श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \ग्यारहवाँ अध्याय हिंदी से संस्कृत में
सूत उवाच
तत्रअहुस् ते सभा-मध्ये वैष्णवं तं शशिध्वजम्।
मुनिभिः कथितअशेष-भक्ति-व्यासक्त-विग्रहम्॥१
सूत जी बोले - महर्षियों द्वारा अशेषकथित (अशेष कहे गए) भक्ति से पूर्ण शरीर वाले, परम वैष्णव, सत्ययुग, धर्म एवं रानी सुशान्ता सहित राजा शशिध्वज को देखते हुए, आगत राजाओं तथा ब्राह्मणों ने कहा- 'इस समय तो आप (दोनों) साक्षात् नारायण कल्कि जी के स्वश्रु-श्वसुर (सास- ससुर) बन गए हैं; (परन्तु) हम सब राजा लोग, ऋषिगण, ब्राह्मण गण और अन्यान्य लोग नारायण में आपकी भक्ति भावना का इतना विस्तार (अधिकता) देखकर अचम्भे में पड़ गए हैं और यह जानना चाहते हैं कि आपको नारायण के प्रति ऐसी भक्ति कहाँ से मिली है। हे राजन् ! क्या यह भक्ति आपने किसी से सीखी है? अथवा क्या यह आपकी जन्म से ही स्वाभाविक भक्ति है? हे राजन् ! हमलोगों को आपसे इस भगवद्भक्ति का कारण जानने की इच्छा है। इस कारण (भगवद्भक्ति की कथा) को सुनकर भी तीनों लोकों के लोग पवित्र होते हैं और संसार में लिप्त होने की आदत (आवागमन) का नाश होता है।' शशिध्वज बोले- 'हे अतुल वीरता वाले राजागण ! हम दोनों स्त्री और पुरुष के जैसे जन्म और कर्मादि हुए हैं और जिस प्रकार हमलोगों को भक्ति की याद आई है, उन सब बातों को सुनिए। हज़ारों युग बीत गए होंगे, मैं पहले किसी जन्म में सड़े हुए मांस को खाने वाला गिद्ध था और यह मेरी प्यारी पत्नी सुशान्ता गिद्धनी थी।
हम दोनों एक बड़े पेड़ पर घोंसला बनाकर रहा करते थे। हम दोनों जंगलों और बाग-बगीचों से भरे सभी स्थानों में अपनी इच्छा के अनुसार घूमा-फिरा करते थे और हम दोनों ही मुर्दों के बदबूदार मांस से अपनी गुजर- बसर करते थे। एक समय एक निर्दयी व्याध (पक्षियों का शिकार करने वाले) ने हम दोनों को देखकर हमें पकड़ने की इच्छा से ललचा कर अपने (हृष्ट-पुष्ट) पालतू गिद्ध को छोड़ा। उस समय मैं भूख से परेशान था। पालतू गिद्ध को देखकर मेरे मन में भरोसा हुआ और मैं और गिद्धनी मांस के लालच में पड़कर वहाँ झपट पड़े (और जाल में फँस गए)। व्याध ने हम दोनों को बँधा हुआ देखकर मन में खुश हो, वहाँ आकर जल्दी ही हमारा गला पकड़ लिया। हम पूरी ताकत से अपनी चोंचों से उस पर चोट करने लगे। फिर मांस के लालची व्याध ने हम दोनों को पकड़कर गण्डकी नदी के तट पर (शालिग्राम) गंडकी शिला पर पटककर हम दोनों के सिरों को चूर-चूर कर डाला। गंगा (के तट) और चक्रांङ्कित शिला पर मृत्यु होने के कारण, हम दोनों उसी समय चतुर्भुज रूप धारण कर प्रकाशमान विमान में बैठकर सभी लोगों द्वारा पूजित वैकुण्ठ धाम में पहुँचे। उस स्थान में सौ युग तक रहने के बाद हम ब्रह्मलोक में गए। ब्रह्मलोक में भी पाँच सौ युगों तक सुख भोगकर अन्त में काल के वश में पड़कर फिर चार सौ युगों तक देवलोक में स्वर्गीय सुख का आनन्द उठाया।
