श्री कल्कि पुराण दूसरा अंश \चौथा अध्याय | Shri Kalki Purana Second Part\Fourth Chapter

श्री कल्कि पुराण दूसरा अंश \चौथा अध्याय हिंदी से संस्कृत में

सूत उवाच

श्रुत्वा नृपाणां भक्तानां वचनं पुरुषोत्तमः।
ब्रह्मण-क्षत्र-विट्-शूद्र-वर्णानां धर्मम् आह यत्॥१

सूत जी ने कहा- पुरुषोत्तम कल्कि जी ने भक्त राजाओं के वचन सुनकर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- इन चारों वर्णों के धर्म अर्थात् कर्त्तव्यों का वर्णन किया। संसार में लिप्त और संसार से विरक्त लोगों के लिए वेदों ने जो कर्म बताए हैं, उन सब को सुनाया। कल्कि जी के ये वचन सुनकर राजाओं के हृदय पवित्र हो गए। इसके बाद उन्होंने कल्कि जी को फिर नमस्कार किया और अपनी पिछली अवस्था के बारे में पूछा- (राजाओं ने पूछा कि मनुष्यों में स्त्रीत्व और पुरुषत्व के भेद किस ने किए हैं? बुढ़ापे, जवानी, बचपन और सुख-दुःखादि के कारण क्या हैं? हे भगवान् ! ये सब कहाँ से, किस से आए हैं, क्या हैं? ये सब विषय जिनके बारे में हम कुछ नहीं समझते, उनका आप वर्णन करें।


(कल्कि जी ने यह सुनकर अनन्त नाम के मुनि को याद किया।) याद करते ही वे मुनियों में श्रेष्ठ, बहुत समय से तीर्थों में रहने वाले तथा व्रत धारण करने वाले अनन्त मुनि यह जान गए कि (अब) कल्कि जी के दर्शन से मेरी मुक्ति होगी, इसलिए वे शीघ्र ही वहाँ आ गए, क्योंकि उनके लिए मुक्ति पाने का कोई दूसरा उपाय नहीं था। अतः वे कल्कि जी के पास जा कर बोले- मुझे क्या करना होगा? कहाँ जाना होगा ? मुझे आज्ञा दीजिए। ये वचन सुनकर कल्कि जी ने हँसकर मुनिवर से कहा- 'आप ने हमारे किए हुए सभी काम देखे हैं और आप को सब मालूम है। भाग्य को कोई नहीं पलट सकता और बिना काम किए किसी को फल नहीं मिलता।' मुनि ये वचन सुनकर प्रसन्न हुए।

उन्हें (मुनिवर को) जाने के लिए तैयार देख कर, अचंभे में पड़े चित्त वाले राजाओं ने कमल के समान सुन्दर नेत्र वाले कल्कि जी से कहा- 'मुनिवर ने क्या कहा है? आपने उन्हें क्या उत्तर दिया ? आप दोनों के बीच क्या बातें हुईं ? उस सब को हम सुनना चाहते हैं।' राजाओं के ये वचन सुनकर मधुसूदन (मधु नामक राक्षस के संहारक) कल्कि जी बोले- 'हमारी बातचीत के संबंध में इस शांत हृदय वाले मुनि जी से पूछो।' श्रेष्ठ राजागण कल्कि जी के वचन सुनकर प्रश्न का भेद जानने के लिए नत-मस्तक होकर अनन्त जी से बोले- 'हे मुनि ! कल्कि जी से, जो कि धर्म के वर्म (कवच अथवा रक्षक) हैं, आप की जो बातचीत हुई है, वह कठिनता से समझी जा सकती है। हे प्रभु! आप उस का तत्व यानी गहरा रहस्य हम लोगों को बताइए।'

मुनि श्रेष्ठ बोले- 'प्राचीन समय में पुरिका नामक स्थान (पुरी) में वेद-वेदांगों को जानने वाले, धर्म के जानने वाले, विद्रुम नाम से प्रसिद्ध व्यक्ति थे। वे दूसरों की भलाई में लगे रहते थे। वे ही मेरे पिता थे। हे विभो ! मेरी माता का नाम सोमा था। वे पतिव्रता थीं। मेरे माता-पिता के समर्थ होने पर मेरा जन्म हुआ। परन्तु मैं क्लीव (नपुंसक या हिजड़ा) पैदा हुआ। मेरा जन्म होने पर मेरे माता-पिता बहुत दुःख और शोक से व्याकुल हुए। सब लोग मेरी निन्दा करने लगे। मुझे क्लीव (नपुंसक) देखकर मेरे पिता घर-बार त्याग कर शिव वन में जाकर धूप, दीप, चन्दन आदि से विधि पूर्वक महादेव जी की पूजा करने लगे। भगवान् शिव शान्त हैं, सारे लोकों के स्वामी हैं, सभी प्राणियों के आश्रय हैं। जिन के गले का हार वासुकि नाम का नाग है। जिन की जटाओं के जाल में गंगा- तरंग सुशोभित है। ऐसे आनन्द के देने वाले महादेव जी को मैं नमस्कार करता हूँ।

