श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \सातवाँ अध्याय हिंदी से संस्कृत में
सूत उवाच
एवं प्रवृत्ते संग्रामे धर्मः परम-कोपनः।
कृतेन सहितो घोरं युयुधे कलिना सह॥१
सूत जी बोले- इस प्रकार घोर युद्ध में प्रवृत्त (लगा) हुआ देखकर, धर्म ने अत्यन्त क्रोध से कृतयुग सहित कलि से भयंकर युद्ध करना शुरू किया। इसके बाद कलि, धर्म और सत्ययुग के भयंकर बाणों की बौछार से हारकर, अपनी सवारी गधे को छोड़कर अपनी पुरी लौट गया। कलि का उल्लू की ध्वजा वाला रथ टूट-फूट गया। सारे शरीर से खून बहने लगा और छछूदर की-सी बदबू आने लगी। मुँह का आकार बहुत भयंकर हो गया।कलि ऐसी अवस्था के होने पर स्त्री के पूरे अधिकार वाले कक्ष (अन्तःपुर) में घुस गया। अपने कुल घातक (कुल में अंगारे से समान सारहीन होता) दम्भ, बाणों की वर्षा से घायल हो चुका था। उसकी वासनाएँ (सामर्थ्य और ऊर्जा) क्षीण हो चुकी थीं। व्याकुल और निराश दम्भ भी अपने घर में घुस गया (युद्ध भूमि छोड़ गया)। प्रसाद के पदाघात (या गदा की चोट) से लोभ का सिर चूर-चूर हो गया। कुत्तों द्वारा जुता हुआ लोभ का रथ भी टूट-फूट गया। तब वह रथ को छोड़कर खून की उल्टियाँ करता हुआ भाग गया।
क्रोध अभय से लड़ाई में हार गया। उसकी आँखें लाल हो गईं। चूहों द्वारा खींचे जाने वाले बदबू वाले टूटे-फूटे रथ को छोड़कर क्रोध भागा और विशसन नगर में चला गया। सुख के थप्पड़ की चोट से भय मरकर भूमि पर गिर पड़ा। निरय ने प्रीति के घूंसे की चोट से ऐसी मार खाई कि यमराज के पास पहुँच गया। आधि, व्याधि आदि सभी सत्ययुग के बाणों से पीड़ित हो अपनी-अपनी सवारियों को छोड़कर डर से परेशान अनेक देशों में भाग गए। इसके बाद सत्ययुग के साथ धर्म ने कलि की मुख्य राजधानी विशसन नामक नगर में प्रवेश किया और बाणों की आग से कलि सहित उस नगर को भस्म कर दिया। कलि के सारे अंग जल (कर राख हो) गए। उसकी स्त्री और उस की प्रजा सभी काल के गाल में समा गई और वह बेचारा अकेला रोता हुआ छिपकर दूसरे वर्ष (देश- जैसे भारतवर्ष भी जम्बूद्वीप का एक वर्ष माना जाता था) को चला गया।
(एक ओर) मरु ने दिव्य अस्त्रों के समूह के तेज से शक और कम्बोजों को मार डाला। (दूसरी ओर) देवापि ने शबर, चोल और बर्बरों (और उनकी सेना को) इसी तरह नष्ट कर दिया। परम बलवान् विशाखयूपराज ने दिव्य अस्त्र- शस्त्रों से पुलिन्द और पुक्कसों को हराया। विमल (शुद्ध) बुद्धि वाले राजा विशाखयूप लगातार तलवारों की मार से और अनेक शस्त्र-अस्त्रों की बौछार से शत्रुओं का नाश करने लगा। इस तरह शत्रुसेना के अधिकांश योद्धा मारे गए। गदा से युद्ध करने में कुशल महान् वीर कल्कि जी हाथ में गदा धारण कर सारे लोकों को डराते हुए कोक और विकोक के साथ लड़ने लगे।
