश्चैव सहस्त्राणि संख्यातानि तु संख्यया।
दिव्यं वर्षसहस्रं तु प्राहुः संख्याविदो जनाः ॥ १५
इत्येतद् ऋषिभिर्गीतं दिव्यया संख्यया द्विजाः ।
दिव्येनैव प्रमाणेन युगसंख्या प्रकल्पिता ॥ १६
चत्वारि भारते वर्षे युगानि ऋषयोऽब्रुवन्।
कृतं त्रेता द्वापरं च कलिश्चैवं चतुर्युगम् ॥ १७
पूर्व कृतयुगं नाम ततस्त्रेताभिधीयते।
द्वापरं च कलिश्चैव युगानि परिकल्पयेत् ॥ १८
चत्वार्याहुः सहस्त्राणि वर्षाणां तत्कृतं युगम्।
तस्य तावच्छती संध्या संध्यांशश्च तथाविधः ॥ १९
इतरेषु ससंध्येषु ससंध्यांशेषु च त्रिषु।
एकपादे निवर्तन्ते सहस्त्राणि शतानि च ॥ २०
मानवीय वर्षके अनुसार जो देवताओंके रात-दिन होते हैं, उनमें भी पुनः विभाग हैं। उनमें उत्तरायणको देवताओंका दिन और दक्षिणायनको रात्रि कहा जाता है। इस प्रकार दिव्य रात-दिनकी गणना बतलायी जा चुकी। तीस मानवीय वर्षोंका एक दिव्य मास बतलाया जाता है। इसी प्रकार सौ मानवीय वर्षोंका तीन दिव्य मास माना गया है। यह दिव्य गणनाकी विधि कही जाती है। मानुषगणनाके अनुसार तीन सौ साठ वर्षोंका एक दिव्य (देव) वर्ष कहा गया है। मानुषगणनाके अनुसार तीन हजार तीस वर्षोंका एक सप्तर्षि वर्ष होता है। नौ हजार नब्बे मानुष-वर्षोंका एक 'ध्रुव-संवत्सर' कहलाता है। छियानबे हजार मानुषवर्षोंका एक हजार दिव्य वर्ष होता है-ऐसा गणितज्ञ लोग कहते हैं। द्विजवरो! इस प्रकार ऋषियोंद्वारा दिव्य गणनाके अनुसार यह गणना बतलायी गयी है। इसी दिव्य प्रमाणके अनुसार युग-संख्याकी भी कल्पना की गयी है। ऋषियोंने इस भारतवर्षमें चार युग बतलाये हैं। उन चारों युगोंके नाम हैं-कृत, त्रेता, द्वापर और कलि। इनमें सर्वप्रथम कृतयुग, तत्पश्चात् त्रेता, तब द्वापर और 'कलियुग आनेकी परिकल्पना की गयी है। उनमें कृतयुग चार हजार (दिव्य) वर्षोंका बतलाया जाता है। इसी प्रकार चार सौ वर्षोंकी उसकी संध्या और चार सौ वर्षोंका संध्यांश होता है। इसके अतिरिक्त संध्या और संध्यांशसहित अन्य तीनों युगोंमें हजारों और सैकड़ोंको संख्यामें एक चतुर्थांश कम हो जाता है॥ १०-२०॥
त्रेता त्रीणि सहस्त्राणि युगसंख्याविदो विदुः ।
तस्यापि त्रिशती संध्या संध्यांशः संध्यया समः ॥ २१
द्वे सहस्त्रे द्वापरं तु संध्यांशौ तु चतुःशतम्।
सहस्त्रमेकं वर्षाणां कलिरेव प्रकीर्तितः ।
द्वे शते च तथान्ये च संध्यासंध्यांशयोः स्मृते ॥ २२
एषा द्वादशसाहस्त्री युगसंख्या तु संज्ञिता।
कृतं त्रेता द्वापरं च कलिश्चेति चतुष्टयम् ॥ २३
तत्र संवत्सराः सृष्टा मानुषास्तान् निबोधत ।
नियुतानि दश द्वे च पञ्च चैवात्र संख्यया।
अष्टाविंशत्सहस्त्राणि कृतं युगमथोच्यते ॥ २४
