श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \दशवाँ अध्याय हिंदी से संस्कृत में
सुशान्ताउवाच
जय हरे ऽमरअधीश-सेवितं तव पदाम्बुजं भूरि-भूषणम्॥
कुरु मम् आग्रतः साधु-सत्-कृतं त्यज महामते! मोहम् आत्मनः॥१
सुशान्ता बोली- 'हे हरे जय हो ! हे महामते! मेरे माया- मोह से ढके हुए आवरण को हटाकर अमर देवगण सेवित, सुन्दर आभूषणों से सजे, सज्जनों द्वारा पूजित, अपने कमल जैसे चरणों को हमारे सामने रखो। आपका शरीर तो दुनिया भर की उत्तम सामग्री से बना है, सज्जनों के हृदयों में स्थित है और स्वयं कामदेव तक को मोहित करने वाला है। आप इस समय हमारी मनोकामना को पूरा करें। आपका यश दुनिया के शोक का नाश करने वाला है। आपके मुस्कान-सुधा सम्पन्न चाँद-जैसे मुँह से अमृत से भरी मीठी बोली निकलकर सबको प्रसन्न करती है। हे परमात्मन् ! आपका चन्द्रमा जैसा सुंदर मुख संसार का कल्याण करे। मेरे पति को कोई भी कभी भी हरा नहीं पाया। यदि मेरे पतिदेव ने किसी भी काम से आपको अप्रसन्न किया हो तो आप उस शत्रुभाव को छोड़कर कृपा कीजिए। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो भला, दुनिया के लोग आपको कृपा-सागर परमेश्वर क्यों कहेंगे ? आपकी भार्या प्रकृति है, जो महत्तत्व, अहंकार तत्व और पंचतन्मात्र आदि से शरीर बनाती है। आपकी देख-रेख में आपकी लीला से ही ब्रह्मा द्वारा बनाए गए इस संसार में सर्जन (निर्माण), स्थिति और प्रलय होती है। हे देव! पृथ्वी, जल, तेज, वायु एवं आकाश- ये पंचभूत देह और इन्द्रियों के कारण-रूप हैं।
(हे प्रभो!) आप इन पंचभूत और त्रिगुणमयी अपनी माया से अपने भक्तों पर कृपा कीजिए। हे भगवन् ! आपके नाम गुणगान से यानी आपका नाम लेने से कलिकाल के पाप समूह दूर हो जाते हैं। आपका नाम तो अनगिनत गुणों का भण्डार है, संसार के भयों का नाश करने वाला है। जो भी लोग दुनिया के तीनों तापों से दुःखी होकर आपका नाम लेते हैं, वे जन्म के बन्धन से यानी बार-बार जन्म लेने से छुटकारा पा लेते हैं। आपके अवतार से सज्जनों का मान बढ़ता है, ब्राह्मणों की लक्ष्मी बढ़ती है, देवताओं का पालन होता है, सत्ययुग की पुनः प्रतिष्ठा होती है, धर्म की वृद्धि होती है और कलियुग का संहार होता है। इस समय आपके इस अवतार से हमारा कल्याण हो। हमारे घर में पति, पुत्र, पोते, रथ, ध्वज, चामर, ऐश्वर्य एवं मणियों से जड़े हुए आसन आदि सब ही विद्यमान हैं, परन्तु आपके कमल रूपी चरणों की पूजा बिना वे सभी क्या शोभा पाते हैं अर्थात् शोभाहीन हैं। हे संसार की आत्मा ! आपका मुख सुन्दर मुस्कान की शोभा वाला है, सर्वांग सुन्दर है, मनोहर बोली वाला है, सुन्दर भावों वाला है, (परन्तु) यदि यह हमारा चाहा हुआ कार्य न कर पाए तो (भगवान् करे) हमारी अभी मौत हो जाए। आप (अश्वारोही) सबको अभय दान देते हैं, (घोड़े पर चढ़कर घूमते हैं), हे देव ! आपके तेज़ बाणों की बौछार से बहुत-से वीर मौत के शिकार हुए हैं, जो बलवान् वीर युद्ध में मारे गए हैं, आप उनका पालन करते हैं। आपके रसीले मुख-मण्डल पर सैकड़ों चन्द्रमा की चमक विराजमान है, महादेव, ब्रह्मा जी (भी) आपके आश्रय की भीख चाहते हैं। हे देव ! आप निस्सन्देह सनातन पूर्ण ब्रह्म हैं।'
