सूर्यवंश और चंद्रवंश का वर्णन तथा इलाका वृत्तान्त | sooryavansh aur chandravansh ka varnan tatha ilaaka vrttaant

मत्स्य पुराण ग्यारहवाँ अध्याय

सूर्य वंश और चन्द्र वंश का वर्णन तथा इलाका वृत्तान्त

ऋषय ऊचुः

आदित्यवंशमखिलं वद सूत यथाक्रमम् । 
सोमवंशं च तत्त्वज्ञ यथावद् वक्तुमर्हसि ॥ १

ऋषियोंने पूछा- तत्त्वज्ञ सूतजी! अब आप हम लोगोंसे सम्पूर्ण सूर्यवंश तथा चन्द्रवंशका क्रमशः यथार्थ- रूपसे वर्णन कीजिये ॥ १॥

सूत उवाच

विवस्वान् कश्यपात् पूर्वमदित्यामभवत् सुतः । 
तस्य पत्नीत्रयं तद्वत् संज्ञा राज्ञी प्रभा तथा ॥ २

रेवतस्य सुता राज्ञी रैवतं सुषुवे सुतम्। 
प्रभा प्रभातं सुषुवे त्वाष्टी संज्ञा तथा मनुम् ॥ ३

यमश्च यमुना चैव यमलौ तु बभूवतुः । 
ततस्तेजोमयं रूपमसहन्ती विवस्वतः ॥ ४

नारीमुत्पादयामास स्वशरीरादनिन्दिताम् । 
त्वाष्ट्री स्वरूपरूपेण नाम्ना छायेति भामिनी ॥ ५

पुरतः संस्थितां दृष्ट्वा संज्ञा तां प्रत्यभाषत। 
छाये त्वं भज भर्तारमस्मदीयं वरानने ।। ६

अपत्यानि मदीयानि मातृस्त्रेहेन पालय।
तथेत्युक्त्वा च सा देवमगात् कामाय सुव्रता ॥ ७

कामयामास देवोऽपि संज्ञेयमिति चादरात्।
जनयामास तस्यां तु पुत्रं च मनुरूपिणम् ॥ ८

सवर्णत्वाच्च सावर्णिर्मनोवैवस्वतस्य च।
ततः शनिं च तपतीं विष्टिं चैव क्रमेण तु ॥ ९

छायार्या जनयामास संज्ञेयमिति भास्करः ।
छाया स्वपुत्रेऽभ्यधिकं स्नेहं चक्रे मनौ तथा ॥ १०

पूर्वी मनुस्तु चक्षाम न यमः क्रोधमूर्छितः ।
संतर्जयामास तदा पादमुद्यम्य दक्षिणम् ॥ ११

शशाप च यमं छाया भक्षितः कृमिसंयुतः ।
पादोऽयमेको भविता पूयशोणितविस्त्रवः ॥ १२

निवेदयामास पितुर्यमः शापादमर्षितः । 
निष्कारणमहं शप्तो मात्रा देव सकोपया ॥ १३

बालभावान्मया किंचिदुद्यतश्चरणः सकृत्।
मनुना वार्यमाणापि मम शापमदाद् विभो ॥ १४

प्रायो न माता सास्माकं शापेनाहं यतो हतः ।
देवोऽप्याह यमं भूयः किं करोमि महामते ॥ १५

मौख्र्यात् कस्य न दुःखं स्याद्धवा कर्मसंततिः ।
अनिवार्या भवस्यापि का कथान्येषु जन्तुषु ॥ १६

कूकवाकुर्मया दत्तो यः कृमीन् भक्षयिष्यति ।
क्लेदं च रुधिरं चैव वत्सायमपनेष्यति ।। १७

