श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \छठा अध्याय | Shri Kalki Purana Third Part \Sixth Chapter

श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \छठा अध्याय हिंदी से संस्कृत में

सूत उवाच

इति तौ मरु-देउआपी श्रुत्वा कल्केर् वचः पुरः।
कृतो’द्वाहौ रथआरूढौ समायातौ महाभुजौ॥१

सूत जी बोले- भगवान् कल्कि के कहने के अनुसार मरु और देवापि ने विवाह कर लिया था। इस समय वे दोनों विशाल भुजाओं वाले पुरुष (कल्कि जी के वचन सुनकर) रथ पर चढ़े हुए वहाँ आए। अपनी वीरता का अभिमान करने वाले वे दोनों अपने शरीर को कवच से ढके हुए, उंगलियों में गुश्ताना लगाए हुए, भारी सेना को साथ लिए, अनेक प्रकार के अस्त्र व शस्त्रों को धारण किए हुए थे। उनके माथे पर काले रंग का शिरस्त्राण (सिर की रक्षा करने वाला) शोभा पा रहा था। वे अति प्रवीण (धुरंधर) धनुष बाण धारण करने वाले, छः अक्षौहिणी सेना के साथ पृथ्वी को कँपा रहे थे।


विशाखयूप राजा के साथ भी एक लाख हाथी, एक करोड़ घोड़े और सात हजार रथ थे। साथ ही धनुष बाण धारण किए हुए दो लाख सजी हुई पैदल सेना थी। हवा के झोंकों से उनकी पगड़ियाँ और दुपट्टे हिल रहे थे। इसके अलावा, उनके साथ पचास हज़ार लाल रंग के घोड़े, दस हज़ार मतवाले हाथी, बहुत-से महारथी और नौ लाख पैदल सेना थी। शत्रुपुर को जीतने वाले कल्कि जी इस प्रकार से, देवलोक में स्थित देवताओं के राजा इन्द्र के समान, दस अक्षौहिणी सेना सहित सुशोभित थे।

इस प्रकार भाई, पुत्र, मित्र और सैनिकों से घिरे हुए संसार के स्वामी भगवान् कल्कि ने प्रसन्न होकर दिग्विजय (दिशाओं को अर्थात् सम्पूर्ण संसार को विजय) करने की इच्छा से यात्रा की। उसी समय उस स्थान पर बलवान कलि द्वारा पीड़ित (निग्रह किया हुआ) धर्म ब्राह्मण वेश में परिजनों सहित आया। उसके सेवकों में ऋत, प्रसाद, अभय, सुख, प्रीति, योग, अर्थ, अदर्प, स्मृति, क्षेम (सुरक्षा) और प्रतिश्रय (शरण) थे। श्रीहरि के दोनों अंश नर और नारायण भी, जो कि तप और व्रत सम्पन्न थे, साथ थे। धर्म इन सबको लेकर स्त्री-पुत्र सहित शीघ्र ही उस स्थान पर आया।

श्रद्धा, मैत्री (मित्रता), दया, शान्ति, तुष्टि, (संतोष), पुष्टि (पोषण), क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा (बुद्धि विशेष, जो धारण करती है), तितिक्षा (सहन करने की शक्ति), आदि धर्म पालन करने वाले मूर्तिभाव (शरीर सहित) अपने बन्धुओं सहित, कल्कि जी के दर्शनों के लिए और अपने आने का कारण बताने के लिए वहाँ आए। कल्कि जी ने ब्राह्मण के दर्शन कर नम्रतापूर्वक विधिवत् उनकी पूजा की और कहा- 'आप कौन हैं और यहाँ कैसे आए हैं ? पुण्य भोग समाप्त होने पर स्वर्ग से पृथ्वी पर आगत् (क्षीण-पुण्य) पुरुष के समान आप (स्त्री-पुत्र सहित) किस राजा के राज्य से आए हैं? यह सब ठीक-ठीक मुझ से वर्णन कीजिए। पाखण्डों से तिरस्कृत (अपमानित) वैष्णव सज्जनों के समान आप (और आपके स्त्री-पुत्र आदि, जन-बल और पौरुष (पराक्रम) से रहित अत्यन्त कातर हैं।'

