श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \सोलहवाँ अध्याय | Shri Kalki Purana Third Part \Sixteenth Chapter

श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \सोलहवाँ अध्याय हिंदी से संस्कृत में

सूत उवाच

एतद् वः कथितं विप्राः शशिध्वज-विमोक्षणम्।
कल्केः कथाम् अप्रतिमां शृण्वन्तु विबुधर्ष्भाः॥१

सूत जी बोले- हे ब्राह्मणो ! मैंने आपको राजा शशिध्वज के मोक्ष प्राप्त करने की कथा बताई। हे बुद्धिमानों में श्रेष्ठ !
भगवान कल्कि, पद्मा जी और रमा जी अब पुनः कल्कि जी का अद्भुत वृत्तान्त सुनाता हूँ। आप सुनिए। जब कल्कि जी राज सिंहासन पर बैठे, (तब) वेद, धर्म, सत्ययुग, देवतागण, स्थिर और चलायमान (पेड़-पौधे, पत्थर आदि न चलने वाले यानी स्थावर हैं और जीव-जन्तु जंगम यानी चलने-फिरने वाले हैं) सभी हृष्ट-पुष्ट और सन्तुष्ट हुए। पहले समय में पुजारी लोग अनेक भूषणों से देवमूर्तियों को सजाकर इन्द्रजाल (जादूगरी) की भाँति काम करते थे। इस समय सज्जनों को माया मोह से ठगने वाले लोग पाखण्ड नहीं करते। कल्कि जी के राजा होने पर सभी लोग पूरे शरीर में तिलक धारण करने लगे। इस प्रकार कल्कि जी अपनी (पत्नियों) पद्मा जी और रमा जी के साथ शम्भल ग्राम में रहने लगे। एक बार कल्कि जी के पिता विष्णुयश ने अपने पुत्र से संसार की भलाई करने वाले देवताओं के लिए यज्ञ करने को कहा।


पिता जी के वचन सुनकर, बहुत प्रसन्न होकर नम्रता से झुककर कल्कि जी बोले- 'मैं धर्म, काम और अर्थ की प्राप्ति के लिए कर्मकाण्ड के अन्तर्गत राजसूय, वाजपेय, अश्वमेध और अनेक दूसरे यज्ञों का अनुष्ठान (विधिपूर्वक धार्मिक काम) करके यज्ञों के स्वामी श्रीहरि की पूजा करूँगा।' इसके बाद कल्कि जी ने कृपाचार्य, परशुराम, वशिष्ठ, व्यास, धौम्य, अकृतव्रण, अश्वत्थामा, मधुच्छन्द और मन्दपाल आदि महर्षियों एवं वेदों के प्रकाण्ड विद्वान ब्राह्मणों (को आमन्त्रित कर उन) की पूजा की। फिर गंगा और यमुना के मध्य यज्ञ में दीक्षा ली (तथा स्नान किया) और सबको दक्षिणा दी। इसके बाद उन्होंने ब्राह्मणों को तरह-तरह के चर्व्य (चबाने योग्य), चोष्य (चूसने योग्य) लेह्य (चाटने योग्य), पेय (पीने योग्य) पूय, शष्कुलि, यावक, मधु, फल, मूल और अन्य प्रकार के भोज्य पदार्थों का विधि-पूर्वक भोजन कराया।

यज्ञ सब तरह भली-भाँति पूरा हुआ। अग्नि ने भोजन पकाया, वरुण ने जल दिया, पवन परोसने लगा। कमल के समान नेत्र वाले कल्कि जी ने इस प्रकार उत्तम अन्नादि, भोजन, नाच-गाने व बजाने के उत्सवों का आयोजन कर सबको आनन्द दिया। उन्होंने बालक से लेकर वृद्ध, स्त्री आदि सभी को यथोचित (जिसके लिए जैसा उचित है) धन भी दिया। रंभा, अप्सरा नाचने लगीं। नन्दी ताल बजाने लगे। हूहू नाम के गन्धर्व ने गाना शुरू किया। संसार के स्वामी कल्कि जी ब्राह्मण और सत्पात्रों के धन बाँटकर पिता जी की आज्ञा से गंगा के किनारे रहने लगे। विष्णुयश की सभा में पण्डितगण पहले के (पुरातन) राजाओं की सुन्दर कथाएँ कह रहे थे। सभी आनन्द में मग्न थे। उसी समय देवताओं द्वारा पूजित देवर्षि नारद जी तथा तुम्बरु महाराज वहाँ पहुँचे। महायशस्वी विष्णुयश जी ने प्रसन्न होकर उन दोनों महर्षियों की विधिपूर्वक पूजा की। उन दोनों महर्षियों की पूजा करने के बाद विनयपूर्वक विष्णुयश जी ने वीणा- पाणि (जिनके पाणि अर्थात् हाथ में वीणा रहती है) महामुनि नारद जी से प्रेमपूर्वक पूछा।

