श्री कल्कि पुराण दूसरा अंश \तीसरा अध्याय | Shri Kalki Purana Second Part\Third Chapter

श्री कल्कि पुराण दूसरा अंश \तीसरा अध्याय हिंदी से संस्कृत में

सूत उवाच

सा पद्मा तं हरिं मत्वा प्रेमगद्गदभाषिणी।
तुष्टाव व्रीडिता देवी करुणा-वरुणालयम्॥१

सूत जी बोले- प्रेम के कारण जिस की वाणी गद्गद हो गई थी, ऐसी पद्मा जी उन कल्कि जी को साक्षात् विष्णु भगवान् जान कर लञ्जर्जा के कारण सिर झुका उन करुणा के सागर भगवान् की स्तुति करने लगी- हे संसार के स्वामी, धर्म के वर्म (कवच-रक्षा करने वाले), रमा (लक्ष्मी) के पति, प्रसन्न हो। हे विशुद्ध आत्मा वाले, मैं आप को पहचान गई हूँ। मैं आपकी शरण में आई हूँ। मेरी रक्षा करो। मैं धन्य हो गई हूँ। मैं पुण्यवती हूँ। तप, दान, जप एवं व्रतादि से आपको सन्तुष्ट कर कठिनता से आराधना किए जाने योग्य आप के कमल रूपी चरणों को मैंने पा लिया है। मुझे आज्ञा दीजिए, ताकि मैं आप के सुन्दर कमल रूपी चरणों को छू कर घर जाऊँ और राजा (अपने पिता) को आप के शुभागमन की बात बता सकूँ।


इस प्रकार कह कर, रूप की खान पद्मा जी अपने घर गई और अपने पिता राजा के पास जाकर अपने दूत द्वारा विष्णु भगवान् के अंश (रूप) कल्कि जी के आने की बात बताई। सखी के मुँह से पद्मा जी से विवाह करने की इच्छा से श्री विष्णु भगवान् के आने की बात सुन कर राजा बृहद्रथ प्रसन्न हुए। इसके बाद राजा, पुरोहित, ब्राह्मण, परिवार के लोगों (तथा) मित्रों के साथ पूजा की सामग्री साथ लेकर नाचते गाते व अनेक वाद्य बजाते हुए श्री कल्कि जी को लाने चल दिये। (श्री कल्कि जी के आने के उपलक्ष्य में) कारूमती नगरी को झंडियों एवं सोने के महराबदार द्वारों से सजाया गया।

फिर राजा बृहद्रथ ने तालाब के पास जा कर देखा कि श्री विष्णुयश के पुत्र (और) भुवनों के स्वामी भगवान् विष्णु मणियों की वेदी पर विराजमान हैं। घनघोर बादलों के ऊपर जैसे दीप्तिमान बिजली, इन्द्र-धनुष आदि शोभा पाते हैं, इसी प्रकार कृष्ण वर्ण के कल्कि जी के अंग पर आभूषण दमक रहे हैं। रूप और सुन्दरता की खान, कामदेव के उद्यम को नाश करने वाले अर्थात् कामदेव की चेष्टा को समाप्त करने वाले, शरीर पर पीले कपड़े पहने हुए, तेज प्रभा से शोभित तथा रूप, शील और गुणों की खान भगवान् कल्कि को राजा ने अपने सामने देखा और श्रीश (लक्ष्मी जी के स्वामी) भगवान् कल्कि को देखकर आँसुओं से भरे नेत्रों तथा पुलकित शरीर से उनकी विधिपूर्वक पूजा की।
भगवान कल्कि और पद्मा जी का विवाह इसके बाद राजा बृहद्रथ ने कहा हे- जगदीश्वर, जिस प्रकार मान्धाता के पुत्र से वन में यदुनाथ मिले थे, उसी प्रकार आपका आगमन मुझे भी लगा। यह कहकर (राजा ने) उन की पूजा की और उन्हें अपने आश्रम (राजभवन) ले आए। वहाँ अपने भव्य महल में उन्हें ठहराकर अपनी कन्या उन को दी, अर्थात् कन्यादान किया।

