श्री कल्कि पुराण दूसरा अंश \छठा अध्याय | Shri Kalki Purana Second Part \Sixth Chapter

श्री कल्कि पुराण दूसरा अंश \छठा अध्याय हिंदी से संस्कृत में

सूत उवाच

गते नृप-गणे कल्किः पद्मया सह सिंहलात्।
शम्भलग्राम-गमने मतिं चक्रे स्वसेनया॥१

सूत जी बोले- इसके बाद, राजाओं के चले जाने पर, कल्कि जी ने पद्मा जी तथा सेनासहित सिंहल द्वीप से शम्भल ग्राम को प्रस्थान करने की इच्छा प्रकट की। देवताओं के स्वामी इन्द्र जी ने कल्कि जी का अभिप्राय समझ कर शीघ्र ही विश्वकर्मा (देवताओं के भवनादि निर्माता) को बुला कर कहा- 'हे विश्वकर्मा ! तुम शम्भल ग्राम में जाओ। (वहाँ) ढेर सारे सोने से ऊँची-ऊँची अट्टालिका, महल, घर, बाग आदि बनाओ और रत्न, स्फटिक (बिल्लौर), वैदूर्य (मणि) अनेक प्रकार की मणियों के इस्तेमाल से अपनी भवन-निर्माण कला दिखाने में कुछ भी कसर न रखो।'


विश्वकर्मा ने जब इन्द्र के ये वचन सुने, उसने अपना कल्याण समझ कर कमलेश (कमला के पति अर्थात् भगवान् विष्णु) के लिए संभल ग्राम में 'स्वस्ति' आदि (की आकृति के अथवा चिह्नों से युक्त) अनेक प्रकार के भवन बनाए। हंस, शेर, गरुड़ के मुख की शक्ल वाले तरह-तरह के भवन बनाए गए। सारे भवन दुमंज़िले, तिमंज़िले आदि एक-दूसरे के ऊपर बनने लगे। गर्मी से छुटकारा पाने के लिए सुन्दर खिड़कियाँ बनाई गईं। तरह-तरह के जंगलों, बेलों, उपवनों, तालाबों, वापी आदि से कल्कि जी का शम्भल ग्राम इन्द्र की अमरावती के समान अत्यन्त शोभायमान हो गया।

इधर सिंहल द्वीप में कल्किजी सेना सहित कारुमती नगरी से बाहर जा कर समुद्र के तट पर गए। कौमुदी नामक रानी के साथ राजा बृहद्रथ अपनी बेटी के प्रेम से कातर होकर सन्तुष्ट हृदय वाली पद्मा जी के पतिदेव और पद्मा जी को दस हजार हाथी, एक लाख घोड़े, दो हजार रथ, दो सौ दासियाँ तथा तरह-तरह के कपड़े और रत्न आदि देकर भक्ति और स्नेह भरी आँखों से अपने दामाद और कन्या के कमल रूपी मुख को देखते ही रह गए। वे कन्या और दामाद को पूज कर उन्हें विदा कर कारुमती नामक अपनी नगरी लौट आए।इसके बाद, कल्कि जी ने सेना सहित समुद्र के जल में स्नान किया और तभी एक गीदड़ को पानी के ऊपर चलते हुए पार होते देखकर वहीं रुक गए। इसके उपरान्त, लक्ष्मी के पति कल्कि जी, जल को स्तंभित (स्थिर, यानी ठहरा हुआ) देखकर, सेना और सवारियों सहित समुद्र के जल के ऊपर चलते हुए पार हो गए।

विश्वकर्मा द्वारा निर्मित शम्भल ग्राम समुद्र पार होने पर (कल्कि जी ने) शुक से कहा- 'हे शुक ! तुम शम्भल ग्राम में मेरे घर पर जाओ। हमारा प्रिय काम सफल करने के लिए (या मेरा प्रिय करने के लिए और मेरे सुख के लिए) इन्द्रदेव की आज्ञा के अनुसार विश्वकर्मा ने वहाँ पर बहुत से शोभायमान निर्मल (स्वच्छ) भवन बनाए हैं। तुम वहाँ जाकर हमारे माता-पिता और जाति वालों से हमारा कुशल समाचार कह कर हमारे विवाहादि की सभी बातें बतला देना।