हे राजागण! उसके बाद हमने इस मर्त्य लोक में जन्म लिया है। परन्तु शालिग्राम शिला का स्थान और नारायण जी की कृपा, सभी बातें हमारी याद में ताजा हैं। गण्डकी नदी के तट पर मृत्यु प्राप्त होने से हममें पूर्वजन्म की स्मृति विद्यमान है। गण्डकी का माहात्म्य क्या कहूँ ? उसके जल के स्पर्श का भी माहात्म्य है। चक्रांकित शिला (शालिग्राम शिला) को छूने से मृत्यु के बाद जब ऐसा फल मिलता है तो भगवान् वासुदेव की सेवा करने के फल का तो कहना ही क्या है! इसी विचार से हम भगवान् नारायण की उपासना में कभी नाचते हैं, एकाग्रचित्त से उनमें आसक्त रहते हैं। कभी उनका गुण-गान करते हैं और कभी भक्ति भाव से जमीन पर लोटने लगते हैं। हम इसी तरह इस जगह अपना समय बिताते रहते हैं। हमने ब्रह्मा जी के मुँह से पहले ही जान लिया था कि कलि का नाश करने के लिए नारायण अंशरूप से कल्कि जी के रूप में अवतार लेंगे। हम उनके पराक्रम को भली- भाँति जानते हैं।'
राजा शशिध्वज ने इस प्रकार राजसभा में अपनी कहानी सुनाकर, कल्कि जी को हार्दिक सम्मान दिया और दस हजार हाथी, एक लाख घोड़े, छः हजार रथ, छः सौ युवती दासियाँ और अनेक बहुमूल्य रत्न देकर बन्धु-बान्धवों के साथ अपने को धन्य (कृतकृत्य) समझा।इस प्रकार राजा के (मुख से उनके पूर्व जन्म का वृतान्त सुनकर सभासदों ने अचम्भा प्रकट किया और उन्हें पूर्ण (अभावशून्य/सिद्ध) समझा। इस प्रकार वहाँ सब लोग कल्कि जी की स्तुति और ध्यान करने लगे। फिर उन सब लोगों ने राजा शशिध्वज से भक्ति और दूसरे भक्तों के लक्षण पूछने शुरू किए।
राजाओं ने पूछा- 'भगवद्भक्ति किसका नाम है? विधान को जानने वाला भक्त किसे कहते हैं ? वह भक्त क्या करता है ? क्या खाता है? कहाँ रहता है ? किस तरह बातचीत करता है ? हे राजाओं के स्वामी! आप सब जानते हैं, इसलिए आप सभी कुछ सादर वर्णन करें।' उनके ये वचन सुनकर राजा का चेहरा खिल उठा और उन्हें साधुवाद देकर पुराने जन्म का स्मरण (जातिस्मर) होने के कारण कृष्ण नाम से दुनिया को पवित्र करने के उद्देश्य से ब्रह्मा जी द्वारा सुने हुए साधु-चरित्र को बताना शुरू किया।
राजा शशिध्वज ने कहा- 'प्राचीन काल में ब्रह्मसभा के बीच महर्षि लोग विराजमान थे। उसी समय यह कथा सनकादि ने नारद जी से पूछी थी। उसी कहानी को आपलोग मुझसे पूछते हैं। (वही आपको बताता हूँ)। उस समय मैं भी वहाँ मौजूद था, इसी कारण मैंने उनकी कृपा से उन सब कथाओं को सुना था। हे (पाप के नाश करने वाले) सभासदगण ! मैंने जो भी बातें सुनी थीं, वे इस समय बताता हूँ। आप (पापनाश करने वाली) उन बातों को सुनिए। सनकादि जी ने पूछा- 'हे महर्षि नारद ! हरि की कैसी भक्ति करने से (बार-बार) जन्म नहीं लेना पड़ता और किस प्रकार की भक्ति प्रशंसा के योग्य है? आप इन बातों को ही पहले बताएँ। हम बहुत मन लगाकर उसे सुनते हैं।'
