श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \नौवाँ अध्याय | Shri Kalki Purana Third Part \Ninth Chapter

श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \नौवाँ अध्याय हिंदी से संस्कृत में

सूत उवाच

हृदि-ध्यानास्-पदं रूपं कल्केर् दृष्ट्वा शशिध्वजः।
पूर्णं खड्ग-धरं चारु-तुरगआरूधम् अब्रवीत्॥१

सूत जी बोले- हृदय में ध्यान करने योग्य, सुन्दर घोड़े पर सवार, खड्गधारी, पूर्णावतार, कल्कि जी का रूप देखकर शशिध्वज विचार करने लगे। धनुष-बाण को धारण करने वाले, सुन्दर आभूषणों से सुशोभित, संसार के स्वामी कल्कि जी संसार के पापों और कष्टों को नाश करने के लिए तैयार हैं। राजा शशिध्वज ने रोमांचित होकर उन परमात्मा कल्कि जी से कहा- 'कमल जैसे नेत्र वाले, आइए, आइए और हमारे हृदय पर प्रहार कीजिए। हे परमात्मन्, हमारे बाणों के डर से (बाणों की मार से बचने के लिए) आप अंधकार से पूर्ण मेरे हृदय में प्रवेश करके छिप जाइए। आप तो निर्गुण होकर भी गुण को जानते हैं, आप अद्वैत होकर भी अस्त्रों से मारने के लिए तैयार हुए हैं और आपने कामरहित होकर भी अपने सैनिकों की जीत के कार्य में सहायता की है अर्थात् सेना का संहार किया है। सभी लोक मुझे उन्हीं परमात्मा के साथ रथ पर सवार युद्ध करते हुए देखें। आप स्वामी हैं, मैं आप पर दृढ़ प्रहार करूँगा, परन्तु प्रहार करते समय यदि मैं आपको अलग दूसरा व्यक्ति समझें तो मुझे वह लोक मिलेगा, जो लोक ऐसे लोगों को मिलता है, जो शिव और विष्णु में भेद समझने वाले को प्राप्त होता है।'


इस प्रकार अस्त्र धारण करने वाले तथा शत्रुओं को सन्ताप देने वाले राजा शशिध्वज के इन वचनों को सुनकर अक्रोध (क्रोध रहित) परमात्मा कल्कि जी अपने को क्रोध की आकृति वाला दिखाकर उन (शशिध्वज) पर बाण मारने लगे। राजा शशिध्वज ने उनके श्रेष्ठ अस्त्रों द्वारा किए गए प्रहार की चिन्ता किए बगैर अपने बाणों की ऐसी वर्षा की जैसे पर्वत पर मूसलाधार वर्षा हो रही हो। राजा शशिध्वज के बाणों की वर्षा से कल्कि जी का शरीर क्षत-विक्षत हो गया और वे बहुत क्रुद्ध हो गए। इसके बाद दैवी शस्त्र और अस्त्रों की मार से दोनों में घोर युद्ध होने लगा। ब्रह्मास्त्र से ब्रह्मास्त्र पर, पर्वतास्त्र से वायव्यास्त्र पर, मेघास्त्र से आग्नेयास्त्र पर और गारुड़ास्त्र से पन्नगास्त्र पर हमले होने लगे।
इस प्रकार राजा शशिध्वज और कल्कि जी अनेक दिव्य अस्त्रों से आपस में एक-दूसरे पर चोटें करने लगे। लोक और लोकपाल (इस भयंकर युद्ध को देखकर) बहुत डर गए। वे लोग यह समझ बैठे कि अब तो प्रलयकाल ही आ पहुँचा है। युद्ध देखने के लिए आकाश-मार्ग से आए हुए देवतागण बाणों से निकलने वाली आग से डरने लगे। कल्कि जी और राजा शशिध्वज ने देखा कि देवास्त्रों का प्रयोग असफल हो रहा है, 