इसके बाद कल्कि जी इस प्रकार सुशान्ता के विनय- गीत से संतुष्ट हो (उसी प्रकार) उठ बैठे जैसे युद्ध में स्थिर (मूर्छित) वीर-रणशय्या से उठे। उन्होंने अपने सामने सुशान्ता को, बायीं ओर सत्ययुग को, दाहिनी ओर धर्म को और पीछे राजा शशिध्वज को देखकर जैसे लज्जा से मुख को नीचा झुकाकर कहा- 'हे कमल जैसे सुन्दर फूल की भाँति नेत्रों वाली ! तुम कौन हो ? किस कारण हमारी सेवा करने के लिए तैयार हो ? ये महावीर शशिध्वज किसलिए मेरे पीछे उपस्थित हैं? हे धर्म ! हे कृतयुग ! हमलोग युद्ध-भूमि को छोड़कर किसलिए शत्रु के अन्तःपुर में आए ? मुझको बताओ। मैं शत्रु हूँ। शत्रु की स्त्रियाँ किस कारण से प्रसन्न हृदय से मेरी सेवा करती हैं ? मैं तो मूच्र्छित हो गया था। शूरवीर शशिध्वज ने मेरा नाश क्यों नहीं किया ?'
सुशान्ता बोली- 'पृथ्वी के रहने वाले, स्वर्ग के रहने वाले, रसातल के रहने वाले मनुष्यों, सुर तथा असुरों और नागों में (भला) ऐसा कौन है, जो नारायण कल्कि जी की सेवा नहीं करता ? जगत् जिसका सेवक और मित्र रूप है, जिसके दर्शन से किसी के प्रति शत्रुता नहीं रह जाती, उसका क्या साक्षात् सम्बन्ध से (प्रत्यक्ष रूप से) कहीं कोई शत्रु हो सकता है ? (अर्थात् नहीं हो सकता।) मेरे स्वामी यदि शत्रु का भाव रखकर लड़ाई करते तो क्या आपको वह अपने स्थान में (इस प्रकार) ला सकते थे ? मेरे स्वामी आपके दास हैं और मैं आपकी दासी हूँ। हे लम्बी भुजाओं वाले ! मुझ पर प्रसन्न होकर आप स्वयं ही यहाँ पर आए हैं।' धर्म बोले- 'हे कलि का नाश करने वाले ! ये दोनों ही जिस तरह आपकी भक्ति कर रहे हैं, आपके नाम का कीर्तन करते हैं और आपकी स्तुति करते हैं, उसे देखकर तो मैं कृतार्थ हो गया हूँ, अत्यन्त धन्य हो गया हूँ।''आज मैं आपके इस सेवक का दर्शन करके सत्ययुग के नाम से जाना जाता हूँ। आप भी इस सेवक के तेज से ईश्वर और संसार के पूजनीय बन गए।'
शशिध्वज बोले- 'मैंने युद्ध करके आपके शरीर पर प्रहार किया है। आप हमारी आत्मा हैं। मैंने काम-क्रोधादि रोग के वशीभूत होकर आपसे दुश्मनी की है। (मुझे दण्ड दीजिए)।' इस वचन को सुनकर कल्कि जी ने मुस्कराकर बार- बार कहा- 'तुमने तो हमें जीत लिया है।' इसके उपरांत राजा शशिध्वज ने लड़ाई के मैदान से अपने पुत्रों को बुला, सुशान्ता के मन की बात समझकर (सुशान्ता की प्रेरणा से) कल्कि जी को रमा नाम की अपनी कन्या को कन्यादान में दे दिया।