सूतजी कहते हैं-ऋषियो! पूर्वकालमें महर्षि कश्यपसे अदितिको विवस्वान् (सूर्य) पुत्ररूपमें उत्पन्न हुए थे। उनकी संज्ञा, राज्ञी तथा प्रभा नामकी तीन पत्नियाँ थीं। इनमें रेवतकी कन्या राज्ञीने रैवत नामक पुत्रको तथा प्रभाने प्रभात नामक पुत्रको उत्पन्न किया। संज्ञा त्वाष्ट्र (विश्वकर्मा) की पुत्री थी। उसने वैवस्वत मनु और यम नामक दो पुत्र एवं यमुना नामकी एक कन्याको उत्पन्न किया। इनमें यम और यमुना जुड़वे पैदा हुए थे।" कुछ समयके पश्चात् जब सुन्दरी त्वाष्ट्रटी (संज्ञा) विवस्वान्‌के तेजोमय रूपको सहन न कर सकी, तब उसने अपने शरीरसे अपने ही रूपके समान एक अनिन्द्यसुन्दरी नारीको उत्पन्न किया। वह 'छाया' नामसे प्रसिद्ध हुई। उस छायाको संतानोंका माताके समान सेहसे पालन-पोषण करना।' अपने सामने खड़ी देखकर संज्ञाने उससे कहा- 'वरानने छाये! तुम हमारे पतिदेवकी सेवा करना, साथ ही मेरी तब 'बहुत अच्छा, ऐसा ही होगा' कहकर वह सुव्रता पतिकी सेवाभावनासे विवस्वान्‌देवके निकट गयी। इधर विवस्वान्‌देव भी 'यह संज्ञा ही है' ऐसा समझकर छायाके साथ आदरपूर्वक पूर्ववत् व्यवहार करते रहे। यथासमय उन्होंने उसके गर्भसे मनुके समान रूपवाले एक पुत्रको उत्पन्न किया। 

ये वैवस्वत मनुके सवर्ण (रूप-रंगवाला) होनेके कारण 'सावर्णि' नामसे प्रसिद्ध हुए। तदुपरान्त सूर्यने 'यह संज्ञा ही है' ऐसा मानकर छायाके गर्भसे क्रमशः एक शनि नामका पुत्र और तपती एवं विष्टि नामकी दो कन्याओंको भी उत्पन्न किया। छाया अपने पुत्र मनुके प्रति अन्य संतानोंसे अधिक स्नेह रखती थी। उसके इस व्यवहारको संज्ञा-नन्दन मनु तो सहन कर लेते थे, परंतु यम (एक दिन सहन न होनेके कारण) क्क्रुद्ध हो उठे और अपने दाहिने पैरको उठाकर छायाको मारनेकी धमकी देने लगे। तब छायाने यमको शाप देते हुए कहा- 'तुम्हारे इस एक पैरको कीड़े काट खायेंगे और इससे पीब एवं रुधिर टपकता रहेगा।' इस शापको सुनकर अमर्षसे भरे हुए यम पिताके पास जाकर निवेदन करते हुए बोले- 'देव ! कुद्ध हुई माताने मुझे अकारण ही शाप दे दिया है। विभो। बालचापल्यके कारण मैंने एक बार अपना दाहिना पैर कुछ ऊपर उठा दिया था, (इस तुच्छ अपराधपर) भाई मनुके मना करनेपर भी उसने मुझे ऐसा शाप दे दिया है। चूँकि इसने हमपर शापद्वारा प्रहार किया है, इसलिये यह हम लोगोंकी माता नहीं प्रतीत होती (अपितु बनावटी माता है)।' यह सुनकर विवस्वान्देवने पुनः यमसे कहा- 'महाबुद्धे! मैं क्या करूँ? अपनी मूर्खताके कारण किसको दुःख नहीं भोगना पड़ता। अथवा (जन्मान्तरीय शुभाशुभ) कर्मपस्म्पराका फलभोग अनिवार्य है। यह नियम तो शिवजीपर भी लागू है, फिर अन्य प्राणियोंके लिये तो कहना ही क्या है। इसलिये बेटा। मैं तुम्हें यह एक मुर्गा (या मोर) दे रहा हैं, जो पैरमें पड़े हुए कीड़ोंको खा जायगा और उससे निकलते हुए मज्जा (पीब) एवं खूनको भी दूर कर देगा ॥२-१७॥

एवमुक्तस्तपस्तेपे यमस्तीनं महायशाः ।
गोकर्णतीर्थे वैराग्यात् फलपत्रानिलाशनः ॥ १८

आराधयन् महादेवं यावद् वर्षायुतायुतम्।
वरं प्रादान्महादेवः संतुष्टः शूलभूत् तदा ॥ १९

