श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \बारहवाँ अध्याय | Shri Kalki Purana Third Part \Twelfth Chapter

श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \बारहवाँ अध्याय हिंदी से संस्कृत में

शशिध्वज उवाच

एतद् वः कथितं भूपाः कथनीयो’रुकर्मणः।
कथा भक्तस्य भच्तेश् च किम् अन्यत् कथयाम्य् अहम्॥१

राजा शशिध्वज ने कहा- 'हे राजाओ ! मैंने (आप लोगों को) ऐसे भक्त और भक्ति की महिमा बताई है, जिनके अद्भुत कामों का कीर्तन करना चाहिए। अब (बताइए) मैं और क्या कहूँ ?' राजाओं ने कहा- 'हे राजन् ! आप तो महान् वैष्णव हैं (और) सभी प्राणिमात्र की भलाई के काम में लगे रहते हैं। फिर क्या कारण है कि आप हिंसा आदि दोषों से युक्त लड़ाई में शामिल हुए ? हमने देखा है कि सज्जन अधिकांश रूप से अपने प्राण, बुद्धि, धन एवं वचन द्वारा विषय-वासना वाले प्राणियों की भलाई करते हैं।'


राजा शशिध्वज ने कहा- 'सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण वाली प्रकृति से ही द्वैत भाव प्रकट होता है। यह प्रकृति ही काम रूपिणी है, यानी इच्छा रूपिणी है, और इस प्रकृति से ही सभी वेद और तीनों लोक पैदा हुए हैं। वेद तीनों जगत में धर्म की स्थापना और अधर्म का नाश करके विषय- भोग की इच्छा रखने वाले लोगों में भक्ति पैदा करते हैं। वेदों में पारंगत वात्स्यायन आदि मुनि और मनु (या मनुष्य) वेदवाणी के शासन को मानते हुए (वेद-वाक्यों का पालन करते हुए), ईश्वर को ही आहुति (या धर्म-भेंट) अर्पित (प्रदान) करते हैं (की थी)। हमलोग उनके पीछे चलने वाले बनकर धर्म- कर्म में लगे रहकर (ही) युद्ध करते हैं। वेदों के आदेशों के अनुसार लड़ाई में हम (आक्रमण करने वाले) आततायियों का नाश करते हैं। सभी वेदों के जानने वाले विद्वान् भगवान् वेद व्यास जी ने कहा है कि यदि ऐसे व्यक्ति की हम हत्या करते हैं, जो हत्या के योग्य नहीं हैं तो हमें जैसा पाप लगता है, वैसा ही पाप हमें तब लगता है, जब हम किसी हत्या के योग्य जीव को बचा देते हैं। ऐसा आचरण न करने से इतना अधर्म होता है कि जिसका प्रायश्चित नहीं है। यही कारण है कि मैं युद्ध के मैदान में कठिनता से जीते जाने वाली सेना का नाश करने में तत्पर होकर धर्म, सत्ययुग तथा कल्कि जी को ले आया हूँ। मेरा विचार है कि यही असली भक्ति है। अब इस विषय में आप अपना अभिप्राय बताइए।

इसके अलावा, मैं वेद वाक्य के अनुसार (अपने कहने के समर्थन में) प्रमाण दूँगा। भगवान् विष्णु सर्वत्र व्यापक हैं, यानी सभी जगह वे मौजूद हैं, तो (उस हालत में) कौन मारता है और किसको मारा जाता है? कहने का मतलब है कि मरने वाले में भी वही विष्णु हैं और मारने वाले में भी वही हैं। जब वध (हत्या) करने वाले श्री विष्णु हैं और वध किए जाने वाले भी श्री विष्णु हैं, फिर किसकी हत्या होगी ? वेदों का आदेश भी यही है कि युद्ध और यज्ञ आदि में की जाने वाली हत्या को हत्या नहीं माना जाता। मुनि लोग और चौदह मनु भी ऐसा ही बताते हैं। हमलोग भी यज्ञ और युद्ध से इसी तरह भगवान् विष्णु की पूजा किया करते हैं। इसलिए, भगवती माया का सहारा लेकर, विधिपूर्वक सेवक सेव्य (सेवा करने वाला और वह, जो सेवा किए जाने योग्य है) भाव वाली आराधना से साधक सुखी होता है, दूसरा कोई उपाय नहीं है, जिससे सुखी हुआ जा सके।'

राजागण बोले- 'हे राजन् ! राजा निमि ने गुरु वशिष्ठ के शाप के कारण अपना शरीर छोड़ दिया था, परन्तु इस प्रकार से भोग से युक्त शरीर में कैसे वैराग्य हुआ ? जब यज्ञ के अन्त में देवताओं ने प्रसन्न होकर, उसको बचाया और उसे फिर से शरीर में प्रवेश करने की आज्ञा दी, तब वह राजा किस कारण से छोड़ी हुई देह में फिर प्रवेश करने के लिए सहमत नहीं हुए ? सुना है कि महर्षि वशिष्ठ जी ने शिष्य के शाप से देह छोड़कर फिर देह को ग्रहण किया। भक्त तो (जन्म-मरण के चक्र से छूट जाता है) मुक्ति पा लेता है, इसलिए मुक्ति प्राप्त करने वाले व्यक्ति का फिर जन्म कैसे हो सकता है ? अतएव, ज्ञानी लोगों तक के लिए भी भगवान् की माया समझ के बाहर है। यह माया तो इन्द्रजाल (जादू) की तरह संसार में फैलकर प्राणियों को मोहित करती है।'

