श्री कल्कि पुराण छठवाँ अध्याय हिंदी से संस्कृत में
शुक उवाच)
ततः सा विस्मित-मुखी पद्मा निज-जनैर् वृता ।
हरिं पतिं चिन्तयन्ती प्रो’वाच विमलां स्थिताम्॥१
शुक ने कहा- 'फिर अपनी सहेलियों से घिरी हुई विस्मित मुख वाली पद्मा जी पतिरूप में श्री हरि भगवान् का ध्यान करती हुई पास में खड़ी विमला नाम की सखी से बोली- हे विमले ! क्या विधाता ने मेरे भाग्य में यही लिखा है कि मुझे देखते ही पुरुष स्त्री बन जाएँ? हे सखि ! जिस प्रकार रेगिस्तान में बोया हुआ बीज बेकार जाता है, उसी प्रकार मन्दभागिनी पापिनी मेरी भी शिव जी की जो पूजा की गई, वह व्यर्थ हुई। लक्ष्मीपति श्री हरि भगवान् सारे जगत् के अधिपति और स्वामी हैं। मैं यदि उनको अपना पति बनाने की अभिलाषा करूँ भी तो क्या वे संसार के स्वामी मेरे पति होने की इच्छा करेंगे ? यदि महादेव जी का वचन मिथ्या हो जाए, यदि भगवान् विष्णु मुझे याद न करें, तो मैं श्री हरि का ध्यान करते-करते अग्नि में अपने शरीर को समर्पित कर दूँगी। कहाँ मैं बेचारी मनुष्य जाति की स्त्री और कहाँ वे नारायण देव ! मानों विधाता मेरे विमुख हैं। इसी कारण मैं शिव जी द्वारा ठगी हुई हूँ और भगवान् विष्णु द्वारा परित्याग किए जाने पर, मेरे अलावा और कोई भला कहीं जीवित रहता !
सुन्दर चरित्र वाली पद्मावती के इस प्रकार तरह-तरह से विलाप करते हुए शोकातुर वचनों को सुनकर मैं आपके पास आया हूँ। शुक जी के इस प्रकार के वचनों को सुन कर बहुत अचंभे में पड़े हुए कल्कि जी ने कहा- 'तुम प्रिय पद्मा को समझाने के लिए फिर सिंहल देश जाओ। हे शुक! तुम मेरे संदेश-वाहक बन कर मेरे रूप और गुणों को प्रिय पद्मा को सुना कर फिर वापस चले आओ। वह पद्मा मेरी प्रिय पत्नी है, मैं उसका पति हूँ। यह संयोग विधाता ने ही बनाया है और तुम्हारी मध्यस्थता के द्वारा हम दोनों का यह मिलाप सम्पन्न होगा। तुम सर्वज्ञ हो, तुम्हें मालूम है कि कौन काम, कब और कैसे करना चाहिए, अतः अपने अमृतमय वचनों से उस (पद्मा जी) को समझा कर मेरे आश्वासन की बात बताकर आइए।'
इस प्रकार कल्कि भगवान् के वचन सुन कर, अत्यन्त प्रसन्न हो कर और उनको प्रणाम कर सुखी चित्त हो शुक जी जल्दी ही सिंहल देश गए। फिर उस पक्षी ने समुद्र के पार जा कर स्नान किया, अमृत के समान जल को पिया और बिजौर (गलगल) फल खा कर राज भवन में प्रवेश किया। वहाँ कन्या के निवास स्थान में पहुँच कर, नागकेसर के पेड़ पर बैठे हुए शुकजी ने पद्मा को देख कर मनुष्य की भाषा में कहा- 'हे सुन्दरी ! तुम कुशल से तो हो ? हे रूप और यौवन वाली, चंचल नेत्रों से सुशोभित तुम्हें मैं दूसरी लक्ष्मी समझता हूँ। तुम्हारा मुख कमल की भाँति है, तुम में कमल की-सी गंध है, तुम्हारी आँखें कमल के समान हैं, तुम्हारे हाथ भी कमल के समान हैं। हे हाथ में कमल वाली! अपने इन सब लक्षणों से तुम दूसरी लक्ष्मी मालूम होती हो। हे सुन्दरी, क्या विधाता ने सारे संसार के रूप और सुन्दरता की संपदा इकट्ठा कर सब प्राणियों को मोहने वाली तुम्हें बनाया है?'
