श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \उन्नीसवाँ अध्याय | Shri Kalki Purana third part \nineteenth chapter

श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \उन्नीसवाँ अध्याय हिंदी से संस्कृत में

सूत उवाच

ततो देवगणाः सर्वे ब्रह्मणा सहिता रथैः।
स्वैः स्वैर् गणैः परिवृता कल्किं द्रष्टुम् उपाययुः॥१

सूत जी बोले- इसके बाद समस्त देवता और ब्रह्मा संयुक्त होकर सभी लोग मिलकर अपने-अपने गणों सहित रथों पर बैठकर कल्कि जी के दर्शन करने के लिए आए महर्षि, गन्धर्व, किन्नर तथा अप्सरा सहित सभी प्रसन्न होकर देवताओं द्वारा पूजित शम्भलग्राम पहुँचे। वहाँ सभा के बीच में जाकर उन सबने देखा कि तेज से सम्पन्न, कमल जैसे नेत्रों वाले कल्कि जी शरण में आए हुए लोगों के अभयदाता के रूप में विराजमान हैं। (जब कोई शरण में आए व्यक्ति को सभी डरों से छुटकारा दिलाता है तो उसे अभयदान कहा जाता है।) कल्कि जी की कान्ति (चेहरे पर चमक) नीले बादल के समान है। उनकी भुजाएँ लम्बी-लम्बी और सुपुष्ट हैं।


उनके मस्तक पर जो मुकुट है, वह बिजली तथा सूर्य के समान प्रभा तेजोमय है। सूर्य के समान प्रकाश वाले कुंडलों से उनका मुखमंडल शोभा पा रहा है। हर्षालाप से (प्रसन्न करने वाली बातों से) उनका मुख रूपी कमल खिल रहा है और मीठी मुस्कान से वे शोभायमान हैं। विपक्ष के (शत्रु) लोग आपकी (कल्कि जी की कृपापूर्ण दृष्टि के पड़ने से अनुग्रह मान रहे हैं। उनके (कल्कि जी के) वक्षस्थल पर मनोहर हार के बीच कुमुदनी को प्रसन्न करने वाली ज्योति से संयुक्त चन्द्रकान्त मणि शोभा पा रही है। वस्त्र इन्द्रधनुष के समान (विविध रंगों में) शोभा बिखेर रहे हैं। पूर्ण शरीर आनन्द-रस से पुलकायमान हो रहा है। देवता, गन्धर्व आदि सभी आने वाले लोगों ने कल्कि जी का अद्भुत रूप अनेक तरह की मणियों से जगमगाता हुआ देखा। वे सब लोग परम भक्ति भाव से अत्यन्त आदरपूर्वक परम आनन्द वाले, कमल जैसे नेत्रों वाले, कल्कि जी की स्तुति करने लगे।

देवतागण बोले- 'हे देवों के स्वामी, विश्व के स्वामी, हे भूतनाथ (प्राणियों के स्वामी), हे प्रभो, आपका अन्त नहीं है। आपमें सभी भाव स्थित हैं। हे भगवान्, आप प्रचण्ड अग्नि-रूप जैसे हैं। आप के किंचित मात्र छू जाने से भी इस संसार के दुःखों का समूह नष्ट हो जाता है। आपके चरण कमल में कान्ति का जाल प्रतीत होता है। । आपके चरणों से अनन्त (नाग) की प्रबल शक्ति दब गई हैं। हे (अनन्तशक्ति) देव, आपकी जय हो ! हे संसार के स्वामी, आपके श्याम रंग के वक्षस्थल पर चमकीली कौस्तुभ मणि शोभा पाती है। मणि से निकलने वाली किरणों के समूह से तीनों लोक प्रकाशित हो रहे हैं। ऐसा मालूम पड़ता है मानों बादलों के समूह के बीच में पूर्णचन्द्र (पूरा चाँद) शोभा पा रहा है। हे देव, मुसीबत में पड़कर हमलोग स्त्री, पुत्र और संबंधियों सहित आपकी शरण में आए हैं, आप हमारी रक्षा करें। हे ईश्वर, यदि हम पर आपकी कृपा है तो अब आप इस भूमण्डल के शासन को, जहाँ अब सत्य और धर्म का कोई विरोध नहीं है, त्याग कर वैकुण्ठ के लिए प्रस्थान कीजिए'