इसलिए वे अस्त्रों को छोड़कर बाहुयुद्ध पर उतर आए। अब दोनों ने लड़ाई में पैरों की मार का, चपतों की मार का और घूसों की मार का सहारा लिया। दोनों ही वीर यानी भगवान् कल्कि और राजा शशिध्वज युद्ध विद्या में कुशल थे, इसीलिए वे लड़ाई में एक-दूसरे के कौशल को देखकर प्रसन्न हुए। जिस प्रकार सृष्टि के आरंभ में पृथ्वी का उद्धार करते समय वराह जी ने आवाज़ की थी, वैसी ही आवाज़ करते हुए कल्कि जी ने शत्रु पर करतलाघात किया। राजा शशिध्वज मूर्च्छित हो गया। इसके बाद उसने फौरन ही उठकर क्रोधित होकर ज़ोर से कल्कि जी पर अपनी मुट्ठी से वज्र के समान (कठोर) मुक्का मारा। कल्कि जी उस प्रहार से मूच्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। भगवान् जगदीश्वर कल्कि जी को मूर्च्छित देखकर उनको ले जाने के लिए धर्म और सतयुग वहाँ पर आए। राजा शशिध्वज ने धर्म और सतयुग को दो काँखों में ले लिया। फिर वह (शशिध्वज) कल्कि जी को गोद में उठाकर कृतकृत्य हो गया व अपने घर की ओर चला गया; और सोचने लगा कि अन्य कोई राजा मेरे दोनों पुत्रों को लड़ाई में जीत नहीं सकेगा।

भगवान विष्णु की पूजा करती हुई राजा शशि ध्वज की पत्नी सुशान्ता

इस प्रकार राजा शशिध्वज सुराधिप (देवताओं के स्वामी) के स्वामी कल्कि जी को संग्राम में हराकर और धर्म और सत्युग दोनों को काँख में लेकर प्रसन्न हृदय और पुलकायमान शरीर से सेना को तहस-नहस कर अपने घर को गया। वहाँ पहुँच कर उसने देखा कि रानी सुशान्ता नारायण जी के मंदिर (घर) में विराजमान है। सुशान्ता के चारों और वैष्णवी नारियाँ बैठी हुई थीं और भगवान् नारायण जी का गुणगान कर रही थीं। सुशान्ता का अति सुन्दर मुख देखकर राजा ने कहा- 'हे सुशान्ते ! जिन्होंने बेचारे देवताओं की विनयभरी प्रार्थना पर शम्भल गाँव में जन्म लिया है और जिन्होंने विद्या प्राप्त कर पाखण्डियों और म्लेच्छों का विनाश किया है, वही हृदय में रहने वाले, तुम्हारी शक्ति की परीक्षा लेने के लिए माया का सहारा लेकर मूर्च्छा रूपी छल से इस समय यहाँ आए हैं। हे कान्ते! यह देखो, धर्म और सत्ययुग हमारी दोनों काँखों में मौजूद हैं। तुम इनकी पूजा करो।' राजा शशिध्वज के ऐसे वचन सुनकर, सुशान्ता बहुतप्रसन्न हुई। शशिध्वज के नाभिस्थल में नारायण और दोनों काँखों में क्रमशः धर्म और सत्ययुग थे। रानी सुशान्ता उनको प्रणाम करके हरि नाम कीर्तन करने लगी। क्रम से उसकी लज्जा दूर हो गई और वह सखियों के साथ नाचने लगी।

श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \नौवाँ अध्याय संस्कृत में

सूत उवाच

हृदि-ध्यानास्-पदं रूपं कल्केर् दृष्ट्वा शशिध्वजः।
पूर्णं खड्ग-धरं चारु-तुरगआरूधम् अब्रवीत्॥१

दनुर्-बाण-धरं चारु-विभूषण-वरअङ्गकम्।
पाप-ताप-विनाशअर्थम् उद्यतं जगतां परम्॥२

प्राह तं परमात्मानं हृष्टरोमा शशिध्वजः।
एह्य् एहि पुण्डरीकाक्ष! प्रहारं कुरु मे हृदि॥३

अथवाआत्मन् बाणभिया तमो ऽन्धे हृदि मे विश।
निर्गुणस्य गुणज्ञत्वम् अद्वैतस्यअस्त्र-ताडनम्॥४