नारद जी ने कहा- ' (प्रशंसा के योग्य भक्ति का लक्षण यह है कि) संसार के विधि-विधान को जानने वाला, चतुर साधना करने वाला व्यक्ति उत्तम बुद्धि से आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा- इन पाँच ज्ञानेन्द्रियों को अपने बस में करके और छठवें मन का निग्रह करते हुए परम ज्ञान का सहारा लेकर गुरु के चरणों में अपने शरीर को अर्पण कर दे। गुरुदेव के प्रसन्न हो जाने पर, स्वयं भगवान् नारायण प्रसन्न हो जाते हैं। शिष्य को चाहिए कि प्रणवाग्नि प्रिया के बीच में ॐ वर्ण को अनन्य हृदय यानी एकाग्रचित्त से याद करते हुए बड़ी सावधानी से पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय आदि से तथा स्नान और वस्त्र-आभूषणों सहित, सब ओर से ध्यान हटाकर केवल नारायण जी के कमलचरणों में ध्यान कर पूजा करें इसके बाद अपने हृदय कमल के बीच में स्थित सुन्दर, सर्वांग रूप से सुन्दर नारायण जी के स्वरूप का ध्यान करना चाहिए।
इस प्रकार ध्यान करके वचन, मन, बुद्धि और सभी इन्द्रियगण सहित अपनी आत्मा को पूर्ण भाव से श्री नारायण के प्रति समर्पित करे। कल्कि देवमूर्ति, अनन्त विष्णु जी के ही अंश हैं, जिन सब नामों को आप जानते हैं, वे उन (विष्णु) के सिवाय कुछ नहीं है। भगवान् कृष्ण तो सेवा करने के योग्य स्वामी हैं और हम सेवा करने वाले सेवक हैं। सभी जीव कृष्ण जी की मूर्ति हैं। इसलिए ज्ञानी लोग कहते हैं कि अविद्या के वश में होकर ही ये सब पैदा होते हैं। भक्तों के लिए सेव्य (जो सेवा करने योग्य है) सेवक (जो सेवा करता है) भाव में द्वैतभाव का उदय होता है, क्योंकि (नारायण) सेव्य एक है और सेवक दूसरा है। इस तरह से ये दोनों अलग-अलग रूप मालूम होते हैं, परन्तु है यह कि नारायण के अलावा कोई भी दूसरी चीज़ कहीं भी नहीं है। भक्त उन्हीं भगवान् विष्णु को याद करता है और उनके ही नाम का कीर्तन करता है। भगवान् के ही लिए सभी काम किया करता है, इसीलिए भक्त के लिए आनन्द और सुख का उदय होता है। भक्त (परमात्मा की भक्ति में) विह्वल होकर नाचता है, (प्रेम में व्याकुल) रोता है, हँसता है, भगवान् में अपने को लीन समझकर तन्मयता पूर्वक घूमता है, भक्ति भाव में डूबकर अपने को भूलकर (पृथ्वी पर लोटता है और (श्री हरि के अतिरिक्त) कहीं भी किसी (अन्य) भेद को नहीं देखता। इस प्रकार की भगवान् के विषय में होने वाली अव्यभिचारिणी भक्ति के (जिसमें किसी प्रकार की विकृति/बुराई न हो) प्रभाव से देवता, दानव, गन्धर्व और मनुष्य आदि समस्त लोग सहसा पवित्र हो जाते हैं। जो नित्य रहने वाली प्रकृति है, जो ब्रह्म की सम्पदा है, वही भक्ति के रूप में प्रकट हुई है। वह भक्ति ही वेदादि में उत्तम बताई गई है