देवताओं का यह निवेदन सुनकर कल्कि जी बहुत प्रसन्न हुए और योग्य (पात्र) मित्रों के साथ वैकुण्ठ जाने के इच्छुक हुए। कल्कि जी ने प्रजा के बहुत प्यारे, धार्मिक, महाबली वाले, वीर अपने चारों पुत्रों को बुलाकर उसी समय उनका राज्याभिषेक कर दिया। फिर उन्होंने पूरी प्रजा को बुलाकर अपनी कथा (वृत्तान्त) सुनाई। उन्होंने कहा कि देवताओं के कहने पर उन्हें वैकुण्ठ-धाम की यात्रा करनी है। ये वचन सुनकर सारी प्रजा अचरज में पड़ गई और रोने लगी। जिस प्रकार पुत्र पिता से कहते हैं, उसी प्रकार प्रजा ईश्वर को प्रणाम करके कहने लगी- 'हे नाथ, आप तो सभी धर्म के जानने वाले हैं। आपके लिए हमें छोड़ना उचित नहीं है। आप प्रण के प्यारे हैं यानी प्रण के पक्के हैं। आप जहाँ हैं, वहीं हम भी जाएँगे। इस संसार में धन, पुत्र और घर सबको ही प्यारे हैं, परन्तु आप तो यज्ञ पुरुष हैं। आपसे सभी शोक और दुःख नष्ट हो जाते हैं। यह जानकर हमारे प्राण आपके पीछे-पीछे चलना चाहते हैं।' 

प्रजा के ऐसे वचन सुनकर कल्कि जी ने उन्हें अच्छे अच्छे उपदेश दिए और समझाया। तब वे स्वयं द्रवित (खेद- युक्त) मन से अपनी दोनों पत्नियों के साथ वन में चले गए। फिर गंगा जल से सम्पन्न मुनि लोगों से घिरे हुए, देवताओं से सेवित, मन को प्रसन्न करने वाले हिमालय पर्वत पर कल्कि जी देवताओं के मध्य विराजमान हुए और चार भुजाओं वाला विष्णुरूप धारण कर स्वयं अपने रूप का स्मरण करने लगे। हज़ारों सूर्य के समान उनके तेज का समूह प्रकाशित होने लगा। पूर्ण ज्योति से युक्त साक्षात् सनातन पुरुष परमात्मा कान्ति से पूर्ण होने लगे। उनका आकार अनेक तरह के आभूषणों का भी आभूषण-रूप बन गया। शंख, चक्र, गदा, पद्म, शारंग, धनुष आदि समन्वित व पूजित होने लगे। उनके वक्षःस्थल पर कौस्तुभ मणि सुशोभित थी। देवतागण उन पर सुगंधित पुष्पों की वर्षा करने लगे। चारों ओर देवताओं की दुर्दुभि बजने की ध्वनि होने लगी। जब कल्कि जी विष्णु पद में प्रविष्ठ हुए, तब उन रूपरहित विष्णु जी के रूप का दर्शन कर चेतन तथा अचेतन सभी प्राणी मोहित होकर उनकी स्तुति करने लगे। अपने पति महात्मा कल्कि जी का ऐसा अचरज भरा रूप देखकर, रमा जी और पद्मा जी (श्री कल्कि जी की पत्नियाँ) अग्नि में प्रवेश कर उसमें लीन हो गईं। कल्कि जी की आज्ञानुसार धर्म और सत्ययुग इस पृथ्वी पर शत्रु रहित (निःसपत्नौ) होकर अत्यन्त सुखपूर्वक दीर्घकाल तक विचरण करने लगे। देवापि और मरु दोनों राजा कल्कि जी की आज्ञानुसार प्रजा का पालन करते हुए इस पृथ्वी की रक्षा करने लगे। विशाखयूप राजा ने भी कल्कि जी का इस प्रकार गमन सुनकर अपने पुत्र को राज्य देकर (स्वयं) वन की यात्रा की। दूसरे राजा लोग भी कल्कि जी के जाने से बहुत दुःखी हुए (वियोग सहन न कर सके। वे भी राज सिंहासन से विरक्त (जब किसी व्यक्ति का किसी से लगाव नहीं रह जाता तो उस व्यक्ति को विरक्त कहते हैं) हो गए। 

वे  केवल कल्कि जी के रूप का ध्यान करने लगे और उनका नाम जपने लगे। इसी प्रकार अनन्त प्रभु (भगवान् का कोई अन्त नहीं होता, इसीलिए उन्हें अनन्त भी कहते हैं) कल्कि जी की कथा का, जो कि संसार को पवित्र बनाने वाली है, वर्णन करके शुकदेव जी नर-नारायण आश्रम को चले गए। शान्ति के अयन (शान्त चित्त रहने वाले) मार्कण्डेय आदि ऋषि लोग कल्कि जी का यह माहात्म्य सुनकर उन (के रूप) का ध्यान करते हुए उनके यश का गान करने लगे। जिन (कल्कि जी) के राज्यकाल में इस पृथ्वी पर कोई भी प्रजाजन कम उम्र में मरने वाला, गरीब पाखण्डी और कपटी नहीं रहा, जिनके राज्य में सभी प्राणी आधि-व्याधि रोग तथा दुःख रहित और ईर्ष्या रहित, देवताओं के समान आनन्दपूर्ण सुखी हो गए थे, उन महात्मा कल्कि जी के अवतार की यह कथा कही गई है। इस कथा को सुनने मात्र से धन और यश मिलता है, आयु बढ़ती है, कल्याण होता है, और अन्त में स्वर्ग मिलता है।

