श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \दूसरा अध्याय हिंदी से संस्कृत में
ततो बौद्धन् म्लेच्छ-गणान् विजित्य सह सैनिकैः।
धनान्य्-आदाय रत्नानि कीकटात् पुनर् आव्रजत्॥१
कल्कि जी, बौद्धों और म्लेच्छों को हरा कर और रत्न तथा धन लेकर, सेना सहित कीकट पुरी से लौटे। इसके बाद धर्म-रक्षक, परम तेजवान्, कल्कि जी ने वक्रतीर्थ में आकर विधिपूर्वक स्नान किया। कल्कि जी, लोकों के पालन करने वाले (लोकपाल) के समान, भाइयों और कई प्रिय स्वजनों के साथ वहाँ पर रहने लगे। एक बार, कल्कि जी ने (दीन व) दुःखी हृदय वाले कुछ मुनियों को वहाँ पर (दीनतापूर्वक) आए देखा। डरे हुए मुनिगण कल्कि जी के पास आकर बार-बार कहने लगे- 'हे संसार के स्वामिन् ! रक्षा करो ! बौने कद वाले, वल्कल वस्त्र और जटाधारी नम्रतामूर्ति बालखिल्यादि (जिनका शरीर अंगूठे के समान छोटा हो) से श्री कल्कि जी ने नम्रतापूर्वक पूछा- 'आप लोग कहाँ से आएँ हैं ? किससे डरे हुए हैं? बताइए। वह (आपको डराने वाला) चाहे देवताओं का स्वामी इन्द्र भी होगा, तो भी मैं उसका नाश करूँगा।'
कमल के समान (सुन्दर) नेत्र वाले कल्कि जी के ये वचन सुनकर ऋषि-मुनियों के चित्त प्रसन्न हुए और उन्होंने राक्षस निकुम्भ की लड़की की कथा कहनी शुरू की- 'हे विष्णुयश के पुत्र, सुनिए ! कुम्भकर्ण के पुत्र निकुम्भ की एक कन्या है। वह आकाश मंडल से आधी ऊँची है। (वह इतनी ऊँची है कि आकाश को छूती है) उसका नाम कुथोदरी है। वह राक्षसी कालकञ्ज नामक राक्षस की पत्नी है। उसके पुत्र का नाम विकञ्ज है। वह राक्षसी अपना मस्तक हिमालय पर्वत पर और चरण निषधांचल पर रख कर पुत्र विकञ्ज के (मुख के) पास स्तन रखकर उसे स्तनों से दूध पिलाती है। हम उस (राक्षसी) की साँस से तंग आकर यहाँ आए हैं। भाग्य ही हमको यहाँ लाया है। इसी कारण हम आपके चरणों में पहुँचे हैं। हे देव ! राक्षसों से तथा विपत्तियों से मुनियों की रक्षा कीजिए।'
मुनियों के ये वचन सुनकर शत्रु-पुर को जीतने वाले कल्कि जी सेना सहित हिमालय पर्वत की ओर गए। हिमालय पर्वत की तराई पहुँचकर एक रात वहाँ बिताई। फिर उन्होंने प्रातःकाल ज्यों ही सेना सहित यात्रा करने की इच्छा प्रकट की, त्यों ही (उन्हें) एक दूध की नदी दिखाई दी। वह नदी शंख और चन्द्रमा की भाँति सफेद, बड़ी और तेज बहाव वाली थी। उसमें फेन उठ रहे थे। कल्कि जी के सभी सेवक ऐसी दूध की नदी को देखकर अचम्भे में पड़ गए। भगवान् कल्कि यद्यपि इसका कारण जानते थे, तथापि हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेना के सभी योद्धाओं से घिरे हुए उन्होंने (अनजान बनकर) महर्षियों से पूछा- 'इस नदी का नाम क्या है ? इसमें किस कारण दूध बहता है ?'