निष्कामस्य जयउद्योग-सहायं यस्य सैनिकम्।
लोकाः पश्यन्तु युद्धे मे द्वैरथे परमात्मनः॥५

परबुद्धिर् यदि दृढं प्रहर्ता विभवे त्वयि।
शिव-विष्णोर् भेद-कृते लोकं यास्यामि संयुगे॥६

इति राज्ञो वचः श्रुत्वा अक्रोधः क्रुद्धवद् विभुः।
बाणैर् अताडयत् संख्ये धृतायुधम् अरीन् दमम्॥७

शशिध्वजस् तत् प्रहारमगणय्य वरायुधैः।
तं जघ्ने बाण-वर्षेण धाराभिर् इव पर्वतम्॥८

तद् बाण-वर्ष-भिन्नान्तः कल्किः परम-कोपनः।
दिव्यैः शस्त्रअस्त्र-संघातैस् तयोर् युद्धम् अवर्तत॥९

ब्रह्मअस्त्रस्य च ब्रह्मअस्त्रैर् वायव्यस्य च पार्वतैः।
आग्नेयस्य च पार्जन्यैः पन्नगस्य च गारुडैः॥१०

एवं नाना-विधैर् अस्त्रैर् अन्योन्यम् अभि-जघ्नतुः।
लोकाः सपालाः सन्त्रस्ता युगान्तम् इव मेनिरे॥११

देवा बाणअग्नि-सन्त्रस्ता अगमन् खगमाः किल।
ततो ऽति-वितथउद्योगौ वासुदेव-शशिध्वजौ॥१२

निरस्त्रौ बाहु-युद्धेन युयुधाते परस्परम्।
पदाघातैस् तलाघातैर् मुष्टि-प्रहरणैस् तथा॥१३

नियुद्ध-कुशलौ वीरौ मुमुदाते परस्परम्।
वराहउद्धृत-शब्देन तं तलेनअहनद् धरिः॥१४

स मूर्छितो नृपः कोपात् समुत्थाय च तत्-क्षणात्।
मुष्टिभ्यां वज्र-कल्पाभ्याम् अवधीत् कल्किम् ओजसा।
स कल्किस् तत्-प्रहारेण पपात भुवि मूर्छितः॥१५

धर्मः कृतञ् च तं दृष्ट्वा मूर्छितं जगद्-ईश्वरम्।
समागतौ तम् आनेतुं कक्षे तौ जगृहे नृपः॥१६

कल्किं वक्षस्य् उपादाय लब्धअर्थः प्रययौ गृहम्।
युद्धे नृपाणाम् अन्येषां पुत्रौ दृष्ट्वा सुदुर्जयौ॥१७

कल्किं सुरअधिप-पतिं प्रधने विजित्य धर्मं कृतञ् च निज-कक्ष-युगे निधाय।
हर्षो’ल्लसद् धृदय उत्पुलकः प्रमाथी गत्वा गृहं हरि-गृहे ददृशे सुशान्ताम्॥१८

दृष्ट्वा तस्याः सु-ललित-मुखं वैष्णवीनाञ् च मध्ये ।
गायन्तीनां हरि-गुण-कथास् ताम् अथ प्राह राजा।
देवआदीनां विनय-वचसा शम्भले जन्मना वा।
विद्या-लाभं परिणयविधि-म्लेच्छ-पाषण्ड-नाशम्॥१९

कल्किः स्वयं हृदि समायम् इहअगतो’द्धा।
मूर्छिच्-छलेन तव सेवनम् ईक्षणअर्थम्।
धर्मं कृतञ् च मम कक्ष-युगे सुशान्ते।
कान्ते विलोकय समर्चय संविधेहि॥२०

इति नृप-वचसा विनोद-पूर्णा हरि-कृत-धर्म-युतं प्रणम्य नाथम्।
सह निज-सखिभिर् ननर्त रामा हरि-गुण-कीर्तनवर्तना विलज्जा॥२१

इति श्री-कल्कि-पुराणे ऽनुभागवते भविष्ये तृतीयअंशे धर्म-कल्कि-कृतानाम् आनयनं नाम नवमो ऽध्यायः॥९

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