वब्रे स लोकपालत्वं पितृलोके नृपालयम् ।
धर्माधर्मात्मकस्यापि जगतस्तु परीक्षणम् ॥ २०

एवं स लोकपालत्वमगमच्छूलपाणिनः ।
पितॄणां चाधिपत्यं च धर्माधर्मस्य चानघ ॥ २१

विवस्वानथ तज्ज्ञात्वा संज्ञायाः कर्मचेष्टितम् ।
त्वष्टः समीपमगमदाचचक्षे च रोषवान् ॥ २२

तमुवाच ततस्त्वष्टा सांत्वपूर्व द्विजोत्तमाः ।
तवासहन्ती भगवन् महस्तीनं तमोनुदम् ॥ २३

वडवारूपमास्थाय मत्सकाशमिहागता ।
निवारिता मया सा तु त्वया चैव दिवाकर ॥ २४

यस्माद‌विज्ञाततया मत्सकाशमिहागता ।
तस्मान्मदीयं भवनं प्रवेष्टुं न त्वमर्हसि ॥ २५

एवमुक्ता जगामाथ मरुदेशमनिन्दिता ।
वडवारूपमास्थाय भूतले सम्प्रतिष्ठिता ।। २६

तस्मात् प्रसादं कुरु मे वद्यनुग्रहभागहम्। 
अपनेष्यामि ते तेजो यन्त्रे कृत्वा दिवाकर ॥ २७

रूपं तव करिष्यामि लोकानन्दकरं प्रभो। 
तथेत्युक्तः स रविणा भ्रमौ कृत्वा दिवाकरम् ॥ २८

पृथक् चकार तत्तेजश्चक्रं विष्णोरकल्पयत्। 
त्रिशूलं चापि रुद्रस्य वज्रमिन्द्रस्य चाधिकम् ॥ २९

दैत्यदानवसंहर्तुः सहस्त्रकिरणात्मकम् । 
रूपं चाप्रतिमं चक्रे त्वष्टा पद्ध‌यामृते महत् ॥ ३०

न शशाकाथ तद् द्रष्टुं पादरूपं रवेः पुनः। 
अर्चास्वपि ततः पादौ न कश्चित् कारयेत् क्वचित् ।। ३१

यः करोति स पापिष्ठां गतिमाप्नोति निन्दिताम् । 
कुष्ठरोगमवाप्नोति लोकेऽस्मिन् दुःखसंयुतः ॥ ३२

तस्माच्च धर्मकामार्थी चित्रेष्वायतनेषु च। 
न क्वचित् कारयेत् पादौ देवदेवस्य धीमतः ॥ ३३

पिताद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर महायशस्वी यमके मनमें विराग उत्पन हो गया। वे गोकर्णतीर्थमें जाकर फल, पत्ता और वायुका आहार करते हुए कठोर तपस्यामें संलग्न हो गये। इस प्रकार वे बीस हजार वर्षीतक महादेवजीकी आराधना करते रहे। कुछ समयके पश्चात् त्रिशूलधारी महादेव उनकी तपस्यासे सन्तुष्ट होकर प्रकट हुए। तब यमने उनसे वररूपमें लोकपालत्व, पितरोंका आधिपत्य और जगत्‌के धर्म-अधर्मका निर्णायक पद प्राप्त करनेकी इच्छा व्यक्त की। महादेवजीने उन्हें सभी वरदान दे दिये। निष्पाप शौनक ! इस प्रकार यमको शूलपाणि भगवान् शंकरसे लोकपालत्व, पितरोंका आधिपत्य और धर्माधर्मके निर्णायक पदकी प्राप्ति हुई है। इधर विवस्वान् संज्ञाकी उस कर्मचेष्टाको जानकर त्वष्टा (विश्वकर्मा)- के निकट गये और क्क्रुद्ध होकर उनसे सारा वृत्तान्त कह सुनाये। द्विजवरो। तब त्वष्टाने सान्त्वनापूर्वक विवस्वान्से कहा- 'भगवन्! अन्धकारका विनाश करनेवाले आपके प्रचण्ड तेजको न सहन करनेके कारण संज्ञा घोड़ीका रूप धारण करके यहाँ मेरे समीप अवश्य आयी थी, परंतु दिवाकर। 