श्री विष्णुयश ने कहा- 'हमारा कैसा सौभाग्य है! सैकड़ों जन्मों का इकट्ठा पुण्य कैसा अद्भुत है कि इसके प्रभाव से हमारी मुक्ति के लिए आप परम पूर्ण पुरुषों के दर्शन प्राप्त हुए हैं। आज आपके दर्शन तथा पूजन से हमारे पितृगण यानी पूर्वज संतुष्ट हुए। हमारी यज्ञ में दी गई आहुति सफल हुई। देवतागण सन्तुष्ट हुए। जिसकी पूजा करने से विष्णु जी पूजित होते हैं, उनका दर्शन करने से फिर जन्म नहीं होता। उनके स्पर्श से पापों के समूह का नाश होता है। ऐसे साधुओं का मिलाप कितना अद्भुत है! साधुओं का हृदय ही धर्म है, सज्जनों के वाक्य ही सदा रहने वाले (देवता) सनातन देव हैं।

सज्जनों के कर्मों से कर्मों का क्षय होता है, अतएव साधु ही स्वयं नारायण जी की मूर्ति (साक्षात् हरि) हैं। दुष्टों को दण्ड देने के लिए कृष्णावतार के रूप में श्री कृष्ण का नित्य शरीर जिस प्रकार सांसारिक नहीं है, उसी प्रकार इन तीनों लोकों में वैष्णव शरीर भी पञ्चभूत से बना हुआ मालूम नहीं पड़ता। हे ब्रह्मन् ! आप इस मायामय संसार-सागर में लोगों को विष्णुभक्ति रूपी नाव द्वारा पार लगाने वाले हैं। इसलिए मैं आपसे कुछ प्रश्न पूछना चाहता हूँ। हे संसार के बन्धु, मैं कौन-सा काम करके इस संसार रूपी दुःख के घर (यातनागार) से छुटकारा पाकर उत्तम साधन और मोक्षपद पा सकूँगा ? कृपया आप बताइए।' नारद जी बोले- 'माया कैसी आश्चर्यमयी शोभा वाली है! कैसी बलवती है! सभी प्राणियों को कैसे अचम्भे में डाल देती है! कैसे अचरज की बात है कि भगवान् विष्णु अपने पिता और माता को इस माया-ममता से नहीं छुटा पाते ! सदा रहने वाले जगत्पति भगवान् साक्षात् नारायण श्री कल्कि जी जिनके पुत्र हैं, वे विष्णुयश मुझसे मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा प्रकट करते हैं।' ब्रह्मा जी के पुत्र नारद जी ने यह सोच विचारकर निर्जन में ब्रह्मज्ञान देने को ब्रह्मयश के पुत्र विष्णुयश से यह  ज्ञान (वाक्य) कहा।

नारद जी बोले- 'देह के भस्म होने पर जीवात्मा ने बार-बार देह धारण करने की इच्छा प्रकट की। उस समय माया ने जो कुछ कहा था, सो मैं बताता हूँ, उसे सुनिए। इस (ज्ञान की बात) के सुनने से मोक्ष प्राप्त होता है। (भगवती) माया ने अपनी इच्छा के अनुसार विन्ध्याचल पर्वत पर स्त्री रूप धारण किया और तब बोली 'मैं माया हूँ। (जब) मैंने तुमको (जीव) को छोड़ दिया है, तुम किस प्रकार (क्यों) जीवन धारण करने की इच्छा करते हो ?' जीव बोला- 'हे माये, मैं जीवित नहीं रहूँगा (जीवन की इच्छा नहीं करता। शरीर ही तो जीवात्मा का सहारा है। 'मैं हूँ' ऐसा अनुभव करना अभिमान है, इस अभिमान के भेद-ज्ञान के बिना कैसे देह धारण की जा सकती है ?' माया बोली- 'देह धारण करने पर जो भेद ज्ञान होता  है, वह तुम्हें हो रहा है। ऐसा क्यों है? चेष्टा अथवा इच्छा करना माया के अधीन है। अब माया के बिना तुम्हारी चेष्टा कैसे हो रही है ?'