इस कथा को सुनने से शोक, दुःख और पाप दूर होते हैं। कलियुग से पैदा होने वाली बेचैनी का नाश होता है और यह सुख देने वाली, मोक्ष देने वाली और मन की इच्छा पूरी करने वाली है। जब तक इस संसार में मनोवांछित फल देने वाले पुराण रूप (प्राचीन) सूर्य प्रकाश देते हैं, तब तक ही संसार में अन्यान्य शास्त्रों के दीप चमकते रहते हैं। भृगुवंश में उत्पन्न हुए, परम जितेन्द्रिय महर्षि शौनक और दूसरे ऋषि अत्यन्त भली लगने वाली, भक्ति रस में पगी श्री कल्कि अवतार की कथा सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्हें भली-भाँति पता चल गया कि श्री लोमहर्षण जी के पुत्र सूत जी ज्ञान के गौरव में इस प्रकार प्रवृत हैं। महर्षि लोगों के हृदयों में नारायण जी की कथा फिर सुनने की इच्छा पैदा हुई, इसलिए उन्होंने आदर सहित सूत जी से गंगा स्तोत्र के विषय में पूछा।

श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \उन्नीसवाँ अध्याय संस्कृत में

सूत उवाच

ततो देवगणाः सर्वे ब्रह्मणा सहिता रथैः।
स्वैः स्वैर् गणैः परिवृता कल्किं द्रष्टुम् उपाययुः॥१

महर्षयः स-गन्धर्वाः किन्नराश् चअप्सरो-गणाः।
समाजग्मुः प्रमुदिताः शम्भलं सुर-पूजितम्॥२

तत्र गत्वा सभा-मध्ये कल्किं कमल-लोचनम्।
तेजो-निधिं प्रपन्नानां जनानाम् अभयप्रदम्॥३

नीलजीमूतसंकाशं दीर्घ-पीवर-बाहुकम्।
किरीटेनअर्क-वर्णेन स्थिरविद्युन्निभेन तम्॥४

शोभमानं द्युमणिना कुण्डलेनअभिशोभिना।
सहर्षा’लप-विकसद्-वदनं स्मित-शोभितम्॥५

कृपाकटाक्ष-विक्षेप-परिक्षिप्त-विपक्षकम्।
तार-हारो’ल्लसद्-वक्षश्-चन्द्र-कान्त-मणि-श्रिया॥६

कुमुद्वती-मोद-वहं स्फुरच्-छका’युधअम्बरम्।
सर्वदआनन्द-सन्दोह-रसो’ल्लसित-विग्रहम्॥७

नाना-मणि-गणोद्योत-दीपितं रूपम् अद्भुतम्।
ददृशुर् देव-गन्धर्वा ये चअन्ये समुपागताः॥८

भक्त्या परमया युक्ताः परमआनन्द-विग्रहम्।
कल्किं कमल-पत्रअक्षं तुष्टुवुः परमादरात्॥९

देवा ऊचुः

जयअशेष-संक्लेश-कक्ष-प्रकीर्णअ)नलो’द्दाम-संकीर्णही’श देवेश विश्वेश भूतेश भावः।
तवअनन्त चअन्तः स्थितो’ऽङ्गअप्त-रत्न)-प्रभाभातपादअजितअनन्त-शक्ते॥१०

प्रकाशीकृताशेषलोकत्रयात्र) वक्षःस्थले भास्वत् कौस्तुभ श्याम।
मेघौघराजच्छरीरद्विजाधीशपुञ्जानन त्राहि विष्णो स दारा वयं त्वां प्रपन्नाः सशेषाः॥११

यद्य् अस्त्य् अनुग्रहो ऽस्माकं व्रज वैकुण्थम् ईश्वर।
त्यक्त्वा शासित-भू-खण्दं सत्य-धर्मअविरोधतः॥१२

कल्किस् तेषाम् इति वचः श्रुत्वा परम-हर्षितः।
पात्र-मित्रैः परिवृतश् चकार गमने मतिम्॥१३

पुत्रान् आहूय चतुरो महाबल-पराक्रमान्।
रज्ये निक्षिप्य सहसा धर्मिष्थान् प्रकृति-प्रियान्॥१४

ततः प्रजाः समाहूय कथयित्वा निजाः कथाः।
प्राह तान् निज-निर्याणं देवानाम् उपरोधतः॥१५

तच् छ्रुत्वा ताः प्रजाः सर्वा रुरुदुर् विस्मयान्विताः।
तं प्राहुः प्रणताः पुत्रा यथा पितरम् ईश्वरम्॥१६

