श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \पहला अध्याय | Shri Kalki Purana Third Part \First Chapter

श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \पहला अध्याय हिंदी से संस्कृत में

सूत उवाच

ततः कल्किर् म्लेच्छ-गणान् करवालेन कालितान्।
बाणैः संताडितानन्यअननयद् यम-सादनम्॥१

सूत जी बोले- इसके बाद कल्कि जी ने कुछ म्लेच्छों को बाणों द्वारा बेध कर और कुछ को तलवार से मारकर यम लोग पहुँचाया। इसी प्रकार विशाखयूप, कवि, प्राज्ञ, सुमंत्रक, गर्ग्य, भर्ग्य और विशाल आदि ने भी म्लेच्छों को यमलोक पहुँचाया। कपोतरोमा, काकाक्ष, काककृष्ण आदि शुद्धोधन और अन्य बौद्ध की संतानें (उनकी) कल्कि जी की सेना के साथ लड़ाई करने लगीं।


उस घोर युद्ध से भूमण्डल से सभी प्राणी भयभीत हो गए। भूतनाथ प्रसन्न हुए। खून से सने हुए लाल कीचड़ से संग्राम की भूमि ढक गई। लड़ाई के मैदान में गिरे हुए हाथियों, घोड़ों, रथियों के खून की नदी बहने लगी। इस नदी में (गिरे हुए) बाल ऐसे लगते थे, मानों काई का समूह हो और घोड़े धनुष तरंग के समान दिखाई देने लगे। हाथी ऐसे लग रहे थे, मानों कठिनाई से पार होने योग्य पुल हों। खून की इस नदी में बहते हुए सिर कछुए, रथ, नावें और हाथ मछली जैसे लग रहे थे। खून की इस नदी के तट पर गीदड़ और बाज़ खुशी से ऐसी आवाजें करने लगे, मानों नगाड़े की आवाज़ हो रही हो। इसे सुनकर सज्जन मनस्वी बहुत प्रसन्न हुए। हाथी पर सवार योद्धा हाथी पर सवार योद्धाओं से, घोड़े पर सवार योद्धा घोड़े पर सवार योद्धाओं से, ऊँट पर बैठे योद्धा ऊँट पर बैठे योद्धाओं से और रथ पर सवार योद्धा रथ पर सवार योद्धाओं से लड़ने लगे। बाणों से बिंधे (कटे) हुए हाथ, पाँव और सिर शरीर से अलग होकर पृथ्वी पर गिरने लगे।

बहुत से हारे हुए भयभीत योद्धा, रोके जाने पर भी भस्म-रमे जैसे धूल-धूसरित मुख, गेरुआ (लाल) जैसे धारण किए हुए रक्तरंजित वस्त्र और बिखरे बालों से संन्यासी-जैसे लगते, पलायन कर गए। कोई-कोई तो व्याकुलता से भागने लगा और कोई-कोई बार-बार पानी माँगने लगा। इस प्रकार कल्कि जी की सेना के बाणों से बिंधकर म्लेच्छ सेना में कोई भी चैन से (सकुशल) न रहा। उनकी रूपवती, बलवती, पतिव्रता युवती रमणियाँ भी संतान का सुख और उनका सहारा छोड़कर, (युद्ध में अपने-अपने पति की सहायता करने के लिए) कोई रथ पर, कोई हाथी पर, कोई विहंग पर, कोई घोड़े पर, कोई गधे पर, कोई ऊँट पर और कोई बैल पर सवार होकर युद्ध करने के लिए आ गई। ये सुन्दर प्रभा (कान्ति) वाली स्त्रियाँ अनेक गहनों से सजी-धजी, युद्ध के साज में तैयार होकर धनुष-बाण धारण करके आई थीं। इनके कर- कमलों में बाजूबन्द भी शोभित थे। सुन्दर आकृति वाली इन स्त्रियों में कोई स्वैरिणी (कुल्टा अथवा व्यभिचारिणी), कोई पतिव्रता और कोई विलासिनी थी। ये नारियाँ अपने-अपने पति की मृत्यु से दुःखी होकर (बदला लेने के लिए) कल्कि सेना के साथ युद्ध के लिए आगे बढ़ीं।