मैंने उसे यह कहते हुए (घरमें घुसनेसे) मना कर दिया- 'चूँकि तू अपने पतिदेवकी जानकारीके बिना छिपकर यहाँ मेरे पास आयी है, इसलिये मेरे भवनमें प्रवेश नहीं कर सकती।' इस प्रकार मेरे निषेध करनेपर आपके और मेरे दोनों स्थानोंसे निराश होकर वह अनिन्दिता संज्ञा मरुदेशको चली गयी और वहाँ उसी घोड़ी-रूपसे ही भूतलपर स्थित है। इसलिये 'दिवाकर। यदि मैं आपका अनुग्रह-भाजन हूँ तो आप मुझपर प्रसन्न हो जाइये (और मेरी एक प्रार्थना स्वीकार कीजिये)। प्रभो। मैं आपके इस असह्य तेजको (खरादनेवाले) यन्त्रपर चढ़ाकर कुछ कम कर दूँगा। इस प्रकार आपके रूपको लोगोंके लिये आनन्ददायक बना दूँगा।' सूर्यद्वारा उनको प्रार्थना स्वीकार कर लिये जानेपर त्वष्टाने सूर्यको अपने (खराद) यन्त्रपर बैठाकर उनके कुछ तेजको छाँटकर अलग कर दिया। उस छोटे हुए तेजसे उन्होंने विष्णुके सुदर्शनचक्रका, भगवान् रुद्रके त्रिशूलका और दैत्यों एवं दानवोंका संहार करनेवाले इन्द्रके वज्रका निर्माण किया। इस प्रकार त्वष्टाने पैरोंके अतिरिक्त सूर्यके सहस्र किरणोंवाले रूपको अनुपम सौन्दर्यशाली बना दिया। उस समय वे सूर्यके पैरोंके तेजको देखनेमें समर्थ न हो सके (इसलिये वह तेज ज्यों-का- त्यों बना ही रह गया)। अतः अर्चा-विग्रहोंमें भी कोई सूर्यके चरणोंका निर्माण नहीं (करता) कराता। यदि कोई वैसा करता है तो उसे (मरनेपर) अत्यन्त निन्दित पापिष्ठ गति प्राप्त होती है तथा इस लोकमें वह दुःख भोगता हुआ कुष्ठरोगी हो जाता है। इसलिये धर्मात्मा मनुष्यको चित्रों एवं मन्दिरोंमें कहीं भी बुद्धिमान् देवदेवेश्वर सूर्यके पैरोंको नहीं (बनाना) बनवाना चाहिये ॥ १८-३३॥

ततः स भगवान् गत्वा भूलॉकममराधिपः । 
कामयामास कामार्तो मुख एव दिवाकरः ॥ ३४

अश्वरूपेण महता तेजसा च समावृतः । 
संज्ञा च मनसा क्षोभमगमद् भयविह्वला ॥ ३५

नासापुटाभ्यामुत्सृष्टं परोऽयमिति शङ्कया। 
तद्रेतसस्ततो जातावश्विनाविति निश्चितम् ॥ ३६

दस्त्रौ सुतत्वात् संजातौ नासत्यौ नासिकाग्रतः ।
ज्ञात्वा चिराच्च तं देवं संतोषमगमत् परम्। 
विमानेनागमत् स्वर्गं पत्या सह मुदान्विता ॥ ३७

सावर्णोऽपि मनुर्मेरावद्याप्यास्ते तपोधनः । 
शनिस्तपोबलादाप ग्रहसाम्यं ततः पुनः ।॥ ३८

यमुना तपती चैव पुनर्नधौ बभूवतुः। 
विष्टिर्घोरात्मिका तद्वत् कालत्वेन व्यवस्थिता ।। ३९

मनोवैवस्वतस्यासन् दश पुत्रा महाबलाः। 
इलस्तु प्रथमस्तेषां पुत्रेष्ट्यां समजायत ।। ४०

इक्ष्वाकुः कुशनाभश्च अरिष्टो धृष्ट एव च। 
नरिष्यन्तः करूषश्च शर्यातिश्च महाबलः । 
पृषधश्चाथ नाभागः सर्वे ते दिव्यमानुषाः ॥ ४१

अभिषिच्य मनुः पुत्रमिलं ज्येष्ठं स धार्मिकः । 
जगाम तपसे भूयः स महेन्द्रवनालयम् ॥ ४२

