श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \चौदहवाँ अध्याय | Shri Kalki Purana Third Part \ Fourteenth Chapter

श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \चौदहवाँ अध्याय हिंदी से संस्कृत में

सूत उवाच

ततः कल्किर् महातेजाः श्वशुरं तं शशिधुअजम्।
सम्-आमन्तृय वचश्-चित्रैः सह भूपैर् ययौ हरिः॥१

सूत जी बोले- इसके बाद महा तेजस्वी कल्कि जी विचित्र वचनों को कहकर अपने श्वसुर शशिध्वज को सन्तुष्ट करके राजाओं के साथ चले गए। राजा शशिध्वज भी कल्कि जी की इच्छानुसार वर पाकर महेश्वरी माया की स्तुति करके मोह-बंधन को छोड़कर स्त्री सहित जंगल को गए। कल्कि जी ने सेना सहित काञ्चनी पुरी (कांचीपुर) के लिए प्रस्थान किया। इस नगरी के चारों ओर पहाड़ियों का घेरा है। विष की वर्षा करने वाले साँपों द्वारा इसकी रक्षा होती है।


परपुर अर्थात् शत्रु की नगरी को जीतने वाले अच्युत कल्कि जी ने अपनी सेना के साथ उस मुश्किल से भेदे जाने वाले योग्य घेरे को भेदकर और बाणों द्वारा विषधारी साँपों का नाश करके उस नगरी में प्रवेश किया। कल्कि जी ने देखा कि वह पुरी अनेक मणियों और ढेर सारे सोने से सजी हुई है। वह स्थान- स्थान पर नाग-कन्याओं से घिरी है। बीच-बीच में हरिचन्दन वृक्ष (कल्पवृक्ष) शोभायमान हैं, परन्तु वहाँ मनुष्य एक भी नहीं है। इन अद्भुत दृश्यों को देखकर कल्कि जी ने मुस्करा कर राजाओं से कहा- 'देखो, कैसा आश्चर्य है। यह साँपों की नगरी है! मनुष्यों के लिए तो यह स्थान बहुत भयानक है। इस नगर में केवल नाग-कन्याएँ निवास करती हैं। बताइए, इसमें प्रवेश करना चाहिए या नहीं ?'

रमानाथ अर्थात् भगवान् कल्कि और राजा लोग अपने कर्त्तव्य (क्या करना चाहिए) के बारे में कुछ निश्चय नहीं कर सके। वे लोग चिन्ता करने लगे। उसी समय आकाशवाणी हुई- 'इस नगरी में सेना सहित आपका प्रवेश करना उचित नहीं है। इस पुरी के भीतर रहने वाली विष-कन्याओं के देखने मात्र से आपको छोड़कर बाकी सभी मर जाएँगे।' उस आकाशवाणी को सुनकर कल्कि जी अकेले ही शीघ्रतापूर्वक तलवार लेकर घोड़े पर सवार होकर शुक पक्षी को साथ लेकर वहाँ गए। कुछ दूर जाकर कल्कि जी ने एक अपूर्व कन्या को देखा। इस कन्या का रूप देखकर ज्ञानी लोग भी अपना धीरज खो बैठते। अद्भुत रूप वाले कल्कि जी को देखकर कन्या मुस्कराकर बोली- 'इस संसार में महावीर्य वाले सैकड़ों राजा और दूसरे मनुष्य मेरे कारण अपनी देह का नाश कराकर काल के गाल में समा गए। अतएव मैं बहुत दुःखी हूँ। देवता, राक्षस, मनुष्य किसी के साथ भी मेरे प्रेप्स की संभावना नहीं है।

भगवान कल्कि और विषकन्या

इस समय आपके कमल के समान सुन्दर दो नेत्रों से निकलने वाले अमृत में बहकर मैं आपको नमस्कार करती हूँ। मैं इस संसार में विषभरी दृष्टि वाली दीन और बहुत अभागिनी हूँ। आपकी दृष्टि अमृत पूर्ण है। मैंने कौन-सी तपस्या की थी, जो आपके साथ मिलाप हुआ ?' कल्कि जी बोले- 'हे सुश्रोणि सुन्दरी ! तुम कौन हो ? किसकी कन्या हो ? तुम्हारी ऐसी हालत कैसे हुई? मुझे बताओ कि तुमने ऐसा कौन-सा काम किया था कि जिससे तुम्हारी दृष्टि विष वाली हो गई ?'