मैं सेना के सहित पीछे आ रहा हूँ। तुम आगे शम्भल ग्राम में जाओ।' बड़े धैर्यवान्, सब कुछ जानने वाले शुक कल्कि जी के वचन सुनकर आकाश मार्ग से उड़ते हुए कुछ समय के बाद देवताओं द्वारा पूजे गए शम्भल ग्राम में पहुँचे। शम्भल ग्राम में सात योजना में फैले हुए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- चारों वर्णों के लोग रहते हैं। सूर्य की किरणों की भाँति स्वच्छ जगमगाती हुई सैकड़ों अट्टालिकाएँ उसमें चारों ओर शोभा बढ़ा रही हैं। सभी मौसमों में सुख देने वाले, रमणीक शम्भल ग्राम को देखकर शुक ने विह्वल होकर वहाँ प्रवेश किया। वह एक घर से दूसरे घर में, महल के अगले भाग से आकाश मार्ग में, एक बाग से दूसरे बाग में और एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर विचरने लगा। इसी तरह प्रसन्नचित्त शुक विष्णुयश के घर पहुँच गया। इसके बाद विष्णुयश के पास पहुँच कर तरह-तरह की प्यारी कहानियाँ उसने मीठी वाणी में कहीं। सिंहल द्वीप से पद्मा जी के साथ कल्कि जी के आने की बात बताई।

इसके उपरान्त, विष्णुयश ने जल्दी ही प्रसन्न हृदय से विशाखयूपराज और दूसरे मुख्य और माननीय राजाओं को सभी समाचार बताए। विशाखयूपराज ने चन्दन से सुगंधित जल से भरे सोने के घड़ों से गाँव और नगर को सजाया (या चन्दन से सुगंधित जल से सब जगह छिड़काव कराया)। दीपमाला, सुन्दर सुगंधित फूलों की माला, अगर आदि सुगंधित पदार्थों, केले-सुपारी आदि फलों, नई कोंपलों, चावलों और पान के पत्तों आदि से शम्भल ग्राम सुशोभित हो गया और देवताओं की पुरी के समान मनोहर लगने लगा। परम सुन्दर, सुन्दरियों की आँखों के आनन्द, सुन्दर शरीर वाले कृपा के सागर कल्कि जी भारी सेना सहित नगर में प्रवेश करने लगे।

कल्कि जी ने पद्मा जी सहित माता-पिता के चरणों में प्रणाम किया। जिस प्रकार देवलोक में दिति जी इन्द्र और उनकी पत्नी (शची) को देखकर सफल मनोरथ तथा प्रसन्न हुई, उसी तरह सती सुमति अपने पुत्र कल्कि जी और पुत्र वधू पद्मा जी को देखकर अत्यन्त प्रसन्न तथा सफल मनोरथ हुई। शम्भल ग्राम नगरी ध्वजा-पताकाओं से सजी हुई थी। अपने पति तुल्य स्वामी कल्कि जी को पाकर आनन्द विभोर हो रही थी। (ऐसा लग रहा था मानों) इस सुन्दरी रूपी नगरी का अन्तःपुर मानों उसकी सुन्दर जंघाएँ (जघन, नितम्ब) हों, महल उठे हुए स्तन हों, (मीनारों पर बने) मयूर मानों स्तनाग्र हों, हंसों की पाँतें मानों मोतियों की लड़ियों से युक्त सुन्दर मालाएँ हों, सुगन्धित-धूप आदि का उठता धुआँ मानों उसके वस्त्र हों, कोयल का कूकना उसकी मधुर वाणी हो और तोरण द्वार हँसता मुखड़ा हो। अज अर्थात् जन्म न लेने वाले ब्रह्मा जी के भी आश्रय मूलाधार, कल्क अर्थात् पाप समूह के विनाशक भगवान् कल्कि ने शम्भल में सब कुछ भूलकर निर्द्वन्द भाव से अनेक वर्षों तक पद्मा जी के साथ रमण किया।

