तारा के गर्भ से बुध की उत्पत्ति, पुरूरवा का जन्म, पुरूरवा और उर्वशीकी कथा | taara ke garbh se budh kee utpatti, pururava ka janm, puroorava aur urvasheekee katha |

मत्स्य पुराण चौबीसवाँ अध्याय

तारा के गर्भ से बुध की उत्पत्ति, पुरूरवा का जन्म, पुरूरवा और उर्वशीकी कथा,नहुष-पुत्रों के वर्णन प्रसङ्ग में ययाति का वृत्तान्त

सूत उवाच

ततःसंवत्सरस्यान्ते द्वादशादित्यसंनिभः ।
दिव्यपीताम्बरधरो दिव्याभरणभूषितः ।। १

सूतजी कहते हैं-ऋषियो। तदनन्तर एक वर्ष व्यतीत होनेपर ताराके उदरसे एक कुमार प्रकट हुआ। वह बारहों सूर्योके समान तेजस्वी, दिव्य पीताम्बरधारी, दिव्य आभूषणों से विभूषित तथा चन्द्रमाके सदृश कान्तिमान् था। १

तारोदराद् विनिष्क्रान्तः कुमारश्चन्द्रसंनिभः ।
सर्वार्थशास्त्रविद् धीमान् हस्तिशास्त्रप्रवर्तकः ॥ २

नाम यद्राजपुत्रीयं विश्रुतं राजवैद्यकम्।
राज्ञः सोमस्य पुत्रत्वाद् राजपुत्रो बुधः स्मृतः ॥ ३

जातमात्रः स तेजांसि सर्वाण्येवाजयद् बली।
ब्रह्माद्यास्तत्र चाजग्मुर्देवा देवर्षिभिः सह ॥ ४

बृहस्पतिगृहे सर्वे जातकर्मोत्सवे तदा। 
अपृच्छंस्ते सुरास्तारां केन जातः कुमारकः ॥ ५

ततः सा लज्जिता तेषां न किंचिदवदत् तदा।
पुनः पुनस्तदा पृष्टा लज्जयन्ती वराङ्गना ॥ ६ 

सोमस्येति चिरादाह ततोऽगृह्लाद् विधुः सुतम् ।
बुध इत्यकरोन्नाम्ना प्रादाद् राज्यं च भूतले ॥ ७

अभिषेकं ततः कृत्वा प्रधानमकरोद् विभुः ।
ग्रहसाम्यं प्रदायाथ ब्रह्मा ब्रह्मर्षिसंयुतः ॥ ८

पश्यतां सर्वदेवानां तत्रैवान्तरधीयत। 
इलोदरे च धर्मिष्ठं बुधः पुत्रमजीजनत् ॥ ९

अश्वमेधशतं साग्रमकरोद् यः स्वतेजसा।
पुरूरवा इति ख्यातः सर्वलोकनमस्कृतः ॥ १०

हिमवच्छिखरे रम्ये समाराध्य जनार्दनम्। 
लोकैश्वर्यमगाद् राजा सप्तद्वीपपतिस्तदा ॥ ११

केशिप्रभृतयो दैत्याः कोटिशो येन दारिताः ।
उर्वशी यस्य पत्नीत्वमगमद् रूपमोहिता ॥ १२

सप्तद्वीपा वसुमती सशैलवनकानना। 
धर्मेण पालिता तेन सर्वलोकहितैषिणा ॥ १३

चामरग्राहिणी कीर्तिः सदा चैवाङ्गवाहिका। 
विष्णोः प्रसादाद् देवेन्द्रो ददावर्धासनं तदा ॥ १४