कमल से उत्पन्न होने वाले ब्रह्मा जी के आदेश के अनुसार पद्मानाभ, कमलनेत्र भगवान् कल्कि जी को, कमल के पत्ते जैसी (सुन्दर सुकोमल) आँखों वाली पद्मा जी को विधिपूर्वक समर्पित किया। प्यारी पत्नी को पा कर और सज्जनों द्वारा सम्मान पा कर सिंहल द्वीप के उत्तम स्थान को देख कर उनकी विशेषता को जानने वाले भगवान् कुछ दिन वहाँ ठहरे। जो राजा स्त्री बन गए थे और पद्मा जी की सखी हो गए थे, वे लोग संसार के स्वामी कल्कि भगवान् को देखने शीघ्र ही वहाँ आ गए। वे स्त्रियाँ (स्त्रीत्व को प्राप्त राजागण) श्री भगवान् कल्कि को देखकर और उनके चरण छू कर तथा उनकी आज्ञा से रेवा नदी में स्नान करने के बाद फिर पुरुषत्व को प्राप्त हुईं, यानी फिर पुरुष बन गईं।

पद्मा जी का रंग तो गोरा है और कल्कि जी का रंग काला है। ये दोनों रंग एक-दूसरे के उल्टे हैं। इसी प्रकार पद्मा जी के नीले कपड़े हैं और कल्कि जी के पीले कपड़े हैं। इन दोनों के रंगों का यानी नीले और पीले का आपस में अच्छा मेल प्रतीत होता है। राजा लोग कल्कि जी का परम और अद्भुत प्रभाव देखकर उनकी शरण में आकर बड़ी भक्ति के साथ उन्हें प्रणाम कर स्तुति करने लगे - हे देव, आप की जय हो ! आपकी जय हो ! आपकी कल्पना (सोचने) करने से संसार में तरह-तरह की विचित्र कल्पनाएँ पैदा होती हैं और आप के प्रभाव से वे कल्पनाएँ साकार होती हैं।
जब तीनों लोक प्रलय के जल में डूब गए, तब आप निर्जन स्थल में प्रकट हुए थे। आपने ही धर्म-सेतु के संरक्षण के लिए मत्स्य-देह धारण की थी। राक्षसों की सेना जब इन्द्र को हराने लगी और तीनों लोकों को जीतने वाला अत्यन्त वीर हिरण्याक्ष जब इन्द्र का संहार करने चला, तब उसका नाश कर पृथ्वी का उद्धार करने का संकल्प कर आप वराह (शूकर) के रूप में प्रकट हुए थे। हे भगवान् ! वही आप हमारी रक्षा करें। फिर जब देवता और राक्षस मिल कर समुद्र को मथते समय मन्दरांचल (पर्वत) का आधार स्थान न पाकर दुःखी हुए, उस समय आप ने उनकी सहायता के लिए संकल्प किया और कूर्मावतार (कछुए के रूप में अवतार लेकर) में अपनी पीठ पर मन्दरांचल धारण किया। देवताओं को अमृत पिलाने के उद्देश्य से ही आपका कूर्मावतार हुआ। हे परमेश्वर ! अब आप हम दीन- हीन राजाओं पर प्रसन्न होवें।

इसके बाद जब महा बलवान् और महावीर, तीनों लोकों को जीतने वाला हिरण्यकश्यप देवताओं को कष्ट पहुँचाने लगा और देवता लोग जब बहुत डर गए, तब आपने देवताओं की भलाई के लिए उस हिरण्यकश्यप (दैत्यों के राजा) को मार डालने का संकल्प किया। दैत्यराज को ब्रह्मा जी का वर मिला हुआ था कि वह देवता, गन्धर्व, किन्नर, नर, नाग और शस्त्र तथा अस्त्र (यानी इनमें से किसी के द्वारा भी) रात में या दिन में, स्वर्ग में या पाताल में या मृत्युलोक में कहीं भी नहीं मारा जा सकता। (ऐसे विचित्र वर का हल ढूँढ़ कर) आप ने सब बातों पर विचार कर नृसिंह मूर्ति धारण की। दैत्यराज आपको देखकर क्रोध के मारे आग बबूला हो, दाँत से होंठों को काटता हुआ, कमर कस कर आपसे लड़ने को तैयार हो गया।