जीव ने कहा- 'हे माया, मेरे बिना तुम्हारी प्राज्ञता (ज्ञान) प्रकट नहीं हो सकती और न विषयों में इच्छा हो सकती है।'
माया बोली- 'माया के कारण ही जीवात्मा जीवन धारण करता है। माया के बिना जीव वैसा ही सारहीन मालूम पड़ता है, जैसे हाथी कपित्थ फल (कैंत का फल) खाने के बाद उस फल को रसहीन बनाकर छोड़ देता है।' जीव बोला- 'हे मूर्ख माया ! तुमने हमारे संसर्ग से पैदा होकर कई नाम और रूप धारण किए हैं। जैसे व्यभिचारिणी स्त्री स्वामी की निन्दा करती है, वैसे ही तुम किस कारण से हमारी निन्दा करती हो ? जैसे सूर्य के उदय होने पर अँधेरा नहीं रह पाता, वैसे ही हमारे अभाव से यानी जीवात्मा के अभाव से तुम्हारा भी अभाव होता है। जैसे सूरज को ढक कर नया बादल प्रकाश वाला होता है, वैसे ही तुम भी हमको ढककर शोभायमान होती हो। हे माये, तुम लीला वाली बीज की भूसी हो। तुम में अनेकता है। इस अनेकता के कारण तुम जादू के खेल की तरह शोभा पा रही हो, जबकि तुम संसार के आदि में, अन्त में, मध्य में, कहीं भी हो ही नहीं।' 

जब माया ने इस प्रकार शरीर को विषयों, मानसिक कार्यों और अभौतिक (संसार की वस्तुओं से रहित) और जीव-रहित देखा तो उसने उस शरीर को छोड़ दिया। माया ने मुझे छोड़कर इस तरह यह शाप दिया- 'हे अप्रिय, तू लकड़ी की दीवार की तरह अत्यन्त चेष्टाहीन होगा। इस पृथ्वी में कभी भी किसी भी रूप में तेरा निवास नहीं होगा। (नारद जी विष्णुयश से बोले) 'हे देव, आपके ही पुत्र विश्वरूप, परम देवता, कल्कि जी से माया पैदा हुई है। आप माया का रहस्य समझिए और नारायण जी का ध्यान करते हुए अपनी इच्छा के अनुसार पृथ्वी पर (जहाँ चाहिए) घूमिए। जब आप आशा, ममत्व (यह मेरा है) को छोड़ देंगे, सारे विषय भोगों की इच्छा को छोड़ देंगे, शान्त हो जाएँगे, (उस अवस्था में पहुँच कर) आप जान सकेंगे कि यह संसार भगवान् विष्णु के विराट् (महान्) प्रभाव में रह रहा है और भगवान् विष्णु इस प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले संसार में व्याप्त हैं। इस प्रकार का ज्ञान प्रकट हो जाने पर जीवात्मा को परमात्मा से जोड़कर सभी इच्छाओं से अलग हो जाना उपयुक्त है।'

इस प्रकार दोनों महर्षि, विष्णुयश से बातचीत कर और कल्कि जी की प्रदक्षिणा करके, कपिल मुनि के आश्रम के लिए प्रस्थान कर गए। नारद मुनि से विष्णुयश ने यह सुनकर कि कल्कि जी, जो कि संसार के नाथ और नारायण हैं, मेरे पुत्र हैं, वन को प्रस्थान किया। विष्णुयश जी ने फिर बदरिकाश्रम जाकर घोर तपस्या करके अपनी आत्मा को परम ब्रह्म परमेश्वर में लीन कर दिया और अपने पंचभूत (अग्नि, वायु, आकाश, जल, पृथ्वी) से बने शरीर को त्याग दिया। अपने पति के प्रेम में व्याकुल होकर साध्वी सुमति ने अच्छे वेश के साथ अपने मरे हुए पति को अपने हृदय से लगाकर अग्नि में प्रवेश किया। श्रेष्ठ वस्त्र धारण कर देवताओं ने उनकी स्तुति की।