कमलापति कल्कि जी के ये वचन सुनकर अपनी शान्ति (कल्याण) के विषय में सोचते हुए, अनाथ और बहुत कातर धर्म ने अपने पुत्रों, स्त्री तथा अपने अनुचरों के साथ हाथ जोड़कर, आनन्द तथा दया से युक्त श्रीहरि की पूजा एवं प्रणाम कर, स्तुति की। धर्म ने कहा- 'हे कल्कि जी, आप मेरा वृतान्त सुनिए। मैं ब्रह्म स्वरूप धर्म हूँ और आपके वक्ष स्थल (छाती) से पैदा हुआ हूँ। मैं सभी जीवधारियों की इच्छाओं को पूरा करने वाला हूँ। मैं देवताओं में अग्रणी (सबसे पहला) हूँ। मैं देवताओं तथा पितरों को दी जाने वाली आहुति के अंश का भागीदार हूँ। यज्ञ के फल को देने वाला मैं साधुओं की मनोकामना पूरी करता हूँ। आपकी आज्ञा के अनुसार मैं सदैव साधुओं का काम करता हुआ घूमा करता हूँ। इस समय मैं समय की गति से बलवान् कलि के द्वारा पराजित हुआ हूँ। इस समय शक, कम्बोज, शबर आदि (अनार्य) जातियाँ कलि के अधिकार में रह रही हैं। हे सम्पूर्ण संसार के आधार, इस समय साधु लोग संसार रूपी काल की आग से संताप पाकर दुःखी हो रहे हैं।

इसी कारण मैं आप के चरणों में आया हूँ।' धर्म के द्वारा इन अद्भुत वचनों के कहे जाने पर, पापों को नाश करने वाले श्रीमान् कल्कि जी सबको प्रसन्न करते हुए नम्रतापूर्वक बोले- 'हे धर्म, देखो कृतयुग आ गया है। ये सूर्यवंश में उत्पन्न हुए राजा मरु हैं। तुम जानते ही हो कि मैंने ब्रह्मा जी की प्रार्थना पर शरीर धारण किया है। कीटक देश में (मैंने) बौद्धों का दमन किया है। यह जानकर तुम सुखी होवो। जो लोग वैष्णव नहीं हैं और अन्य जो तुम्हारे विरुद्ध उपद्रव करते हैं, मैं उनका विनाश करने के लिए सेनासहित यात्रा करता हूँ। इस समय तुम निडर होकर पृथ्वी पर घूमो।

(हे धर्म) अब जबकि मैं उपस्थित हूँ और सत्ययुग आ गया है, तब तुम्हें क्या डर है? तुम किस कारण मोह से व्याकुल हो रहे हो ? अब तुम यज्ञ, दान और व्रत के साथ घूमो। हे धर्म, तुम संसार के प्रिय हो। तुम अपने पुत्रों तथा बन्धुओं के साथ दिग्विजय करने तथा शत्रुओं का नाश करने के लिए यात्रा करो। मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूँ।' धर्म, कल्कि जी के ये वचन सुनकर, बहुत प्रसन्न हुए और अपने आधिपत्य का स्मरण करते हुए कल्कि जी के साथ जाने की इच्छा प्रकट की (जाने को तत्पर हुए)। यात्रा के समय धर्म ने अपनी पत्नी तथा पुत्रों को सिद्धाश्रम में रख छोड़ा। जब धर्म प्रस्थान करने को तैयार हुए, वे साधु-सत्कार रूपी कवच से सन्नद्ध, वेद और ब्रह्मा रूप रथ पर सवार, अनेकानेक शास्त्रों के अनुसंधान के संकल्प रूप धनुष से सुसज्जित थे। वेद के सात स्वर धर्म के रथ के सात अश्व थे, ब्राह्मण सारथि और अग्नि उनका आश्रय था। इस प्रकार धर्म रूपी उस नायक ने तरह-तरह के क्रियानुष्ठान रूपी बल से युक्त होकर यात्रा की। कल्कि जी, यज्ञ, दान, तप, यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह), नियम (शौच, संतोष, तपः, स्वाध्याय, ईश्वर-प्राणिधान) आदि सहायकों के साथ खश, काम्बोज, शबर, बर्वरादि (म्लेच्छों) को हराने के लिए (अपने) इच्छित स्थान (कलि के वास-स्थान) पर गए। कलि का वास-स्थान भूतों का डेरा था