आपने अपने नाखूनों से उसके मर्म (हृदय) को फाड़कर उसे यमलोक पहुँचाया। इसके बाद, तीनों लोकों को जीतने वाले महाराजा बलि के यज्ञ में इन्द्र के छोटे भाई बनकर आपने वामन का रूप धारण किया और दैत्यराज पर सम्मोहन डालकर (मोहित कर केवल) तीन पग भूमि माँगी। दान करने के लिए जल छोड़ते ही जब आप की अभिलाषा पूरी हो गई, तब आपने छल से विराट् रूप धारण किया, फिर तीनों लोकों को दान करने के फलस्वरूप आप पाताल में बलि के द्वारपाल होकर रहे। इसके बाद, जब अत्यन्त बलवान् पराक्रमी अपने घमंड में चूर हैहय आदि राजाओं ने धर्म की मार्यादा को तोड़ा, तब उनका नाश करने के लिए आपने भृगुवंश में श्रेष्ठ परशुराम के रूप में अवतार धारण किया। 

उस समय अपने पिता के यज्ञ की गाय का अपहरण किए जाने से कुद्ध आप ने पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से रहित कर दिया। इसके बाद, पुलस्त्य वंश के श्रेष्ठ विश्रवा मुनि के राक्षस पुत्र रावण के अत्याचार से जब तीनों लोक दुःखी हुए, तब उनका नाश करने के लिए आप ने सूर्यवंशी राजा दशरथ के यहाँ राम के रूप में अवतार लिया था। उसके बाद, विश्वामित्र जी से आप ने अस्त्र विद्या सीखी। जब रावण ने सीता जी का हरण किया, तब आप ने क्रोधित होकर वानरों की सेना इकट्ठा कर रावण का उसके वंशसहित नाश किया था। इसके बाद आप ने यदुकुल रूपी समुद्र के लिए चन्द्रमा के समान वसुदेव के पुत्र श्रीकृष्ण (और बलराम) के रूप में अवतार लिया और अनेक राक्षसों यानी दानव और दैत्यों का नाश कर तीनों लोकों के पापों को दूर किया था। इसके कारण सारे देवतागण आप के उस अवतार रूप के चरण- कमलों की सेवा करने लगे, उस समय आप ने बलभद्र रूप से भी अवतार लिया था।

इसके उपरान्त, ब्रह्मा के बनाए हुए वैदिक धर्म के यज्ञानुष्ठानों में आई अनेक क्रूरता देखकर आपने बुद्ध अवतार धारण किया और संसार त्याग द्वारा माया- प्रपंच से रहित मोक्ष प्राप्त करने का चतुराई भरा उपदेश दिया, परन्तु कर्म-मार्ग का स्वयं उल्लंघन नहीं किया। इस समय आप कलिकुल (कलियुग में होने वाली बुराइयों) का नाश करने के लिए, बौद्ध पाखंडियों, म्लेच्छों आदि को दण्ड देने के लिए वैदिक धर्म रूपी सेतु (पुल) की रक्षा कर रहे हैं। आप ने ही हम सब का स्त्रीत्व रूपी नरक से (जिसमें पद्मा जी को काम-भावना से देखने के कारण पड़ गए थे) उद्धार किया है। अतएव हम लोग आप की इस कृपा का वर्णन कैसे करें, अर्थात् वर्णन करने में असमर्थ हैं। ब्रह्मा आदि देवता भी आप की लीला (जो आप अवतार लेकर दिखाते हैं) नहीं जान सकते (अथवा आपको अवतार विषय की इच्छा कभी नहीं हो सकती)। हम लोग स्त्री दर्शन करने से कामदेव के बाण से पीड़ित हुए और मृगतृष्णा (प्यास से भटकता हिरन जब गलती से रेत को ही पानी समझ कर उस ओर भागता है) से दुःखी जीव हैं। हमारे लिए आप के कमल रूपी चरणों को पाना अत्यन्त कठिन है। आप कृपा के सागर हैं। आप करुणा भाव से एक बार हम पर अपनी कृपा दृष्टि डालकर हमें ढाँढस बँधाइए।