वह सम्पूर्ण अर्थशास्त्रका ज्ञाता, उत्कृष्ट बुद्धिसम्पन्न तथा हस्तिशास्त्र (हाथीके गुण-दोष तथा चिकित्सा आदि विवेचनापूर्ण शास्त्र) का प्रवर्तक था। वही शास्त्र 'राजपुत्रीय' (या 'पालकाप्य) नामसे विख्यात है, इसमें गज- चिकित्साका विशद वर्णन है। सोम राजाका पुत्र होनेके कारण वह राजकुमार राजपुत्र तथा बुधके नामसे प्रसिद्ध हुआ। उस बलवान् राजकुमारने जन्म लेते ही सभी तेजस्वी पदार्थीको अभिभूत कर दिया। उसके जातकर्म- संस्कारके उत्सवमें ब्रह्मा आदि सभी देवता देवर्षियोंके साथ बृहस्पतिके घर पधारे। चन्द्रमाने उस पुत्रको ग्रहण कर लिया और उसका नाम 'बुध' रखा। तत्पश्चात् सर्वव्यापी ब्रह्माने ब्रह्मर्षियोंके साथ उसे भूतलके राज्यपर अभिषिक्त कर सर्वप्रधान बना दिया और ग्रहोंकी समता प्रदान की। 

फिर सभी देवताओंके देखते-देखते ब्रह्मा वहीं अन्तर्हित हो गये। बुधने इलाके गर्भसे एक धर्मात्मा पुत्र उत्पन्न किया। वह पुरूरवा नामसे विख्यात हुआ। वह सम्पूर्ण लोगोंद्वारा वन्दित हुआ। उन्होंने अपने प्रभावसे एक सौसे भी अधिक अश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान किया। उस राजा पुरूरवाने हिमवान् पर्वतके रमणीय शिखरपर भगवान् विष्णुकी आराधना करके लोकोंका ऐश्वर्य प्राप्त किया तथा वे सातों द्वीपोंके अधिपति हुए। उन्होंने केशि आदि करोड़ों दैत्योंको विदीर्ण कर दिया। उनके रूपपर मुग्ध होकर उर्वशी उनकी पत्नी बन गयी। सम्पूर्ण लोकोंकी हित-कामनासे युक्त पुरूरवाने पर्वत, वन और काननोंसहित सातों द्वीपोंकी पृथ्वीका धर्मपूर्वक पालन किया। कीर्ति तो (मानो) सदा उनकी चंवर धारण करनेवाली सेविका थी। भगवान् विष्णुकी कृपासे देवराज इन्द्रने उन्हें अपना अर्धासन प्रदान किया था ॥ २-१४

धर्मार्थकामान् धर्मेण सममेवाभ्यपालयत्। 
धर्मार्थकामाः संद्रष्टुमाजग्मुः कौतुकात् पुरा ॥ १५

जिज्ञासवस्तच्चरितं कथं पश्यति नः समम्। 
भक्त्या चक्रे ततस्तेषामर्थ्यपाद्यादिकं नृपः ॥ १६

आसनत्रयमानीय दिव्यं कनकभूषितम्। 
निवेश्याधाकरोत् पूजामीषद् धर्मेऽधिकां पुनः ॥ १७

जग्मतुस्तेन कामार्थावतिकोपं नृपं प्रति। 
अर्थः शापमदात् तस्मै लोभात् त्वं नाशमेष्यसि ॥ १८

कामोऽप्याह तवोन्मादो भविता गन्धमादने। 
कुमारवनमाश्रित्य वियोगादुर्वशीभवात् ॥ १९

धर्मोऽप्याह चिरायुस्त्वं धार्मिकश्च भविष्यसि । 
सन्ततिस्तव राजेन्द्र यावच्चन्द्रार्कतारकम् ॥ २०

शतशो वृद्धिमायातु न नाशं भुवि यास्यति। 
इत्युक्त्वान्तर्दधुः सर्वे राजा राज्यं तदन्वभूत् ॥ २१

