श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \आठवाँ अध्याय | Shri Kalki Purana Third Part\Eighth Chapter

श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \आठवाँ अध्याय हिंदी से संस्कृत में

सूत उवाच

सेना-गणैः परिवृतः कल्किर् नारायणः प्रभुः। 
भल्लाट-नगरं प्रायात् खड्ग-धृक् सप्ति-वाहनः॥१

सूत जी बोले- नारायण प्रभु कल्कि जी घोड़े पर सवार होकर तलवार धारण कर अपनी सेना सहित भल्लाटनगर को गए। वे योगी भल्लाट के राजा, कल्कि जी को संसार का स्वामी और विष्णु का अवतार जानकर, अपनी सेना के सहित युद्ध करने की इच्छा से (नगर से) बाहर आए। बुद्धिमान्, श्रीमान्, लम्बे-चौड़े शरीर वाले, महा तेजवान्, कृष्णभक्त, महा बलवान राजा शशिध्वज हर्ष से पुलकित हो गए। राजा शशिध्वज की पत्नी महादेवी सुशान्ता भगवान् विष्णु का व्रत रखने वाली थी। अपने पति को कल्कि जी से युद्ध करने को तैयार देखकर उसने कहा- 'हे नाथ, कल्कि जी तो संसार के स्वामी, सबके अन्तःकरण में बसने वाले साक्षात् नारायण हैं, आप उनपर कैसे प्रहार करेंगे ?'


हे सुशान्ते, पितामह ब्रह्मा जी ने जिस प्रकार परम धर्म (कर्त्तव्य) निर्धारित किया है, उस धर्म के अनुसार संग्राम में सभी पर प्रहार किया जा सकता है, चाहे वहाँ गुरु हो या शिष्य हो या हरि ही क्यों न हो! संग्राम भूमि में जीवित लौटने पर (व्यक्ति) राज्य का उपभोग करता है और मरने पर स्वर्ग का आनन्द भोगता है। इसलिए लड़ाई में क्षत्रियों के लिए जीत और मौत दोनों ही सुखदायी हैं।' सुशान्ता जी बोली- 'जो कामी है या जो (माया मोह में फँसे) विषय-भोग में मस्त हैं, उन लोगों के लिए युद्ध में जीत होने पर राज्य भोग और मृत्यु होने पर स्वर्ग पाना (अवश्य ही) कु कुछ अर्थ रखता है, परन्तु जो नारायण के सेवक हैं, उनके लिए ये दोनों चीजें कुछ भी नहीं हैं। आप तो सेवक हैं, वे स्वामी (ईश्वर) हैं। आप निष्काम हैं, वे (आपको) फल प्रदान नहीं करेंगे। ऐसी अवस्था में मोह पूर्वक दोनों में युद्ध होना कैसे संभव हो सकता है ?'

राजा शशिध्वज ने कहा- 'ईश्वर तो सुख-दुःख आदि सब द्वन्द्वों से परे हैं। यदि उनके देह धारण करने के कारण ईश्वर और सेवक में द्वन्द्व युद्ध हो जाए तो वह विलास-लीला सेवारूप मानी जाएगी। जब भगवान् ने देह धारण की, तब काम आदि गुण जो माया के अंश हैं और शरीर के गुण हैं, भगवान् के शरीर में आए। कामादि का आरोपित होना देह धर्म है तो उनके शरीर में विषयादि क्यों नहीं आएँगे ? सर्वव्यापक (और पूर्ण ब्रह्मभाव सम्पन्न) होने से ही परमेश्वर को ब्रह्म कहते हैं। वही परमेश्वर जब शरीर धारण कर अवतार लेता है तो वह एक व्यक्ति हो जाता है और उसे शरीरिता कहते हैं। परमेश्वर के दो रूपों में अभेद दृष्टि रखने वाले भक्त के भी जन्म, परमेश्वर में लय और सांसारिक अभ्युदय उसी प्रकार सम्भव हैं। भगवान् विष्णु सेव्य भी हैं और सेवक भी। सेव्य- सेवक भाव ही सेवा है। यह भाव भी विष्णु-माया की ही देन है। उनकी माया ही सेवा (भी) कही गई है। परमेश्वर की यह द्वैत और अद्वैत चेष्ट (क्रिया) धर्म, अर्थ और काम रूप तीन प्रकार के पुरुषार्थों को जन्म देती है। हे प्रिये (कान्ते), इसी कारण मैं कल्कि जी के साथ युद्ध करने के लिए सेना सहित जाता हूँ। हे प्रिये, इधर अब तुम कमलापति नारायण जी की पूजा करो।'हे स्वामिन्, आप तो भगवान् विष्णु की सेवा करके विष्णु भगवान् में ही लीन हो गए। इस से मैं कृतार्थ हो गई। इस लोक और परलोक में भगवान् विष्णु की उपासना के अलावा और कोई गति नहीं है।' सुशान्ता के इस प्रकार के विनय भरे सुन्दर वचन सुन महाराजा शशिध्वज आँखों में (प्रेम के) आँसू भरकर भगवान् विष्णु को याद करने लगे और अपने को (उन्होंने) महान् वैष्णव समझा।