उसी समय मरु, देवापि, विशाखयूपराज और रुधिरश्व आदि राजागण, राजा शशिध्वज का निमन्त्रण पाकर, युद्ध के मैदान से शय्याकर्ण नाम के राजा के साथ भल्लाट नगर में आ गए। उन राजाओं की अनगिनत फ़ौज से वह नगरी रौंदी-सी जाने लगी। अनगिनत हाथियों, घोड़ों, रथों, पैदल सैनिकों, छत्रों और झंडों ध्वजाओं आदि से (शोभित मण्डप में) कल्कि जी का रमा जी से विवाह सुचारु रूप से सम्पन्न हो गया। सभी लोग प्रसन्नतापूर्वक अपने दल-बल सहित उस उत्सव को देखने के लिए आए। शंख, भेरी, मृदंग आदि बाजों की ध्वनि की गूंज और नाच-गाने आदि विवाह में होने वाले अनुष्ठानों और नगर की स्त्रियों के मंगलाचार के बीच रमा जी और कल्कि जी का विवाह अत्यन्त सुखकारी रहा।
राजा लोगों ने, तरह तरह के स्वादिष्ट भोजन का सत्कार पाते हुए, सभा में प्रवेश किया। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा दूसरी जाति वाले लोग विचित्र प्रकार के गहनों और तरह-तरह की भोग वस्तुएँ पाकर कमल जैसी आँखों वाले श्री कल्कि जी द्वारा शोभित उस सभा में (कल्कि जी के दर्शनों के लिए) बैठे। जैसे तारों के बीच में चाँद शोभा पाता है, वैसे ही राजाओं के स्वामी कल्कि जी सभी लोगों को मोहित करके शोभायमान हुए। कमल-पत्र जैसी आँखों वाले कल्कि जी ने (सभा में उपस्थित राजाओं के समक्ष) रमा जी के साथ पाणिग्रहण (विवाह संस्कार) किया। राजा शशिध्वज कल्कि जी को जामाता (दामाद) के रूप में पाकर सभा में भक्ति सहित शोभायमान हुए।
श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \दशवाँ अध्याय संस्कृत में
सुशान्ताउवाच
जय हरे ऽमरअधीश-सेवितं तव पदाम्बुजं भूरि-भूषणम्॥
कुरु मम् आग्रतः साधु-सत्-कृतं त्यज महामते! मोहम् आत्मनः॥१
तव वपुर् जगद्-रूप-सम्पदा विरचितं सतां मानसे स्थितम्॥
रति-पतेर् मनो-मोह-दायकं कुरु विचेष्टितं काम-लम्पटम्॥२
तव यशो जगच्-छोक-नाशनं मृदु-कथामृत-प्रीति-दायकम्॥
स्मित-सुधो’क्षितं चन्द्रवन्-मुखं तव करोत्व् अलं लोक-मङ्गलम्॥३
मम पतिस् त्व् अयं सर्व-दुर्जयो यदि तवअप्रियं कर्मणाअचरेत्॥
जहि तद् आत्मनः शत्रुम् उद्यतं कुरु कृपां न चेद् ईदृग्-ईश्वरः॥४
महद्-अहं-युतं पञ्च-मात्रया प्रकृति-जायया निर्मितं वपुः॥
तव निरीक्षणाल् लीलया जगत्- स्थिति-लयो’दयं ब्रह्म-कल्पितम्॥५
भूवियन्मरुद्वारि-तेजसां राशिभिः शरीरे’न्द्रिया’श्रितैः॥
त्रिगुणया स्वया मायया विभो कुरु कृपां भवत्-सेवनअर्थिनाम्॥६
तव गुणालयं नाम पावनं कलि-मलअपहं कीर्तयन्ति ये॥
भव-भय-क्षयं ताप-तापिता मुहुरहो जनाः संसरन्ति नो॥७
तव जनुः सतां मान-वर्धनं जिन-कुल-क्षयं देव-पालकम्॥
कृत-युगअर्पकं धर्म-पूरकं कलि-कुलअन्तकं शं तनोतु मे॥८
मम गृहं पतिं पुत्र-नप्तृकं गज-रथैर् ध्वजाय्श् चामरैर् धनैः॥
मणि-वरआसनं सत्कृतिं विना तव पदअब्जयोः शोभयन्ति किम्॥९
तव जगद्-वपुः सुन्दर-स्मितं मुखम् अनिन्दितं सुन्दर-त्विषम्॥
यदि न मे प्रियं वल्गु-चेष्टिते परि-करोत्य् अहो मृत्युर् अस्त्व् इह॥१०