कुछ समय के बाद बड़े भाई कवि की कामकला नाम की पत्नी ने बृहद्कीर्ति और बृहद्बाहु नाम के बहुत बलवान, पराक्रमी और परम धार्मिक दो पुत्रों को जन्म दिया। दूसरे भाई प्राज्ञ की पत्नी ने, जिसका नाम सन्नति था, यज्ञ और विज्ञ नाम के दो पुत्रों को जन्म दिया। ये दोनों पुत्र इन्द्रियों को जीतने वाले हुए और पूरे संसार में पूजे गए। तीसरे भाई सुमंत्रक की पत्नी ने, जिसका नाम मालिनी था, शासन और वेगवान् नाम के दो पुत्रों को पैदा किया। ये दोनों पुत्र सज्जनों का उपकार करने वाले हुए। कल्कि जी द्वारा पद्मा जी के गर्भ से जय और विजय नाम के दो पुत्र पैदा हुए। ये दोनों पुत्र संसार भर में प्रसिद्ध और अत्यन्त बलवान् हुए।

(इस प्रकार कल्कि जी का परिवार पुत्रवान और सर्व- ऐश्वर्य सम्पन्न हो गया) फिर अमात्यों (राजा के सहचर अथवा मंत्रियों) से घिरे और (समस्त सम्पत्तियों से युक्त) कल्कि जी (ब्रह्मा जी की तरह) अपने पिता जी को अश्वमेध यज्ञ करने के लिए तैयार हुआ देख कर बोले- मैं दिशाओं के स्वामियों को हराकर, धन इकट्ठा करके आपसे अश्वमेध यज्ञ कराऊँगा। इस समय मैं दिग्विजय (सम्पूर्ण दिशाओं की विजय) के लिए यात्रा करता हूँ।

यह कहकर शत्रुओं के नगरों को जीतने वाले कल्कि जी प्रसन्न होकर पिता को प्रणाम कर सेना सहित कीकटपुर की ओर चल पड़े। अति विस्तार में फैली हुई कीकटपुर नगरी बौद्ध धर्मावलम्बियों का मुख्य स्थान है। यहाँ के लोग वैदिक धर्म को नहीं मानते, अपने पितरों और देवताओं की पूजा नहीं करते और परलोक में विश्वास नहीं करते। इस नगरी के अधिकतर लोग केवल अपने शरीर को ही आत्मा मानते हैं (शारीरिक सुखों की चिन्ता करने वाले हैं) और कुल-धर्म और जाति-धर्म का पालन नहीं करते और वे लोग धन, स्त्री, भोजन आदि विषयों में अपने-पराए का भेद नहीं मानते। यह नगर तरह-तरह के लोगों और तरह-तरह की पीने वाली और खाने वाली वस्तुओं से भरपूर है।

युद्ध करने के लिए, सेवकों के साथ कल्कि जी का आना सुन कर वहाँ का राजा जिन दो अक्षौहिणी सेना सहित नगर से बाहर निकला। अनेक हाथियों, रथों, घोड़ों, सोने के आभूषणों से सजे हुए उत्तम वर्ण के रथवाले और अस्त्र- शस्त्र धारण करने वाले योद्धाओं से पृथ्वी ढक गई। सेनाओं के झंडों के कपड़ों से धूप भी पृथ्वी तक नहीं पहुँच पाती थी।

श्री कल्कि पुराण दूसरा अंश \छठा अध्याय संस्कृत में 

सूत उवाच

गते नृप-गणे कल्किः पद्मया सह सिंहलात्।
शम्भलग्राम-गमने मतिं चक्रे स्वसेनया॥१

ततः कल्केर् अभिप्रायम्ं विदित्वा वासवस् त्वरन्।
विश्वकर्माणम् आहूय वचनञ् चे’दम् अब्रवीत्॥२

इन्द्र उवाच

विश्वकर्मञ् छम्भले त्वं गृहो’द्यानअट्ट-घट्टितम्।
प्रासादहर्म्य-संबाधं रचय स्वर्णसञ्चयैः॥३