अथ दिग्जयसिद्धार्थमिलः प्रायान्महीमिमाम् । 
भ्रमन् द्वीपानि सर्वाणि क्ष्माभृतः सम्प्रधर्षयन् ॥ ४३

जगामोपवनं शम्भोरश्वाकृष्टः प्रतापवान् । 
कल्पद्रुमलताकीर्ण नाम्ना शरवणं महत् ॥ ४४

रमते यत्र देवेशः शम्भुः सोमार्थशेखरः । 
उमया समयस्तत्र पुरा शरवणे कृतः ॥ ४५

पुन्नाम सत्त्वं यत्किञ्चिदागमिष्यति ते वने।
स्त्रीत्वमेष्यति तत् सर्वं दशयोजनमण्डले ।। ४६

अज्ञातसमयो राजा इलः शरवणे पुरा।
स्त्रीत्वमाप विशन्नेव वडवात्वं हयस्तदा ॥ ४७

त्वष्टाद्वारा संज्ञाका पता बतला दिये जानेपर वे देवेश्वर भगवान् सूर्य भूलोकमें जा पहुँचे। वहाँ उनके द्वारा संज्ञासे अश्विनीकुमारोंकी उत्पत्ति हुई- यह एकदम तथ्य बात है। संज्ञाकी नासिकाके अग्रभागसे उत्पन होनेके कारण वे दोनों नासत्य और दन नामसे भी विख्यात हुए। कुछ दिनोंके पश्चात् अश्वरूपधारी सूर्यदेवको पहचानकर त्वाष्ट्री (संज्ञा) परम सन्तुष्ट हुई और हर्षपूर्ण चित्तसे पतिके साथ विमानपर बैठकर स्वर्गलोक (आकाश) को चली गयी। (छायाकी संतानोंमें) तपोधन सावर्णि मनु आज भी सुमेरुगिरिपर विराजमान हैं। शनिने अपनी तपस्याके प्रभावसे ग्रहोंकी समता प्राप्त की। बहुत दिनोंके बाद यमुना और तपती- ये दोनों कन्याएँ नदीरूपमें परिणत हो गयीं। उसी प्रकार भयंकर रूपवाली तीसरी कन्या विष्टि (भद्रा) काल (करण) रूपमें अवस्थित हुई। वैवस्वत मनुके दस महाबली पुत्र उत्पन्न हुए थे। उनमें इल ज्येष्ठ थे, जो पुत्रेष्टि यज्ञके फलस्वरूप पैदा हुए थे। शेष नौ पुत्रोंके नाम हैं - इक्ष्वाकु, कुशनाभ, अरिष्ट, धृष्ट नरिष्यन्त, करूष, शर्याति, पृषन और नाभाग। ये सब के-सब महान् बल-पराक्रमसे सम्पन्न एवं दिव्य पुरुष थे। वृद्धावस्था आनेपर परम धर्मात्मा महाराज मनु अपने ज्येष्ठ पुत्र इलको राज्यपर अभिषिक्त करके स्वयं तपस्या करनेके लिये महेन्द्रपर्वतके वनमें चले गये। तदनन्तर नये भूपाल इल दिग्विजय करनेकी इच्छासे इस पृथ्वीपर विचरण करने लगे। वे भूपालोंको पराजित करते हुए सभी द्वीपोंमें घूम रहे थे। इसी बीच प्रतापी इल घोड़ा दौड़ाते हुए शिवजीके उपवनके निकट जा पहुँचे। यह महान् उपवन कल्पद्रुम और लताओंसे भरा हुआ 'शरवण' नामसे प्रसिद्ध था। उस उपवनमें चन्द्रार्थको ललाटमें धारण करनेवाले देवेश्वर शम्भु उमाके साथ कीडा करते हैं। उन्होंने इस शरवणके विषयमें पहले ही उमाके साथ यह समय (शर्त) निर्धारित कर दिया था कि 'तुम्हारे इस दस योजन विस्तारवाले वनमें जो कोई भी पुरुषवाचक जीव प्रवेश करेगा, वह स्त्रीत्वको प्राप्त हो जायगा।' राजा इलको पहलेसे इस 'समय' (शर्त) के विषयमें जानकारी नहीं थी, अतः वे स्वच्छन्दगतिसे शरवणमें प्रविष्ट हुए। प्रवेश करते ही वे स्त्रीत्वको प्राप्त हो गये। उसी समय वह घोड़ा भी घोड़ीके रूपमें परिवर्तित हो गया। इलके शरीरसे सारा पुरुषत्व नष्ट हो गया। इस प्रकार स्त्री-रूप हो जानेपर राजाको परम विस्मय हुआ ॥३४-४७॥