कल्याण के देने वाले महादेव जी ने इस प्रकार अनेक स्तोत्र (भगवान् की स्तुति में गाए गए छन्दों) से सन्तुष्ट होकर, अपनी सवारी नन्दी पर बैठ कर प्रकट हुए और प्रसन्न चित्त होकर मेरे पिता जी से वर माँगने को कहा। मेरे पिता विद्रुम जी बोले- 'मेरा पुत्र नपुंसक है, इसलिए मैं अत्यन्त दुःखी हूँ।' महादेव जी ने हँस कर मुझे पुरुष होने का वर दिया। पार्वती जी ने भी इस वरदान का अनुमोदन (समर्थन) किया। इसके बाद, मेरे पुरुषत्व का वर प्राप्त होने पर मेरे पिता घर आ गए। मुझे पुरुष बना देख कर मेरे माता-पिता बहुत प्रसन्न हुए। इसके बाद, जब मेरी अवस्था बारह वर्ष की हुई, तब मेरे माता-पिता ने मेरा विवाह कर दिया और वे बन्धु-बान्धवों सहित बहुत प्रसन्न हुए।

मेरी पत्नी यज्ञरात की पुत्री थी। वह रूपवती थी और यौवन वाली मानिनी (जिसे अपने रूप रंग का घमंड हो) थी। मैं उसे पा कर सन्तुष्ट हो गृहस्थ आश्रम में रहने लगा और धीरे-धीरे स्त्री के वश में हो गया। इसके उपरान्त, कुछ समय बीतने पर मेरे माता-पिता स्वर्ग सिधार गए। मैंने अपने इष्टमित्रों और ब्राह्मणों के साथ उनके पारलौकिक (मरने के बाद दिवंगत आत्मा के लिए किए गए) कर्म किए। मैंने अपने माता-पिता के पारलौकिक कर्मों के करने के बाद अनेक ब्राह्मणों को भोजन कराया। चूँकि मैं अपने माता-पिता की मृत्यु के कारण बहुत दुःखी था, मैंने भगवान् विष्णु की आराधना शुरू की। भगवान् विष्णु मेरे जप, पूजा आदि कर्मों से सन्तुष्ट हुए और मुझ से स्वप्न में कहा- इस संसार में स्नेह, मोह आदि से बनी यह मेरी ही माया है। ये मेरे पिता हैं, ये मेरी माता हैं- इस तरह की ममता से जिन लोगों का मन दुःखी होता है, वे ही लोग शोक, दुःख, भय, उद्वेग (क्रोध आदि), बुढ़ापे और मृत्यु का कष्ट अनुभव करते हैं। मैं भगवान् विष्णु का यह वचन सुनकर जैसे ही इसका उत्तर देने को तैयार हुआ, वैसे ही वे अन्तर्धान हो गए और मेरी नींद टूट गई। हे राजागण! फिर मैं अचंभे में पड़ गया और अपनी पत्नी के साथ उस पुरिका नगरी को छोड़कर पुरुषोत्तम नाम के श्री विष्णु भगवान् के स्थान पर आया। मैं उसी पुरुषोत्तम नामक स्थान के दक्षिण भाग में सुन्दर आश्रम बना कर अपनी पत्नी और सेवकों के साथ विष्णु भगवान् की सेवा करने लगा। मैं भगवान् विष्णु के उस वास स्थान में रह कर उनकी माया देखने की इच्छा से यमराज के भय को नाश करने वाले भगवान् विष्णु का ध्यान नाच कर, गा कर तथा जप करके करने लगा। इसी प्रकार बारह वर्ष व्यतीत होने पर, व्रत की समाप्ति के दिन द्वादशी को, मैं अपने बन्धुओं के साथ स्नान करने की इच्छा से समुद्र तट पर गया।