पुरूरवा धर्म, अर्थ और कामका समानरूपसे ही पालन करते थे। पूर्वकालमें एक बार धर्म, अर्थ और काम कुतूहलवश यह देखनेके लिये राजाके निकट आये कि यह हमलोगोंको समानरूपसे कैसे देखता है। उनके मनमें राजाके चरित्रको जाननेको अभिलाषा थी। राजाने उन्हें भक्तिपूर्वक अर्घ्य पाद्य आदि प्रदान किया। तत्पश्चात् स्वर्णजटित तीन दिव्य आसन लाकर उनपर उन्हें बैठाया और उनकी पूजा की। इसके बाद उन्होंने पुनः धर्मकी थोड़ी अधिक पूजा कर दी। इस कारण अर्थ और काम राजापर अत्यन्त क्रुद्ध हो उठे। अर्थने राजाको शाप देते हुए कहा-'तुम लोभके कारण नष्ट हो जाओगे।' कामने भी कहा 'राजन् ! गन्धमादन पर्वतपर स्थित कुमारवनमें तुम्हें उर्वशीजन्य वियोगसे उन्माद हो जायगा।' धर्मने कहा- 'राजेन्द्र ! तुम दीर्घायु और धार्मिक होगे। तुम्हारी संतति करोड़ों प्रकार से वृद्धिको प्राप्त होती रहेगी और जबतक सूर्य, चन्द्रमा तथा तारागणकी सत्ता विद्यमान है, तबतक उनका भूतलपर विनाश नहीं होगा।' यों कहकर वे सभी अन्तर्हित हो गये और राजा राज्यका उपभोग करने लगे ॥ १५-२१॥ 

अहन्यहनि देवेन्द्रं द्रष्टुं याति स राजराट्। 
कदाचिदारुह्य रथं दक्षिणाम्बरचारिणम् ॥ २२

सार्धमर्केण सोऽपश्यन्नीयमानामथाम्बरे। 
केशिना दानवेन्द्रेण चित्रलेखामथोर्वशीम् ॥ २३

तं विनिर्जित्य समरे विविधायुधपाणिना । 
बुधपुत्रेण वायव्यमस्त्रं मुक्त्वा यशोऽर्थिना ॥ २४

तथा शक्रोऽपि समरे येन चैवं विनिर्जितः । 
मित्रत्वमगमद् देवैर्ददाविन्द्राय चोर्वशीम् ॥ २५

ततः प्रभृति मित्रत्वमगमत् पाकशासनः । 
सर्वलोकातिशायित्वं बलमूर्जी यशः श्रियम् ॥ २६

प्रादाद् वज्रीति संतुष्टो गेयतां भरतेन च। 
सा पुरूरवसः प्रीत्या गायन्ती चरितं महत् ॥ २७

लक्ष्मीस्वयंवरं नाम भरतेन प्रवर्तितम्। 
मेनकामुर्वशी रम्भां नृत्यतेति तदादिशत् ॥ २८

ननर्त सलयं तत्र लक्ष्मीरूपेण चोर्वशी। 
सा पुरूरवसं दृष्ट्वा नृत्यन्ती कामपीडिता ॥ २९

विस्मृताभिनयं सर्वं यत् पुरा भरतोदितम्। 
शशाप भरतः क्रोधाद् वियोगादस्य भूतले ॥ ३०

पञ्चपञ्चाशदब्दानि लता सूक्ष्मा भविष्यसि । 
पुरूरवाः पिशाचत्वं तत्रैवानुभविष्यति ॥ ३१

राजराजेश्वर पुरूरवा प्रतिदिन देवराज इन्द्रको देखनेके लिये (अमरावतीपुरी) जाया करते थे। एक बार वे सूर्यके साथ रथपर चढ़कर गगनतलके दक्षिण भागमें विचरण कर रहे थे, उसी समय उन्होंने दानवराज कैशिद्वारा चित्रलेखा और उर्वशी नाम्नी अप्सराओंको आकाशमार्गसे ले जायी जाती हुई देखा। तब विविधास्त्रधारी यशोऽभिलाषी बुध- नन्दन पुरूरवाने समरभूमिमें वायव्यास्त्रका प्रयोग करके उस दानवराज केशिको पराजित कर दिया, जिसने संग्राममें इन्द्रको भी परास्त कर दिया था। तत्पश्चात् राजाने उर्वशीकी ले जाकर इन्द्रको समर्पित कर दिया, जिससे उनकी देवोंके साथ प्रगाढ़ मैत्री हो गयी। तभीसे इन्द्र भी राजाके मित्र हो गये। फिर इन्द्रने प्रसन्न होकर राजाको समस्त लोकोंमें श्रेष्ठता, अत्यधिक बल, पराक्रम, वश और सम्पत्ति प्रदान की। 