शुक जी के अत्यन्त अद्भुत वचन सुनकर कमलों की माला धारण किए वह पद्मा देवी हँस कर उस से बोली- 'तुम कौन हो ? कहाँ से आए हो ? क्या तुम शुक रूपधारी देवता हो या दैत्य हो ? तुम दयावान होकर किस कारण मेरे पास आए हो ?' शुक बोले- 'मैं सब कुछ जानने वाला हूँ। अपनी इच्छा से सब जगह घूमने वाला हूँ। सब शास्त्रों के तत्व को जानता हूँ। देवताओं, गन्धर्वों और राजाओं की सभा में पूजा जाता हूँ। मैं आकाश में अपनी इच्छा से घूमता हूँ। हृदय में दुःख लिए, भोगों के सुखों को त्यागने वाली श्रेष्ठ मानवी, तुम्हें देखने के लिए मैं यहाँ आया हूँ। तुमने हँसी-मजाक, सखियों का साथ और शरीर के आभूषण त्याग दिए हैं। इस तरह तुम्हें देखकर मैं दुःखी चित्त हो, तुम्हारी कोयल की बोली से भी मीठी व कोमल वाणी में तुम्हारे सन्ताप का कारण पूछता हूँ।
तुम्हारे दाँत, ओंठ और जीभ से निकले हुए शब्द (अक्षरों की पंक्ति) जिसके कानों में पड़े हों, उस की तपस्या का वर्णन कहाँ तक किया जाए (अर्थात् उसने अभूतपूर्व तपस्या की होगी।) तुम्हारे सामने सिरस के फूलों की कोमलता भला क्या है ? चन्द्रमा की कान्ति तुम्हारे सामने क्या ठहरती है और विद्वान लोग जिस ब्रह्मानन्द की प्रशंसा करते हैं, वह अमृत तुम्हारे सामने क्या है ? अर्थात् तुम्हारी तुलना में ये सब चीजें कहीं नहीं टिक सकतीं। जो तुम्हारी बाहुरूपी लता, यानी भुजाओं के बंधन से बँध कर तुम्हारे चन्द्रमुख के अमृत को पिएगा, भला उसको व्यर्थ के तप, दान, जप से क्या प्रयोजन है? तिलक और बालों से मिश्रित अर्थात् शोभित चंचल कुण्डलों से मंडित, चंचल नेत्रों वाली, तुम्हारे सुन्दर मुख को देखने से फिर से जन्म नहीं होगा। (अर्थात् जन्म-मरण के बंधन से छूट जाएँगे) हे बृहद्रथ की पुत्री, तुम्हारी मानसिक व्याधि का क्या कारण है? बताओ। हे भामिनी, बिना किसी रोग के तुम्हारा यह शरीर तप से दुर्बल हुआ जैसा दिखता है। धूल से गंदी हुई सोने की मूर्ति की भाँति तुम्हारा यह शरीर मलिन क्यों हो गया है ?'
पद्मा जी बोली- 'जिसका भाग्य ही उल्टा है, भला उसके रूप से, कुल से, धन से, ऊँचे वंश से क्या मतलब है ? अर्थात ये सब बेकार हो जाते हैं। हे शुक, मेरा हाल यदि तुम न जानते हो तो सुनो, मैंने बाल्यकाल, पौगण्ड काल (पाँच से सोलह वर्ष तक) तथा किशोर काल में शिव जी की पूजा की थी। उस पूजा से संतुष्ट होकर पार्वजी जी सहित शिव ने कहा था- हे पद्म ! तुम वर माँगो। अपने सम्मुख मुझे लज्जा से नीचे को मुँह किया और खड़ा हुआ देखकर शिव जी ने कहा था- तुम्हारे स्वामी हरि नारायण अर्थात् भगवान् विष्णु होंगे। (उन्होंने यह भी कहा था कि चाहे कोई देवता हो या राक्षस हो या वनवासी हो या गन्धर्व हो, जो कोई तुम्हें वासना की दृष्टि से देखेगा, वह तत्काल स्त्री बन जाएगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। इस प्रकार वर देकर भगवान् शिव ने विष्णु भगवान् की पूजा का प्रकरण जिस प्रकार बताया है, वह