प्रजा ऊचुः

भो नाथ सर्व-धर्म-ज्ञ नअस्मांस् त्यक्तुम् इहअर्हसि
यत्र त्वम् तत्र तु वयं यामः प्रणत-वत्सल॥१७

प्रिया गृहा धनान् यत्र पुत्राः प्राणास् तवअनुगाः।
परत्रइह विशोकाय ज्ञात्वां त्वां यज्ञ-पूरुषम्॥१८

इति तद् वचनं श्रुत्वा सान्त्वयित्वा सदुक्तिभिः।
प्रययौ क्लिन्न-हृदयः पत्नीभ्यां सहितो वनम्॥१९

हिमालयं मुनि-गणैर् आकीर्णं जाह्नवी-जलैः।
परिपूर्णं देव-गणैः सेवितं मनसः प्रियम्॥२०

गत्वा विष्नुः सुर-गणैर् वृतश् चारु-चतुर्भुजः।
उषित्वा जाह्नवी-तीरे सस्मारात्मानम् आत्मना॥२१

पूर्ण-ज्योतिर्-मयः साक्षी परमात्मा पुरातनः।
बभौ सूर्य-सहस्राणां तेजोराशिसमद्युतिः॥२२

शंख-चक्र-गदा-पद्म-शार्ङ्गआद्यैः समभिष्टुतः।
नानाअलङ्करणानाञ् च सम्-अलङ्करणा-कृतिः॥२३

ववृषुस् तं सुराः पुष्पैः कौस्तुभा-मुक्त-कन्धरम्।
सुगन्धि-कुसुमा-सारैर् देव-दुन्दुभि-निःस्वनैः॥२४

तुष्टुवुर् मुमुहुः सर्वे लोकाः सस्थाणु-जंगमाः। 
दृष्ट्वा रूपम् अरूपस्य निर्याणे वैष्णवं पदम्॥२५

तद् दृष्ट्वा महदाश्चर्यं पत्युः कल्केर् महात्मनः।
रमा पद्मा च दहनं प्रविश्य तम् अवापतुः॥२६

धर्मः कृत-युगं कल्केर् आज्ञया पृथिवीतले।
निःसपत्नौ सुसुखिनौ भूलोकं चेरतुश् चिरम्॥२७

देवापिश् च मरुः कामं कल्केर् आदेशकारिणौ।
प्रजाः संपालयन्तौ तु भुवं जुगुपतुः प्रभू॥२८

विशाखयूप-भूपालः कल्केर् निर्याणम् ईदृशम्।
श्रुत्वा स्व-पुत्रं विषये नृपं कृत्वा गतो वनम्॥२९

अन्ये नृ-पतयो ये च कल्केर् विरह-कर्षिताः।
तं ध्यायन्तो जपन्तश् च विरक्ताः स्युर् नृपासने॥३०

इति कल्केर् अनन्तस्य कथां भुवन-पावनीम्।
कथयित्वा शुकः प्रायान् नर-नारायणाश्रमम्॥३१

मार्कण्देयआदयो ये च मुनयः प्रशमायनाः।
श्रुत्वाअनुभावं कल्केस् ते तं ध्यायन्तो जगुर् यशः॥३२

यस्यअनुशासनाद् भूमौ नअधर्मिष्थाः प्रजाजनाः।
नअल्पायुषो दरिदाश् च न पाखणा न हैतुकाः॥३३

नआधयो व्याधयः क्लेशा देव-भूतआत्म-सम्भवाः।
निर्मत्सराः सदानन्दा बभूवुर् जीवजातयः॥३४

इत्य् एतत् कथितं कल्केर् अवतारं महोदयम्।
धन्यं यशस्यम् आयुष्यं स्वर्ग्यं स्वस्त्ययनं परम्॥३५

शोक-सन्ताप-पाप-घ्नं कलि-व्याकुल-नाशनम्।
सुखदं मोक्षदं लोके वांछितअर्थ-फल-प्रदम्॥३६

तावच् छास्त्र-प्रदीपानां प्रकाशो भुवि रोचते।
भाति भानुः पुराणाख्यो यावल् लोके ऽति कामधुक्॥३७

श्रुत्वै’तद् भृगु-वंश-जो मुनि-गणैः साकं सहर्षा वशी।
ज्ञात्वा सूतम् अमेय-बोध-विदितं श्री-लोमहर्षआत्मजम्।

श्री-कल्केर् अवतार-वाक्यम् अमलं भक्ति-प्रदं श्री-हरेः।
शुश्रूषुः पुनर् आह साधु-वचसा गंगा-स्तवं सत्-कृतः॥३८

इति श्री-कल्कि-पुराणे ऽनुभागवते तृतीयअंशे कल्कि-निर्याणो नामऊनविंशतितमो ऽध्यायः॥१९

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