साथ ही भरत मुनिद्वारा उनके यशका गान भी कराया गया। उर्वशी पुरूरवाके प्रेमसे उनके महान् चरित्रका गान करती रहती थी। एक बार भरत मुनिद्वारा प्रवर्तित 'लक्ष्मीस्वयंवर' नाटकका अभिनय हुआ। उसमें इन्द्रने मेनका, उर्वशी और रम्भा- तीनोंको नाचनेका आदेश दिया। उनमें उर्वशी लक्ष्मीका रूप धारण करके लयपूर्वक नृत्य कर रही थी। (पर) नृत्यकालमें पुरूरवाको देखकर अनुरागसे सुधबुध खो जानेके कारण भरत मुनिने उसे पहले जो कुछ अभिनयका नियम बतलाया था, वह सारा-का-सारा उसे विस्मृत हो गया। तब भरत मुनिने क्रोधके वशीभूत हो उसे शाप देते हुए कहा- 'तुम इसके वियोगसे भूतलपर पचपन वर्षतक सूक्ष्मलताके रूपमें उत्पन्न होकर रहोगी और पुरूरवा वहीं पिशाच-योनिका अनुभव करेगा ॥ २२-३१॥  

ततस्तमुर्वशी गत्वा भर्तारमकरोच्चिरम्। 
शापान्ते भरतस्याथ उर्वशी बुधसूनुतः ॥ ३२

अजीजनत् सुतानष्टौ नामतस्तान् निबोधत।
आयुर्दृढायुरश्वायुर्धनायुधृतिमान् वसुः ॥ ३३

शुचिविद्यः शतायुश्च सर्वे दिव्यबलौजसः । 
आयुषो नहुषः पुत्रो वृद्धशर्मा तथैव च ॥ ३४

रजिर्दम्भो विपाप्मा च वीराः पञ्च महारथाः ।
रजेः पुत्रशतं जज्ञे राजेयमिति विश्रुतम् ॥ ३५

रजिराराधयामास नारायणमकल्मषम्।
तपसा तोषितो विष्णुर्वरान् प्रादान्महीपतेः ॥ ३६

देवासुरमनुष्याणामभूत् स विजयी तदा। 
अथ देवासुरं युद्धमभूद् वर्षशतत्रयम् ।। ३७

प्रह्लादशक्रयोर्भीमं न कश्चिद् विजयी तयोः।
ततो देवासुरैः पृष्टः प्राह देवश्चतुर्मुखः ॥ ३८

अनयोर्विजयी कः स्याद् रजिर्यत्रेति सोऽब्रवीत्।
जयाय प्रार्थितो राजा सहायस्त्वं भवस्व नः ॥ ३९

दैत्यैः प्राह यदि स्वामी वो भवामि ततस्त्वलम्।
नासुरैः प्रतिपन्नं तत् प्रतिपन्नं सुरैस्तथा ।। ४०

स्वामी भव त्वमस्माकं संग्रामे नाशय द्विषः ।
ततो विनाशिताः सर्वे येऽवध्या वज्रपाणिना ।। ४१

पुत्रत्वमगमत् तुष्टस्तस्येन्द्रः कर्मणा विभुः।
दत्त्वेन्द्राय तदा राज्यं जगाम तपसे रजिः ॥ ४२

तत्पश्चात् उर्वशीने पुरूरवाके पास जाकर चिरकालके लिये उनका पतिरूपमें वरण कर लिया। भरत मुनिद्वारा दिये गये शापकी निवृत्तिके पश्चात् उर्वशीने बुधपुत्र पुरूरवाके संयोगसे आठ पुत्रोंको जन्म दिया। उनके नाम थे-आयु, दृढायु, अश्वायु, धनायु, धृतिमान्, वसु, शुचिविद्य और शतायु। ये सभी दिव्य बल पराक्रमसे सम्पन्न थे। इनमें आयुके नहुष, वृद्धशर्मा, रजि, दम्भ और विपाप्मा नामक पाँच महारथी वीर पुत्र उत्पन्न हुए। रजिके सौ पुत्र पैदा हुए, जो राजेय नामसे विख्यात हुए। रजिने पापरहित भगवान् नारायणकी आराधना की। उनकी तपस्यासे प्रसन्न हुए भगवान् विष्णुने राजाको अनेकों वर प्रदान किये, जिससे वे उस समय देवों, असुरों और मनुष्योंके विजेता हो गये। 