शास्त्र में कहा है कि मनुष्य मिट्टी, राख, लकड़ी आदि की बनी चीज़ पर प्रभुता अथवा अधिकार बनाए रखने के लिए अपने प्राण देने को तैयार हो जाते हैं। इसीलिए युवतियों के लिए अपने प्राण के समान अपने-अपने पति की मृत्यु अपने सामने देखकर सह लेना असंभव था। इसके बाद म्लेच्छ स्त्रियाँ अपने-अपने पति को बाणों से बिंधा हुआ और बेचैन देख उन्हें पीछे हटा उनके अस्त्र लेकर कल्कि जी की सेना के साथ स्वयं युद्ध करने लगीं। उन स्त्रियों को युद्ध करने को तत्पर देखकर कल्कि जी की सेना विस्मय से भर गई और उसने कल्कि जी के पास जाकर यत्नपूर्वक (सादर) पूरा समाचार बताया। युद्ध करने की इच्छा वाली स्त्रियों का हाल सुनकर महान् बुद्धिमान् कल्कि जी प्रसन्नतापूर्वक रथ पर चढ़ कर सेना और सेवकों के साथ उस स्थान पर आए।

अनेक शस्त्र और अस्त्रों को धारण करने वाली, तरह- तरह की सवारियों पर चढ़ी हुई, व्यूह रचना करने वाली उन म्लेच्छ महिलाओं को देखकर पद्मा जी के स्वामी कल्कि जी (उनसे) बोले- 'हे महिलाओ ! मैं तुम्हारी भलाई के लिए उत्तम वाक्य कहता हूँ। तुम उसे सुनो। क्या पुरुषों का स्त्रियों के साथ युद्ध करना उचित है। अर्थात् उचित नहीं है। (लहराते) बालों से शोभायमान, नयनों को आनन्द देने वाले तुम्हारे इन चन्द्रमा के समान सुन्दर मुखों पर कौन पुरुष प्रहार करेगा ? तुम्हारे वक्ष स्थल पर कुच (स्तन) रूपी शिव विराजमान हैं। सुन्दर हार ने सर्प के समान उन स्तन रूपी महादेव जी को विभूषित किया है।

युद्ध के लिए तत्पर म्लेच्छ स्त्रियाँ और भगवान कल्कि

इसे देखकर कामदेव का घमंड भी चूर-चूर हो जाता है, अर्थात् जो अत्यन्त सुन्दर है, उस पर कौन पुरुष प्रहार करेगा ? तुम्हारे कलंक से रहित चन्द्र-मुख पर लहराते बाल ऐसे हैं, जैसे चकोर चाँदनी का पान कर रहे हैं। पृथ्वी पर ऐसा कौन-सा पुरुष है, जो ऐसे मुख पर प्रहार करेगा ? भारी स्तनों के बोझ से थोड़ी झुकी हुई तुम्हारी बहुत पतली कमर छोटे-छोटे रोओं से सुशोभित है। ऐसे अंग पर कौन पुरुष प्रहार करेगा ? तुम्हारे इन आँखों को सुख देने वाले, वस्त्रों से ढके, अति सुन्दर दोष रहित जघन पर कौन पुरुष बाणों की मार करेगा।' कल्कि जी के ये वचन सुनकर म्लेच्छ स्त्रियाँ हँसने लगीं और बोलीं- 'हे महात्मन् ! जब आपने हमारे पतियों को मार डाला, तब हमारा भी नाश हो चुका।' यह कहकर वे स्त्रियाँ कल्कि जी का नाश करने के लिए तैयार हुईं। वे जब अस्त्रों को छोड़ने लगीं तो अस्त्र उनके हाथ में धरे-के-धरे रह गए।

