श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \पाँचवाँ अध्याय | Shri Kalki Purana Third Part \Fifth Chapter

श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \पाँचवाँ अध्याय हिंदी से संस्कृत में

शुक उवाच

अथ कल्किः समालोक्य सदसाम् पतिभिः सह।
समुत्थाय ववन्दे तं पाद्यअर्घ्यआचमनआदिभिः॥१

शुक बोले- उस (ब्रह्मचारी) को देखते ही कल्कि जी अपने सभासदों सहित उठ खड़े हुए और पाद्य (पैर धोने के लिए जल), अर्ध्य (देवता अथवा पूज्य व्यक्ति को दिए जाने वाली आहुति अथवा उपहार) और आचमनीय आदि से उनकी पूजा की। सभी आश्रमों के लिए पूजनीय उन (ब्रह्मचारी) भिक्षु को बैठाकर कल्कि जी ने पूछा- 'आप कौन हैं ? आप हमारे सौभाग्य से ही यहाँ आए हैं। जो लोग पापरहित हैं, पूर्ण हैं, सबके मित्र हैं, वे लोग प्रायः संसार का उद्धार करने के लिए पृथ्वी पर घूमा करते हैं।'


मस्करी (ज्ञानी संन्यासी भिक्षु) ने कहा- 'हे श्रीनाथ, मैं आपकी आज्ञा पालन करने वाला कृतयुग हूँ। आप का यह अवतार तथा प्रभाव प्रत्यक्ष देखने की इच्छा से यहाँ आया हूँ। आप उपाधिरहित (विभेदक गुणों रहित) काल-स्वरूप हैं, आप क्षण, दण्ड, लव (खण्ड) आदि से इस समय उपाधिवाले हुए हैं। आप की ही माया से सारा संसार उत्पन्न हुआ है। आप की इच्छा से ही पक्ष (पखवाड़ा), दिन, रात, मास, ऋतु, संवत्सर, युग आदि और चौदह मनु नियमित रूप से प्रकट होते हैं और अपना कार्य करते हैं। सबसे पहले मनु स्वायम्भुव थे, दूसरे स्वारोचिष, तीसरे उत्तम, चौथे तामस, पाँचवें रैवत, छठे चाक्षुष, सातवें वैवस्वत, आठवें सावर्णि, नवें दक्षसावर्णि, दसवें ब्रह्मसावर्णि, ग्यारहवें धर्मसावर्णि, बारहवें रुद्रसावर्णि, तेरहवें संसार में प्रसिद्ध वेद सावर्णि (शैच्य देवसावर्णि) और चौदहवें इन्द्रसावर्णि थे। ये सभी मनुगण आपकी ही विभूतिस्वरूप हैं। ये सभी मनु अलग-अलग नाम और रूपों में आते हैं, चले जाते हैं और संसार को प्रकाशित करते हैं।

देवताओं के बारह हजार वर्ष का एक चतुर्युग (चौकड़ी युग) होता है। ऐसे ही चार हजार, तीन हजार, दो हज़ार और एक हजार वर्ष में क्रम से सत्य, त्रेता, द्वापर और कलियुग होते हैं। इस चारों युगों की पूर्व संध्या क्रमशः चार सौ, तीन सौ, दो सौ और एक सौ वर्ष होती है। इस चौकड़ी युग की शेष संध्या का परिमाण भी ऐसा ही है। प्रत्येक मनु इकहत्तर चौकड़ी युग तक पृथ्वी को भोगते हैं। ऐसे ही सब मनु बदलते रहते हैं। जितने समय तक चौदह मनुओं का अधिकार रहता है, उतने समय को ब्रह्मा का एक दिन कहते हैं। इसी समय के बराबर ब्रह्मा की एक रात होती है।

इसी प्रकार काल दिन, रात, पखवाड़ा, महीना, साल और ऋतु आदि उपाधि (भेद दिखाने वाले गुण) धारण कर ब्रह्मा जी की जन्म-मृत्यु आदि का विधान करते हैं। जब ब्रह्मा जी की आयु सौ वर्ष (ब्रह्मा जी के सौ वर्ष) हो जाती है, तब वे आप में लीन हो जाते हैं। इसके बाद प्रलय काल बीत जाने पर हे प्रभु! ब्रह्मा जी आपकी नाभिकमल से पैदा होते हैं। इन कालों के अंश में मैं कृतयुग हूँ। मेरे अधिकार में उत्तम धर्म का पालन किया जाता है। प्रजा धर्म का आचरण करके कृतकृत्य (सफल मनोरथ) हो जाती है। इसी कारण मैं कृतयुग नाम से प्रसिद्ध हूँ।'