मुनियों के मुख से माता-पिता के स्वर्गवास का समाचार सुनकर कल्कि जी की आँखें स्नेहासिक्त आँसुओं से भर गईं। उन्होंने उनके श्राद्धादि कर्म किए। लोकाचार और वेदाचार पालन करने वाले धर्मात्मा कल्कि जी देवताओं द्वारा पूजित शंभल ग्राम में रमा जी और पद्मा जी के साथ राज्य का कार्य सँभालने लगे। तीर्थों को पवित्र करने वाले परशुराम जी महेन्द्र पर्वत शिखर से उतर कर तीर्थों में भ्रमण करते हुए कल्कि जी के दर्शन करने के लिए शंभल ग्राम गए। परशुराम जी को देखकर विधि-विधान को जानने वाले कल्कि जी ने पद्मा जी और रमा जी सहित सिंहासन से उठकर प्रसन्नतापूर्वक उनकी पूजा की। श्री कल्कि जी ने परशुराम जी को उत्तम गुण वाले अनेक रसीले भोज्य पदार्थों से भोजन कराकर अमूल्य वस्त्र वाले विचित्र पलंग पर पर सुलाया। जब गुरु परशुराम जी भोजन कर आराम कर रहे थे, कल्कि जी उनके (अपने गुरु के) चरण दबाते हुए उन्हें सन्तुष्ट कर (उनसे) नम्रतापूर्वक मीठे वचन बोले- 'हे गुरु देव, आपके आशीर्वाद से हमारे तीनों वर्ग - धर्म, अर्थ और काम सिद्ध हो गए हैं, अर्थात् हमें तीनों की प्राप्ति हो गई है। हे भगवन्, इस समय शशिध्वज की पुत्री रमा का एक निवेदन है। उसे सुन लीजिए।' पति के ये वचन सुनकर रमा जी ने प्रसन्नचित्त हो परशुराम जी से पूछा- 'किस प्रकार के व्रत, जप, यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, नियम) शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर (प्राणिधान) का पालन करने से मैं अपनी इच्छानुसार पुत्र प्राप्त कर सकती हूँ ?'

श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \सोलहवाँ अध्याय संस्कृत में

सूत उवाच

एतद् वः कथितं विप्राः शशिध्वज-विमोक्षणम्।
कल्केः कथाम् अप्रतिमां शृण्वन्तु विबुधर्ष्भाः॥१

वेदो धर्मः कृत-युगं देवा लोकाश् चरअचराः।
हृष्ताः पुष्ताः सुसंतुष्ताः कल्कौ राजनि चअभवन्॥२

नाना-देवआदि-लिङ्गेषु भूषणैर् भूषितेषु च।
इन्द्रजालिकवद्वत्ति-कल्पकाः पूजका जनाः॥३

न सन्ति माया-मोहाढ्याः पाखण्दाः साधु-वञ्चकाः।
तिलकआचित-सर्वअङ्गाः कल्कौ राजनि कुत्र-चित्॥४

शम्भले वसतस् तस्य पद्मया रमया सह।
प्राह विष्णुयशाः पुत्रं देवान् यष्तुं जगद्-धितान्॥५

तच् छ्रुत्वा प्राह पितरं कल्किः परम-हर्षितः।
विनयाअवनतो भूत्वा धर्म-कामअर्थ-सिद्धये॥६

राजसूयऽइर् वाज-पेयैर् अश्वमेधैर् महामखैः।
नाना-यागैः कर्म-तन्त्रैर् ईजे क्रतु-पतिं हरिम्॥७

कृप-राम-वसिष्ठआद्यैर् व्यास-धौम्यअकृतव्रणैः।
अश्वत्थाम-मधुच्छन्दो मन्दपालैर् महात्मनः॥८

गंगा-यमुनयोर् मध्ये स्नात्वाअवभृथम् आदरात्।
दक्षिणाभिः सम्-अभ्य्-अर्च्य ब्राह्मणान् वेद-पारगान्॥९

चर्व्यैश् चोष्यैश् च पेयैश् च पूग-शष्कुलि-यावकैः।
मधु-मांसैर् मूल-फलैर् अन्यैश् च विविधैर् द्विजान्॥१०