रत्न-स्फटिक-वैदूर्य-नानामणि-विनिर्मितैः।
तत्रै’व शिल्पनैपुण्यं तव यच् चअस्ति तत् कुरु॥४

श्रुत्वा हरेर् वचो विश्व-कर्मा शर्म निजं स्मरन्।
शम्भले कमलेशस्य स्वस्त्य्-आदि-प्रमुखान् गृहान्॥५

हंस-सिंह-सुपर्णआदि-मुखांश् चक्रे स विश्वकृत्।
उपर्युपरि तापघ्नवातायनमनोहरान्॥६

नाना-वन-लताउद्यान-सरोवापीसुशोभितः।
शम्भलश् चअभवत् कल्केर् यथे’न्द्रस्यअमरावती॥७

कल्किस् तु सिंहलाद् द्वीपाद् बहिः सेनागणैर् वृतः।
त्यक्त्वा कारुमतीं कूले पाथोधेर् अकरोत् स्थतिम्॥८

बृहद्रथस् तु कौमुद्या सहितः स्नेह-कातरः।
पद्मया सहितायास्मै पद्मानाथाय विणवे॥९

ददौ गजानाम् अयुतं लक्षं मुख्यञ् च वाजिनाम् ।
रथानाञ् च द्वि-साहस्रं दासीनां द्वे शते मुदा॥१०

दत्त्वा वासांसि रत्नानि भक्तिस्नेहाश्रुलोचनः।
तयोर् मुखालोकनेन नअशकत् किञ्चिद् ईरितुम्॥११

महाविणुदम्पती तौ प्रस्थाप्य पुनर्-आगतः।
पूजितः कल्किपद्माभ्यां निजकारूमतीं पुरीम्॥१२

कल्किस् तु जलधेर् अम्भो विगाह्य पृतना-गणैः।
पारं जिगम् इषुं दृष्ट्वा जम्बुकं स्तम्भितो ऽभवत्॥१३

जलस्तम्भम् अथालोक्य कल्किः स-बल-वाहनः।
प्रययौ पयसां राशेर् उपरि श्रीनिकेतनः॥१४

गत्वा पारं शुकं प्राह याहि मे शम्भलालयम्॥१५

विश्वकर्मकृतं यत्र देवराजाज्ञया बहु।
सद्म सम्बाधम् अमलं मत् प्रियार्थं सुशोभनम्॥१६

तत्रापि पित्रोर् ज्ञातीनां स्वस्ति ब्रूयाद् यथो’चितम्।
यदत्राङ्ग! विवाहादि सर्वं वक्तुं त्वम् अर्हसि॥१७

पश्चाद् यामि वृतस् त्व् एतैस् त्वम् आदौ याहि शम्भलम्॥१८

कल्केर् वचनम् आकर्ण्य कीरो धीरस् ततो ययौ।
आकाश-गामी सर्वज्ञः शम्भलं सुरपूजितम्॥१९

सप्त-योजन-विस्तीर्णं चातुर्-वर्ण्य-जनाकुलम्।
सूर्य-रश्मि-प्रतीकाशं प्रासादशतशोभितम्॥२०

सर्वर्तु-सुखदं रम्यं शम्भलं विह्वलो ऽविशत्॥२१

गृहाद् गृहअन्तरं दृष्ट्वा प्रासादाद् अपि चाम्बरम्।
वनाद् वनअन्तरं तत्र वृक्षाद् वृक्षअन्तरं व्रजन्॥२२

शुकः स विष्णुयशसः सदनं मुदितो ऽव्रजत्।
तं गत्वा रुचिरालापैः कथयित्वा प्रियाः कथाः॥२३

कल्केर् आगमनं प्राह सिंहलात् पद्मया सह॥२४

ततस् त्वरन् विष्णुयशाः समानार्यप्रजाजनान्।
विशाखयूप-भूपालं कथयाम् आस हर्षितः॥२५

स राजा कारयाम् आस पुर-ग्रामादि मण्दितम्।
स्वर्ण-कुंभैः सद्-अम्भोभिः पूरितैश् चन्दनो’क्षितैः॥२६