तदनन्तर प्रह्लाद और इन्द्रका भयंकर देवासुर संग्राम छिड़ गया, जो तीन सौ वर्षोंतक चलता रहा; परंतु उन दोनोंमें कोई किसीपर विजय नहीं पा रहा था। तब देवताओं और असुरोंने मिलकर देवाधिदेव ब्रह्मासे पूछा- 'ब्रह्मन् । इन दोनोंमें कौन (पक्ष) विजयी होगा?' यह सुनकर ब्रह्माने उत्तर दिया- 'जिस पक्षमें राजा रजि रहेंगे (वही विजयी होगा)।' तब दैत्योंने राजाके पास जाकर अपनी विजयके लिये उनसे प्रार्थना की कि 'आप हमारे सहायक हो जायें।' उनकी प्रार्थना सुनकर रजिने कहा- 'यदि मैं आप लोगोंका स्वामी हो जाऊँ तभी उपयुक्त सहायता हो सकेगी।' परंतु असुरोंने उस प्रस्तावको स्वीकार नहीं किया, किंतु देवताओंने उसे स्वीकार करते हुए कहा- 'राजन्। आप हमलोगोंके स्वामी हो जायें और संग्राममें शत्रुओंका संहार करें।' तदनन्तर राजा रजिने उन सभी असुरोंको मौतके घाट उतार दिया, जो इन्द्रद्वारा अवध्य थे। इस कर्मसे प्रसन्न होकर देवराज इन्द्र राजाके पुत्र बन गये। तब राजा रजि इन्द्रको राज्य समर्पित कर स्वयं तपस्या करनेके लिये चले गये ॥ ३२-४२ ॥ 

रजिपुत्रैस्तदाच्छिन्नं बलादिन्द्रस्य वैभवम्।
यज्ञभागं च राज्यं च तपोबलगुणान्वितैः ॥ ४३

राज्यद् भ्रष्टस्तदा शक्नो रजिपुत्रैर्निपीडितः । 
प्राह वाचस्पतिं दीनः पीडितोऽस्मि रजेः सुतैः ।। ४४

न यज्ञभागो राज्यं मे निर्जितश्च बृहस्पते। 
राज्यलाभाय मे यत्नं विधत्स्व धिषणाधिप ।। ४५

ततो बृहस्पतिः शक्रमकरोद् बलदर्पितम्। 
ग्रहशान्तिविधानेन पौष्टिकेन च कर्मणा ॥ ४६

गत्वाथ मोहयामास रजिपुत्रान् बृहस्पतिः । 
जिनधर्मे समास्थाय वेदबाहां स वेदवित् ॥ ४७

वेदत्रयीपरिभ्रष्टांश्चकार धिषणाधिपः । 
वेदबाह्वगन् परिज्ञाय हेतुवादसमन्वितान् ॥ ४८

जघान शक्रो वज्रेण सर्वान् धर्मबहिष्कृतान्। 
नहुषस्य प्रवक्ष्यामि पुत्रान् सप्तैव धार्मिकान् ॥ ४९