इसके बाद राजा शशिध्वज ने हर्षपूर्वक प्यारी सुशान्ता को छाती से लगाया, फिर अनेक (वैष्णव) वीरों को लेकर (वैष्णवों के साथ) भगवान् के नाम का स्मरण करते हुए युद्ध करने के लिए गए। राजा शशिध्वज ने कल्कि जी की सेना में घुसकर भारी सेना को तितर-बितर कर दिया। युद्ध के लिए तैयार महान् वीर शय्याकर्णगण शस्त्रास्त्र उठाकर उनके साथ युद्ध करने लगे। शशिध्वज राजा के पुत्र महाबलवान, परम वैष्णव, महाधनुर्धारी श्रीमान सूर्यकेतु सूर्यवंशी राजा मरु के साथ लड़ने लगे। सूर्यकेतु के छोटे भाई बृहत्केतु थे। वे अत्यन्त सुन्दर, कोयल जैसी मधुरवाणी वाले और गदा-युद्ध में बड़े निपुण थे। वे देवापि के साथ युद्ध करने लगे। राजा विशाखयूप हाथियों के झुण्डों सहित अनेक प्रकार के अस्त्र और शस्त्र लेकर राजा शशिध्वज के साथ युद्ध करने लगे। लाल घोड़े पर सवार, धनुर्धारी, फुर्तीले हाथ वाले, प्रतापी भर्य ने धूल से भरे स्थान में धनुर्धारी शान्त के साथ युद्ध शुरू किया।

इस प्रकार शूल, प्रास (परशु), गदा, बाण, शक्ति, ऋष्ट, तोमर, भल्ल, खड्ग (तलवार), भुशुण्डी (आग छोड़ने वाला अस्त्र) और कुन्त (बरछी) आदि अस्त्रों के प्रहार से लड़ाई चालू हो गई। चामर और ध्वजा पताका की छाया और गाढ़े धूल भरे वातावरण से युद्ध भूमि में अँधेरा छा गया। देवतागण आकाश में स्थित होकर युद्ध देखने लगे। गन्धर्वगण अमृत की भाँति मधुर वाणी में गाते हुए युद्ध देखने के लिए आए। सारे लोक ही अद्भुत युद्ध को देखने के लिए आए। शंख, दुन्दुभि (और नगाड़ों) की आवाज़, वीरों की ताल, हाथियों की चिंघाड़, घोड़ों की हिनहिनाहट और युद्ध के अस्त्रों के छोड़े जाने से होने वाली आवाज़ से युद्ध भूमि में भारी शोर हो गया। सब लोग गूंगे की तरह दिखाई देने लगे। कोई किसी की बात नहीं सुन सकता था। रथ पर सवार रथ पर सवारों से, पैदल पैदलों से, घुड़सवार घुड़सवारों से भिड़कर लड़ने लगे। यह युद्ध देवासुर संग्राम की तरह यमराज की प्रजा बढ़ाने लगा, अर्थात् बहुत भारी संख्या में लोग मारे जाने लगे। (इस युद्ध में) कल्कि जी की सेना के वीर और सेनापति और उनसे भिड़े हुए शशिध्वज के योद्धागण धूल-धूसरित होने लगे।