इसके उपरान्त, मैंने ज्योंही समुद्र में गोता मारा, त्योंही भयानक चंचल लहरों से परेशान होने पर, मैंने अपने को उठने में समर्थ नहीं पाया। समुद्र के जानवर जैसे मच्छ आदि मुझे चुभने लगे, यानी वे मुझे चोट पहुँचाने लगे। मैं कभी उतराने (उछलने) लगा, (तो कभी) डूबने लगा, जिससे मेरा चित्त व्याकुल हो गया और मैं पानी की लहरों (के थपेड़ों) से चेतनाहीन (बेहोश- सा) हो गया। मेरे अंग शिथिल (ढीले) पड़ गए। इसके बाद हवा के झोंके से बहता हुआ मैं समुद्र के दक्षिणी तट पर आ लगा। ब्राह्मणों में श्रेष्ठ वृद्ध शर्मा नाम के एक ब्राह्मण मुझे वहाँ पड़ा देखकर, सन्ध्या उपासना करने के बाद मुझे अपने घर ले आए। धर्मात्मा, पुत्र-स्त्री वाले और धनवान वृद्ध शर्मा मुझे स्वस्थ बना के पुत्र के समान मेरा पालन-पोषण करने लगे। हे राजागण! उस स्थान में मुझे दिशाओं का ज्ञान भी न रहा और अत्यन्त बेबस हो गया। मैंने उस ब्राह्मण दम्पती (स्त्री व पति) को अपना माता-पिता समझ कर वहीं रहना शुरू कर दिया। उस ब्राह्मण ने मुझे अनेक तरह से वेद में बताए गए धर्म का पालन करने वाला जान कर, नम्रतापूर्वक अपनी कन्या का विवाह मुझ से कर दिया। ब्राह्मण की कन्या का नाम चारुमती था। उस रूप, गुण से युक्त, तपाए हुए सोने के समान रंग वाली, मानिनी (जिसे अपने रूप पर घमंड हो) स्त्री को पा कर मैं अत्यन्त विस्मित हुआ, यानी अचंभे व खुशी से भर गया। चारुमती ने मुझे हर तरह से सन्तुष्ट किया और मैंने तरह-तरह के भोग और सुखों का आनन्द उठाया। समय पर पाँच पुत्र हुए और मेरा सुख बढ़ता गया। मेरे पाँच पुत्रों के नाम थे- जय, विजय, कमल, विमल और बुध। मैं पुत्र और आत्मीय (अपने) लोगों से युक्त, तरह-तरह के धन का स्वामी बन गया और स्वर्ग में देवताओं के राजा इन्द्र की भाँति प्रसिद्ध और पूज्य हो गया।

जब मैं बड़े पुत्र बुध के विवाह के लिए तैयार हुआ तो धर्मसार नाम के ब्राह्मण ने अपनी कन्या को दान देने की इच्छा प्रकट की और उस ने अपनी कन्या के विवाह के लिए वेदों को जानने वाले ब्राह्मणों द्वारा उत्सवादि (आभ्युदयिक श्राद्ध) सम्पन्न किए। सोने के आभूषणों से सजी हुई अनेक महिलाएँ बाजे-गाजे के साथ नाचने गाने लगीं। मैं अपने पुत्र के अभ्युदय (उन्नति या सफलता) की इच्छा से पितृ-तर्पण, देव तर्पण तथा ऋषि तर्पण करने के लिए बड़े आदर से समुद्र तट पर गया। स्नान तर्पण के बाद मैं जल्दी ही पानी से निकल कर तट की ओर जाने लगा तो देखा कि मेरे पहले के आश्रम के भाई-बन्धु स्नान और संध्यादि करके आ रहे हैं। यह देख कर मैं बहुत बेचैन हो गया। हे राजागण! पुरुषोत्तम नगर के निवासी ब्राह्मणों को भगवान् विष्णु की सेवा और द्वादशी व्रत की समाप्ति के लिए तैयार देखकर मेरे चित्त में अत्यधिक अचरज हुआ। मेरे रूप और मेरी अवस्था में पहले से कुछ भी बदलाव नहीं आया था। मुझे अपने सामने ऐसा अचरज-भरा देख कर, पुरुषोत्तम वासियों ने मुझ से पूछा- 'हे अनन्त ! तुम तो भगवान् विष्णु के भक्त हो। तुम ने इस जगह पानी और भूमि में क्या देखा है ? हम तुम्हें क्यों इतना परेशान देख रहे हैं ? अपने इस अचरज को छोड़ो और जो देखा हो, वह बताओ। अपने व्रत का पारण करो।'