पुरुषत्वं हृतं सर्व स्त्रीरूपे विस्मितो नृपः।
इलेति साभवन्नारी पीनोन्नतघनस्तनी ।। ४८

उन्नतश्रोणिजधना पद्मपत्रायतेक्षणा। 
पूर्णेन्दुवदना तन्वी विलासोल्लासितेक्षणा ॥ ४९

मूलोन्नतायतभुजा नीलकुञ्चितमूर्धजा। 
तनुलोमा सुदशना मृदुगम्भीरभाषिणी ॥ ५०

श्यामगरिण वर्णेन  हंसवारणगामिनी। 
कार्मुकश्रूयुगोपेता तनुताम्ननखाङ्कुरा ॥ ५१

भ्रमन्ती च वने तस्मिंश्चिन्तयामास भामिनी। 
को मे पिताथवा भ्राता का मे माता भवेदिह ॥ ५२

कस्य भर्तुरहं दत्ता कियद् वत्स्यामि भूतले। 
चिन्तयन्तीति ददृशे सोमपुत्रेण साङ्गना ॥ ५३

इलारूपसमाक्षिप्तमनसा वरवर्णिनीम्। 
बुधस्तदाप्तये यत्नमकरोत् कामपीडितः ॥ ५४

विशिष्टाकारवान् दण्डी सकमण्डलुपुस्तकः । 
वेणुदण्डकृतावेशः पवित्रकखनित्रकः ॥ ५५

द्विजरूपः शिखी ब्रह्म निगदन् कर्णकुण्डलः ।
वदुभिश्चान्वितो युक्तैः समित्पुष्पकुशोदकैः ॥ ५६

किलान्विषन् वने तस्मिन्नाजुहाव स तामिलाम् । 
बहिर्वनस्यान्तरितः किल पादपमण्डले ॥ ५७

ससम्भ्रममकस्मात् तां सोपालम्भमिवावदत् । 
त्यक्त्वाग्निहोत्रशुश्रूषां क्व गता मन्दिरान्मम ॥ ५८

इयं विहारवेला ते हातिक्रामति साम्प्रतम् । 
एहोहि पृथुसुश्रूणि सम्भ्रान्ता केन हेतुना ॥ ५९

इयं सायंतनी वेला विहारस्येह वर्तते । 
कृत्वोपलेपनं पुष्पैरलङ्कुरु गृहं मम ॥ ६०

सा त्वब्रवीद् विस्मृताहं सर्वमेतत् तपोधन। 
आत्मानं त्वां च भर्तारं कुलं च वद मेऽनघ ॥ ६१

बुधः प्रोवाच तां तन्वीमिला त्वं वरवर्णिनि । 
अहं च कामुको नाम बहुविद्यो बुधः स्मृतः ॥ ६२

तेजस्विनः कुले जातः पिता मे ब्राह्मणाधिपः । 
इति सा तस्य वचनात् प्रविष्टा बुधमन्दिरम् ॥ ६३

रत्रस्तम्भसमायुक्तं दिव्यमायाविनिर्मितम् । 
इला कृतार्थमात्मानं मेने तद्भवनस्थिता ॥ ६४