भी तुम्हें बताती हूँ, तुम सावधान चित्त से सुनो। ये जो सखियाँ हैं, पहले ये सब राजा थे। जब मेरे धर्मात्मा पिता ने मुझे यौवन से भरपूर सुन्दर स्वरूपयुक्त देखा तो इन राजाओं को स्वयंवर में बुलाया। ये लोग युवा, गुणवान रूपवान और धन-धान्य वाले थे। ये सब लोग मुझ से विवाह का निश्चय कर आए थे और स्वागत के पश्चात् स्वयंवर-स्थल में सुख से बैठे थे। ये सुंदर कान्ति से भरपूर, हाथ में रत्नों की माला लिए, मुझे स्वयंवर भूमि में देखकर काम मोहित हो कर भूमि पर गिर पड़े। इसके बाद इन्होंने अपने को स्तन भार से झुके और बड़े नितम्बादि सहित स्त्री रूप में पाया।
हे शुक ! इसके बाद ये लोग मन में स्त्री भाव को धारण कर बहुत दुःखी हो कर शत्रु-मित्रादि सब की लज्जा और भय छोड़ कर मेरे पीछे-पीछे चलने लगे। ये सभी गुणों से सम्पन्न मेरी सखियाँ होकर भगवान् की सेवा में लगी हुई उन की पूजा, तप तथा ध्यान मेरे साथ करती हैं।
भगवान शिव और पार्वती की पूजा करती हुई पद्मा जी
अपनी मानसिक इच्छा के अनुसार, कानों को सुख देने वाले ये वचन सुनकर शुक जी ने कथा के उचित प्रसंग से पद्मा जी को संतुष्ट किया, उसके बाद भगवान् की पूजा से संबंधित बात उठाई।
श्री कल्कि पुराण छठवाँ अध्याय संस्कृत में
शुक उवाच)
ततः सा विस्मित-मुखी पद्मा निज-जनैर् वृता ।
हरिं पतिं चिन्तयन्ती प्रो’वाच विमलां स्थिताम्॥१
विमले! किं कृतं धात्रा ललाटे लिखनं मम ।
दर्शनाद् अपि लोकानां पुंसां स्त्रीभावकारकम्॥२
ममापि मन्दभाग्यायाः पापिन्याः शिव-सेवनम् ।
विफलत्वम् अनुप्राप्तं बीजम् उप्तं यथोषरे॥३
हरिर् लक्ष्मी-पतिः सर्व-जगताम् अधिपः प्रभुः ।
मत् कृते ऽप्य् अभिलाषं किं करिष्यति जगत्-पतिः॥४
यदि शम्भोर् वचो मिथ्या यदि विष्णुर् न मां स्मरेत् ।
तद अहम् अनले देहं त्यक्ष्यामि हरिभाविता॥५
क्व चअहं मानुषी दीना क्वास्ते देवो जनार्दनः ।
निगृहीता विधात्रा’हं शिवेन परि-वञ्चिता॥६
विष्णुना च परि-त्यक्ता मदन्या कात्र जीवति॥७
इति नाना विलापिन्या वचनं शोचनआश्रयम् ।
पद्मायाश्चारुचेष्टायाः श्रुत्वायातस्तवान्तिके॥८
शुकस्य वचनं श्रुत्वा कल्किः परमविस्मितः ।
तं जगाद पुनर्याहि पद्मां बोधयितुं प्रियाम्॥९
मत् सन्देशहरो भूत्वा मद् रूप-गुण-कीर्तनम् ।
श्रावयित्वा पुनः कीर! समायास्यसि बान्धव॥१०
सा मे प्रिया पतिर् अहम् तस्या दैव-विनिर्मितः ।
मध्यस्थेन त्वया योगमावयोश् च भविष्यति॥११
सर्व-ज्ञो ऽसि विधि-ज्ञो ऽसि काल-ज्ञो ऽसि कथामृतैः ।
तामाश्वास्य ममाश्वासकथास् तस्याः समाहर॥१२
इति कल्केर् वचः श्रुत्वा शुकः परमहर्षितः ।
प्रणम्य तं प्रीतमनाः प्रययौ सिंहलं तुअरन्॥१३
खगः समुद्रपारेण स्नात्वा पीत्वामृतं पयः ।
बीजपूरफलआहारो ययौ राज-निवेशनम्॥१४
तत्र कन्यापुरं गत्वा वृक्षे नागे’श्वरे वसन् ।
पद्माम् आलोक्य तां प्राह शुको मानुषभाषया॥१५
कुशलं ते वरारोहे! रूपयौवनशालिनि ।
त्वां लोल-नयनां मन्ये लक्ष्मी-रूपाम् इवअपराम्॥१६