वचन बोलने में उत्तम राजा शशिध्वज ने उनकी ये बातें सुनकर भक्ति सहित हृदय में प्रणाम करके फिर यह कहना शुरू किया। राजा शशिध्वज बोले- 'तीर्थ, क्षेत्रादि के दर्शन करने से अनेक जन्मों के बाद भगवान् की कृपा से सज्जनों का साथ मिलता है, इस सत्संग से ही जीव ईश्वर के दर्शन पाता है। (ऐसा व्यक्ति) फिर विष्णु लोक में जाकर आनन्द से भरे हृदय से ईश्वर का भजन करता है। इस प्रकार से संसार में जीव अद्भुत भोगों को भोगकर भक्त बनता है। जो लोग रजोगुणी होते हैं, वे हमेशा कर्मों के द्वारा श्री विष्णु की पूजा करते रहते हैं और भगवान् का नाम-कीर्तन और उसके रूप का स्मरण करने को उत्सुक (इच्छुक रहते हैं। वे लोग भगवान् के अवतार का अनुकरण करते हैं। एकादशी आदि पर्वों में व्रत रखते हैं और भगवान् संबंधी महोत्सव, भगवान् की भक्ति, भगवान् की पूजा आदि कामों से ही उनका हृदय परम आनन्द से भरता है। अतएव ऐसे सभी भक्त लोग, जिन्होंने स्वयं भोगफल को प्रत्यक्ष देखा है, मोक्ष के लिए प्रार्थना नहीं करते। वे भोगों को भोगते हुए ही जन्म ग्रहण करके हरिभाव को प्रकट किया करते हैं। भक्त लोग भगवान् नारायण के ही रूप हैं। उन लोगों से ही सारे क्षेत्र और तीर्थ पवित्र होते हैं।

वे धर्म-कार्य में लगे रहते हैं। सारे सार (तत्व) और असार (तत्वहीन) की जानकारी रखते हैं और सेव्य और सेवक इन दो मूर्तियों में निवास करते हैं। जैसे भगवान् श्री कृष्ण ने अवतार ग्रहण किया था, वैसे ही उनके सेवक भी समय- समय पर अवतार ग्रहण किया करते हैं। इसी कारण से निमि भक्तों की आँखों पर निमेष रूप से रहते हैं। यह भी भगवान् की लीला है। वशिष्ठ जी ने मुक्त होने पर जो शरीर धारण किया था, उसका भी कारण यही है। राजाओ! मैंने आप से यह भक्ति और भक्त की महिमा बताई है। इसको सुनने से मनुष्य के सभी पाप जल्दी ही नष्ट हो जाते हैं, नारायण के प्रति भक्ति बढ़ती है, इन्द्रियों के अधिष्ठाता (स्वामी) देवता लोग भी आनन्द पाते हैं और काम-रोग आदि सभी दोष नष्ट होकर माया-मोह दूर हो जाते हैं। तीनों लोकों के ज्ञाता व्यास आदि भावुक मुनियों ने वेद-पुराणादि तरह-तरह के शुद्ध शास्त्रीय व्याख्या करने वाले अमृत तत्व को बहुत लम्बे समय तक मंथन किया और उस मंथन के फलस्वरूप अद्भुत कृष्ण- प्रेम का ताज़ा मक्खन प्राप्त हुआ। इसके द्वारा संसार के बंधन कट जाते हैं। लोगों ने जब देखा कि व्यासादि मुनियों को ऐसा फल मिला तो उन्होंने भगवान् श्री कृष्ण के साथ उनकी तुलना की है।'

श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \बारहवाँ अध्याय संस्कृत में

शशिध्वज उवाच

एतद् वः कथितं भूपाः कथनीयो’रुकर्मणः।
कथा भक्तस्य भच्तेश् च किम् अन्यत् कथयाम्य् अहम्॥१

भूपा ऊचुः

त्वं राजन् वैष्णव-श्रेष्थः सर्व-सत्त्व-हिते रतः।
तवावेशः कथं युद्ध-रङ्गे हिंसाआदि-कर्मणि॥२

प्रायशः साधवो लोके जीवानां हित-कारिणः।
प्राण-बुद्धि-धनैर् वाग्भिः सर्वेषां विषयआत्मनाम्॥३

शशिध्वज उवाच

द्वैत-प्रकाशिनी या तु प्रकृतिः काम-रूपिणी।
सा सूते त्रि-जगत्-कृत्-स्नं वेदांश् च त्रि-गुणआत्मिका॥४