अहो वृत्तमहो रूपमहो धनमहो कुलम् । 
मम चास्य च मे भर्तुरहो लावण्यमुत्तमम् ॥ ६५

रेमे च सा तेन सममतिकालमिला ततः ।
सर्वभोगमये गेहे यथेन्द्रभवने तथा ॥ ६६

वह नारी इला नामसे प्रख्यात हुई। उसका रूप बड़ा सुन्दर था। उसके नेत्र कमलदलके समान बड़े- बड़े थे। उसके मुखकी कान्ति पूर्णिमाके चन्द्रमाके सदृश थी। उसका शरीर हलका था। उसके नेत्र चकित- से दीख रहे थे। उसके बाहुमूल उन्नत और भुजाएँ लम्बी थर्थी तथा बाल नीले एवं घुँघराले थे। उसके शरीरके रोएँ सूक्ष्म और दाँत अत्यन्त मनोहर थे। वह मृदु और गम्भीर स्वरसे बोलनेवाली थी। उसके शरीरका रंग श्याम-गौरमिश्रित था। वह हंस और हस्तीकी-सी चालसे चल रही थी। उसकी दोनों भौंहें धनुषके आकारके सदृश थीं। वह छोटे एवं ताँबेके समान लाल नखाङ्कुरोंसे विभूषित थी। इस प्रकार वह सुन्दरी 'नारी' उस वनमें भ्रमण करती हुई सोचने लगी कि 'इस घोर वनमें कौन मेरा पिता अथवा भाई है तथा कौन मेरो माता है। मैं किस पतिके हाथमें समर्पित की गयी हूँ अर्थात् कौन मेरा पति है। इस भूतलपर मुझे कितने दिनोंतक रहना पड़ेगा।' इस प्रकार वह चिन्तन कर ही रही थी कि इसी बीच सोम-पुत्र बुधने उसे देख लिया और वे उसे प्राप्त करनेके लिये प्रयत्न करने लगे।

उस समय बुधने एक विशिष्ट वेष-भूषावाले दण्डीका रूप धारण कर लिया। उनके हाथोंमें कमण्डलु और पुस्तक शोभा पा रहे थे। उन्होंने बाँसके डंडेमें अनेकों पवित्र वस्तुओंको बाँध रखा था। वे ब्रह्मचारी-वेषमें लम्बी-मोटी शिखा धारण किये हुए थे। समिधा, पुष्प, कुश और जल लिये हुए वटुकोंके साथ वे वेदका पाठ कर रहे थे। वे अपनेको ऐसा प्रकट कर रहे थे मानो उस वनमें किसी वस्तुकी खोज कर रहे हों। इस प्रकार उस वनके बहिर्भागमें वृक्षसमूहोंके झुरमुटमें बैठकर वे उस इलाको बुलाने लगे। इलाके निकट आनेपर वे अकस्मात् चकपकाये हुएकी भाँति उलाहना देते हुए उससे बोले- 'सुन्दरि । अग्निहोत्र आदि सेवा-शुश्रूषाका परित्याग करके तुम मेरे घरसे कहाँ चली आयी हो ?' यह सुनकर इलाने कहा- 'तपोधन! मैं अपनेको, आपको, पतिको और कुलको इन सभीको भूल गयी हूँ, अतः हुआ हूँ और मेरे पिता ब्राह्मणोंके अधिपति हैं।' बुधके निष्पाप! आप अपने और मेरे कुलका परिचय दीजिये।' इलाके इस प्रकार पूछनेपर बुधने उस सुन्दरीसे कहा- 'वरवर्णिनि। तुम इला हो और मैं बहुत-सी विद्याओंका ज्ञाता बुध नामसे प्रसिद्ध हूँ। मैं तेजस्वी कुलमें उत्पन्न इस कथनपर विश्वास करके इला बुधके उस भवनमें प्रविष्ट हुई, जिसमें रत्नोंके खम्भे लगे थे तथा जिसका निर्माण दिव्य मायाके द्वारा हुआ था। उस भवनमें पहुँचकर इला अपनेको कृतार्थ मानने लगी। (वह कहने लगी) 'कैसा सुन्दर चरित्र है। कैसा अद्भुत रूप है। कितना प्रचुर धन है! कैसा ऊँचा कुल है तथा मेरा और मेरे पतिदेवका कैसा अनुपम सौन्दर्य है।' तदनन्तर वह इला बुधके साथ बहुत समयतक उस सम्पूर्ण भोग- सामग्रियोंसे सम्पन्न घरमें उसी प्रकार सुखसे रहने लगी, जैसे इन्द्रभवनमें हो ॥ ४८-६६ ॥

इति श्रीमाल्ये महापुराणे इलाबुधसङ्गमो नामैकादशोऽध्यायः ॥ १९ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें इला बुध-सम्बन्ध नामक ग्यारहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ११ ॥

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