यतिर्ययातिः संयातिरुद्भवः पचिरेव च।
शर्यातिर्मेघजातिश्च सप्तैते वंशवर्धनाः ॥ ५०

तत्पश्चात् तपस्या, बल और गुणोंसे सम्पन्न रजिपुत्रोंने इन्द्रके वैभव, यज्ञभाग और राज्यको बलपूर्वक छीन लिया। इस प्रकार रजि-पुत्रोंद्वारा सताये गये एवं राज्यसे भ्रष्ट हुए दीन-दुःखी इन्द्र बृहस्पतिके पास जाकर बोले- 'गुरुदेव । मैं रजिके पुत्रोंद्वारा सताया जा रहा हूँ, मुझे अब यज्ञमें भाग नहीं मिलता तथा मेरा राज्य जीत लिया गया, अतः धिषणाधिप। (बृहस्पते) पुनः मेरी राज्य प्राप्तिके लिये किसी उपायका विधान कीजिये।' तब बृहस्पतिने ग्रह- शान्तिके विधानसे तथा पौष्टिक कर्मद्वारा इन्द्रको बलसम्पन बना दिया और रजि-पुत्रोंके पास जाकर उन्हें मोहमें डाल दिया। उन वेदज्ञ बृहस्पतिने वेदोंद्वारा बहिष्कृत जिनधर्मका आश्रय लेकर उन्हें वेदत्रयी (ऋवेद, यजुर्वेद, सामवेद) से परिभ्रष्ट कर दिया। तदुपरान्त इन्द्रने उन्हें हेतुवाद (तर्कवाद- नास्तिक्य) से समन्वित और वेदबाह्य जानकर अपने वज्रसे उन सभी धर्मबहिष्कृत रजि-पुत्रोंका संहार कर डाला। अब मैं नहुषके सात धार्मिक पुत्रोंका वर्णन कर रहा हूँ। उनके नाम हैं-यति, ययाति, संयाति, उद्भव, पाचि, शर्याति और मेघजाति। ये सातों वंश-विस्तारक थे ॥ ४३-५० ॥

अहं जरां तवादाय राज्ये स्थास्यामि चाज्ञया।
एवमुक्तः स राजर्षिस्तपोवीर्यसमाश्रयात् ॥ ६६

संस्थापयामास जरां तदा पुत्रे महात्मनि। 
पौरवेणाथ वयसा राजा यौवनमास्थितः ॥ ६७

ययातेश्चाथ वयसा राज्यं पूरुरकारयत् । 
ततो वर्षसहस्त्रान्ते ययातिरपराजितः ॥ ६८

अतृप्त इव कामानां पूरुं पुत्रमुवाच ह। 
त्वया दायादवानस्मि त्वं मे वंशकरः सुतः ॥ ६९

पौरवो वंश इत्येष ख्यातिं लोके गमिष्यति । 
ततः स नृपशार्दूलः पूरु राज्येऽभिषिच्य च ॥ ७०

कालेन महता पश्चात् कालधर्ममुपेयिवान्।
पूरुवंशं प्रवक्ष्यामि श्रृणुध्वमृषिसत्तमाः । 
यत्र ते भारता जाता भरतान्वयवर्धनाः ।। ७१

मैं आपकी वृद्धावस्था स्वीकार करके आपके आज्ञानुसार राजकार्य सँभालूँगा।' पूरुके यों कहनेपर राजर्षि ययातिने अपने तपोबलका आश्रय लेकर उस महात्मा पुत्र पूरुके शरीरमें अपने बुढ़ापेको स्थापित किया और वे स्वयं पूरुकी युवावस्थाको लेकर तरुण हो गये। तदनन्तर ययातिकी वृद्धावस्थासे युक्त हुए पूरु राजकाजका संचालन करने लगे। इस प्रकार एक सहस्र वर्ष व्यतीत होनेपर भी अजेय ययाति कामोपभोगसे अतृप्त से ही बने रहे। तब उन्होंने अपने पुत्र पूरुसे कहा- 'बेटा! अकेले तुम्हींसेमैं पुत्रवान् हूँ और तुम्हीं मेरे वंशविस्तारक पुत्र हो। आजसे यह वंश पुरुवंशके नामसे लोकमें विख्यात होगा।' तदनन्तर राजसिंह ययाति पूरुको राज्यपर अभिषिक्त करके स्वयं उससे उपराम हो गये और बहुत समय बीतनेके पश्चात् कालधर्म-मृत्युको प्राप्त हो गये। श्रेष्ठ ऋषियो! अब मैं जिस वंशमें भरत-वंशकी वृद्धि करनेवाले भारत नामसे प्रसिद्ध नरेश हो चुके हैं, उस पूरुवंशका वर्णन करने जा रहा हूँ, आपलोग समाहितचित्त होकर श्रवण कीजिये ॥ ६०-७१ ॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे सोमवंशे ययातिचरिते चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥ 

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके सोमवंश-वर्णन प्रसङ्गमें ययाति चरित-वर्णन नामक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २४ ॥

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