प्रयुतं तु तथा पूर्णं द्वे चान्ये नियुते पुनः ।
षण्णवतिसहस्त्राणि संख्यातानि च संख्यया।
त्रेतायुगस्य संख्यैषा मानुषेण तु संज्ञिता ॥ २५
अष्टौ शतसहस्त्राणि वर्षाणां मानुषाणि तु।
चतुःषष्टिसहस्त्राणि वर्षाणां द्वापरं युगम् ॥ २६
चत्वारि नियुतानि स्युर्वर्षाणि तु कलिर्युगम् ।
द्वात्रिंशच्च तथान्यानि सहस्त्राणि तु संख्यया।
एतत् कलियुगं प्रोक्तं मानुषेण प्रमाणतः ॥ २७
एषा चतुर्युगावस्था मानुषेण प्रकीर्तिता।
चतुर्युगस्य संख्याता संध्या संध्यांशकैः सह ॥ २८
इस प्रकार युगसंख्या-ज्ञाता लोग त्रेताका प्रमाण तीन हजार वर्ष, उसकी संध्याका प्रमाण तीन सौ वर्ष और संध्याके बराबर ही संध्यांशका प्रमाण तीन सौ वर्ष बतलाते हैं। द्वापरका प्रमाण दो हजार वर्ष और उसकी संध्या तथा संध्यांशका प्रमाण दो-दो सौ अर्थात् चार सौ वर्षोंका होता है। कलियुग एक हजार वर्षोंका बतलाया गया है तथा उसकी संध्या और संध्यांश मिलकर दो सौ वर्षोंके होते हैं। इस प्रकार कृतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग ये चार युग होते हैं और इनकी काल-संख्या बारह हजार दिव्य वर्षोंकी बतायी गयी है। अब मानुषवर्षके अनुसार इन युगोंमें कितने वर्ष होते हैं, उसे सुनिये। इनमें कृतयुग सत्रह लाख अट्ठाईस हजार वर्षोंका कहा जाता है। इसी मानुष-गणनाके अनुसार त्रेतायुगकी वर्ष-संख्या बारह लाख छानबे हजार बतलायी गयी है। द्वापरयुग आठ लाख चौंसठ हजार मानुष वर्षोंका होता है। मानुषगणनाके अनुसार कलियुगका मान चार लाख बत्तीस हजार वर्षोंका कहा गया है। चारों युगोंकी यह अवस्था मानव-गणनाके अनुसार बतलायी गयी है। इस प्रकार संध्या और संध्यांशसहित चारों युगोंकी संख्या बतलायी जा चुकी ॥ २१-२८ ॥
एषा चतुर्युगाख्या तु साधिका त्वेकसप्ततिः ।
कृतत्रेतादियुक्ता सा मनोरन्तरमुच्यते ।। २९
मन्वन्तरस्य संख्या तु मानुषेण निबोधत ।
एकत्रिंशत् तथा कोट्यः संख्याताः संख्यया द्विजैः ॥ ३०
तथा शतसहस्त्राणि दश चान्यानि भागशः ।
सहस्त्राणि तु द्वात्रिंशच्छतान्यष्टाधिकानि च ॥ ३१
आशीतिश्चैव वर्षाणि मासाश्चैवाधिकास्तु षट्।
मन्वन्तरस्य संख्यैषा मानुषेण प्रकीर्तिता ॥ ३२
दिव्येन च प्रमाणेन प्रवक्ष्याम्यन्तरं मनोः ।
सहस्त्राणां शतान्याहुः स च वै परिसंख्यया ॥ ३३
चत्वारिंशत् सहस्त्राणि मनोरन्तरमुच्यते।
मन्वन्तरस्य कालस्तु युगैः सह परिकीर्तितः ॥ ३४
एषा चतुर्युगाख्या तु साधिका होकसप्ततिः ।
क्रमेण परिवृत्ता सा मनोरन्तरमुच्यते ॥ ३५
एतच्चतुर्दशगुणं कल्पमाहुस्तु तद्विदः ।
ततस्तु प्रलयः कृत्स्नः स तु सम्प्रलयो महान् ॥ ३६
कल्पप्रमाणे द्विगुणो यथा भवति संख्यया।