तलवार, शक्ति, धनुष-बाण, भाले, लाठी आदि सोने से मढ़े हुए शस्त्रों से उन शस्त्रों के अधिष्ठाता देवतागण साक्षात प्रकट होकर म्लेच्छों की स्त्रियों से कहने लगे- 'हे स्त्रियो ! हमने जिस (ईश्वर) से तेज पाया है और जिस तेज के द्वारा हम प्राणियों को मारते हैं, इन्हें उन्हीं सर्वव्यापक परमात्मा समझो और दृढ़ विश्वास करो। हे स्त्रियो ! हम इन्हीं ईश्वर की आज्ञा के अनुसार गतिशील होते हैं। हमने इन्हीं परमात्मा से नाम और रूप पाकर प्रसिद्धि प्राप्त की है। रूप, गन्ध, रस, स्पर्श और शब्दादि पाँच गुणों के आधार पंचभूत हैं। इनमें रहकर ही ये अपना-अपना काम करते हैं। ये कल्कि जी वही परमात्मा हैं। इन्हीं की आज्ञा से काल, स्वभाव, संस्कार और संज्ञा आदि की आश्रयभूता परा-प्रकृति महत्तत्व और अहंकार आदि उत्पन्न करती है। सृष्टि, स्थिति और प्रलय (यानी संसार की रचना, पालन-पोषण और विनाश) संसार का कार्य ईश्वर की माया के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। परमात्मा ही सबके आदि और अन्त हैं। इनसे ही संसार की सभी शुभाशुभ बातें होती हैं और ये ही ईश्वर हैं। यह मेरा पति है, मैं इनकी स्त्री हूँ, यह मेरा पुत्र है, यह मेरा अपना है, ये मेरे बन्धु-बान्धव हैं- ये सब बातें स्वप्न जैसी हैं और जादू (या इन्द्रजाल) जैसे तरह-तरह के व्यवहार इनसे ही प्रकट हो रहे हैं। जो लोग केवल स्नेह और मोह के अधीन होकर आवागमन करते हैं, जो लोग राग, द्वेष, विद्वेष आदि के कारण कल्कि जी की सेवा नहीं करते, वे ही इस संसार को सत्य समझते हैं। काल कहाँ से आया ? मृत्यु कहाँ से आती है? यम कौन है? देवतागण कौन हैं? ये सब भगवान् कल्कि जी ही अपनी माया द्वारा अनेक (रूपों में) हो गए हैं। हे महिलाओ ! हम शस्त्र नहीं हैं, हममें किसी भी प्रकार की मार करने की शक्ति नहीं हैं। वे परमात्मा ही शस्त्र हैं, वे ही शस्त्र द्वारा मार कर सकते है। इसमें जो दो भेद हैं, वे केवल परमात्मा की ही माया है। जब दैत्यपति प्रह्लाद के कहने के अनुसार भगवान् नारायण ने नृसिंह का रूप धारण किया, तब जिस तरह हम (शस्त्रगण) उन पर प्रहार नहीं कर सके थे, उसी तरह कल्कि जी के सेवकों पर भी आघात करने की शक्ति हममें नहीं है।'

अस्त्र-शस्त्रों के यह वचन सुनकर स्त्रियों का हृदय अचरज से भर गया और वे स्त्रियाँ स्नेह, मोह आदि को छोड़कर कल्कि जी की शरण में आ गईं। उन म्लेच्छ स्त्रियों को ज्ञान की निष्ठा में लगा हुआ देखकर पद्मा जी के स्वामी कल्कि जी ने हँसकर पापों के समूहों को नाश करने वाले भक्ति-योग के बारे में बताना शुरू किया। इसके बाद लक्ष्मी पति भगवान् कल्कि ने उन्हें आत्मनिष्ठा विषयक कर्मयोग और सांसारिक सभी प्रकार के भेदों का मूल ज्ञानयोग का उपदेश दिया जिससे व्यक्ति कर्म करते हुए भी उसके फल को न भोगने वाले नैष्कर्म्य को प्राप्त कर लेता है।

इसके बाद उन सभी स्त्रियों ने कल्कि जी के उपदेश से ज्ञान प्राप्त किया और इन्द्रिय को जीत कर भक्ति से उस परम पद को पा लिया, जो संन्यासियों को भी दुर्लभ है। इस प्रकार बुद्ध के अनुयायी म्लेच्छों के साथा भयंकर युद्ध कर, उन बौद्धों एवं म्लेच्छों के समूहों का वध कर, उनकी जीवात्मा को ज्योतिर्मय स्थान (तारागण) और उनकी पत्नियों को मोक्ष देकर भगवान् कल्कि बहुत ही शोभायमान् हुए। जो लोग बौद्धों तथा म्लेच्छों के नाश की यह कथा आदरपूर्वक सुनेंगे और दूसरों से कहेंगे उनके समस्त शोक दूर होंगे, उनका सदैव भला होगा, उनमें भगवान् विष्णु के प्रति भक्ति पैदा होगी और जन्म-मरण से छुटकारा मिलेगा। इस कथा को सुनने से सारी सम्पदा मिलती है, माया-मोह दूर होता है और फिर संसार के दुःखों से दुःखी नहीं होना पड़ता।

श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \पहला अध्याय संस्कृत में

सूत उवाच

ततः कल्किर् म्लेच्छ-गणान् करवालेन कालितान्।
बाणैः संताडितानन्यअननयद् यम-सादनम्॥१

विशाखयूपो ऽपि तथा कवि-प्राज्ञ-सुमन्त्रकाः ।
गार्ग्य-भार्ग्य-विशालआद्या म्लेच्छान् निन्युर् यम-क्षयम्॥२