हयचर भयहर कर-हर-शरण खरतर वर-शर दशबल दमन॥
जय हत-पर-भर भव-वर-नशन शशधर-शत-सम रस-भर-वदन॥११
शशधर-शत-सम-रस-भर-वदन, शशधर-शत-सम-रस भर-वदन।
इति तस्याः सुशान्ताया गीतेन परितोषितः
उत्तस्थौ रण-शय्यायाः कल्किर् युद्ध-स्थ-वीरवत्॥१२
सुशान्तां पुरतो दृष्ट्वा कृतं वामे तु दक्षिणे
धर्मं शशिध्वजं पश्चात् प्राहे’ति व्रीडि ताननः॥१३
का त्वं पद्मपलाशाक्षि! मम सेवार्थमुद्यता।
कान्ते शशिध्वजः शूरो मम पश्चाद् उपस्थितः॥१४
हे धर्म! हे कृतयुग! कथम् अत्रअगता वयम्।
रणाङ्गणं विहायास्याः शत्रोर् अन्तः पुरे वद॥१५
शत्रु-पत्न्यः कथं साधु सेवन्ते माम् अरिं मुदा।
शशिध्वजः शूरमानी मूर्छितं हन्ति नो कथम्॥१६
शुशान्तो’वाच
पाताले दिवि भूमौ वा नर-नाग-सुरअसुराः।
नारायणस्य ते कल्के के वा सेवां न कुर्वते॥१७
यत् सेवकानां जगतां मित्राणां दर्शनाद् अपि।
निवर्तन्ते शत्रु-भावस् तस्य साक्षात् कुतो रिपुः॥१८
त्वया सार्धं मम पतिः शत्रु-भावेन संयुगे।
यदि योग्यस् तद् आनेतुं किं समर्थो निजालयम्॥१९
तव दसो मम स्वामी अहं दासी निजा तव।
आवयोः संप्रसादाय आगतो ऽसि महाभुज॥२०
धर्म उवाच
अहं तवै’तयोर् भक्त्या नम-रूपअनुकीर्तनात्।
कृतार्थो ऽस्मि कृतार्थो ऽस्मि कृतार्थो ऽस्मि कलि-क्षय॥२१
कृतयुग उवाच
अधुना’हं कृतयुगं तव दासस्य दर्शनात्।
तुअम् ईश्वरो जगत्-पूज्य-सेवकस्यास्य तेजसा॥२२
शशिध्वज उवाच
दण्द्यं मां दण्डय विभो योद्धृत्वाद् उद्यतअयुधम्।
येन कामआदि-रागेण तुअय्य् आत्मन्य् अपि वैरिता॥२३
इति कल्किर् वचस् तेषां निशम्य हसितअननः।
त्वयाजितो ऽस्मीति नृपं पुनः पुनर् उवाच ह॥२४
ततः शशिध्वजो राजा युद्धाद् आहूय पुत्रकान्।
सुशान्ताया मतिं बुद्ध्वा रमां प्रादात् सकल्कये॥२५
तदैत्य मरु-देवापी शशिध्वज-समाहृतौ।
विशाखयूप-भूपश् च रुधिराश्वश् च संयुगात्॥२६
शय्याकर्ण-नृपेणअपि भल्लाटं पुरम् आययुः।
सेना-गणैर् असंख्यातैः सा पुरी मर्दिता’भवत्॥२७
गजअश्व-रथ-संबाधैः पत्तिच्छत्र-रथध्वजैः।
कल्किनाअपि रमायाश् च विवाहो’त्सव-सम्पदाम्॥२८
द्रष्तुं समीयुस् त्वरिता हर्षात् सबल-वाहनाः।
शंख-भेरी-मृदङ्गानां वादित्राणाञ् च निस्वनैः॥२९
नृत्य-गीत-विधानैश् च पुर-स्त्री-कृत-मङ्गलैः।
विवाहो रमया कल्केर् अभूद् अतिसुखावहः॥३०
नृपा नानाविधैर्भोज्यैः पूजिता विविशुः सभाम्।
ब्रह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश् चअवरजातयः॥३१
विचित्र-भोगावरणाः कल्किं द्रष्टुम् उपाविशन्।
तस्यां सभायां शुशुभे कल्किः कमल-लोचनः॥३२
नक्षत्र-गण-मध्य-स्थः पूर्णः शशदरो यथा।
रेजे राज-गणअधीशो लोकान् सर्वान् विमोहयन्॥३३
रमापतिं कल्किम् अवेक्ष्य भूपः सभागतं पद्म-दलायते’क्षणम्।
जामातरं भक्ति-युतेन कर्मणा विबुध्य मध्ये निषसाद तत्र ह॥३४
इति श्री-कल्कि-पुराणे ऽनुभागवते भविष्ये तृतीयअंशे कल्किना रमा-विवाहो नाम दशमो ऽध्यायः॥
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