कल्कि जी के ये वचन सुनकर ऋषियों ने आदरपूर्वक कहा- 'हे कल्कि जी! इस दूध वाली नदी की उत्पत्ति की कहानी बताते हैं। सुनिए ! कुथोदरी नाामक राक्षसी के स्तन का दूध इस हिमालय पर्वत से गिर कर नदी के रूप में बह रहा है।' (तत्पश्चात्) सात घड़ी के बाद एक और दूध की नदी (दूसरे स्तन से) बहेगी। हे महामते ! फिर यह नदी सारहीन होकर तटाकार हो जाएगी। (केवल किनारे रह जाएँगे)। ये वचन सुनकर सेना सहित कल्कि जी बोले- 'कैसा आश्चर्य है! इसी राक्षसी के स्तन के दूध से इतनी बड़ी नदी निकली है। एक स्तन से विकञ्ज को प्यार से दूध पिला रही है। इसके शरीर का परिमाण (लम्बाई, चौड़ाई, मोटाई आदि) कितना है, यह नहीं जाना जा सकता।'
अचरज से भरे सबने कहा कि इस राक्षसी में कितना बल है! इसके बाद परमात्मा कल्कि जी सेना सहित तैयार होकर राक्षसी के पास गए। मुनि लोग उस राक्षसी के रहने का रास्ता दिखाने लगे। उन्होंने जाकर देखा कि बादलों के समान एक राक्षसी पर्वत की चोटी पर बैठकर अपने पुत्र को अपने स्तन से दूध पिला रही है। उसकी साँस इतनी तेज़ थी कि उससे टकरा कर जंगली हाथी तक दूर गिर रहे हैं। उसके कान के छेद में सिंह समूह सो रहे हैं। उसके रोमछिद्र (जहाँ से बाल निकलते हैं) इतने बड़े हैं कि हिरनों को उनके गुफा होने का भ्रम हो गया है, जिससे वे हिरन तथा उनके बच्चे और उन बच्चों के बच्चे उनमें सो रहे हैं। (उन पशुओं को) व्याध से किसी तरह का डर नहीं है
और वे जौंक (लीख) की तरह लगे हुए हैं। पर्वत के शिखर पर वह राक्षसी ऐसी लग रही थी, मानों दूसरा कोई पर्वत (शिखर) ही हो। सब सैनिक डर के मारे बेचैन हो गए। उनकी अकल मारी गई और वे अपने अस्त्र छोड़ने के लिए तैयार हो गए। ऐसे सिपाहियों से कमल के समान नेत्र वाले कल्कि जी बोले-'इस पहाड़ी किले में तुम सब अग्नि-किला बनाकर रहो और जो योद्धा हाथियों, घोड़ों और रथों पर सवार हैं, वे हमारे साथ आ जाएँ। मैं थोड़ी-सी सेना लेकर बाणों के समूह, तलवारों तथा फरसे से मार करने के लिए धीरे-धीरे इसके सामने जाता हूँ।'
कल्कि जी यह कहकर सेना को पीछे रखकर बाणों से उस राक्षसी पर वार करने लगे। राक्षसी ने सहसा क्रोध में आग बबूला होकर बड़ी अजीब सी आवाज की। उस भयंकर आवाज़ से सभी डर गए। सारे सैनिक बेहोश होकर भूमि पर गिरने लगे। कुथोदरी भयानक मुँह खोलकर अपनी (तेज़) साँस से रथ, हाथी, घोड़े आदि खींचकर हड़पने लगी। जिस तरह रीछ की (तेज) साँस से चींटियाँ उसके मुँह में घुसती चली जाती हैं, उसी तरह सेना सहित कल्कि जी ने उस राक्षसी के पेट में प्रवेश किया।