चतुर्युगाख्या व्याख्याता कृतं त्रेतायुगं च वै॥ ३७
त्रेतासृष्टिं प्रवक्ष्यामि द्वापरं कलिमेव च।
युगपत्समवेतौ द्वौ द्विधा वक्तुं न शक्यते ॥ ३८
क्रमागतं मयाप्येतत् तुभ्यं नोक्तं युगद्वयम्।
ऋषिवंशप्रसङ्गेन व्याकुलत्वात् तथा क्रमात् ॥ ३९
नोक्तं त्रेतायुगे शेषं तद्वक्ष्यामि निबोधत।
अब मन्वन्तरका वर्णन करते हैं।) इन कृतयुग, त्रेता आदि युगोंकी यह चौकड़ी जब एकहत्तर बार बीत जाती है, तब उसे एक मन्वन्तर कहते हैं। अब मन्वन्तरकी वर्षसंख्या मानुषगणनाके अनुसार सुनिये। मानव-वर्षके अनुसार एक मन्वन्तरकी वर्ष संख्या एकतीस करोड़ दस लाख बत्तीस हजार आठ सौ अस्सी वर्ष छः महीनेकी बतलायी जाती है। अब मैं दिव्य गणनाके अनुसार मन्वन्तरका वर्णन कर रहा हूँ। एक मनुका कार्यकाल एक लाख चालीस हजार दिव्य वर्षोंका बतलाया जाता है। मन्वन्तरका समय युग-वर्णनके साथ ही कहा जा चुका है। चारों युगोंकी यह चौकड़ी जब क्रमशः एकहत्तर बार बीत जाती है, तब उसे एक मन्वन्तर कहते हैं।
कालतत्त्वको जाननेवाले विद्वान् मन्वन्तरके चौदह गुने कालको एक कल्प बतलाते हैं। इसके बाद सारी सृष्टिका विनाश हो जाता है, जिसे महाप्रलय कहते हैं। महाप्रलयका समय कल्पके समयसे दुगुना होता है। इस प्रकार कृतयुग, त्रेता आदि चारों युगोंकी वर्ष-संख्या बतलायी जा चुकी। अब मैं त्रेता, द्वापर और कलियुगकी सृष्टिका वर्णन कर रहा हूँ। कृतयुग और त्रेता ये दोनों परस्पर सम्बद्ध हैं, अतः इनका पृथक् रूपसे वर्णन नहीं किया जा सकता। इसी कारण इन दोनों युगोंके वर्णनका अवसर क्रमशः प्राप्त होनेपर भी मैंने आपलोगोंसे नहीं कहा। साथ ही उस समय ऋषि-वंशका प्रसङ्ग छिड़ जानेपर चित्त व्याकुल हो उठा था। उस समय जो नहीं कहा था, वह शेषांश अब त्रेतायुगके वर्णन-प्रसङ्गमें कह रहा हूँ, सुनिये ॥ २९-३९॥
अथ त्रेतायुगस्यादौ मनुः सप्तर्षयश्च ये।
श्रौतस्मार्तं ब्रुवन् धर्म ब्रह्मणा तु प्रचोदिताः ॥ ४०
दाराग्निहोत्रसम्बन्धमृग्यजुःसामसंहिताः ।
इत्यादिबहुलं श्रौतं धर्म सप्तर्षयोऽब्रुवन् ॥ ४१
परम्परागतं धर्म स्मार्त त्वाचारलक्षणम् ।
वर्णाश्रमाचारयुतं मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत् ॥ ४२
सत्येन ब्रह्मचर्येण श्रुतेन तपसा तथा।
तेषां सुतप्ततपसामार्षेणानुक्रमेण ह ॥ ४३
सप्तर्षीणां मनोश्चैव आदौ त्रेतायुगे ततः ।
अबुद्धिपूर्वकं तेन सकृत्पूर्वकमेव च ॥ ४४
अभिवृत्तास्तु ते मन्त्रा दर्शनैस्तारकादिभिः ।
आदिकल्पे तु देवानां प्रादुर्भूतास्तु ते स्वयम् ॥ ४५
प्रमाणेष्वथ सिद्धानामन्येषां च प्रवर्तते।
मन्त्रयोगो व्यतीतेषु कल्पेष्वथ सहस्रशः ।
ते मन्त्रा वै पुनस्तेषां प्रतिमायामुपस्थिताः ॥ ४६