विषकन्या बोली- 'हे महा बुद्धि वाले ! मैं चित्रग्रीव नामक गन्धर्व की पत्नी हूँ। मेरा नाम सुलोचना है। मैं अपने पति के मन को बहुत आनन्द देती थी। एक बार मैं अपने पति के साथ विमान में सवार होकर गन्धमादन पर्वत के कुञ्ज (झाड़ी) में जाकर किसी शिला पर बैठी कामाकुल हो विहार कर रही थी। मैं उस समय वासना के मद में तस्त थी। वहाँ पर यक्ष मुनि का भौंडा आकार देखकर मैं जवानी के घमंड में अन्धी उनपर कटाक्ष कर हँसने लगी। मेरे अप्रिय वचन सुनकर और उपालम्भपूर्ण (अर्थात् मजाक उड़ाने वाले) वाक्य सुनकर मुनि ने क्रोधित होकर मुझे शाप दे दिया। उस शाप के कारण ही मैं विष दृष्टि वाली बन गई। उसके बाद मैं साँपों वाली कांचनी नामक इस नगरी में नागनियों में डाली गई। मैं दृष्टि द्वारा विष बरसाया करती हूँ। मैं अत्यन्त भाग्यहीन और पतिहीन होकर अकेली घूमा करती हूँ। मैं नहीं जानती कि मैंने कौन- सी ऐसी तपस्या की थी, जिससे आप की दृष्टि के सामने मैं आ गई। आपके दर्शन से मेरा शाप छूट गया। इस समय मेरी दृष्टि अमृत बरसाने वाली हो गई है। अब मैं पति के पास जाती हूँ। कैसा अचरज है! सज्जनों की प्रसन्नता से तो शाप ही अच्छा है। ऋषि का शाप होने से, शाप के छूटते समय आपके चरण-कमल के दर्शन मिले हैं।'

यह कहकर विषकन्या सूर्य के समान विमान पर चढ़ कर स्वर्ग को चली गई। कल्कि भगवान् ने महामति नाम के राजा को उस नगरी का महाराजा बनाया। महामति राजा के पुत्र अमर्ष, अमर्ष के पुत्र धीमान सहस्र और धीमान सहस्र से असि नामक प्रसिद्ध राजा ने जन्म ग्रहण किया। उसी राज के वंश में बृहन्नला राजाओं की उत्पत्ति हुई है। उन राजाओं में शेर के समान मनु को अयोध्या के राज्य पर राज्याभिषेक कराया, फिर नारायण (श्री कल्कि जी) मुनियों के साथ मथुरा को गए। मथुरा के राज्य पर अत्यन्त तेजस्वी सूर्यकेतु राजा का राज्याभिषेक किया। कल्कि भगवान्, वारणावत में यात्रा करते हुए, देवापि को राज्य सौंप कर और उसको अरिस्थल, वृकस्थल, माकन्द, हस्तिनापुर, वारणावत नाम के पाँच राज्यों का अधिपति बनाकर शम्भल ग्राम को गए। इसके बाद भ्रातृवत्सल (अर्थात् भाइयों को प्यार करने वाले) नारायण जी ने कवि, प्राज्ञ और सुमन्त्रक को शौम्भ, पौण्ड्र पुलिन्द और मगध देश का राज्य दिया।