उनके हाथ, पाँव और सिर कट-कटकर जमीन पर गिरने लगे। कोई घायल होकर भाग रहे हैं, कोई चिल्ला रहे हैं, कोई भर्राई हुई आवाज़ में बिलख रहे हैं, कोई खून की धार से भीग रहे हैं, कोई एक-दूसरे पर गिर कर पृथ्वी को ढके हुए हैं और कोई हाथी और घोड़ों के पाँव और रथों से कुचले जा रहे हैं। इस तरह, इस युद्ध में हजारों-करोड़ों वीर मारे गए। युद्ध भमि में खून की नदियाँ बहने लगीं। खून की इन नदियों से पिशाच, राक्षस, गीदड़ और गिद्धों को बहुत आनन्द मिला। खून की इन नदियों में गिरी हुई पगड़ियाँ हंसों के समान दिखाई देने लगीं। गिरे हुए हाथी टापुओं की तरह दिखाई देने लगे। रथों के झुंड नावों की तरह दिखाई दे रहे थे। कटे हुए हाथ और पाँव मछलियों के समूह की तरह दिखाई दे रहे थे और (योद्धाओं के आभूषण और तलवारें सोने की रेत की तरह दिखाई दे रही थीं। इस प्रकार संग्राम भूमि में अति दारुण नदी प्रवृत्त हुई (निकल पड़ी)। बलवान् सूर्यकेतु मरु के साथ युद्ध कर रहे थे। काल के समान दुर्घर्ष (विकट) सूर्यकेतु ने बाणों से मरु को घायल कर दिया। मरु ने भी दस बाणों से सूर्यकेतु को आहत कर डाला। वीर सूर्यकेतु ने मरु के बाणों से घायल होने पर अत्यन्त क्रोधित होकर उसके घोड़ों को मार डाला और लात मारकर उसके रथ को चकनाचूर कर गदा से उसकी छाती में ज़ोर से चोट मारी। उस चोट से मरु बेहोश होकर गिर पड़ा। धर्म को जानने वाला सारथी अपने स्वामी मरु को दूसरे रथ में उठाकर ले गया। (उधर) बलवान बृहत्केतु ने अपने बाणों के समूह से देवापि को ढक डाला। जिस प्रकार सूर्य देवता कुहरे (धुंध) से ढक जाते हैं,

उसी प्रकार बाणों से ढके हुए देवापि ने उसी समय धनुष उठाकर अपने बाणों की बौछार से शत्रु के बाणों का निवारण कर दिया। बृहत्केतु ने पत्थर पर धार लगे हुए तेज़ बाणों से अपने शूल को टूटा देखकर पुनः धनुष उठाया और सोने से मढ़े हुए, लोहे के मुख वाले, गिद्ध के पंखों के समान तेज़ बाणों की बौछार कर देवापि और उसकी सेना पर प्रहार करना शुरू किया। देवापि ने तेज़ बाणों से बृहत्केतु का वह दिव्य धनुष काट डाला। धनुष नष्ट होने पर बृहत्केतु ने देवापि को मारने की इच्छा से तलवार धारण की। फिर वीर बृहत्केतु ने उस भयंकर युद्ध में देवापि के घोड़ों और सारथी को मार डाला। देवापि ने धनुष छोड़कर शत्रु को घूँसा (और थप्पड़) मारा। (देवापि ने) उसको दोनों भुजाओं के बीच दबाकर भींचना शुरू किया। अट्ठाइस (या सोलह) वर्षीय बृहत्केतु शत्रु द्वारा पीड़ित होकर बेहोश और मुर्दे के समान हो गया। अपने छोटे भाई की यह दशा देखकर सूर्यकेतु ने देवापि के सिर पर वज्र के समान एक घूंसा मारा। घूंसे की चोट से देवापि बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा। शत्रु सूर्यकेतु ने देवापि को बेहोश जानकर क्रोधित होकर उसकी सेना पर वार करना शुरू किया।

(उधर) राजा शशिध्वज ने युद्ध भूमि में सम्पूर्ण संसार के आधार, सूर्य के समान तेजस्वी, श्यामवर्ण कमल जैसी आँखों वाले, पीले कपड़े पहने, बड़ी भुजाओं वाले, सुन्दर मुकुट से शोभायमान कल्कि जी को अपने सामने देखा। भाँति-भाँति की मणियों के समूह से सुशोभित शरीर वाले, लोगों की आँखों और हृदय के अंधकार को दूर करने वाले कल्कि जी को चारों ओर से विशाखयूप आदि राजागण घेरे हुए थे। धर्म और सत्युग उनकी पूजा कर रहे थे।

श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \आठवाँ अध्याय संस्कृत में

सूत उवाच

सेना-गणैः परिवृतः कल्किर् नारायणः प्रभुः। 
भल्लाट-नगरं प्रायात् खड्ग-धृक् सप्ति-वाहनः॥१

स भल्लाटे’श्वरो योगी ज्ञात्वा विष्णुं जगत्-पतिम्। 
निज-सेना-गणैः पूर्णो योद्धु-कामो हरिं ययौ॥२