ऋचो यजूंषि सामानि मन्त्राश्चाथर्वणास्तु ये।
सप्तर्षिभिश्च ये प्रोक्ताः स्मार्तं तु मनुरब्रवीत् ॥ ४७
त्रेतादौ संहता वेदाः केवलं धर्मसेतवः ।
संरोधादायुषश्चैव व्यस्यन्ते द्वापरे च ते।
ऋषयस्तपसा वेदानहोरात्रमधीयत ।। ४८
अनादिनिधना दिव्याः पूर्वं प्रोक्ताः स्वयम्भुवा।
स्वधर्मसंवृताः साङ्गा यथाधर्म युगे युगे।
विक्रियन्ते स्वधर्म तु वेदवादाद् यथायुगम् ॥ ४९
आरम्भयज्ञः क्षत्रस्य हविर्यज्ञा विशः स्मृताः ।
परिचारयज्ञाः शूद्राश्च जपयज्ञाश्च ब्राह्मणाः ॥ ५०
ततः समुदिता वर्णास्त्रेतायां धर्मशालिनः ।
क्रियावन्तः प्रजावन्तः समृद्धाः सुखिनश्च वै ॥ ५१
ब्राह्मणाश्चैव विधीयन्ते क्षत्रियाः क्षत्रियैर्विशः ।
वैश्याश्छूद्रानुवर्तन्ते परस्परमनुग्रहात् ॥ ५२
त्रेतायुगके आदिमें जो मनु और सप्तर्षिगण थे, उन लोगोंने ब्रह्माकी प्रेरणासे श्रौत और स्मार्त धर्मोंका वर्णन किया था। उस समय सप्तर्षियोंने दार-सम्बन्ध (विवाह), अग्निहोत्र, ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदकी संहिता आदि अनेकविध श्रौत धर्मोका विवेचन किया था। उसी प्रकार स्वायम्भुव मनुने वर्षों एवं आश्रमोंके धर्मोंसे युक्त परम्परागत आचार-लक्षणरूप स्मार्त-धर्मका वर्णन किया था। त्रेतायुगके आदिमें उत्कृष्ट तपस्यावाले उन सप्तर्षियों तथा मनुके हृदयमें वे मन्त्र सत्य, ब्रह्मचर्य, शास्त्र-ज्ञान, तपस्या तथा ऋषि-परम्पराके अनुक्रमसे बिना सोचे-विचारे ही दर्शनों एवं तारकादि द्वारा एक ही बारमें स्वयं प्रकट हो गये थे। वे ही मन्त्र आदि कल्पमें देवताओंके हृदयोंमें स्वयं उद्भूत हुए थे। वह मन्त्रयोग हजारों गत-कल्पोंमें सिद्धों तथा अन्यान्य लोगोंके लिये भी प्रमाणरूपमें प्रयुक्त होता था। वे मन्त्र पुनः उन देवताओंकी प्रतिमाओंमें भी उपस्थित हुए। इस प्रकार ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद-सम्बन्धी जो मन्त्र हैं, वे सप्तर्षियोंद्वारा कहे गये हैं। स्मार्तधर्मका वर्णन तो मनुने किया है। त्रेतायुगके आदिमें ये सभी वेद धर्मके सेतु-स्वरूप थे, किंतु द्वापरयुगमें आयुके न्यून हो जानेके कारण उनका विभाग कर दिया गया है। ऋषि अपने धर्मसे परिपूर्ण हैं। वे तपमें निरत हो रात-दिन वेदाध्ययन करते थे। ब्रह्माने सर्वप्रथम प्रत्येक युगमें युगधर्मानुसार इनका साङ्गोपाङ्ग वर्णन किया है। वे योगानुकूल वेदवादसे स्खलित होकर अपने धर्मसे विकृत हो जाते हैं। त्रेतायुगमें ब्राह्मणों का धर्म जपयज्ञ, क्षत्रियोंका यज्ञारम्भ, वैश्योंका हविर्यज्ञ और शूद्रोंका सेवायज्ञ कहा जाता था। उस समय सभी वर्णके लोग उन्नत, धर्मात्मा, क्रियानिष्ठ, संतानयुक्त, समृद्ध और सुखी थे। परस्पर प्रेमपूर्वक ब्राह्मण क्षत्रियोंके लिये और क्षत्रिय वैश्योंके लिये सब प्रकारका विधान करते थे तथा शूद्र वैश्योंका अनुवर्तन करते थे। उनके स्वभाव सुन्दर थे तथा उनके धर्म वर्ण एवं आश्रमके अनुकूल होते थे ॥ ४०-५२ ॥