कालागुरु-सुगन्धाढ्यैर् दीपलाजाङ्कुराक्षतैः।
कुसुमैः सुकुमारैश् च रम्भापूग-फलान्वितैः।
शुशुभे शम्भलग्रामो विबुधानां मनोहरः॥२७

तं कल्किः प्राविशद् भीम-सेनागण-विलक्षणः।
कामिनी-नयनानन्द-मन्दिराङ्गः कृपानिधिः॥२८

पद्मया सहितः पित्रोः पदयोः प्रणतो ऽपतत्।
सुमतिर् मुदिता पुत्रं स्नुषां शक्रं शचीम् इव।
ददृशे त्वमरावत्यां पूर्णकामा दितिः सती॥२९

शम्भलग्रामनगरी पताकाध्वज-शालिनी।
अवरोधसुजघना प्रासादविपुलस्तनी।
मयूर-चूचका हंस-संघहारमनोहरा॥३०

पटवासोद्योत-धूम-वसना कोकिल-स्वना।
सहासगोपुरमुखी वामनेत्रा यथाङ्गना।
कल्किं पतिं गुणवती प्राप्य रेजे तम् ईश्वरम्॥३१

स रेमे पद्मया तत्र वर्ष-पूगान् अजआश्रयः।
शम्भले विह्वलाकारः कल्किः कल्क-विनाशनः॥३२

कवेः पत्नी कामकला सुषुवे परमेष्ठिनौ ।
बृहत्कीर्ति-बृहद्बाहू महाबल-पराक्रमौ॥३३

प्राज्ञस्य सन्नतिभार्या तस्यां पुत्रौ बभूवतुः।
यज्ञ-विज्ञौ सर्व-लोक-पूजितौ विजिते’न्द्रियौ॥३४

सुमन्त्रकस् तु मालिन्यां जनयाम् आस शासनम्।
वेगवन्तञ् च साधूनां द्वावेतावृपकारकौ॥३५

ततः कल्किश् च पद्मायां जयो विजय एव च
द्वौ पुत्रौ जनयाम् आस लोक-ख्यातौ महा-बलौ॥३६

एतैः परिवृतो ऽमात्यैः सर्व-सम्पत्-समन्वितौ
वाजिमेधविधानार्थम् उद्यतं पितरं प्रभुः॥३७

समीक्ष्य कल्किः प्रोवाच पितामहमिवेश्वरः
दिशां पालान् विजित्या’हं धनान्याहृत्य इत्य् उत॥३८

कारयिष्याम्य् अश्वमेधं यामि दिग्-विजयाय भोः!॥३९

इति प्रणम्य तं प्रीत्या कल्किः परपुरञ्जयः।
सेनागणैः परिवृतः प्रययौ कीकटं पुरम्॥४०

बुद्धआलयं सुविपुलं वेद-धर्म-बहिष्कृतम्।
पितृ-देवअर्चनाहीनं परलोक-विलोपकम्॥४१

देहात्मा-वाद-बहुलं कुल-जाति-विवर्जितम्।
धनैः स्त्रीभिर् भक्ष्य-भोज्याः स्व-पर-अ-भेद-दर्शिनम्॥४२

नाना-जनैः परिवृतं पान-भोजन-तत्परैः॥४३

श्रुत्वा जिनो निज-गणैः कल्केर् आगमनं क्रुधा।
अक्षौहिणीभ्यां सहितः संबभूव पुराद् बहिः॥४४

गज-रथ-तुरगैः समाचिता भूःकनक-विभूषण-भूषितैर् वराङ्गइः।
शत-शत-रथिभिर् धृता’स्त्र-शस्त्रैर्) ध्वजपटराजि-निवारितातपैर् बभौ सा॥४५

इति श्री-कल्कि-पुराणे ऽनुभागवते भविष्ये द्वितीयअंशे बुद्ध-निग्रहे कीकट-पुर-गमनं नाम षष्ठो ऽध्यायः॥६

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