मैंने उन लोगों से कहा- 'मुझे कुछ भी दिखाई व सुनाई नहीं दिया, परन्तु मैं काम-वासना से मोहित हो गया हूँ और मेरा अन्तःकरण बहुत कमजोर है। मुझे भगवान् विष्णु की माया को देखने की इच्छा हुई थी। इस समय हरि भगवान् की माया से मेरी बुद्धि मारी गई है। मेरी इन्द्रियाँ व्याकुल हो रही हैं।'

मैं स्नेह और मोहजाल में पड़ कर लाचार हो गया, परन्तु मुझे हरि की माया जाल में पड़ा हुआ किसी ने न जाना। इस तरह स्त्री, धनागार (धन का कोष) और पुत्र के विवाहादि विषय में मेरा मन अत्यधिक डूबा होने पर भी मैं बहुत ही दुःखी रहने लगा। (मैं सोचने लगा कि) मैं 'अनन्त' कौन हूँ। (परन्तु) कुछ भी न समझ सका और सब विषय मुझे स्वप्न से मालूम हुए। इसी बीच मेरी मानिनी स्त्री मुझे लाचार और बेबस देखकर, 'हाय ! अचानक क्या हुआ ?' कहती और रोती हुई मेरे पास आई। यहाँ मैं अपनी पहले वाली पत्नी को देख और उन स्त्री व पुत्रों को याद करके अत्यन्त दुःखी होने लगा। उसी समय धीर, सब कुछ जानने वाले, परम धार्मिक, सूर्य के समान तेजस्वी, सत्व गुण सम्पन्न, शान्त, शुद्ध और दुनिया के दुःखों को दूर करने वाले परमहंस ( बहुत पहुँचे हुए संन्यासी) उत्तम बातों द्वारा मुझे समझाने के लिए वहाँ आए। मेरे कुटुम्ब जनों ने मेरे सामने स्थित उन परमहंस की पूजा कर उनसे पूछा- 'इनका कल्याण कैसे होगा ?'

श्री कल्कि पुराण दूसरा अंश \चौथा अध्याय संस्कृत में 

सूत उवाच

श्रुत्वा नृपाणां भक्तानां वचनं पुरुषोत्तमः।
ब्रह्मण-क्षत्र-विट्-शूद्र-वर्णानां धर्मम् आह यत्॥१

प्रवृत्तानां निवृत्तानां कर्म यत् परिकीर्तितम्।
सर्वं संश्रावयाम् आस वेदानाम् अनुशासनम्॥२

इति कल्केर् वचः श्रुत्वा राजानो विशदाशयाः।
प्रणिपत्य पुनः प्राहुः पूर्वान्तु गतिमात्मनः॥३

स्त्रीत्वं वाप्यथवा पुंस्त्वं कस्य वा केन वा कृतम्।
जरा-यौवन-बाल्यादि सुख-दुःखआदिकं च यत्॥४

कस्मात् कुतो वा कस्मिन् वा किम् एतद् इति वा विभो।
अनिर्णीतान्य् अविदितान्य् अपि कर्माणि वर्णय॥५

(तदा तद् आकर्ण्य कल्किर् अनन्तं मुनिम् अस्मरत्।
सो ऽप्य् अनन्तो मुनि-वरस् तीर्थ-पादो बृहद्-व्रतः॥६

कल्केर् दर्शनतो मुक्तिम् आकलय्यागतस् त्वरन्।
समागत्य पुनः प्राह किं करिष्यामि कुत्र वा।
यास्यामिइति वचः श्रुत्वा कल्किः प्राह हसन् मुनिम्॥७

कृतं दृष्तं त्वया सर्वं ज्ञातं याह्यनिवर्तकम्।
अदृष्टम् अकृतञ् चे’ति श्रुत्वा हृष्टमना मुनिः॥८

गमनायो’द्यतं तं तु दृष्ट्वा नृप-गणास् ततः।
कल्किं कमल-पत्रअक्षं प्रोचुर् विस्मित-चेतसः॥९

राजान ऊचुः

किम् अनेनअपि कथितं त्वया वा किम् उ तान् प्रति।
सर्वं तच् छ्रोतुम् इच्छामः कथो’पकथनं द्वयोः॥१०

नृपाणां तद् वचः श्रुत्वा तान् आह मधुसूदनः।
पुच्छतामुं मुनिं शान्तं कथोपकथनादृताः॥११

इति कल्केर् वचो भूयः श्रुत्वा ते नृप-सत्तमाः।
अनन्तम् आहुः प्रणताः प्रश्नपारतितीर्षवः॥१२