शुभाः प्रकृतयस्तेषां धर्मा वर्णाश्रमाश्रयाः ॥
संकल्पितेन मनसा वाचा वा हस्तकर्मणा।
त्रेतायुगे ह्यविकले कर्मारम्भः प्रसिद्धयति ॥ ५३
आयू रूपं बलं मेधा आरोग्यं धर्मशीलता।
सर्वसाधारणं होतदासीत् त्रेतायुगे तु वै॥५४
वर्णाश्रमव्यवस्थानामेषां ब्रह्मा तथाकरोत्।
संहिताश्च तथा मन्त्रा आरोग्यं धर्मशीलता ।। ५५
संहिताश्च तथा मन्त्रा ऋषिभिर्ब्रह्मणः सुतैः ।
यज्ञः प्रवर्तितश्चैव तदा होव तु दैवतैः ॥ ५६
यामैः शुक्लैर्जयैश्चैव सर्वसाधनसम्भृतैः ।
विश्वसृभिस्तथा सार्धं देवेन्द्रेण महौजसा।
स्वायम्भुवेऽन्तरे देवैस्ते यज्ञाः प्राक् प्रवर्तिताः ।। ५७
सत्यं जपस्तपो दानं पूर्वधर्मो य उच्यते।
यदा धर्मस्य ह्रसते शाखाधर्मस्य वर्धते ॥ ५८
जायन्ते च तदा शूरा आयुष्मन्तो महाबलाः ।
न्यस्तदण्डा महायोगा यज्वानो ब्रह्मवादिनः ॥ ५९
पद्मपत्रायताक्षाश्च पृथुवक्त्राः सुसंहताः ।
सिंहोरस्का महासत्त्वा मत्तमातङ्गगामिनः ॥ ६०
महाधनुर्धराश्चैव त्रेतायां चक्रवर्तिनः ।
सर्वलक्षणपूर्णास्ते न्यग्रोधपरिमण्डलाः ॥ ६१
न्यग्रोधौ तु स्मृतौ बाहू व्यामो न्यग्रोध उच्यते।
व्यामेनैवोच्छ्यो यस्य सम ऊर्ध्वं तु देहिनः ।
समुच्छ्रयपरिणाहो न्यग्रोधपरिमण्डलः ।। ६२
चक्रं रथो मणिर्भार्थ्यां निधिरश्वो गजस्तथा।
प्रोक्तानि सप्त रत्नानि सर्वेषां चक्रवर्तिनाम् ॥ ६३
चक्रं रथो मणिः खड्गं धनू रत्नं च पञ्चमम् ।
केतुर्निधिश्च पञ्चैते प्राणहीनाः प्रकीर्तिताः ॥ ६४
समूचे त्रेतायुगके कार्यकालमें मानसिक संकल्प, वचन और हाथसे प्रारम्भ किये गये कर्म सिद्ध होते थे। त्रेतायुगमें आयु, रूप, बल, बुद्धि, नीरोगता और धर्मपरायणता-ये सभी गुण सर्वसाधारण लोगोंमें भी विद्यमान थे । ब्रह्माने स्वयं इनके लिये वर्णाश्रमको व्यवस्था की थी तथा ब्रह्माके मानसिक पुत्र ऋषियोंद्वारा संहिताओं, मन्त्रों, नीरोगता और धर्मपरायणताका विधान किया गया था। उसी समय देवताओंने यज्ञकी भी प्रथा प्रचलित की थी। स्वायम्भुव मन्वन्तरमें सम्पूर्ण यज्ञिय साधनोंसहित याम, शुक्ल, जय, विश्वसृज् तथा महान् तेजस्वी देवराज इन्द्रके साथ देवताओंने सर्वप्रथम इन यज्ञोंका प्रचार किया था। उस समय सत्य, जप, तप और दान- ये ही प्रारम्भिक धर्म कहलाते थे। जब इन धर्मोंका ह्रास प्रारम्भ होता था और अधर्मकी शाखाएँ बढ़ने लगती थीं, तब त्रेतायुगमें ऐसे शूरवीर चक्रवर्ती सम्राट् उत्पन्न होते थे, जो दीर्घायुसम्पन्न, महाबली, दण्ड देनेवाले, महान् योगी, यज्ञपरायण और ब्रह्मनिष्ठ थे, जिनके नेत्र कमलदलके समान विशाल और सुन्दर, मुख भरे-पूरे और शरीर सुसंगठित थे,