भोजयाम् आस विधिवत् सर्व-कर्म-समृद्धिभिः।
यत्र वह्निर् वृतः पाके वरुणो जददो मरुत्॥११

परिवेष्टा द्विजान् कामैः सद्-अन्नआद्यैर् अतोषयत्।
वाद्यैर् नृत्यैश् च गीतैश् च पितृ-यज्ञ-महोत्सवैः॥१२

कल्किः कमल-पत्रअक्षः प्रहर्ष प्रददो वसु।
स्त्री-बाल-स्थविरआदिभ्यः सर्वेभ्यश् च यथो’चितम्॥१३

रम्भा ताल-धरा नन्दी हूहूर् गायति नृत्यति ।
दत्त्वा दानानि पात्रेभ्यो ब्राह्मणेभ्यः स ईश्वरः॥१४

उवास तीरे गंगायाः पितृ-वाक्यअनुमोदितः।
सभायां विष्णुयशसः पूर्व-राज-कथाः प्रियाः॥१५

कथयन्तो हसन्तश् च हर्षयन्तो द्विजा बुधाः।
तत्रअगतस् तुम्बुरुणा नारदः सुर-पूजितः॥१६

तं पूजयाम् आस मुदा पित्रा सह यथाविधि।
ताव् संपूज्य विष्णुयशाः प्रोवाच विनयअन्वितः।
नारदं वैष्णवं प्रीत्या वीणापाणिं महा-मुनिम्॥१७

विष्णुयशा उवाच

अहो भाग्यम् अहो भाग्यं मम जन्म-शतअर्जितम्।
भवद्-विधानां पूर्णानां यन् मे मोक्षाय दर्शनम्॥१८

अद्याग्नयश् च सुहुतास् तृप्ताश् च पितरः परम्।
देवाश् च परि-सन्तुष्टास् तवअवेक्षण-पूजनात्॥१९

यत् पूजायां भवेत् पूज्यो विष्णुर् यन् मम दर्शनम्।
पाप-संघं स्पर्शनाच् च किम् अहो साधु-संगमः॥२०

साधूनां हृदयं धर्मो वाचो देवाः सनातनाः।
कर्म-क्षयाणि कर्माणि यतः साधुर् हरिः स्वयम्॥२१

मन्ये न भौतिको देहो वैष्णवस्य जगत्-त्रये।
यथाअवतारे कृष्णस्य सतो दुष्ट-विनिग्रहे॥२२

पृच्छामि त्वाम् अतो ब्रह्मन् माया-संसारवारिधौ।
नौकायां विष्णु-भक्त्या च कर्णधारो ऽसि पारकृत्॥२३

केनअहं यातनागारान् निर्वाण-पदम् उत्तमम्।
लप्स्यामिइह जगद्-बन्धो कर्मणा शर्म तद् वद॥२४

नारद उवाच

अहो बलवती माया सर्वआश्चर्य-मयी शुभा।
पितरं मातरं विष्णुर् नैव मुञ्चति कर्हि-चित्॥२५

पूर्णो नारायणो यस्य सुतः कल्किर् जगत्-पतिः।
तं विहाय विष्णुयशा मत्तो मुक्तिम् अभिप्सति॥२६

विविच्ये’त्थं ब्रह्म-सुतः प्राह ब्रह्मयशः-सुतम्।
विविक्ते विष्णुयशसं ब्रह्म-संपद्-विवर्धनम्॥२७

नारद उवाच

देहअवसाने जीवं सा दृष्ट्वा देहअवलम्बनम्।
मायाआह कर्तुम् इच्छन्तं यन् मे तच् छृणु मोक्षदम्॥२८

विन्ध्यअद्रौ रमणी भूत्वा मायाउवाच यथे’च्छया॥२९

मायाउवाच

अहं माया मया त्यक्तः कथं जीवितुम् इच्छसि॥३०

जीव उवाच

नअहं जीवाम्य् अहं माये काये ऽस्मिञ् जीवनआश्रये।
अहम् इत्य् अन्यथा बुद्धिर् विना देहं कथं भवेत्॥३१

मायाउवाच

देह-बन्धे यथाआश्लेषास् तथा बुद्धिः कथं तव।
मायाअधीनां विना चेष्तां विशिष्तां ते कुतो वद॥३२