कपोतरोमा काकाक्षः काककृष्णआदयो ऽपरे।
बौद्धाः शौद्धोदना याता युयुधुः कल्कि-सैनिकैः॥३

तेषां युद्धम् अभूद् घोरं भयदं सर्व-देहिनाम्।
भूत्’एशआनन्द-जनकं रुधिरअरुण-कर्दमम्॥४

गजअश्व-रथ-संघानां पततां रुधिर-स्रवैः।
स्रवन्ती केश-शैवाला वाजि-ग्राहा सुगाहिका॥५

धनुस्-तरङ्गा दुष्पारा गज-रोधः प्रवाहिणी।
शिरः-कूर्मा रथ-तरिः पाणि-मीनअसृग् आपगा॥६

प्रवृत्ता तत्र बहुधा हर्षयन्तो मनस्विनाम्।
दुन्दुभेयरवा फेरु शकुना’नन्द-दायिनी॥७

गजैर् गजा नरैर् अश्वाः खरैर् उष्त्रा रथै रथाः।
निपेतुर् बाण-भिन्नअङ्गाश् छिन्न-बाह्व्-अ,ङ्/घ्रि-कन्धराः॥८

भस्मना गुण्थित-मुखा रक्तवस्त्रा निवारिताः।
विकीर्ण-केशाः परितो यान्ति सन्न्यासिनो यथा॥९

व्यग्राः के ऽपि पलायन्ते याचन्त्यन्ये जलं पुनः।
कल्कि-सेना-शुगक्षुण्ना म्लेच्छा नो शर्म लेभिरे॥१०

तेषां स्त्रियो रथारूढा गजारूढा विहङ्गमान्।
समारूढा हयारूढा खरोष्ट्रवृष-वाहनाः॥११

योद्धुं समाययुस् त्यक्त्वा पत्यपत्य-सुखाश्रयान्।
रूपवत्यो युवतिओ ऽति-बलवत्यः पतिव्रताः॥१२

नाना-भरण-भूषाध्याः सन्नद्धा विशदप्रभाः।
खड्ग-शक्ति-धनुर्-बाण-वलयाक्त-करअम्बुजाः॥१३

स्वैरिण्यो ऽप्य् अतिकामिन्यो पुंश्चल्यश् च पतिव्रताः।
ययुर् योद्धुं कल्कि-सैन्यैः पतीनां निधनातुराः॥१४

मृद्-भस्म-काष्ठ-चित्राणां प्रभुताम्नायशासनात्
साक्षात् पतीनां निधनं किं युवत्यो ऽपि सेहिरे॥१५

ताः स्त्रियः स्वपतीन् बाण-भिन्नान् व्याकुलिते’न्द्रियान्।
कृत्वा पश्चाद् युयुधिरे कल्कि-सैन्यैर् धृता’युधाः॥१६

ताः स्त्रीर् उद्वीक्ष्य ते सर्वे विस्मय-स्मित-मानसाः।
कल्किम् आगत्य ते योधाः कथयाम् आसुर् आदरात्॥१७

स्त्रीणाम् एव युयुत्सूनां कथाः श्रुत्वा महामतिः।
कल्किः समुदितः प्रायात् स्वसैन्यैः सअनुगो रथैः॥१८

ताः समालोक्य पद्मेशः सर्व-शस्त्रअस्त्र-धारिणीः।
नाना-वाहन-संरूढा कृत-व्यूहा उवाच सः॥१९ 

कल्किर् उवाच

रे स्त्रियः शृणुतअस्माकं वचनं पथ्यम् उत्तमम्।
स्त्रिया युद्धेन किं पुंसां व्यवहारो ऽत्र विद्यते॥२०

मुखेषु चन्द्र-बिम्बेषु राजितअलक-पंक्तिषु।
प्रहरिष्यन्ति के तत्र नयनआनन्द-दायिषु॥२१

विभ्रान्त-तार-भ्रमरं नव-कोकनद-प्रभम्।
दीर्घअपाङ्गे’क्षणं यत्र तत्र कः प्रहरिष्यति॥२२

वक्षोज-शम्भू सत्तार-हारव्याल-विभूषितौ।
कन्दर्प-दर्प-दलनौ तत्र कः प्रहरिष्यति॥२३

लोल-लीलअलक-व्रात-चकोरा-क्रान्त-चन्द्रिकम्।
मुख-चन्द्रं चिह्नहीनं कस् तं हन्तुम् इहअर्हति)२४