( यह देखकर देवतागण और गन्धर्वगण हाहाकार करने लगे।) मुनियों ने शाप दिया और महर्षियों ने कल्कि जी की कुशलता मनाने के लिए मंत्र का जप करना शुरू कर दिया। वेद के ज्ञाता अन्य ब्राह्मण लोग दुःखी होकर गिरने लगे। बचे हुए योद्धा रोने लगे, (पर) दुष्ट राक्षस लोग प्रसन्न हुए। देवताओं के शत्रुओं का नाश करने वाले कमलनयन कल्कि जी ने इस प्रकार संसार को दुःखी देखकर स्वयं ही अपने को याद किया। (अथवा एक क्षण के लिए विचारा) इसके बाद कल्कि जी ने उस (राक्षसी के) अन्धकारमय उदर में (अग्नि) बाण द्वारा आग प्रकट की और बाण से उत्पन्न उस अग्नि को कपड़े, चमड़े और रथ की लकड़ियों से धधकाकर, फिर अपनी तलवार उठाई।
जिस प्रकार देवताओं के राजा (सहस्र नयन) इन्द्र अपने वज्र द्वारा वृत्रासुर (राक्षस) की कोख में छेद कर बाहर हो गए थे, उसी प्रकार सबके ईश्वर, पापों का नाश करने वाले कल्कि जी उस बड़ी तलवार से राक्षसी की (दाहिनी) कोख को भेद कर बलवान् अस्त्र-शस्त्र धारण करने वाले बन्धु- बान्धवों के साथ बाहर निकल आए। बहुत-से हाथी, घोड़े, रथ के योद्धा, सवार और पैदल सिपाही उस राक्षसी की योनि-मार्ग से निकल पड़े और कई उस की नाक के छेदों से और कानों से बाहर निकल आए। इसके बाद खून से लथपथ योद्धागण बाहर निकलकर राक्षसी को हाथ-पाँव चलाते हुए देखकर उसी समय बाणों द्वारा उसे बींधने लगे। पेट, सिर आदि सारे अंगों के छिन्न-भिन्न होने पर, राक्षसी ने भयंकर आवाज़ से दसों दिशाएँ गुँजा दीं और शरीर की भारी रगड़ से पहाड़ों को चूर-चूर करती हुई प्राण त्याग दिए।
कुशोदरी राक्षसी का वध करते भगवान कल्कि
(राक्षसी का पुत्र) विकञ्ज अपनी माँ की यह दशा देखकर बेचैन और कुद्ध हुआ और वह बिना हथियारों के ही सेना में घुस गया। उसकी छाती पर हाथियों की माला, सारे अंगों में आभूषण के रूप में घोड़े, मस्तक पर महासर्प की पगड़ी और उंगलियों में शेर की अंगूठी है। (वह) विकञ्ज अपनी माता के शोक से दुःखी होकर कल्कि जी की सेना का मर्दन (नाश) करने लगा। कल्कि जी ने उस पाँच साल के बालक का नाश करने के लिए परशुरामजी का दिया ब्रह्मास्त्र धारण किया और उस का मस्तक काट कर पृथ्वी पर डाल दिया। मुनियों के कहने से कल्कि जी ने गेरू आदि से सजी पर्वत की चोटी के समान अद्भुत, खून से लथपथ राक्षसी का उसके पुत्र के साथ नाश किया।
देवताओं ने कल्कि जी पर फूलों की वर्षा की और मुनियों ने स्तोत्रों द्वारा उनकी भली-भाँति पूजा की। (तब) कल्कि जी ने हरिद्वार स्थित गंगा तट पर अपनी सेना का डेरा डाला। भगवान् कल्कि जी ने अपने नौकर-चाकर आदि सहित वह रात उसी जगह पर गुजारी। सवेरे देखा कि मुनि लोग गंगा स्नान के बहाने उनको देखने के लिए व्याकुल हो रहे हैं। कल्कि जी हरिद्वार में गंगा जी के तट के पास पिण्डारक नाम के जंगल में अपने नौकर-चाकर सहित रहने लगे। एक दिन कल्कि जी जह्न की पुत्री (जाह्नवी अर्थात् गंगा) का दर्शन कर रहे थे। उसी समय मुनि लोग उनके दर्शन के लिए आकर विधान पूर्वक उनकी स्तुति करने लगे।
श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \दूसरा अध्याय संस्कृत में