जीव उवाच

मां विना प्राज्ञता माये प्रकाश-विषय-स्पृहा॥३३

मायाउवाच

मायया जीवति नरश् चेष्टते हत-चेतनः।
निःसारः सारवद् भाति गज-भुक्त-कपित्थ-वत्॥३४

जीव उवाच

मम संसर्ग-जाता त्वं नाना-नाम-स्वरूपिणी।
मां विनिन्दसि किं मूढे स्वैरिणी स्वामिनं यथा॥३५

ममअभावे तवअभावः प्रोद्यत् सूर्ये तमो यथा।
मामावर्य विभासि त्वं रविं नवघनो यथा॥३६

लीला-बीज-कुशूलासि मम माये जगन्-मये।
नआद्य्-अन्ते मध्यतो भासि नानात्वाद् इन्द्रजाल-वत्॥३७

एवं निर्विषयं नित्यं मनो-व्यापार-वर्जितम्।
अभौतिकम् अजीवञ् च शरीरं वीक्ष्य सा ऽत्यजत्॥३८

त्यक्त्वा मां सा ददौ शापम् इति लोके तवअप्रिय।
न स्थितिर् भविता काष्ठ-कुड्योपम कथञ्चन॥३९

सा माया तव पुत्रस्य कल्केर् विश्वआत्मनः प्रभोः।
तां विज्ञाय यथा कामं चर गां हरि-भावनः॥४०

निराशो निर्ममः शान्तः सर्व-भोगेषु निस्पृहः।
विणौ जगद् इदं ज्ञात्वा विणुर् जगति वासकृत्।
आत्मनात्मानम् आवेश्य सर्वतो विरतो भव॥४१

एवं तं विष्णुयशसम् आमन्तृय च मुनीश्वरौ।
कल्किं प्रदक्षिणा-कृत्य जग्मतुः कपिलआश्रमम्॥४२

नारदे’रितम् आकर्ण्य कल्किं सुतम् अनुत्तमम्।
नारायणं जगन्-नाथं वनं विष्णुयशा ययौ॥४३

गत्वा बदरिकारण्यं तपस् तप्त्वा सु-दारुणम्।
जीवं बृहति संयोज्य पूर्णस् तत्याज भौतिकम्॥४४

मृतं स्वामिनम् आलिङ्ग्य सुमतिः स्नेह-विक्लवा।
विवेश दहनं साध्वी सुवेशैर् दिवि संस्तुता॥४५

कल्किः श्रुत्वा मुनि-मुखात् पित्रोर् निर्याणम् ईश्वरः।
सबाष्प-नयनं स्नेहात् तयोः समकरोत्क्रियाम्॥४६

पद्मया रमया कल्किः शम्भले सुर-वाञ्छिते।
चकार राज्यं धर्मात्मा लोक-वेद-पुरस्कृतः॥४७

महेन्द्र-शिखराद् रामस् तीर्थ-पर्यटनआदृतः।
प्रायात् कल्केर् दर्शनअर्थं शम्भलं तीर्थ-तीर्थ-कृत्॥४८

तं दृष्ट्वा सहसो’त्थाय पद्मया रमया सह।
कल्किः प्रहर्षो विधिवत् पूजाञ् चक्रे विधान-वित्॥४९

नाना-रसैर् गुण-मयैर् भोजयित्वा विचित्रिते।
पर्यङ्के ऽनर्घ-वस्त्राढ्ये शाययित्वा मुदं ययौ॥५०

तं भुक्तवन्तं विश्रान्तं पादसंवाहनैर् गुरुम्।
संतोष्य विनयआपन्नः कल्किर् मधुरम् अब्रवीत्॥५१

तव प्रसादात् सिद्धं मे गुरो त्रैवर्गिकञ् च यत्।
शशिध्वज-सुतायास् तु शृणु राम निवेदितम्॥५२

इति पति-वचनं निशम्य रामा निज-हृदये’प्सित-पुत्र-लाभम् इष्टम्।
व्रत-जप-नियमैर् यमैश् च कैर् वा मम भवतिइह मुदाअह जामदग्न्यम्॥५३

इति श्री-कल्कि-पुराणे ऽनुभागवते भविष्ये तृतीय अंशे विष्णु यशसो मोक्षो राम-दर्शनं च नाम षोडशो ऽध्यायः॥१६

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