स्तनुभार-भराक्रान्त-नितान्तक्षीण-मध्यमम्।
तनु-लोम-लताबन्धं कः पुमान् प्रहरिष्यति॥२५

नेत्रआनन्देन नेत्रेण समावृतमनिन्दितम्।
जघनं सुघनं रम्यं बाणैः कः प्रहरिष्यति॥२६

इति कल्केर् वचः श्रुत्वा प्राहस्य प्राहुर् आदृताः।
अस्माकं त्वं पतीन् हंसि तेन नष्टा वयं विभो ।
हन्तुं गतानाम् अस्त्राणि कराण्य् एवा’गतान् युत॥२७

खड्ग-शक्ति-धनुर्-बाण-शूल-तोमर-यष्टयः।
ताः प्राहुः पुरतो मूर्ताः कार्तस्वर्(ण्?)अ-विभूषणाः॥२८

शस्त्राण्य् ऊचुः

यमासाद्य वयं नार्यो हिंसयामः स्वतेजसा।
तम् आत्मान्तं सर्वमयं जानीत कृतनिश्चयाः॥२९

तम् ईशम् आत्मना नार्यः! चरामो यद् अनुज्ञया।
यत् कृता नाम-रूपआदि-भेदेन विदिता वयम्॥३०

रूप-गन्ध-रस-स्पर्श-शब्द_आद्या भूत-पञ्चकाः।
चरन्ति यद् अधिष्थानात् सो ऽयं कल्किः परात्मकः॥३१

काल-स्वभाव-संस्कार-नामआद्या प्रकृतिः परा।
यस्येच्छया सृजत्य् अण्दं महाअहङ्कारकआदिकान्॥३२

यन् मायया जगद्यात्रा सर्ग-स्थित्य्-अन्त-संज्ञिता।
य एव आद्यः स एव अन्ते तस्यायः सो ऽयम् ईश्वरः॥३३

असौ पतिर् मे भार्या अहम् अस्य पुत्राप्त-बान्धवाः।
स्वप्नोपमास्तु तन्निष्था विविधाश् चै’न्द्रजालवत्॥३४

स्नेह-मोहनिबन्धानां यातायातदृशां मतम्।
न कल्कि-सेविनां राग-द्वेष-विद्वेष-कारिणाम्॥३५

कुतः कालः कुतो मृत्युः क्व यमः क्वअस्ति देवताः।
स एव कल्किर् भगवान् मायया बहुली-कृतः॥३६

न शस्त्राणि वयं नार्यः संप्रहार्या न च क्वचित्।
शस्त्र-प्रहर्तृ-भेदो ऽयम् अविवेकः परात्मनः॥३७

कल्कि-दासस्यअपि वयं हन्तुं नअर्हाः कथो’द्भुतम्।
हनिष्यामो दैत्य-पतेः प्रह्लादस्य यथा हरिम्॥३८

इत्य् अस्त्राणां वचः श्रुत्वा स्त्रियो विस्मित-मानसाः।
स्नेह-मोह-विनिर्मुक्तास् तं कल्किं शरणं ययुः॥३९

ताः समालोक्य पद्मेशः प्रणता ज्ञान-निष्ठया।
प्रोवाच प्रहसन् भक्ति-योगं कल्मष-नाशनम्॥४०

कर्मयोगञ् चआत्मनिष्थं ज्ञानयोगं भिधाश्रयम्।
नैष्कर्म्यलक्षणं तासां कथयामास माधवः॥४१

ताः स्त्रियः कल्कि-गदित-ज्ञानेन विजिते’न्द्रियाः।
भक्त्या परम-वापुस् तद् योगिनां दुर्लभं पदम्॥४२

दत्त्वा मोक्षं म्लेच्छ-बौद्ध-प्रियाणां कृत्वा युद्धं भैरवं भीम-कर्मा।
हत्वा बौद्धान् म्लेच्छ-संघाश् च कल्किस् तेषां ज्योतिः स्थानम् आपूर्य रेजे॥४३

ये शृण्वन्ति वदन्ति बौद्ध-निधनं म्लेच्छ-क्षयं सादराल्।
लोकाः शोकहरं सदा शुभकरं भक्ति-प्रदं माधवे।

तेषम् एव पुनर् न जन्म-मरणं सर्वार्थ-सम्पत्करं।
माया-मोह-विनाशनं प्रतिदिनं संसार-तापच्छिदम्॥४४

इति श्री-कल्कि-पुराणे ऽनुभागवते भविष्ये तृतीयअंशे म्लेच्छ-निधनं नाम प्रथमो ऽध्यायः॥१

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