ततो बौद्धन् म्लेच्छ-गणान् विजित्य सह सैनिकैः।
धनान्य्-आदाय रत्नानि कीकटात् पुनर् आव्रजत्॥१
कल्किः परमतेजस्वी धर्माणां परिरक्षकः।
चक्रतीर्थं समागत्य स्नानं विधिवदाचरत्॥२
भ्रातृभिर् लोक-पालाभैर् बहुभिः स्व-जनैर् वृतः।
समायातान् मुनींस् तत्र ददृशे दीन-मानसान्॥३
समुद्भिया’गतांस् तत्र परिपाहि जगत्पते।
इत्य् उक्तवन्तो बहुधा ये तान् आह हरिः परः॥४
वालखिल्यआदिकानल्प-कायाञ्चीरजटाधरान् ।
विनयावनतः कल्किस् तान् आह कृपणान् भययात्॥५
कस्माद् यूयं समायाताः केन वा भीषिता बत ।
तम् अहं निहनिष्यामि यदि वा स्यत् पुरन्दरः॥६
इत्य् आश्रुत्य कल्कि-वाक्यं तेनो’ल्लासित-मानसाः।
जगदुः पुण्डरीकाक्षं निकुम्भदुहितुः कथाः॥७
मुनय ऊचुः
शृणु विष्णुयशः-पुत्र! कुम्भकर्णआत्मजआत्मजा।
कुथोदरीइति विख्याता गगनार्धसमुत्थिता॥८
कालकञ्जस्य महिषी विकञ्जजननी च सा।
हिमालये शिरः कृत्वा पादौ च निषधाचले।
शेते स्तनं पाययन्ती विकञ्जं प्रस्नुतस्तनी॥९
तस्या निश्वासवातेन विवशा वयमागताः।
दैवेनै’व समानीताः संप्राप्तास्त्वत्पदास्पदम्
मुनयो रक्षणीयास् ते रक्षः सुच विपत्सु च॥१०
इति तेषां वचः श्रुत्वा कल्किः पर-पुरञ्-जयः।
सेना,गनैः परिवृतो जगाम हिमवद्-गिरिम्॥११
उपत्यकां समासाद्य निशामेकां निनाय सः।
प्रातर्जिगमिषुः सैन्यैर् ददृशे क्षीरनिम्नगाम्॥१२
शंखे’न्दुधवलाकारां फेनिलां बृहतीं द्रुतम्।
चलन्तीं विक्ष्यते सर्वे स्तम्भिता विस्मयअन्विताः॥१३
सेना-गण-गजअश्वआदि-रथयोधैः समावृतः।
कल्किस् तु भगवांस् तत्र ज्ञातार्थो ऽपि मुनीश्वरान्॥१४
पप्रच्छ का नदी चेयं कथं दुग्धवहाभवत् ।
ते कल्केस् तु वचः श्रुत्वा मुनयः प्राहुर् आदरात्॥१५
श्रुणु कल्के पयस्वत्याः प्रभवं हिमवद्-गिरौ(पयस्-वत् ।
समायाता कुथोदर्याः स्तन-प्रस्रवणाद् इह॥१६
घटिकासप्तकैश्चान्या पयो यास्यति वेगितम्।
हीनसारा तटाकारा भविष्यति महामते॥१७
इति श्रुत्वा मुनीनान् तु वचनं सैनिकैः सह।
अहो किम् अस्या राक्षस्याः स्तनादेका त्वियं नदी॥१८
एकं स्तनं पाययति विकञ्जं पुत्रम् आदरात्(पाययति ।
न जाने ऽस्याः शरीरस्य प्रमाणं कतिधा भवेत्॥१९
बलं वास्या निशाचर्या इत्य् ऊचुर् विस्मयअन्विताः।
कल्किः परात्मा सन्नह्य सेनाभिः सहसा ययौ॥२०
मुनि-दर्शित-मार्गेण यत्रास्ते सा निशाचरी ।
पुत्रं स्तनं पाययन्ती गिरिमूर्ध्नि घनोपमा॥२१
श्वास-वातातिवातेन दूर-क्षिप्तवनद्विपाः।
यस्याः कर्णबिलावासे प्रसुप्ताः सिंह-संकुलाः॥२२
पुत्रपौत्त्रैः परिवृता गिरिगह्वरविभ्रमाः।
केशमूलम् उपालम्ब्य हरिणाः शेरते चिरम्॥२३
यूका इव न च व्यग्रा लुब्धजातङ्कया भृशम्।
ताम् आलोक्य गिरेर् मूर्ध्नि गिरिवत्-परमअद्भुताम्॥२४
कल्किः कमलपत्राक्षः सर्वांस् तान् आह सैनिकान्।
भयोद्विग्नान् बुद्धि-हीनांस् त्यक्तोद्यमपरिच्छदान्॥२५
कल्किर् उवाच
गिरिदुर्गे वह्निदुर्गं कृत्वा तिष्ठन्तु मामकाः।