इसके बाद जगदीश्वर कल्कि जी ने अपने गोत्र वालों को कीकट, मध्य कर्णाटक, आन्ध्र, उडू, कलिङ्ग, अंग, बंग इत्यादि समस्त देशों को दिया। इसके उपरान्त कल्कि जी ने स्वयं शम्भल में स्थित रहकर राजा विशाखयूप को कंकक और कपाल देश प्रदान किए। इसके बाद, कल्कि जी ने कृतवर्म आदि पुत्रों को द्वारका के अन्तर्गत स्थित चोल, बर्बर, कर्व आदि देशों का राज्य दिया। तब हरि (श्री कल्कि) भगवान् ने अपने पिता जी को परम भक्ति सहित धन व रत्न भेंट किए, और शम्भलवासियों को धैर्य देकर (संन्तुष्ट कर), गृहस्थाश्रम में रहकर, रमा जी और पद्मा जी के साथ बड़े आनन्द से समय व्यतीत करने लगे। तीनों लोक धर्म के चारों चरण सम्पन्न सत्ययुग से पूर्ण हो गए। देवगण भक्तों को उनके मनोवांछित फल देते हुए सारी पृथ्वी मंडल पर घूमने लगे। सब तरह के अनाजों से पृथ्वी भरपूर हो गई। सभी लोग हृष्ट-पुष्ट हो गए। दुष्टता, चोरी, झूठ बोलना, गंदा व्यवहार, रोग-व्याधि आदि सारे उपद्रव पृथ्वी से दूर हो गए। ब्राह्मण लोग वेदों का पाठ करने लगे। स्त्रियाँ मंगल कार्य और व्रतादि पुण्य कर्म करने लगीं। सर्वत्र पूजा और यज्ञ आदि होने लगे। स्त्रियाँ पतिव्रता हो गईं। क्षत्रिय लोग यज्ञ आदि करने लगे। वैश्य विष्णु पूजा में लगे रहने लगे और धर्मपूर्वक द्रव्य आदि खरीदते व बेचते हुए जीवन-निर्वाह करने लगे। शूद्र ब्राह्मणों की सेवा करने लगे। इस प्रकार सबलोग उपासना करते हुए अपना जीवन-निर्वाह करने लगे।

श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \चौदहवाँ अध्याय संस्कृत में

सूत उवाच

ततः कल्किर् महातेजाः श्वशुरं तं शशिधुअजम्।
सम्-आमन्तृय वचश्-चित्रैः सह भूपैर् ययौ हरिः॥१

शशिध्वजो वरं लब्धा यथाकामं महेश्वरीम्।
स्तुत्वा मायां त्यक्तमायः स-प्रियः प्रययौ वनम्॥२

कल्किः सेना-गणैः सार्धं प्रययौ काञ्चनीं पुरीम्।
गिर्-दुर्गआवृतां गुप्तां भोगिभिर् विष-वर्सिबिः॥३

विदार्य दुर्गं सगणः कल्किः पर-पुरञ्-जयः।
छित्त्वा विषायुधान् बाणैस् तां पुरीं ददृशे ऽच्युतः॥४

मणि-काञ्चन-चित्राढ्यां नाग-कन्या-गणआवृताम्।
हरिचन्दन-वृक्षाढ्यां मनुजैः परि-वर्जिताम्॥५

विलोक्य कल्किः प्रहसन् प्राह भूपान् किम् इत्य् अहो।
सर्पस्ये’यं पुरी रम्या नराणां भय-दायिनी।
नाग-नारी-गणाकीर्णा किं यास्यामो वदन्त्व् इह॥६

इति कर्तव्यताव्यग्रं रमानाथं हरिं प्रभुम्।
भूपान्स् तद् अनुरूपांश् च खे वाग्-आहअशरीरिणी॥७

विलोक्य ने’मां सेनाभिः प्रवष्तुं भोस् त्वम् अर्हसि।
त्वां विनान्ये मरिष्यन्ति विष-कन्या-दृशाद् अपि॥८

आकाश-वाणीम् आकर्ण्य कल्किः शुकसहायकृत्।
ययाव् एकः खड्ग-धरस् तुरगेण त्वरअन्वितः॥९

गत्वा तां ददृशे वीरो धीराणां धैर्य-नाशिनीम्।
रूपेणअलक्ष्य-लक्ष्मीशं प्राह प्रहसितअनना॥१०

विषकन्याउवाच

संसारे ऽस्मिन् मम नयनयोर् वीक्षणक्षीणदेहा।
लोका भूपाः कति कति हता मृत्युम् अत्युग्रवीर्याः॥

साहं दीनअसुर-सुर-नर-प्रेक्षण-प्रेमहीना।
ते नेत्रअब्ज-द्वय-रस-सुधाप्लाविता त्वां नमामि॥११

क्वाअहं विषे’क्षणा दीना क्वाअमृतेक्षण-सङ्गमः।
भवे ऽस्मिन् भाग्य-हीनायाः केनअहो तसा कृतः॥१२

कल्किर् उवाच

काअसि कन्याअसि सु-श्रोणि कस्माद् एषा गतिस् तव।
ब्रूहि मां कर्मणा केन विष-नेत्रं तवअभवत्॥१३

विषकन्याउवाच

चित्र-ग्रीवस्य भार्याअहं गन्धर्वस्य महामते।
सुलोचनाइति विख्याता पत्युर् अत्यन्त-कामदा॥१४