पद्मअननां पद्मगन्धां पद्म-नेत्रां करअम्बुजे
कमलं कालयन्तीं त्वां लक्षयामि परां श्रियम्॥१७
किं धात्रा सर्व-जगतां रूपा-लावण्य-सम्पदाम् ।
निर्मिताअसि वरारोहे! जीवानां मोह-कारिणि!॥१८
इति भाषितम् आकार्ण्य कीरस्य अमितम् अद्भुतम् ।
हसन्ती प्राह सा देवी तं पद्मा पद्म-मालिनी॥१९
कस् त्वं कस्माद् आगतो ऽसि कथं मां शुक-रूप-धृक् ।
देवो वा दानवो वा त्वम् आगतो ऽसि दयापरः॥२०
सर्व-ज्ञो ऽहम् कामगामी सर्व-शास्त्रअर्थ-तत्त्व-वित् ।
देव-गन्धर्व-भूपानां सभासु परि-पूजितः॥२१
चरामि स्वे’च्छया खे त्वाम् ईक्षणअर्थम् इहअगतः ।
त्वाम् अहं हृदि संतप्तां त्यक्त-भोगां मनस्विनीम्॥२२
हास्यालाप-सखीसङ्ग-देहाभरण-वर्जिताम् ।
विलोक्याहं दीन-चेताः पृच्छामि श्रोतुम् ईरितम् ।
कोकिलालप-सन्ताप-जनकं मधुरं मृदु॥२३
तव दन्तौष्ठ-जिह्वाग्र-लुलितअक्षर-पङ्क्तयः ।
यत् कर्णकुहरे मग्नास् तेषां किं वर्ण्यते तपः॥२४
सौकुमार्यं शिरीषस्य क्व कान्तिर् वा निशाकरे ।
पीयूषं क्व वदन्त्य् एवआनन्दं ब्रह्मणि ते बुधाः॥२५
तव बाहुलताबद्धा ये पाश्यन्ति सुधाननम् ।
तषा तपो-दान-जपैर् व्यर्थैः किं जनयिष्यति॥२६
तिलकअलक-संमिश्रं लोल-कुण्डल-मण्दितम् ।
लोले’क्षणो’ल्-लसद्-वक्त्रं पश्यन्तां न पुनर्-भवः॥२७
बृहद्रथ-सुते! स्वाधिं वद भामिनि यत् कृते ।
तपः क्षीणाम् इव तनुं लक्षयामि रुजं विना ।
कनक-प्रतिमा यद्वत् पांसुभिर् मलिनीकृता॥२८
पद्मो’ वाच
किं रूपेण कुलेनअपि धनेनअभिजनेन वा ।
सर्व निष्फलतामेति यस्य दैवमदक्षिणम्॥२९
श्रुणु कीर) समाख्यानं यदि वा विदितं तव ।
बाल्य-पौगण्ड-कैशोरे हर-सेवां करोम्य् अहम्॥३०
तेन पूजाविधानेन तुष्तो भूत्वा महेश्वरः ।
वरं वरय पद्मे! त्वम् इत्य् आह प्रियया सह॥३१
लज्जया ऽधोमुखीमग्रे स्थितां मां वीक्ष्य शङ्करः ।
प्राह ते भविता स्वामी हरिर् नारायणः प्रभुः॥३२
देवो वा दानवो वान्यो गन्धर्वो वा तवेक्षणात् ।
कामेन मनसा नारी भविष्यति न संशयः॥३३
इति दत्त्वा वरं सोमः प्राह विष्न्वर्चनं यथा ।
तथाअहं ते प्रवक्ष्यामि समाहितमनाः शृणु॥३४
एताः सख्यो नृपाः पूर्वमाहृता ये स्वयंवरे ।
पित्रा धर्मार्थिना दृष्ट्वा रम्यां मां यौवनअन्विताम्॥३५
स्वागतास्ते सुखासीना विवाहकृतनिश्चयाः ।
युवानो गुणवन्तश्च रूपद्रविणसम्मताः॥३६
स्वयंवरगतां मां ते विलोक्य रुचिर-प्रभाम् ।
रत्न-मालअश्रितकरां निपेतुः काम-मोहिताः॥३७
तत उत्थाय सम्भ्रान्ताः संप्रेक्ष्य स्त्रीत्वमात्मनः ।
स्तनभार-नितम्बेन गुरुणा परिणामिताः॥३८
ह्रिया भिया च शत्रूणां मित्राणाम् अतिदुःखदम् ।
स्त्रीभावं मनसा ध्यात्वा मामेवानुगताः शुक॥३९
परिचर्यो हररताः सख्यः सर्व-गुणअन्विताः ।
मया सह तपो ध्यानं पूजां कुर्वन्ति सम्मताः॥४०
तद् उदितम् इति संनिशम्य कीरः श्रवणसुखं निज-मानसप्रकाशम् ।
समुचितवचनैः प्रतीक्ष्य पद्माम् उरहरयजनं पुनः प्रचष्ते॥४१
इति श्री-कल्कि-पुराणे ऽनुभागवते भविष्ये शुक-पद्मा-संवादे षष्तो ऽध्यायः॥६
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