कलि और कल्कि भगवान के मध्य युद्ध

और वहाँ चारों ओर कुत्ते भौंक रहे थे। वह स्थान गोमांस की बदबू से भरा था, कौवों, गीदड़ों और उल्लुओं से घिरा हुआ था। वहाँ स्त्रियों से संबंधित झगड़ों, और जुआ, व्यसन आदि का अड्डा था। यह नगरी भयंकर दिखाई देने वाली व संसार के लिए डरावनी थी। वहाँ स्त्रियों की आज्ञा पर चलने वाले लोग थे। कल्कि जी की युद्ध के लिए यात्रा की तैयारी सुनकर कलि बहुत क्रोधित होकर अपने बेटे-पोतों सहित उल्लू की ध्वजा वाले रथ पर सवार होकर विशसन नामक नगर से बाहर निकला। कलि को देखकर धर्म ने ऋषियों के साथ कल्कि जी की आज्ञानुसार (कल्कि जी के प्रोत्साहन देने वाले वचनों से उत्साहित होकर) उसके साथ लड़ाई शुरू कर दी। ऋतु के साथ दंभ की लड़ाई होने लगी। प्रसाद ने लोभ को युद्ध करने के लिए ललकारा। अभय के साथ क्रोध की और सुख के साथ भय की लड़ाई होने लगी। निरय (नरक) मुद के पास आकर अनेक शस्त्र-अस्त्रों से लड़ाई करने लगा। आधि (वेदना यानी मानसिक पीड़ा) ने योग के साथ और व्याधि (बीमारी) ने क्षेम के साथ लड़ाई शुरू की। ग्लानि ने प्रश्रय से और जरा (बुढ़ापे) ने स्मृति से युद्ध करना शुरू किया। इस प्रकार से बहुत कठोर और घोर लड़ाई शुरू हो गई। ब्रह्मा आदि देवता युद्ध को देखने के लिए अपनी विभूति (शक्ति) सहित आकाश में आ गए। मरु अत्यन्त बलवान् खश और कम्बोज लोगों से लड़ाई करने लगे। देवापि ने युद्ध में चीन, बर्बर तथा उनके सेवकों से लड़ाई की। राजा विशाखयूप ने पुलिन्दों और श्वपचों (नीच व चाण्डाल) के साथ अत्यन्त प्रभावकारी अनेक दिव्य शस्त्र-अस्त्रों से लड़ाई शुरू की। कल्कि जी अपनी सेना सहित उत्तम शस्त्र तथा अस्त्रों से कोक और विकोक (और उसकी सेना) के साथ लड़ाई करने लगे। ये दोनों (कोक और विकोक) ब्रह्मा जी से वरदान पाकर बहुत घमण्डी हो गए थे।

ये दोनों भाई (कोक और विकोक), दानवों में श्रेष्ठ, अत्यन्त मदमस्त, युद्ध करने में अत्यन्त चतुर, अत्यन्त बलशाली, देवताओं को डराने वाले और एक जैसी शक्ल वाले थे (अथवा मिलकर, एक होने पर, देवताओं के लिए भी भयोत्पादक)। इनका शरीर वज्र के समान कठोर था और ये दोनों ही दिग्विजयी थे। अगर दोनों इकट्ठे होकर लड़ने लगें तो मृत्यु को भी जीत सकते थे। ये दोनों अत्यन्त वीर सेना से युक्त और हाथ में गदा लेकर (शुम्भादि राक्षसों के साथ मिलकर) पैदल ही लड़ाई करने लगे। सेना से युक्त कल्कि जी कोक और विकोक के साथ भारी लड़ाई लड़ने लगे। उनकी सेना के प्रधान योद्धाओं ने भयंकर लड़ाई शुरू की। घोड़ों के हिनहिनाने, हाथियों की चिंघाड़, दाँतों के किटकिटाने, धनुषों की टंकार, शूरवीरों की भुजाओं, घूसों और चपतों की चोटों से भयंकर आवाजें होने लगीं। इन आवाज़ों से दसों दिशाएँ भर गईं। उस समय कोई भी मनुष्य शान्ति नहीं पा सका। देवतागण भयभीत हो आकाश के उल्टे-टेढ़े मार्ग से जाने लगे। पाश, तलवार, दण्ड, शक्ति, ऋष्टि (दुधारी तलवार), शूल, गदा और घोर बाणों से करोड़ों वीरों के कटे-फिके हाथ, पैर और कमर आदि से युद्ध भूमि भर गई।

श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \छठा अध्याय संस्कृत में

सूत उवाच

इति तौ मरु-देउआपी श्रुत्वा कल्केर् वचः पुरः।
कृतो’द्वाहौ रथआरूढौ समायातौ महाभुजौ॥१

नानायुधधरैः सैन्यैर् आवृतौ शूरमानिनौ।
बद्ध-गोधाङ्गुलि-त्रणौ दंशितौ बद्ध-हस्तकौ॥२

कार्ष्नायस-शिरस्-त्राणौ धनुर्-धर-धुरन्-धरौ।
अक्षौहिणीभिः षड्गभिस् तु कम्पयन्तौ भुवं भरैः॥३