ते वेदास् त्रिजगद्-धर्म-शासनअधर्म-नाशनाः।
भक्ति-प्रवर्तका लोके कामिनां विषयै’षिणाम्॥५

वात्स्यायनआदि-मुनयो मनवो वेद-पारगाः।
वहन्ति बलिम् ईशस्य वेद-वाक्यअनुशासिताः॥६

वयं तद् अनुगाः कर्म-धर्म-निष्था रण-प्रियाः।
जिघांसन्तं जिघांसामो वेदअर्थ-कृत-निश्चयाः॥७

अवध्यस्य वधे यावांस् तावान् वध्यस्य रक्षणे।
इत्य् आह भगवान् व्यासः सर्व-वेदअर्थ-तत्-परः॥८

प्रायश्चित्तं न तत्रअस्ति तत्रअधर्मः प्रवर्तते।
अतो ऽत्र वाहिनीं हत्वा भवतां युधि दुर्जयाम्॥९

धर्मं कृतञ् च कल्किं तु समानीयअगता वयम्
एषा भक्तिर् मम मता तवअभिप्रेतम् ईरय॥१०

अहं तद् अनु-वक्ष्यामि वेद-वाक्यअनुसारतः।
यदि विष्नुः स सर्वत्र तदा कं हन्ति को हतः॥११

हन्ता विष्णुर् हतो विष्णुर् वधः कस्यअस्ति तत्र चेत्।
युद्ध-यज्ञआदिषु वधे न वधो वेद-शासनात्॥१२

इति गायन्ति मुनयो मनवश् च चतुर्-दश।
इत्थं युद्धैश् च यज्ञैश् च भजामो विष्णुम् ईश्वरम्॥१३

अतो भागवतीं मायाम् आश्रित्य विधिना यजन्।
सेव्य-सेवक-भावेन सुखी भवति नअन्यथा॥१४

भूपा ऊचुः

निमेर् भूपस्य भूपाल! गुरोः शापान् मृतस्य च।
तादृशे भोगायतने विरागः कथम् उच्यताम्॥१५

शिष्य-शापाद् वशिष्ठस्य देहावाप्तिर् मृतस्य च।
श्रुयते किल मुक्तानां जन्म भक्त-विमुक्तता॥१६

अतो भागवती मया दुर्बोध्याविजितात्मनाम्।
विमोहयति संसारे नानात्वाद् इन्द्रजालवत॥१७

इति तेषां वचो भूयः श्रुत्वा राजा शशिध्वजः।
प्रोवाच वदतां श्रेष्ठो भक्ति-प्रवणया धिवा॥१८

शशिध्वज उवाच

बहूनां जन्मनामन्ते तीर्थ-क्षेत्रआदि-योगतः।
दैवाद् भवेत् साधु-संगस् तस्माद् ईश्वर-दर्शनम्॥१९

ततः सालोक्यताम्प्राप्य भजन्त्य् आदृत-चेतसः।
भुक्त्वा भोगान् अनुपमान् भक्तो भवति संसृतौ॥२०

रजोजुषः कर्म-पराः हरि-पूजापराः सदा।
तन् नामानि प्र-गायन्ति तद् रूप-स्मरनोत्सुकाः॥२१

अवतारअनुकारण-पर्व-व्रत-महोत्सवाः।
भगवद्-भक्ति-पूजाढ्याः परमानन्द-संप्लुताः॥२२

अतो मोक्षं न वाञ्छन्ति दृष्ट-मुक्ति-फलउदयाः।
मुक्त्वा लभन्ते जन्मानि हरि-भाव-प्रकाशकाः॥२३ 

हरि-रूपाः क्षेत्र-तीर्थ-पावना धर्म-तत्-पराः।
सारअसार-विदः सेव्य-सेवका द्वैत-विग्रहाः॥२४

यथाअवतारः कृष्णस्य तथा तत् सेविनाम् इह।
एवं निमेर् निमिषता लीला भक्तस्य लोचने॥२५

मुक्तस्यअपि वसिष्ठस्य शरीर-भजनादरः।
एतद् वः कथितं भूपा माहात्म्यं भक्ति-भक्तयोः॥२६

सद्यः पाप-हरं पुंसां हरि-भक्ति-विवर्धनम्।
सर्वे’न्द्रिय-स्थं देवानाम् आनन्द-सुख-सञ्चयम्।
काम-रागआदि-दोष-घ्नं माया-मोह-निवारणम्॥२७

नाना-शास्त्र-पुराण-वेद-विमल-व्याख्याअमृतअम्भो-निधिर्।
संमथ्यअतिचिरं त्रिलोक-मुनयो व्यासआदयो भावुकाः।

कृष्ने भावम् अनन्यम् एवम् अमलं हैयङ्गवीनं नवं।
लब्ध्वा संमृति-नाशनं त्रिभुवने श्री-कृष्ण-तुल्यायते॥२८

इति श्री-कल्कि-पुराणे ऽनुभागवते भविष्ये तृतीयअंशे भक्ति-भक्त-माहात्म्यं नाम द्वादशो ऽध्यायः॥१२

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