और यही भक्ति विष्णु, ब्रह्मा और शिव की स्वरूप है। द्वैत भाव के कारण ही सत्त्वगुण के अभ्यास से भक्ति भाव उत्पन्न होता है। रजोगुण से इन्द्रियों के विषयों की लालसा होती है और तमोगुण के प्रभाव से घोर कर्म में प्रवृत्ति होती है। संसार में जिन लोगों को द्वैत ज्ञान हो जाता है, उनमें जब सत्वगुण होता है तो उनमें निर्गुणता आ जाती है, अर्थात् वे भोग-विलास से दूर रहते हैं, लेकिन जिनमें रजोगुण आ जाता है- उनके अन्दर भोग-विलास की इच्छा होने लगती है और जब उनमें तमोगुण जोर मारने लगता है तो वे नरक में जाने योग्य हो जाते हैं। भगवान् विष्णु का भोग लगाने के बाद छोड़ा हुआ या छूटा हुआ पवित्र पथ्य और इच्छित नैवेद्य को सात्त्विक कहा जाता है। ऐसा सात्त्विक आहार ही भक्तों को ग्रहण करना चाहिए। जो भोजन इन्द्रियों को अच्छा लगने वाला है, जिससे वीर्य तथा रक्त बढ़ता है, जिससे आयु बढ़ती है और जिससे शरीर रोगरहित यानी स्वस्थ रहता है, इस प्रकार के शुद्ध भोजन को राजस भोजन कहते हैं।
( अब तामस भोजन के बारे में बताते हैं।) जो भोजन कड़वा, खट्टा, गरम, जलन पैदा करने वाला, बदबूवाला और बासी हो, उसे तामसीवृत्ति के लोग पसन्द करते हैं। (कौन-से गुण वाले कहाँ-कहाँ पाए जाते हैं, इसका वर्णन करते हुए कहते हैं कि) सत्वगुण का पालन करने वाले लोग जंगल में, रजोगुण को धारण करने वाले लोग गाँवों में और तमोगुण वाले लोग जुएघर में या शराबघर में रहते हैं। वे भगवान् नारायण स्वयं हाथ उठाकर किसी को कुछ नहीं देते और (सच्चा) सेवक भी भगवान् से कुछ नहीं माँगता, फिर भी उन दोनों की आपसी प्रीति हमेशा दिखाई पड़ती है, यह (कैसी) असाधारण और अजीब बात है!' शुद्ध हृदय वाले महर्षि सनक ने भक्तिपूर्वक देवर्षि नारद जी से साक्षात् भगवान् नारायण के गुणों का बखान सुना तथा विनम्रतापूर्वक वचनों से श्रेष्ठ देवर्षि नारद जी की स्तुति कर एवं उन्हें प्रणाम कर इन्द्रलोक को पधारे।
श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \ग्यारहवाँ अध्याय संस्कृत में
सूत उवाच
तत्रअहुस् ते सभा-मध्ये वैष्णवं तं शशिध्वजम्।
मुनिभिः कथितअशेष-भक्ति-व्यासक्त-विग्रहम्॥१
सु,शान्ताञ् च कृतेनअपि धर्मेण विधिवद्युताम्॥२
राजान ऊचुः
युवां नारायणस्यास्य कल्केः श्वशुरतां गतौ।
वयं नृपा इमे लोका ,ऋषयो ब्राह्मणश् च ये॥३
प्रेक्ष्य भक्तिवितानं वां हरौ विस्मित-मानसाः।
पृच्छामस् त्वाम् इयं भक्तिः क्व लब्धा परमात्मनः॥४