ये (दोनों भाई) वृकासुर के पुत्र और शकुनि के पोते थे। जिस प्रकार पुराकाल में श्री नारायण ने मधु-कैटभ के साथ लड़ाई की थी, उसी प्रकार कल्कि जी ने इन दोनों वीरों के साथ युद्ध करना शुरू किया। कोक और विकोक की गदाओं की चोट से कल्कि भगवान् का शरीर बुरी तरह घायल हो गया। उनकी गदा हाथ से छूटकर भूमि पर गिर पड़ी। सबलोग अचरज भरी आँखों से इस घटना को देखने लगे। इसके बाद, संसार के विजयी महाबलशाली महाबाहु विष्णु जी ने फिर क्रोधित होकर भल्ल नामक अस्त्र से विकोक का सिर काट डाला। बलवान् विकोक मर तो गया, लेकिन जैसे ही उस पर उसके भाई की नज़र पड़ी, वैसे ही वह मृत्यु शय्या से फिर उठ बैठा। यह देखकर देवतागण और शत्रुओं का नाश करने वाले कल्कि जी बहुत अचरज में पड़ गए। कल्कि जी ने विकोक को पुनर्जीवित करने वाले गदाधारी कोक का सिर काट डाला। कोक मर तो गया पर फिर विकोक के देखते ही वह उसी समय जीवित हो उठा। इसके बाद, अपनी इच्छा के अनुसार रूप धारण करने वाले महाबलवान् कोक और विकोक इकट्ठे होकर दूसरे यमराज की भाँति कल्कि जी से लड़ाई करने लगे। वे दोनों ढाल और तलवार धारण कर कल्कि जी पर बार-बार वार करने लगे।
कल्कि जी ने क्रोधित होकर बाणों द्वारा उन दोनों के ही सिर काट डाले। दोनों के सिर फिर धड़ से जुड़ गए। कल्कि जी यह देखकर बहुत चिन्ता में पड़ गए। इसके बाद कल्कि जी के घोड़ों ने कोक और विकोक को वार करते हुए देखकर उनपर भारी चोट की। यम के समान भयंकर दुर्धर्ष कोक और विकोक कल्कि जी के घोड़े से बहुत घायल होने पर क्रोध युक्त हो लाल-लाल आँखों से उस (घोड़े) पर बाणों की वर्षा करने लगे। घोड़े ने क्रोधित होकर कोक और विकोक की बाहों को काट खाया। उनके बाहों की हड्डियाँ चकनाचूर हो गईं। बाहें और धनुष छिन्न-भिन्न हो गए। इसके बाद जैसे बच्चा गाय की पूँछ को पकड़ता है, वैसे ही दोनों वीरों (कोक और विकोक) ने घोड़े की पूँछ को पकड़ लिया। उन्हें पूँछ पकड़े हुए देखकर घोड़ा बहुत क्रोधित हुआ और पिछले पाँवों से मजबूत वज्र के समान उनकी छाती पर भारी चोट की। पूँछ को छोड़कर कोक और विकोक दोनों ही मूच्र्छित हो भूमि पर गिर पड़े, लेकिन तत्काल फिर उठ खड़े हुए और कल्कि जी को सामने देख कर साफ़-साफ़ शब्दों में लड़ाई के लिए ललकारा।
इसी समय श्री ब्रह्मा जी कल्कि जी के समीप आकर हाथ जोड़कर धीरे से बोले- 'ये कोक और विकोक अस्त्र- शस्त्रों से नहीं मारे जाएँगे। हे परमात्मन् ! एक ही बारी में दोनों को थप्पड़ (घूसा) मारकर इनकी हत्या की जा सकती है। इन दोनों में एक के देखते हुए दूसरे की मृत्यु नहीं होगी। अतएव इस बात को याद रखकर आप एक ही बारी में दोनों का वध कीजिए।' ब्रह्मा जी के ये वचन सुनकर कल्कि जी ने शस्त्र-अस्त्र और सवारी छोड़कर मनमाना प्रहार करने वाले उन दोनों दानवों के बीच में आकर वज्र के समान दो मुट्ठियों के एक साथ वार से उन दोनों के मस्तक चकनाचूर कर दिए। देवलोक स्थित देवताओं को डराने वाले और सभी प्राणियों का बुरा चाहने वाले ये दोनों दानव मस्तकों के चकनाचूर हो जाने के बाद भूमि पर पहाड़ की दो चोटियों की तरह (या शिखर रहित दो पहाड़ों की तरह) गिर पड़े। इस महान् अचरज भरे काम को देखकर गन्धर्वलोग गाने लगे।