राजान ऊचुः

मुने! किम् अत्र कथनं कल्किना धर्म-वर्मणा।
दुर्बोधं केन वा जातं तत्त्वं वर्णय नः प्रभो!॥१३

मुनिर् उवाच

पुरिकायां पुरि पुरा पिता मे वेद-पारगः।
विद्रुमो नाम धर्मज्ञः ख्यातः परहिते रतः॥१४

सोमा मम विभो! माता पति-धर्म-परायणा।
तयोर्वयः परिणतौ काले षण्धाकृतिस् त्व् अहम्॥१५

संजातः शोकदः पित्रोर्लोकानां निन्दिताकृतिः।
मामालोक्य पिता क्लीबं दुःख-शोक-भयाकुलः॥१६

त्यक्त्वा गृहं शिववनं गत्वा तुष्टाव शङ्करम्।
संपूज्येशं विधानेन धूप-दीपअनुलेपनैः॥१७

विद्रुम उवाच

शिवं शान्तं सर्व-लोकै’क-नाथं) भूतावासं वासुकी-कण्थ-भूषम्।
जटाजूटा-बद्ध-गङ्गातरङ्गं) वन्दे सान्द्रानन्द-सन्दोह-दक्षम्॥१८

इत्य् आदि बहुभिः स्तोत्रैः स्तुतः स शिवदः शिवः।
वृषारूढः प्रसन्नात्मा पितरं प्राह मे वृणु॥१९

विद्रुमो मे पिता प्राह मत् पुंस्त्वं तापतापितः।
हसञ् छिवो ददौ पुंस्त्वं पार्वत्या प्रति-मोदितः॥२०

मम पुंस्त्वं वरं लब्ध्वा पिता’यातः पुनर् गृहम्।
पुरुषं मां समालोक्य सहर्षः प्रियया सह॥२१

ततः प्रवयसौ तौ तु पितरौ द्वादशाब्दके।
विवाहं मे कारयित्वा बन्धुभिर् मुदमापतुः॥२२

यज्ञरातसुतां पत्नीं मानिनीं रूपशालिनीम्।
प्राप्याहं परि-तुष्टआत्मा गृहस्थः स्त्री-वशो ऽभवम्॥२३

ततः कतिपये काले पितरौ मे मृतौ नृपाः।
पारलौकिक-कार्याणि सुहृद्भिर् ब्राह्मणैर् वृतः॥२४

तयोः कृत्वा विधानेन भोजयित्वा द्विजान् बहून्।
पित्रोर् वियोग-तप्तो ऽहं विष्णु-सेवापरो ऽभवम्॥२५

तुष्तो हरिर् मे भगवाञ् जप-पूजआदि-कर्मभिः।
स्वप्ने माम् आह मायेयं स्नेह-मोहविनिर्मिता॥२६

अयं पितेयं मतेति ममताकुलच्तसाम् ।
शोक-दुःख-भयो’द्वेग-जरा-मृत्यु-विधायिका॥२७

श्रुत्वेति वचनं विष्नोः प्रतिवादअर्थम् उद्यतम्।
मामालक्ष्या’न्तर्हितः स विनिद्रो ऽहं ततो ऽभवम्॥२८

तत्रै’व दक्षिणे पार्श्वे निर्मायआश्रमम् उत्तमम्।
स-भार्यः सअनुगामात्यः करोमि हरि-सेवनम्॥३०

माया-संदर्शनाकाङ्क्षी हरिसद्मनि संस्थितः।
गायन् नृत्यञ् जपन् नाम चिन्तयच् छमनापहम्॥३१

एवं वृत्ते द्वादशाब्दे द्वादश्यां पारणा-दिने।
स्नातु-कामः समुद्रे ऽहं बन्धुभिः सहितो गतः॥३२

तत्र मग्नं जलनिधौ लहरीलोलसंकुले।
समुत्थातुम् अशक्तं मां प्रतुदन्ति जलेचराः॥३३

निमज्जनो’न्मज्जनेन व्याकुलीकृतचेतसम्।
जलहिल्लोलमिलनदलितअङ्गम् अचेतनम्॥३४

जलधेर् दक्षिणे कूले पतितं पवने’रितम्।
मां तत्र पतितं दृष्ट्वा वृद्धशर्मा द्विजो’त्तमः॥३५