जिनकी छाती सिंहके समान चौड़ी थी, जो महान् पराक्रमी और मतवाले गजराजकी भाँति चलनेवाले और महान् धनुर्धर थे, वे सभी राजलक्षणोंसे परिपूर्ण तथा न्यग्रोध (बरगद) सदृश मण्डलवाले थे। यहाँ दोनों बाहुओंको ही न्यग्रोध कहा जाता है तथा व्योममें फैलायी हुई बाहुओंका मध्यभाग भी न्यग्रोध कहलाता है। उस व्योमकी ऊँचाई और विस्तारवाला 'न्यग्रोधपरिमण्डल' कहलाता है, अतः जिस प्राणीका शरीर व्योमके बराबर ऊँचा और विस्तृत हो, उसे न्यग्रोधपरिमण्डल कहा जाता है। पूर्वकालके स्वायम्भुव मन्वन्तरमें चक्र (शासन, अज्ञाद भी), रथ, मणि, भार्या, निधि, अश्व और गज- ये सातों (चल) रत्न कहे गये हैं। दूसरा चक्र (अचल) रथ, मणि, खड्ग, धनुष, रत्न, झंडा और खजाना-ये स्थिर (अचल) सप्तरन्न हैं। (सब मिलकर ये ही राजाओंके चौदह रत्न हैं।) बीते हुए एवं आनेवाले सभी मन्वन्तरोंमें भूतलपर चक्रवर्ती सम्म्राट् विष्णुके अंशसे उत्पन्न होते हैं॥ ५३-६५॥
विष्णोरंशेन जायन्ते पृथिव्यां चक्रवर्तिनः ।
मन्वन्तरेषु सर्वेषु ह्यतीतानागतेषु वै ॥ ६५
भूतभव्यानि यानीह वर्तमानानि यानि च।
त्रेतायुगानि तेष्वत्र जायन्ते चक्रवर्तिनः ॥ ६६
भद्राणीमानि तेषां च विभाव्यन्ते महीक्षिताम् ।
अत्यद्भुतानि चत्वारि बलं धर्मं सुखं धनम् ॥ ६७
अन्योन्यस्याविरोधेन प्राप्यन्ते नृपतेः समम्।
अर्थो धर्मश्च कामश्च यशो विजय एव च ॥ ६८
ऐश्वर्येणाणिमाद्येन प्रभुशक्तिबलान्विताः ।
श्रुतेन तपसा चैव ऋषींस्तेऽभिभवन्ति हि ॥ ६९
बलेनाभिभवन्त्येते देवदानवमानवान् ।
लक्षणैश्चैव जायन्ते शरीरस्थैरमानुषैः ॥ ७०
केशाः स्थिता ललाटोर्णा जिह्वा चास्य प्रमार्जनी।
ताम्रप्रभाश्चतुर्दष्टाः सुवंशाचोध्वरेतसः ॥ ७१
आजानुबाहवश्चैव जालहस्ता वृषाङ्किताः।
परिणाहप्रमाणाभ्यां सिंहस्कन्धाश्च मेधिनः ॥ ७२
पादयोश्चक्रमत्स्यौ तु शङ्खपये च हस्तयोः ।
पञ्चाशीतिसहस्त्राणि जीवन्ति ह्यजरामयाः ॥ ७३
असङ्गा गतयस्तेषां चतस्त्रश्चक्रवर्तिनाम् ।
अन्तरिक्षे समुद्रेषु पाताले पर्वतेषु च ॥ ७४
इज्या दानं तपः सत्यं त्रेताधर्मास्तु वै स्मृताः ।
तदा प्रवर्तते धर्मो वर्णाश्रमविभागशः ।
मर्यादास्थापनार्थं च दण्डनीतिः प्रवर्तते ॥ ७५
हृष्टपुष्टा जनाः सर्वे अरोगाः पूर्णमानसाः ।
एको वेदश्चतुष्पादत्रेतायां तु विधिः स्मृतः ।
त्रीणि वर्षसहस्त्राणि जीवन्ते तत्र ताः प्रजाः ॥ ७६
पुत्रपौत्रसमीकीर्णा म्रियन्ते च क्रमेण ताः।