अप्सराएँ नाचने लगीं। देवता, सिद्ध लोग और चारण प्रसन्न मन से फूलों की वर्षा करने लगे। (उन्होंने) दुन्दुभियाँ बजाई और सब दिशाएँ हर्ष, उल्लास से गूंज उठीं। कोक और विकोक की मृत्यु देखकर कवि ने प्रसन्न और उत्साहित होकर अपने दिव्य अस्त्रों से रथ और अस्त्रों सहित दस हज़ार महारथी वीरों का नाश किया। प्राज्ञ ने युद्ध भूमि में एक लाख योद्धाओं का नाश किया। सुमन्त्र के हाथ से पच्चीस रथी मारे गए। इसी प्रकार उस समय गर्ग्य, भर्य और विशालादि वीरों ने भी क्रोधित होकर म्लेच्छ, बर्बर और निषादों का नाश किया।इस प्रकार उन सबको जीतकर, कल्कि जी सारी (विशाल) सेना लेकर राजाओं के साथ भल्लाटनगर को जीतने के लिए गए। अनेक प्रकार के बाजे बजने लगे। उत्तम शस्त्रास्त्र धारण करने वाले वीर उनके साथ चले। अनेक प्रकार के वाहन (सेना में) आ गए। चारों ओर से (कल्कि जी पर) चामर डुलाए जाने लगे।
श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \सातवाँ अध्याय संस्कृत में
सूत उवाच
एवं प्रवृत्ते संग्रामे धर्मः परम-कोपनः।
कृतेन सहितो घोरं युयुधे कलिना सह॥१
कलिर् दमित्र-बाणौघैर् धर्मस्यअपि कृतस्य च।
पराभूतः पुरीं प्रायात् त्यक्त्वा गर्दभ-वाहनम्॥२
विच्छिन्न-पेचक-रथः स्रवद्रक्ताङ्गसञ्चयः।
छछुर्-गन्धः करालास्यः स्त्री-स्वामिकम् अगाद् गृहम्॥३
दम्भः सम्भोग-रहितो’द्धृत-बाण-गणा-हतः।
व्याकुलः स्वकुलांगारो निःसारः प्राविशद् गृहम्॥४
लोभः प्रसादअभिहतो गदया भिन्न-मस्तकः।
सारमेय-रथं छिन्नं त्यक्त्वाअगाद् रुधिरं वमन्॥५
अभयेन जितः क्रोधः कषायिकृत-लोचनः।
गन्धाखु-वाहं विच्छिन्नं त्यक्त्वा विशसनं गतः॥६
भयं सुखतलाघाताद् गतासुर् न्य्-अपतद् भरुवि।
निरयो मुद-मुष्टिभ्यां पीडिता यमम् आययौ॥८
आधि-व्याध्य्-आदयः सर्वे त्यक्त्वा वाहम् उपाद्रवन्।
नाना-देशान् भयो’द्विग्नाः कृतबाण-प्रपीडिताः॥८
धर्मः कृतेन सहितो गत्वा विशसनं कलेः।
नगरं बाण-दहनैर् ददाह कलिना सह॥९
कलिर् विप्लुष्ट-सर्वअङ्गो मृत-दारो मृत-प्रजः।
जगामैको रुदन्दीनो वर्षअन्तरम् अलक्षितः॥१०
मरुस् तु शक-काम्बोजाञ् जघ्ने दिव्यअस्त्र-तेजसा।
देवापिः शबरांश् चोलान् बर्बरान्स् तद् गणान् अपि॥११
दिव्यअस्त्र-शस्त्र-सम्पातैर् अर्दयाम् आस वीर्यवान्।
विशाखयूप-भूपालः पुलिन्दान् पुक्कसान् अपि॥१२
जघान विमल-प्रज्ञः खड्गपातेन भूरिणा।
नानाअस्त्र-शस्त्र-वर्षैस् ते योधा नेशुर् अनेकधा॥१३
कल्किः कोक-विकोकाभ्यां गदा-पाणिर् युधां पतिः।
युयुधे विन्यासविज्ञो लोकानां जनयन् भयम्॥१४
वृकासुरस्य पुत्रौ तौ नप्तारौ शकुनेर् हरिः।
तयोः कल्किः स युयुदे मधु-कैटभयोर् यथा॥१५