स हर्षो’त्-पुलकः श्रीमान् दीर्घाङ्गः कृष्ण-भावनः। 
शशि-ध्वजो महातेजा गजअयुत-बलः सुधीः॥३

तस्य पत्नी महादेवी विष्णु-व्रत-परायणा। 
सुशान्ता स्वामिनं प्राह कल्किना योद्धुम् उद्यतम्॥४

नाथ कान्तं जगन्-नाथं सर्वान्तर्यामिनं प्रभुम्। 
कल्किं नारायणं साक्षात् कथं त्वं प्रहरिष्यसि॥५

शशिध्वज उवाच

सुशान्ते परमो धर्मः प्रजापति-विनिर्मितः। 
युद्धे प्रहारः सर्वत्र गुरौ शिष्ये हरेर् इव॥६

जीवतो राज-भोगः स्यान् मृतः स्वर्गे प्रमोदते। 
युद्धे जयो वा मृत्युर् वा क्षत्रियाणां सुखावहः॥७

सुशान्तो’वाच

देवत्वं भूपतित्वं वा विषयाविष्टका मिनाम् । 
उन्मदानां भवेद् एव न हरेः पाद-सेविनाम्॥८

त्वं सेवकः स चअपीसस् त्वं निष्कामः स चाप्रद्ः। 
युवयोर् युद्धमिलनं कथं मोहाद् भविष्यति॥९

शशिध्वज उवाच

द्वन्द्वातीते यदि द्वन्द्वम् ईश्वरे सेवके तथा।
देहावेशाल् लीलयै’व सा सेवा स्यात् तथा मम॥१०

देहावेशाद् ईश्वरस्य कामाद्या दैहिका गुणाः।
मायाङ्गा यदि जयन्ते विषयाश् च न किं तथा॥११

ब्रह्मतो ब्रह्मतेशस्य शरीरित्वे शरीरिता
सेवकस्याभेददृशस् त्व् एवं जन्म-लयोदयाः॥१२

सेव्य-सेवकता विष्णोर् माया सेवेति कीर्तिता।
द्वैतअद्वैतस्य चेष्टाएषा त्रिवर्ग-जनिका सताम्॥१३

अतो’ऽहं कल्किना योद्धुं यामि कान्ते स्वसेनया।
त्वं तं पूजय कान्ते’द्य कमलापतिम् ईश्वरम्॥१४

सुशान्ताउवाच

कृतार्था’हं त्वया विष्णु-सेवा-संमिलितात्मना।
स्वामिन्न् इह परत्रअपि वैष्णवी प्रथिता गतिः॥१५

इति तस्या वल्गु-वाग्भिः प्रणतायाः शशिध्वजः।
आत्मानं वैष्णवं मेने साश्रु-नेत्रो हरिं स्मरन्॥१६

ताम् आलिङ्ग्य प्रमुदितः शूरैर् बहुभिर् आवृतः।
वदन् नाम स्मरन् रूपं वैष्णवैर् योद्धुम् आययौ॥१७

गत्वा तु कल्कि-सेनायां विद्राव्य महतीं चमूम्।
शय्याकर्ण-गणैर् वीरैः सन्नद्धैर् उद्यतआयुधैः॥१८

शशिध्वज-सुतः श्रीमान् सूर्यकेतुर् महाबलः।
मरु-भूपेन युयुधे वैस्णवो धन्विनां वरः॥१९

तस्यअनुजो बृहत्केतुः कान्तः कोकिलनिस्वनः।
देवापिना स युयुधे गदाआयुद्ध-विशारदः॥२०

विशाखयुप-भूपस् तु शशिध्वज-नृपेण च।
युयुधे विविधैः शस्त्रैः करिभिः परिवारितः॥२१

रुधिरअश्वो धनुर्-धारी लघु-हस्तः प्रतापवान्।
रजस्यनेन युयुधे भर्गः शान्तने धन्विना॥२२

शूलैः प्रासैर् गदाघातैर् बाण-शक्त्यष्टितोमरैः।
भल्लैः खड्गैर् भुशुण्दीभिः कुन्तैः समभवद् रणः॥२३

पताकाभिर् ध्वजैश् चिह्नैस् तोमरैश् छत्र-चामरैः।
प्रोद्धतधूलिपटलैर् अन्धकारो महान् अभूत्॥२४

गगने ऽनुघना देवाः के वा वासं न चक्रिरे।
गन्धर्वैः साधु-सन्दर्भैर् गायनैर् अमृतायनैः॥२५