सत्युग के ये अमृत-वचन सुनकर कल्कि जी अपने अनुचरों सहित बहुत प्रसन्न हुए। कलिकुल का नाश करने में समर्थ कल्कि जी सत्ययुग के आगमन को देखकर कलि के अधिकार वाली विशसन नामक नगरी में युद्ध करने की इच्छा से अपने अनुयायिओं से बोले- 'जो वीर योद्धा हाथी पर चढ़कर युद्ध करते हैं, जो रथ पर चढ़कर युद्ध करते हैं। जो घोड़ों पर चढ़कर युद्ध करते हैं अथवा जो पैदल चलकर युद्ध करते हैं, जिनका शरीर सोने के विचित्र आभूषणों से शोभा पा रहा है, जो लोग भाँति-भाँति के शस्त्र-अस्त्र धारण करने के योग्य हैं और युद्ध-कला में कुशल हैं, ऐसे वीरों को लाकर उनकी गिनती करो।'

श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \पाँचवाँ अध्याय संस्कृत में

शुक उवाच

अथ कल्किः समालोक्य सदसाम् पतिभिः सह।
समुत्थाय ववन्दे तं पाद्यअर्घ्यआचमनआदिभिः॥१

वृद्धं संवेश्य तं भिक्षुं सर्वाश्रम-नमस्कृतम्।
पप्रच्छ को भवानत्र मम भाग्याद् इहा’गतः॥२

प्रायशो मानवा लोके लोकानां पारणेच्छया।
चरन्ति सर्व-सुहृदः पूर्णा विगतकल्मषाः॥३

मस्कर्य् उवाच

अहं कृतयुगं श्रिश तवआदेशकरं परम्।
तवआविर्-भाव-विभवम् ईक्षणार्थम् इहा’गतम्॥४

निर्-उपाधिर् भवान् कालः सो’पाधित्वम् उपागतः।
क्षण-दण्ड-लवआद्य्-अङ्गैर् मायया रचितं स्वया॥५

पक्षअहो’रात्र-मासर्तु-संवत्सर-युगआदयः।
तवे’क्षया चरन्त्य् एते मनवश् च चतुर्दश॥६

स्वायम्भुवस् तु प्रथमस् ततः स्वारोचिषो मनुः।
तृतीय उत्तमस् तस्माच् चतुर्थस् तामसः स्मृतः॥७

पञ्चमो रैवतः षष्ठश् चक्षुषः परि-कीर्तितः।
वैवस्वतः सप्तमो वै ततः सावर्णिर् अष्टमः॥८

नवमो दक्षसावर्णिर् ब्रह्मसावर्णिकस् ततः।
दशमो धर्मसावर्णिर् एकादशः स उच्यते॥९

रुद्रसावर्णिकस् तत्र मनुर् वैं द्वादशः स्मृतः।
त्रयोदश-मनुर् वेदसावर्णिर् लोक-विश्रुतः॥१०

चतुर्दशे’न्द्रसावर्णिर् एते तव विभूतयः।
यान्त्यायान्ति प्रकाशन्ते नाम-रूपआदि-भेदतः॥११

द्वादशाब्दसहस्रण देवानाञ् च चतुर्-युगम्।
चत्वारि त्रीणि द्वे चैकं सहस्रगणितं मतम्॥१२

तावच् छतानि चत्वारि त्रीणि द्वे चै’चम् एव हि।
सन्ध्याक्रमेण तेषान् तु सन्ध्यांशो ऽपि तथाविधः॥१३

एक-सप्ततिकं तत्र युगं भुङ्क्ते मनुर् भुवि ।
मनूनाम् अपि सर्वेषाम् एवं परिणातिर् भवेत्।
दिवा प्रजापतेस् तत् तु निशा सा परिकीर्तिता॥१४

अहो-रात्रञ् च पक्षस् ते मास-संवत्सरर् तवः।
सद्-उपाधिकृतः कालो ब्रह्मणो जन्म-मृत्यु-कृत्॥१५

शत-संवत्सरे ब्रह्मा लयं प्राप्नोति हि त्वयि।
लयान्ते त्वन् नाभि-मध्याद् उत्थितः सृजति प्रभुः॥१६

तत्र कृत-युगअन्ते ऽहं कालं सद्-धर्म-पालकम्।
कृतकृत्याः प्रजा यत्र तन् नाम्ना मां कृतं विदुः॥१७

इति तद् वच आश्रुत्य कल्किर् निज-जनावृतः।
प्रहर्षम् अतुलं लब्धा श्रुत्वा तद् वचनअमृतम्॥१८

अवहित्थाम् उपालक्ष्य युगस्याह जनान् हितान्।
योद्धु-कामः कलेः पूर्यां हृष्तो विशसने प्रभुः॥१९

गज-रथ-तुरगान् नरांश् च योधान् कनक-विचित्र-विभूषणाचिताङ्गान्॥
धृत-विविध-वरअस्त्र-शस्त्र-पूगान् युधि-निपुणान् गणयध्वम् आनयध्वम्॥२०

इति श्री-कल्कि-पुराणे ऽनुभागवते भविष्ये तृतीयअंशे कृत-युगआगमनं नाम पञ्चमो ऽध्यायः॥५

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