श्री कल्कि पुराण दूसरा अंश \तीसरा अध्याय संस्कृत में 

सूत उवाच

सा पद्मा तं हरिं मत्वा प्रेमगद्गदभाषिणी।
तुष्टाव व्रीडिता देवी करुणा-वरुणालयम्॥१

प्रसीद जगतां नाथ्! धर्म-वर्मन्! रमापते।
विदितो ऽसि विशुद्धआत्मन्! वशगां त्राहि मां प्रभो!॥२

धन्या ऽहं कृत-पुण्या ऽहं तपो-दान-जप-व्रतैः।
त्वां प्रतोष्य दुर्-आराध्यं लब्धं तव पदाम्बुजम्॥३

आज्ञा कुरु पदाम्भोजं तव संस्पृश्य शोभनम्।
भवनं यामि राजानम् आख्यातुं स्वागतं तव॥४

इति पद्मा रूपसद्मा गत्वा स्वपितरं नृपम्।
प्रोवाचआगमनं कल्केर् विष्णोर् अंशस्य दौत्यकैः॥५

सखीमुखेन पद्मायाः पाणि-ग्रहण-काम्यया।
हरेर् आगमनं श्रुत्वा सहर्षो ऽभूद् बृहद्रथः॥६

पुरोधसा ब्रह्मणैश् च पात्रैर् मित्त्रैः सुमङ्गलैः।
वाद्य-ताण्डव-गीतैश् च पूजायोजनपाणिभिः॥७

जगामा’नयितुं कल्किं सार्धं निजजनैः प्रभुः।
मण्डयित्वा कारुमतीं पताका-स्वर्ण-तोरणैः॥८

ततो जलाशयअभ्यासं गत्वा विष्णुयशः-सुतम्। 
मणिवेदिकयासीनं भुवनै’क-गतिं पतिम्॥९

घना घनोपरि यथा शोभन्ते रुचिराण्यहो।
विद्युद् इन्द्रा’युधा’दीनि तथै’व भूषणान्युत॥१०

शरीरे पीतवासअग्र-घोरभासा विभूषितम्।
रूप-लावण्यसदने मदनोद्यमनाशने॥११

ददर्श पुरतो राजा रूप-शील-गुणाकरम्।
साश्रुः सपुलकः श्रीशं दृष्ट्वा साधु तम् अर्चयत्॥१२

ज्ञानअगोचरम् एतन् मे तव आगमनम् ईश्वर।
यथा मान्धातृ-पुत्रस्य यदु-नाथेन कानने॥१३

इत्य् उक्त्वा तं पूजयित्वा समानीय निजाश्रमे।
हर्म्यप्रासादसंबाधे स्थापयित्वा ददौ सुताम्॥१४

पद्मां पद्मपलाशाक्षीं पद्मनेत्राय पद्मिनीम्।
पद्मजादेशतः पद्म-नाभायादाद्यथाक्रमम्॥१५

कल्किर् लब्ध्वा प्रियां भार्यां सिंहले साधु-सत्कृतः।
समुवास विशेषज्ञः समीक्ष्य द्वीपम् उत्तमम्॥१६

राजानः स्त्रीत्वम् आपन्नाः पद्मायाः सखितां गताः।
द्रष्तुं समीयुस् त्वरिताः कल्किं विष्णुं जगत्पतिम्॥१७

ताः स्त्रियो ऽपि तम् आलोक्य संस्पृश्य चरणअम्बुजम्।
पुनः पुंस्त्वं समापन्ना रेवा-स्नानात् तद् आज्ञया॥१८

पद्मा-कल्की गौर-कृष्णौ विपरीतान्तराव् उभौ ।
बहिः स्फुटौ नील-पीत-वासोव्याजेन पश्यतु॥१९

दृष्ट्वा प्रभावं कल्केस् तु राजानः परमअद्भुतम्।
प्रणम्य परया भक्त्या तुष्टुवुः शरणअर्थिनः॥२०

जय जय निज-मायया कल्पिता-शेष-विशेष-कल्पना-परिणाम।
जलाप्लुत-लोकत्रयोपकरणमाकलय्य मनुम् अनिशम्य 
पूरितमविजनाविजनाविर्भूतमहामीनशरीर! त्वं 
निजकृत-धर्म-सेतु-संरक्षण-कृतावतारः॥२१