एकदाहं विमानेन पत्या पीठेन सङ्गता।
गन्धमादन-कुञ्जेषु रेमे कामकलाकुला॥१५

तत्र यक्षमुनिं दृष्ट्वा विकृताकारम् आतुरम्।
रूप-यौवन-गर्वेण कटाक्षेणा’ह संमदात्॥१६

सोपालम्भं मुनिः श्रुत्वा वचनं च ममाप्रियम्।
शशाप मां क्रुधा तत्र तेनअहं विष-दर्शना॥१७

निक्षिप्ताअहं सर्प-पुरे काञ्चन्यां नागिनीगणे।
पति-हीना दैव-हीना चरामि विष-वर्षिणी॥१८

न जाने केन तपसा भवद् दृष्टि-पथं गता।
त्यक्त-शापअमृताक्षा’हं पति-लोकं व्रजाम्य् अतः॥१९

अहो तेषाम् अस्तु शापः प्रसादो मा सताम् इह।
पत्युः शापाद् र्षेर् मोक्षात् तव पादाब्ज-दर्शनम्॥२०

इत्य् उक्त्वा सा ययौ स्वर्गं विमानेनअर्क-वर्चसा।
कल्किस् तु तत् पुराधीशं नृपं चक्रे महामतिम्॥२१

अमर्षस् तत् सुतो धीमान् सहस्रो नाम तत् सुतः।
सहस्रतः सुतश् च असीद् राजा विश्रुतवान् असिः॥२२

बृहन्-नलनां भूपानां संभूता यस्य वंशजाः।
तं मनुं भूप-शार्दूलं नाना-मुनि-गणैर् वृतः॥२३

अयोध्यायां चअभिषिच्य मथुराम् अगमद् धरिः।
तस्यां भूपं सूर्यकेतुम् अभिषिच्य महाप्रभम्॥२४

भूपं चक्रे ततो गत्वा देवापिं वारणावते ।
अरिस्थलं वृकस्थलं माकन्दञ् च गजाह्वयम्॥२५

पञ्च-देशईश्वरं कृत्वा हरिः शम्भलम् आययौ।
शौम्भं पौण्द्रं पुलिन्दञ् च सुराष्त्रं मगधं तथा।
कवि-प्राज्ञ-सुमन्तेभ्यः प्रददौ भ्रातृ-वत्सलः॥२६

कीकटं मध्यकर्णाटम् अन्ध्रम् ओड्रं कलिङ्गकम्।
अङ्गं वङ्गं स्वगोत्रेभ्यः प्रददौ जगद्-ईश्वरः॥२७

स्वयं शम्भल-मध्य-स्थः कङ्ककेन कलापकान्।
देशं विशाखयूपाय प्रादात् कल्किः प्रतापवान्॥२८

चोल-बर्बर-कर्वआख्यान् द्वारका-देश-मध्यगान्।
पुत्रेभ्यः प्रददौ कल्किः कृत-वर्म-पुरस्-कृतान्॥२९

पित्रे धनानि रत्नानि ददौ परम-भक्तितः
प्रजाः समाश्वास्य हरिः शम्भल-ग्राम-वासिनः॥३०

पद्मया रमया कल्किर् गृहस्थो मुमुदे भृशम्।
धर्मश् चतुष्पाद् अभवत् कृत-पूर्णं जगत्-त्रयम्॥३१

देवा यथो’क्त-फल-दाश् चरन्ति भुवि सर्वतः।
सर्वशस्या वसुमती हृष्ट-पुष्ट-जनआवृता।
शाठ्य-चौर्यअनृतैर् हीना आधि-व्याधि-विवर्जिता॥३२

विप्रा वेदविदः सु-मङ्गल-युता नार्यस् तु चार्याव्रताः।
पूजा-होम-पराः पतिव्रत-धरा यागोद्यताः क्षत्रियाः।

वैश्या वस्तुषु धर्मतो विनिमयैः श्री-विष्णु-पूजा-पराः।
शूद्रास् तु द्विज-सेवनाद् धरि-कथा’लापाः सपर्या-पराः॥३३

इति श्री-कल्कि-पुराणे ऽनुभागवते भविष्ये तृतीयअंशेविषकन्या-मोक्ष-कृत-धर्म-प्रवृत्ति-कथनं नाम चतुर्दशो ऽध्यायः॥१४

टिप्पणियाँ