गजअश्व-रथ-योधा ये समायान्तु मया सह॥२६
अहं स्वल्पेन सान्येन याम्य् अस्याः संमुखं शनैः।
प्रहर्तुं बाण-सन्दोहैः खड्ग-शक्ति-परश्वधैः॥२७
इत्य् उक्त्वास्थाप्य पश्चात् तान् बाणैस् ताम् अहनद् बली।
सा क्रुधो’त्थाय सहसा ननर्द परमअद्भुतम्॥२८
तेन नादेन महाता वित्रस्तास् च अभवञ् जनाः।
निपेतुः सैनिकाः सर्वे मूर्च्छिता धरणीतले॥२९
सा रथांश् च गजांश् चअपि विवृतास्या भयानका ।
जघास प्रश्वास-वाताय्ः समानीय कुथोदरी॥३०
सेना-गणास् तद् उदरं प्रविष्ताः कल्किना सह ।
यथर्क्षमुखवातेन प्रविशन्ति पिपीलिकाः॥३१
तद् दृष्ट्वा देव-गन्धर्वा हाहाकारं प्रचक्रिरे।
तत्र-स्था मुनयः शेपुर्-जेपुश् चअन्ये महर्षयः॥३२
निपेतुर् अन्ये दुःखर्ता ब्राह्मणा ब्रह्म-वादिनः ।
रुरुदुः शिष्टयोधा ये जहृषुस् तन् निशाचराः॥३३
जगतां कदनं दृष्ट्वा सस्मारात्मानमात्मना।
कल्किः कमलपत्राक्षः सुरारातिनिषूदनः॥३४
बाणाग्निं चैल-चर्मभ्यां कर्मणे यानदारुभिः ।
प्रज्वाल्यो’दर-मध्ये तु करवालं समाददे॥३५
तेन खड्गेन महता कुक्षिं निर्भिद्य बन्धुभिः।
बलिभिर् भ्रातृभिर् वाहैर् वृतः शस्त्रअस्त्र-पाणिभिः॥३६
बहिर् बभूव सर्वेशः कल्किः कल्कविनाशनः ।
सहस्राक्षो यथा वृत्र-कुक्षिं दम्भोलि-नेमिना॥३७
योनि-रंध्राद् गज-रथास् तुरगाश् चअभवन् बहिः।
नासिका-कर्ण-विवरात् के ऽपि तस्या विनिर्गताः॥३८
ते निर्गतास् ततस् तस्याः सैनिका रुधिरोक्षिताः
तां विव्यदुर् निक्षिपन्तीं तरसा चरणौ कराव्॥३९
ममार सा भिन्न-देहा भिन्न-कुक्षि-शिरोधरा ।
नादयन्ती दिशो द्योखं चूर्णयन्ती च पर्वतान्॥४०
करञ्जो ऽपि तथा वीक्ष्य मातरं कातरो ऽभवत् ।
स विकञ्जः क्रुधाअधावत् सेना-मध्ये निरायुधः॥४१
गज-माला-कुलो वक्षो-वाजि-राजि-विभूषणः ।
महा-सर्प-कृतोष्नीषः केसरी-मुद्रितअङ्गुलिः॥४२
ममर्द कल्कि-सेनां तां मातुर् व्यसनकर्षितः ।
स कल्किस् तं ब्राह्मम् अस्त्रं रामदत्तं जिघांसया॥४३
धनुषा पञ्चवर्सीयं राक्षसं शस्त्रम् आददे।
तेनाअस्त्रेण शिरस् तस्य च्छित्वा भूमाअव-पातयत्॥४४
रुधिराक्तं धातुचित्रं गिरि-शृङ्गम् इवअद्भुतम्।
सपुत्रां राक्षसीं हत्वा मुनीनां वचनाद् विभुः॥४५
गङ्गातीरे हरि-द्वारे निवासं समकल्पयत् ।
देवानां कुसुमा-सारैर् मुनि-स्तोत्रैः सुपूजितः॥४६
निनाय तां निशां तत्र कल्किः परिजनावृतः।
प्रातर् ददर्श गङ्गायास् तीरे मुनि-गणान् बहून् ।
तस्याः स्नान-व्याज-विष्णोर् आत्मनो दर्शनाकुलान्॥४७
हरिद्वारे गङ्गा-तट-निकट-पिण्दारक-वने ।
वसन्तं श्रीमन्तं निज-गण-वृतं तं मुनि-गणाः।
स्तवैः स्तुत्वा स्तुत्वा विधिवदुदितैर् जह्नु-तनयां ।
प्रपश्यन्तं कल्किं मुनि-जन-गणा द्रष्टुम् अगमन्॥४८
इति श्री-कल्कि-पुराणे ऽनुभागवते भविष्ये तृतीयअंशे कुथोदरी-वधानन्तरं मुनि-दर्शनं नाम द्वितीयो ऽध्यायः॥२
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