तयोर् गदा प्रहारेण चूर्नितांगस्य तत्-पतेः।
कराच् च्युता’पतद् भूमौ दृष्त्वो’चुरित्यहो जनाः॥१६
ततः पुनः क्रुधा विष्णुर् जगज्-जिस्नुर् महाभुजः।
भल्लकेन शिरस् तस्य विकोकस्यअच्छिनत् प्रभुः॥१८
मृतो विकोकः कोकस्य दर्शनाद् उत्थितो बली।
तद् दृष्टा विस्मिता देवाः कल्किश् च परवीरहा॥१८
प्रतिकर्तुर् गदापाणेः कोकस्यअप्य् अच्छिनच् छिरः।
मृतः कोको विकोकस्य दृष्टिपातात् समुत्थितः॥१९
पुनस् तौ मिलितौ तेन युयुधाते महाबलौ।
काम-रूप-धरौ वीरौ काल-मृत्यू इवापरौ॥२०
खड्ग-चर्म-धरौ कल्किं प्रहरन्तौ पुनः पुनः।
कल्किः क्रुधा तयोस् तद्वद् बाणेन शिरसी हते॥२१
पुनर् लग्ने समालोक्य हरिश् चिन्तापरो ऽभवत्।
विसत्त्वत्वम् अथा’लोक्य तुरगस् तावताडयत्॥२२
काल-कल्पौ दुराधर्षौ तुरगेणार्दितौ भृशम्।
कल्केस् तं जघ्नतुर् भाणैर् अमर्षात् ताम्र-लोचनौ॥२३
तयोर् भुजान्तरन् सो ऽश्वः क्रुधा समदशद् भृशम्।
तौ तु प्रभिन्नास्थिभुजाव् विशस्ताङ्गदकार्मुकौ।
पुच्छं जगृहतुः सप्तेर् गो-पुच्छं बालकाव् इव॥२४
धृत-पुच्छौ मुर्छितौ तौ तत्-क्षणात् पुनर् उत्थितौ।
पश्चात् पद्भ्यां दृढं जघ्ने तयोर् वक्षसि वज्रवत्॥२५
त्यक्त- पुच्छौ मुर्छितौ तौ तत्-क्षणात् पुनर् उत्थितौ।
पुरतः कल्किम् आलोक्य बभाषाते स्फुटाक्षरौ॥२६
ततो ब्रह्मा तमाभ्येत्य कृताञ्जलि-पुटः शनैः।
प्रोवाच कल्किं नै’वाम् ऊ शस्त्रअस्त्रैर् वधम् अर्हतः॥२८
कराघाताद् एककाले उभयोर् निर्मितो वधः।
उभयोर् दर्शनाद् एव नो’भयोर् मरणं क्वचित्।
विदित्वे’ति कुरुष्व्-आत्मन् युगपच् चअनयोर् वधम्॥२८
इति ब्रह्मा-वचः श्रुत्वा त्यक्त-शस्त्रअस्त्र-वाहनः।
तयोः प्रहरतोः स्वैरं कल्किर् दानवयोः क्रुधा।
मुष्टिभ्यां वज्र-कल्पाभ्यां बभञ्ज शिरसी तयोः॥२९
तौ तत्र भग्नमस्तिष्कौ भग्न-शृङ्गाव् अगाव् इव।
पेततुर् दिवि देवानां भयदौ भुवि बाधकौ॥३०
तद् दृष्ट्वा महदाश्चर्यं गन्धर्वअप्सरसां गणाः।
ननृतुर् जगुस् तुष्टुवुश् च मुनयः सिद्ध-चारणाः।
देवाश् च कुसुमा-सारैर् ववर्षुर् हर्ष-मानसाः॥३१
दिवि दुन्दुभयो नेदुः प्रसन्नाश् चअभवन् दिशः।
तयोर् वध-प्रमुदितः कविर्-दश-सहस्रकान्।
सअश्वान् महारथान् साक्षाद् अहनद् दिव्य-सायकैः॥३२
प्राज्ञः शत-सहस्राणां योधानां रणमूर्धनि।
क्षयं नित्ये सुमन्त्रस् तु रथिनां पञ्च-विशतिः॥३३
एवम् अन्ये गर्ग्य-भर्ग-विशालआद्या महारथान्।
निजघ्नुः समरे क्रुद्धा निषादान् म्लेच्छ-बर्बरान्॥३४
एवं विजित्य तान् सर्वान् कल्किर् भूप-गणैः सह।
शय्याकर्णैश् च भल्लाट-नगरञ् जेतुम् आययौ॥३५
नानावाद्यैर् लोकसंघैर् वरास्त्रैर् नानावस्त्रैर् भूषणैर् भूषितअङ्गैः।
नानावाहैश् चामरैर् वीज्यमानैर् यातो योद्धुं कल्किर् अत्य्-उग्रसेनः॥३६
इति श्री-कल्कि-पुराणे ऽनुभागवते भविष्ये तृतीयअंशे कोक-विकोकआदीनां वधो नाम सप्तमो ऽध्यायः॥८
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