एष त्रेतायुगे भावस्त्रेतासंध्यां निबोधत ॥ ७७
त्रेतायुगस्वभावेन संध्यापादेन वर्तते।
संध्यापादः स्वभावाच्च योंऽशः पादेन तिष्ठति ॥ ७८
इस प्रकार भूत, भविष्य और वर्तमानमें जितने त्रेतायुग हुए होंगे और हैं, उन सभीमें चक्रवर्ती सम्नाद् उत्पन्न होते हैं। उन भूपालोंके बल, धर्म, सुख और धन-ये चतुर्भद्र चारों अत्यन्त अद्भुत और माङ्गलिक होते हैं। उन राजाओंको अर्थ, धर्म, काम, यश और विजय-ये सभी समानरूपसे परस्पर अविरोध भावसे प्राप्त होते हैं। प्रभुशक्ति और बलसे सम्पन्न वे नृपतिगण ऐश्वर्य, अणिमा आदि सिद्धि, शास्त्रज्ञान और तपस्यामें ऋषियोंसे भी बढ़-चढ़कर होते हैं। इसलिये वे सम्पूर्ण देव-दानवों और मानवोंको बलपूर्वक पराजित कर देते हैं। उनके शरीरमें स्थित सभी लक्षण दिये होते हैं। उनके सिरके बाल ललाटतक फैले रहते हैं। उनकी जीभ बड़ी स्वच्छ और स्निग्ध होती है। उनकी अङ्गकान्ति लाल होती है। उनके चार दाढ़े होते हैं। वे उत्तम वंशमें उत्पन्न, ऊध्वीता, आजानुबाहु, जालहस्त हाथोंमें जालचिह्न तथा बैल आदि श्रेष्ठ चिह्नयुक्त परिणाहमात्र लम्बे होते हैं।
उनके कंधे सिंहके समान मांसल और वे यज्ञपरायण होते हैं। उनके पैरोंमें चक्र और मत्स्यके तथा हाथोंमें शङ्ख और पद्मके चिह्न होते हैं। वे बुढ़ापा और व्याधिसे रहित होकर पचासी हजार वर्षोंतक जीवित रहते हैं। वे चक्रवर्ती सम्राट् अन्तरिक्ष, समुद्र, पाताल और पर्वत इन चारों स्थानोंमें एकाकी एवं स्वच्छन्दरूपसे विचरण करते हैं। यज्ञ दान, तप और सत्यभाषण- ये त्रेतायुगके प्रधान धर्म कहे गये हैं। ये धर्म वर्ण एवं आश्रमके विभागपूर्वक प्रवृत्त होते हैं। इनमें मर्यादाकी स्थापनाके निमित्त दण्डनीतिका प्रयोग किया जाता है। त्रेतायुगमें एक वेद चार भागोंमें विभक्त होकर विधान करता है। उस समय सभी लोग हृष्ट-पुष्ट, नीरोग और सफल-मनोरथ होते हैं। वे प्रजाएँ तीन हजार वर्षोंतक जीवित रहती हैं और पुत्र-पौत्रसे युक्त होकर क्रमशः मृत्युको प्राप्त होतो हैं। यही त्रेतायुगका स्वभाव है। अब उसकी संध्याके विषयमें सुनिये। इसकी संध्यामें युग-स्वभावका एक चरण रह जाता है। उसी प्रकार संध्यांशमें संध्याका चतुर्थांश शेष रहता है अर्थात् उत्तरोत्तर परिवर्तन होता जाता है ॥ ६६-७८ ॥
इति श्रीमालये महापुराणे मन्वन्तरानुकल्पो नाम द्विचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४२ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें मन्वन्तरानुकल्प नामक एक सौ बयालीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १४२॥
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