पुनर्इहदितिज-बल-परिलङ्/घित-वासव-सूदनादृत-
जितत्रिभुवन-पराक्रम-हिरण्याक्ष-निधन-पृथिव्य्-उद्धरण-
संकल्पअभिनिवशेन धृत-कोलावतारः पाहि नः॥२२
पुनर् इह जलधि-मथनादृत-देव-दानव-गण-मन्दर
अचलानयनव्याकुलितानां साहाय्येनादृतचित्तः पर्वतो’
द्धरणामृत-प्राशनरचनावतारः कूर्माकारः प्रसीद परेश! त्वं दीन-नृपाणाम्॥२३

पुनर् इह त्रिभुवनजयिनो महाबल-पराक्रमस्य हिरण्यकशिपोर् 
अर्दितानां देववराणां भयभीतानां कल्याणाय दिति-सुत-वध-
प्रेप्सुर्-ब्रह्मणो वरदानादवध्यस्य न शस्त्रअस्त्र-रात्रि-दिवा-स्वर्ग-
मर्त्य-पाताल-तले देव-गन्धर्व-किन्नर-नर-नागैर् इति विचिन्त्य 
नर-हरि-रूपेण नखाग्र-भिन्नोरुं दंष्ट्र-दन्तच्छदं त्यक्तासुं कृतवान् असि॥२४

पुनरिह त्रिजगज्जय्नो बलेः सत्रे शक्रानुजो बटुवामनो 
दैत्य-संमोहनाय त्रिपद-भूमियाच्ञाच्छलेन विश्व-कायस्-तद्-
उत्सृष्ट-जल-संस्पर्श-विवृद्धमनोऽभिलाषस् त्वं भूतले बलेर् 
दौवारिकत्वम् अङ्गीकृतम् उचितं दानफलम्॥२५

पुनरिह हैहयआदि-नृपाणाम् अमित-बल-पराक्रमाणां 
नाना-मदो’ल्लङ्/घित-मर्यादा-वर्त्मनां निधनाय भृगुवंशजो 
जामदग्न्यः पितृ-होम-धेनु-हरण-प्रवृद्धमन्युवशात्-
त्रिसप्त-कृत्वो निःक्षत्रियां पृथिवीं कृतवान् असि परशुरामअवतारः॥२६

पुनरिह पुलस्त्यवंशावतंसस्य विश्रवसः पुत्रस्य निशाचरस्य 
रावणस्य लोकत्रयतापनस्य निधनमुररीकृत्य रवि-कुल-जात-
दशरथआत्मजो विश्वामित्राद् अस्त्राण्य् उपलभ्य वने सीता-
हरण-वशात्-प्रवृद्धमन्युना अम्बुधिं वानरैर् निबध्य सगणं 

दश-कन्धरं हतवान् असि रामअवतारः॥२७
पुनरिह यदु-कुल-जलधि-कलानिधिः सकल-सुर-गण-
सेवित-पदारविन्द-द्वन्द्वः विविध-दानव-दैत्य-दलन-
लोकत्रय-दुरित-तापनो वसुदेवआत्मजो रामअवतारो बलभद्रस् त्वम् असि॥२८

पुनरिह विधिकृत-वेद-धर्मअनुष्थान-विहित-नाना-दर्शन-संघृणः 
संसार-कर्म-त्याग-विधिना ब्रह्माभासविलासचातुरी प्रकृति-
विमाननामसम्पादयन् बुद्धअवतारस् त्वम् असि॥२९

अधुना कलि-कुल-नाशअवतारो बौद्ध-पाखण्ड-म्लेच्छआदीनाञ् 
च वेद-धर्म-सेतु-परिपालनाय कृतअवतारः कल्किरूपेणास्मान् 
स्त्रीत्वनिरयाद् उद्धृतवान् असि तवअनुकम्पां किम् इह कथयामः॥३०

क्व ते ब्रह्मादीनाम् अविदितविलासावतरणं क्व नः कामा वामाकुलित-मृगतृष्ना’र्तमनसाम्।
सुदुष्प्राप्यं युष्मच् चरण-जलजालोकनम् इदं कृपापारावारः प्रमुदित-दृशाश्वासय निजान्॥३१

इति श्री-कल्कि-पुराणे ऽनुभागवते भविष्ये द्वितीयांशे नृपाणां स्तवो नाम तृतीयो’ध्यायः॥३

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