कस्य वा शिक्षिता राजन्! किं वा नैसर्गिकी तव।
श्रोतुम् इच्छामहे राजन्! त्रिजगज्-जन-पावनीम्।
कथां भागवतीं त्वत्तः संसाराश्रम-नाशिनीम्॥५
शशिध्वज उवाच
स्त्री-पुंसोरावयोस् तत् तच् छृणुतअमोघ-विक्रमाः।
वृत्तं यज् जन्म-कर्मआदि स्मृतिं तद् भक्ति-लक्षणाम्॥६
पुरा युग-सहस्रअन्ते गृध्रो ऽहं पूति-मांस-भुक्।
गृध्रीयं मे प्रियारण्ये कृतनीडो वनस्पतौ॥७
चचार कामं सर्वत्र वनउपवन-संकुले।
मृतानां पूति-मांसौघैः प्राणिनां वृत्ति-कल्पकौ॥८
एकदा लुब्धकः क्रूरो लुलोभ पिशितअशिनौ।
आवां वीक्ष्य गृहे पुष्तं गृध्रं तत्रअप्य् अयोजयत्॥९
तं वीक्ष्य जातविश्रम्भौ क्षुधया परिपीडितौ।
स्त्री-पुंसौ पतितौ तत्र मांस-लोभित-चेतसौ॥१०
बद्धवआवां वीक्ष्य तदा हर्षाद् आगत्य लुब्धकः।
जग्राह कण्थे तरसा चञ्च्वाग्राघात् अपीडितः॥११
आवां गृहीत्वा गण्डक्याः शिलायां सलिलान्तिके।
मस्तिष्कं चूर्णयाम् आस लुब्धकः पिशितअशनः॥१२
चक्राङ्कित-शिला-गङ्गा-मरणाद् अपि तत् क्षणात्।
ज्योतिर्-मय-विमानेन सद्यो भूत्वा चतुर्-भुजाव्॥१३
प्राप्तौ वैकुण्थ-निलयं सर्व-लोक-नमस्-कृतम्।
तत्र स्थित्वा युग-शतं ब्रह्मणो लोकम् आगतौ॥१४
ब्रह्म-लोके पञ्च-शतं युगानाम् उपभुज्य वै।
देव-लोके काल-वशाद् गतं युग-चतुः-शतम्॥१५
ततो भुवि नृपास् तावद् बद्ध-सूनुर् अहं स्मरन्।
हरेर् अनुग्रहं लोके शालग्राम-शिलाआश्रमम्॥१६
जाति-स्मरत्वं गण्डक्याः किं तस्याः कथयाम्य् अहम्।
यज् जल-स्पर्श-मात्रेण महात्म्यं माहद् अद्भुतम्॥१७
चक्रअंकित-शिला-स्पर्श-मरणस्यईदृशं फलम्।
न जाने वासुदेवस्य सेवया किं भविष्यति॥१८
इत्य् आवां हरि-पूजासु हर्ष-विह्वल-चेतसौ।
नृत्यन्ताव् अनुगायन्तौ विलुठन्तौ स्थिताव् इह॥१९
कल्केर् नारायणअंशस्य अवतारः कलिक्षयः।
पुरा विदित-वीर्यस्य पृष्तो ब्रह्म-मुखाच् छ्रुतख्॥२०
इति राज-सभायां स श्रावायित्वा निजाः कथाः।
ददौ गजानाम् अयुतम् अश्वानां लक्षम् आदरात्॥२१
रथानां षट्-सहस्रन् तु ददौ पूर्णस्य भक्तितः।
दासीनां युवतीनाञ् च रमा-नाथाय षट्-शतम्॥२२
रत्नानि च महार्घाणि दत्त्वा राजा शशिध्वजः।
मेने कृतअर्थम् आत्मानं स्वजनैर् बान्धवैः सह॥२३
सभासद इति श्रुत्वा पूर्व-जन्मो’दिताः कथाः।
विस्मइआविष्ट-मनसः पूर्णं तं मेनिरे नृपम्॥२४
कल्किं स्तुवन्तो ध्यायन्तः प्रशंसन्तो जगज्-जनाः ।
पुनस् तम् आहू राजानं लक्षणं भक्ति-भक्तयोः॥२५
नृपा ऊचुः
भक्ति-काम्याद् भगवतः को वा भक्तो विधानवित्।
किं करोति किम् अश्नाति क्व वा वसति वक्ति किम्॥२६
एतान् वर्णय राजेन्द्र! सर्वं त्वं वेत्सि सादरात्।
जाति-स्मरत्वात् कृष्णस्य जगतां पावने’च्छया॥२७
इति तेषां वचः श्रुत्वा प्रफुल्ल-वदनो नृपः।
साधु-वादैः सम्-आमन्तृय तान् आह ब्रह्मणो’दितम्॥२८
शशिध्वज उवाच
पुरा ब्रह्म-सभा-मध्ये महर्षि-गण-संकुले।