विशाखयूप-भूपस् तु गज-लक्षैः समावृतः।
अश्वैः सहस्रनि-युतैः रथैः सप्त-सहस्रकैः॥४

पदातिभिर् द्वि-लक्षैश् च सन्नद्धैर् धृतकार्मुकैः।
वातोद्धूतो’त्तरोष्नीषैः सर्वतः परिवारितः॥५

रुधिराश्वसहस्राणां पञ्चाशद्भिर् मगारथैः।
गजैर् दशशतैर् मत्तैर् नव-लक्षैर् वृतो बभौ॥६

अक्षौहिणीभिर् दशभिः कल्किः पर-पुरञ्-जयः।
समावृतस् तथा देवैर् एवम् इन्द्रो दिवि स्वराट्॥७

भ्रातृ-पुत्र-सुहृद्भिश् च मुदितः सैनिकैर् वृतः।
ययौ दिग्-विजयाकाङ्क्षी जगताम् ईश्वरः प्रभुः॥८

काले तस्मिन् द्विजो भूत्वा धर्मः परिजनैः सह।
सम्-आ-जगाम कलिना बलिनाअपि निराकृतः॥९

र्तं प्रसादम् अभयं सुखं मुदम् अथ स्वयम्।
योगम् अर्थं ततो ऽदर्पं स्मृतिं क्षेमं प्रतिश्रयम्॥१०

नर-नारायणौ चो’भौ हरेर् अंशौ तपोव्रतौ।
धर्मस् त्व् एतान् समादाय पुत्रान् स्त्रीश् चा’गतस् त्वरन्॥११

श्रद्धा मैत्री दया शान्तिस् तुष्तिः पुष्तिः क्रियाउन्नतिः।
बुद्धिर् मेधा तितिक्षा च ह्रीर् मूर्तिर् धर्म-पालकाः॥१२

एतास् तेन सहायाता निज-बन्धु-गणैः सह।
कल्किम् आलोकितुं तत्र निज-कार्यं निवेदितुम्॥१३

कल्किर् द्विजं समासाद्य पूजयित्वा यथाविधि।
प्रोवाच विनयापन्नः कस् त्वं कस्माद् इहा’गतः॥१४

स्त्रीभिः पुत्रैश् च सहितः क्षीण-पुण्य इव ग्रहः।
कस्य वा विषयाद् राज्नस् तत् तत् त्वं वद तावतः॥

पुत्राः स्त्रियश् च ते दीना हीन-स्व्-अबल-पौरुषाः।
वैष्णवाः साधवो यद्वत् पाखण्दैश् च तिरस्-कृताः॥१६

कल्केर् इति वचः श्रुत्वा धर्मः शर्म निजं स्मरन्।
प्रोवच कमलानाथम् अनाथस् त्व् अति-कातरः॥१७

पुत्रैः स्त्रीभिर् निज-जनैः कृताञ्जलि-पुटैर् हरिम्।
स्तुत्वा नत्वा पूजयित्वा मुदितं तं दयापरम्॥१८

धर्म उवाच

शृणु कल्के ममअख्यानं धर्मो ऽहं ब्रह्म-रूपिणः।
तव वक्षः-स्थलाज् जातः कामदः सर्वदेहिनाम्॥१९

देवानाम् अग्रणीर् हव्य-कव्यानां काम-धुग् विभुः।
तवआज्ञया चराम्य् एव साधु-कीर्ति-कृद् अन्व् अहम्॥२०

सो ऽहं कालेन बलिना कलिनाअपि निराकृतः।
शक-काम्बोज-शबरैः सर्वैर् आवासवासिना॥२१

अधुना ते ऽखिला-धार! पाद-मूलम् उपागताः।
यथा संसार-कालअग्नि-संतप्ताः साधवो ऽर्दिताः॥२२

इति वाग्भिर् अपूर्वाभिर् धर्मेण परितोषितः।
कल्किः कल्क-हरः श्रीमान् आह संहर्षयञ् छनैः॥२३

धर्म! कृत-युगं पश्य मरुं चण्डअंशु-वंशजम्।
मां जानासि यथा जातं धातृ-प्रार्थित-विग्रहम्॥२४

किटकैर् बौद्ध-दलनम् इति मत्वा सुखी भव ।
अवैष्णवानाम् अन्येषां तवो’पद्रव-कारिणाम्।
जिघांसुर्यामि सेनाभिश् चर गां त्वं विनिर्भयः॥२५

का भीतिस् ते क्व मोहो ऽस्ति यज्ञ-दान-तपो-व्रतैः।
सहितैः संचर विभो! मयि सत्ये व्युपस्थिते॥२६