सन्ध्यामुपास्य सघृणः स्व-पुरं मां समानयत्।
स वृद्धशर्मा धर्मात्मा पुत्र-दार-धनअन्वितः।
कृत्वा’रुग्णन् तु मां तत्र पुत्रवत् पर्य्-अपालयत्॥३६

अहन् तु तत्र दीनआत्मा दिग्-देशअभिज्ञ एव न।
दम्पती तौ स्व-पितरौ मत्वा तत्रावसं नृपाः॥३७

स मां विज्ञाय बहुधा वेद-धर्मेष्व् अनुष्ठितम्।
प्रददौ स्वां दुहितरं विवाहे विनयअन्वितः॥३८

लब्ध्वा चामीकरा’कारां रूप-शील-गुणअन्विताम्।
नाम्ना चारुमतीं तत्र मानिनीं विस्मितो ऽभवम्॥३९

तयाहं परितुष्टात्मा नाना-भोग-सुःअअन्वितः।
जनयित्वा पञ्च पुत्रान् संमदेना’वृतो ऽभवम्॥४०

जयश् च विजयश् चैव कमलो विमलस् तथा।
बुध इत्य् आदयः पञ्च विदितास् तनया मम॥४१

स्व-जनैर् बन्धुभिः पुत्रैर् धनैर् नानाविधैर् अहम्।
विदितः पूजितो लोके देवैर् इन्द्रो यथा दिवि॥४२

बुधस्य ज्येष्ठ-पुत्रस्य विवाहअर्थं समुद्यतम्।
दृष्ट्वा द्विज-वरस् तुष्तो धर्मसारो निजां सुताम्॥४३

दित्सुः कर्माणि वेदज्ञश् चकाराभ्युदयान्य् अपि।
वाद्यैर् गीतैश् च नृत्यैश् च स्त्री-गणैः स्वर्ण-भूषितैः॥४४

अहञ् च पुत्रअभ्युदये पितृ-देवर्षि-तर्पणम्।
कर्तुं समुद्रवेलायां प्रविष्तः परमादरात्॥४५

वेलालोलायिततनुर् जलाद् उत्थाय सत्त्वरः।
तीरे सखीन् स्नान-सन्ध्या-परान्वीक्ष्यअहम् उन्मनाः॥४६

सद्यः समभवं भूपाः! द्वादश्यां पारणादृतान्।
पुरुषोत्तम-संवासान् विष्णु-सेवार्थमुद्यतान्॥४७

ते ऽपि मामग्रतः कृत्वा तद् रूपवयसां निधिम्।
विस्मयअविष्ट-मनसं दृष्ट्वा माम् अभ्रुवञ् जनाः॥४८

अनन्त! विष्णु-भक्तो ऽसि जले किं दृष्टवान् इह।
स्थले वा व्यग्रमनसं लक्षयामः कथं तव॥४९।

पारणं कुरु तद् ब्रूहि त्यक्त्वा विस्मयमात्मनः
तान् अब्रुवम् अहं नैव किञ्चिद् दृष्तं श्रुतं जनाः॥५०

कामआत्मा तत् कृपणधीर् मायासन्दर्शनादृतः।
तया हरेर् माययाहं मूढो व्याकुलिते’न्द्रियः॥५१

न शर्म वेद्मि कुत्रअपि स्नेह-मोह-वशं गतः।
आत्मनो विस्मृतिर् इयं को वेद विदितां तु ताम्॥५२

इति भार्या-धनागार-पुत्रो’द्वाहअनुरक्तधीः।
अनन्तो ऽहं दीनमना न जाने स्वाप्(न्;)असम्मितम्॥५३

मां वीक्ष्य मानिनी भार्या विवशं मूढवत्-स्थितम्।
क्रन्दन्ती किम् अहो’कस्माद् आलपन्ती ममान्तिके॥५४

इह तां वीक्ष्य तांस् तत्र स्मृत्वा कातर-मानसम्।
हंसो ऽप्य् एको बोधयितुम् आगतो मां सद्-उक्तिभिः॥५५

धीरो विदितसर्वार्थः पूर्णः परमधर्मवित्॥५६

सूर्याकारं सत्त्वसारं प्रशान्तं दान्तं शुद्धं लोकशोकक्षयिष्णुम् ।
ममाग्रे तं पूजयित्वा मदङ्गाः पप्रच्छुस्ते मच् छुभ-ध्यान-कामाः॥५७

इति श्री-कल्कि-पुराणे ऽनुभागवते भविष्ये द्वितीयांशे अनन्त-मायादर्शनं नाम चतुर्थो’ध्यायः॥

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