सनको नारदं प्राह भवद्भिर् यास् त्व् इहो’दिताः॥२९
तेषाम् अनुग्रहेणअहं तत्रोषित्वा श्रुताः कथाः।
यास् ताः संकथयामिइह शृणुध्वं पाप-नाशनाः॥३०
सनक उवाच
का भक्तिः संसृति-हरा हरौ लोक-नमस्कृता।
तामादौ वर्णय मुने नारदअवहिता वयम्॥३१
नारद उवाच
मनः षष्थानिइन्द्रियाणि संयम्य परया धिया।
गुराव् अपि न्यसेद् देहं लोकतन्त्र-विचक्षणः॥३२
गुरौ प्रसन्ने भगवान् प्रसीदति हरिः स्वयम्।
प्रणव अग्नि-प्रिया-मध्ये म-वर्णं तन्निदेशतः॥३३
स्मरेद् अनन्यया बुद्ध्या देशिकः सुसमाहितः।
पाद्यअर्घ्यआचमनीयआद्यैः स्नान-वासो-विभूषणैः॥३४
पूजयित्वा वासुदेव-पाद-पद्मं समाहितः।
सर्वअङ्ग-सुन्दरं रम्यं स्मरेद् धृत्-पद्म-मध्यगम्॥३५
एवं ध्यात्वा वाक्य-मनो-बुद्धिइन्द्रिय-गणैः सह।
आत्मानम् अर्पयोद्विद्वान् हराव् एकान्त-भाव-वित्॥३६
अङ्गानि देवास् तेषान् तु नामानि विदितान्युत।
विष्नोः कल्केर् अनन्तस्य तान्य् एवान् यन् न विद्यते॥३७
सेव्यः कृणः सेवको ऽहम् अन्ये तस्यआत्म-मूर्तइअः।
अविद्याउपाधयो ज्ञानाद् वदन्ति प्रभवआदयः॥३८
भक्तस्यअपि हरौ द्वैतं सेव्य-सेवकवत् तदा।
नअन्यद् विना तम् इत्य् एव क्वच किञ्चन विद्यते॥३९
भक्तः स्मरति तं विष्णुं तन् नामानि च गायति।
तत् कर्माणि करोत्य् एव तद् आनन्द-सुखो-दइअः॥४०
नृत्यत्य् उद्धतवद् रौति हसति प्रैति तन् मनाः।
विलुंठत्य् आत्म-विस्मृत्या न वेत्ति कियद् अन्तरम्॥४१
एवंविधा भगवतो भक्तिर् अव्यभिचारिणी।
पुनाति सहसा लोकान् स-देवअसुर-मानुषान्॥४२
भक्तिः सा प्रकृतिर् नित्या ब्रह्म-सम्पत्-प्रकाशिता।
शिव-विष्णु-ब्रह्म-रूपा वेदाद्य् आनां वराअपि वा॥४३
भक्ताः सत्त्व-गुणअध्यासाद् रजसे’न्द्रिय-लालसाः।
तमसा घोर-संक्ल्पा भजन्ति द्वैत-दृग्-जनाः॥४४
सत्त्वान् निर्गुणताम् एति रजसा विषय-स्पृहाम्।
तमसा नरकं यान्ति संसाराद्वैत-धर्मिणि॥४५
उच्छिष्टम् अवशिष्तं वा पथ्यं पूतम् अभीप्सितम्।
भक्तानां भोजनं विष्णोर् नैवेद्यं सात्त्विकं मतम्॥४६
इन्द्रिय-प्रीति-जननं शुक्र-शोणित-वर्धनम्।
भोजनं राजसं शुद्धम् आयुर्-आरोग्य-वर्धनम्॥४७
अतः परं तामसानां कट्व्-अम्लोष्ण-विदाहिकम्।
पूति-पर्युषितं ज्ञेयं भोजनं तामस-प्रियम्॥४८
सात्त्विकानां वने वासो ग्रामे वासस् तु राजसः।
तामसं द्यूत-मद्यआदि-सदनं परिकीर्तितम्॥४९
न दाता स हरिः किञ्चित् सेवकस् तु न याचकः ।
तथापि परमा प्रीतिस् तयोः किम् इति शाश्वती॥५०
इत्य् एतद् भगवत ईश्वरस्य विष्णोर् गुण-कथनं सनको विबुध्य भक्त्या।
स-विनय-वचनैः सुरर्स्,इ-वर्यं) परि-णुत्वाइन्द्रपुरं जगाम शुद्धः॥५१
इति श्री-कल्कि-पुराणे ऽनुभागवते भविष्ये तृतीयअंशे नृप-गण-शशिध्वज-संवादे जाति-स्मरत्व-कथनं नाम एकादशो ऽध्यायः॥
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