अहं यामि त्वया गच्छ स्व-पुत्रैर् बान्धवैः सह।
दिशां जयार्थं त्वं शत्रु-निग्रहार्थं जगत्-प्रिय॥२७

इति कल्केर् वचः श्रुत्वा धर्मः परमहर्षितः।
गन्तुं कृतमतिस्तेन आधिपत्यममं स्मरन्॥२८

सिद्धाश्रमे निज-जनान् अवस्थाप्य स्त्रियश् च ताः॥२९

सन्नद्धः साधु-सत्कारैर् वेद-ब्रह्म-महारथः।
नाना-शास्त्रान्वेषणेषु संकल्प-वरकार्मुकः॥३०

सप्त-स्वरअश्वो भूदेव-सारथिर् वह्निर् आश्रयः।
क्रियाभेदबलोपेतः प्रययौ धर्म-नायकः॥३१

यज्ञ-दान-तपः-पात्रैर् यमैश्च नियमैर् वृतः।
खश-काम्बोजकान् सर्वाञ् छबरान् बर्बरान् अपि॥३२

जेतुं कल्किर् ययौ यत्र कलेर् आवासम् ईप्सितम्।
भूतावासबलोपेतं सारमेयवराकुलम्॥३३

गोमांस-पूतिगन्धाध्यं काको’लूचशिवावृतम्।
स्त्रीणां दुर्द्यूत-कलह-विवाद-व्यसनआश्रयम्॥३४

घोरं जगद्-भयकरं कामिनी-स्वामिनं गृहम् ।
कलिः श्रुत्वोद्यमं कल्केः पुत्र-पौत्र-वृतः क्रुधा॥३५

पुराद् विशसनात् प्रायात् प्रेचकाक्ष-रथोपरि।
भर्मः कलिं समालोक्य र्षिभिः परिवारितः॥३६

युयुधे तेन सहसा कल्कि-वाक्य-प्रचोदितः।
र्तेन दम्भः संग्रामे प्रसादो लोभम् आह्वयत्॥३७

समयाद् अभयं क्रोधो भयं सुखम् उपाययौ।
निरयो मुदम् आसाद्य युयुधे विविधआयुधैः॥३८

आधिर्-योगेन च व्याधिः क्षेमेण च बलीयसा।
प्रश्रयेण तथा ग्लानिर् जरा स्मृतिम् उपाह्वयत्॥३९

एवं वृत्तो महाघोरो युद्धः परमदारुणः।
तं द्रष्टुम् आगता देवा ब्रह्माद्याः खे विभूतिभिः॥४०

मरुः खशैश् च काम्बोजैर् युयुधे भीम-विक्रमैः।
देवापिः समरे चौनैर् बर्बरैस् तद् गणैर् अपि॥४१

विशाखयूप-भूपालः पुलिन्दैः श्वपचैः सह।
युयुधे विविधैः शस्त्रायृ अस्त्रैर् दिव्यैर् महाप्रभैः॥४२

कल्किः कोक-विकोकाभ्यां वाहिनीभिर् वरायुधैः।
तौ तु कोक-विकोकौ च ब्रह्मणो वर-दर्पितौ॥४३

भ्रातरौ दानव-श्रेष्थौ मत्तउ युद्ध-विशारदौ।
एक-रूपौ महासत्त्वौ देवानां भय-वर्धनौ॥४४

पदातिकौ गदाहस्तौ वज्राङ्गौ जयिनौ दिशाम्।
शुम्भैः परिवृतौ मृत्यु-जिताव् एकत्र योधनात्॥४५

ताभ्यां स युयुधे कल्किः सेना-गण-समन्वितः।
शुभानां कल्कि-सैन्यानां समरस् तुमुलो ऽभवत्॥४६

ह्रेषितैर् बृंहितैर् दन्त-शब्दैष् टङ्कार-नादितैः।
शूरो’त्क्रुष्तैर् बाहु-वेगैः संशब्दस् तलताडनैः॥४७

संपूरिता दिशः सर्वा लोका नो शर्म लेभिरे।
देवाश् च भय-संत्रस्ता दिवि व्यस्तपथा ययुः॥४८

पाशैर् दण्दैः खड्ग-शक्त्य्-र्ष्ति-शूलैर्गदा-घातैर् बाण-पातैश् च घोरैः।
युद्धे शूरास् छिन्न-बाह्व्-अङ्/घ्रि-मध्याः पेतुः संख्ये शतशः कोटिशश् च॥४९

इति श्री-कल्कि-पुराणे ऽनुभागवते भविष्ये तृतीयअंशे कल्कि-सेना-संग्रामो नाम षष्ठो ऽध्यायः॥

टिप्पणियाँ