द्रष्तुं समागताः सर्वे लोकाः समरम् अद्भुतम्।
शंख-दुन्दुभि-सन्नादैर् आस्फोटैर् बृंहितैर् अपि॥२६

ह्रेषितैर् योधनोत्क्रुष्तैर् लोका मूका इवअभवन्।
रथिनो रथिभिः साकं पदातिश् च पदातिभिः॥२७

हया हयैर् इभाश् चे’भैः समरो ऽमरदानवैः।
यथअभवत् स तु घनो यमराष्ट्र-विवर्धनः॥२८

शशिध्वज-चमू-नाथैः कल्कि-सेनाअधिपैः सह ।
निपेतुः सैनिका भूमौ छिन्न-बाह्व्-अङ्/घ्रि-कन्धराः॥२९

धावन्तो ऽतिब्रुवन्तश् च विकुर्वन्तो ऽसृग्-उक्षिताः।
उपर्य्-उपरि संछन्ना गजअश्व-रथमर्दिताः॥३०

निपेतुः प्रधने वीराः कोटि-कोटि-सहरशः।
भूते सानन्द-सन्दोहाः स्रवन्तो रुधिरो’दकम्॥३१

उष्नीष-हंसाः संछिन्न-गजरोधोरथ-प्लवाः।
करोरु-मीना-भरणम् असि-काञ्चन-वालुकाः॥३२

एवं प्रवृत्ता संग्रामे नद्यः सदिओ ऽतिदारुणाः
सूर्यकेतुस् तु मरुणा सहितो युयुधे बली॥३३

कालकल्पो दुराधर्षो मरुं बाणैर् अताडयत्।
मरुस् तु तत्र दशभिर् मार्गणैर् आर्मूयद् भृशम्॥३४

मरु-बाणा-हतो वीरः सूर्यकेतुर् अमर्षितः।
जघान तुरगान् कोपात् पादोद्धातेन तद् रथम्॥३५

चूर्णयित्वा ऽथ तेनअपि तस्य वक्षस्य् अताडयत्।
गदाघातेन तेनअपि मरुर् मूर्छाम् अवापह॥३६

सारथिस् तम् अपोवाह रथे नान्येन धर्मवित्।
बृहत्केतुश् च देवापिं बाणैः प्राच्छादयद् बली॥३७

धनुर् विकृष्य तरसा नीहारेण यथा रविम्।
स तु बाणमयं वर्षं परिवार्य निजआयुधैः॥३८

बृहत्केतुं दृढं जघ्ने कङ्कपत्राः शिलाशितैः।
भिन्नं शूलम् अथआलोक्य धनुर् गृह्य पतत् त्रिभिः॥३९

शितधारैः स्वर्ण-पुंखैर् गाद्ध्रपत्रैर् अयोमुखैः।
देवापिम् आशुगैर् जघ्ने बृहत्केतुः स-सैनिकम्॥४०

देवापिस् तद् धनुर् दिव्यं चिच्छेद निशितैः शरैः।
छिन्न-धन्वा बृहत्केतुः खड्ग-पाणिर् जिघांसया॥४१

देवापेः सारथिं सअश्वं जघ्ने शूरो महामृधे।
स देवापिर् धनुस् तिअक्त्वा तलेनअहत्य तं रिपुम्॥४२

भुजयोर् अन्तरानीय निष्पिपेष स निर्दयः।
तं द्व्य्-अष्ट-वर्षं निष्क्रान्तं मूर्छितं शत्रुणअर्दितम्॥४३

अनुजं वीक्ष्य देवापिमूर्ध्नि सूर्यध्वजो ऽवधीत्।
मुष्टिना वज्रपातेन सो ऽपतन् मूर्छितो भुवि।
मूर्छितस्य रिपुः क्रोधात् सेना-गणम् अताडयत्॥४४

शशिध्वजः सर्वजगन्-निवासं कल्किं पुरस्तादभि-सूर्य-वर्चसम्।
श्यामं पिशङ्गाम्बरम् अम्बुजेक्षणं) बृहद्-भुजं चारु-किरीट-भूषणम्॥४५

नाना-मणि-व्रात-चितअङ्ग-शोभया निरास्तलोकेक्षणहृत्तमोमयम्।
विशाखयूपआदिभिर् आवृतं प्रभुं) ददर्श धर्मेण कृतेन पूजितम्॥४६

इति श्री-कल्कि-पुराणे ऽनुभागवते भविष्ये तृतीयअंशे शशिध्वज-कल्कि-सेनयोर् युद्धं नामअष्टमो ऽध्यायः॥८

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