श्री कल्कि पुराण दूसरा अंश \पहला अध्याय हिंदी से संस्कृत में
सूत उवाच
इति पद्मावचः श्रुत्वा कीरो धीरः सतां मतः।
कल्कि-दूतः सखी-मध्ये स्थितां पद्माम्थअब्रवीत्॥१
सूत जी बोले- पद्मा जी के ये वचन सुन कर, कल्कि जी के दूत, बुद्धिमान् शुक सखियों के बीच में बैठी पद्मा जी से बोले - हे पद्म ! अद्भुत कर्म करने वाले श्री विष्णु भगवान् की सर्वाङ्ग पूजा (नख से शिख तक) का वर्णन कीजिए, क्योंकि मैं उसका विधिपूर्वक अनुष्ठान कर तीनों लोकों में घूमूँगा।
यह सुनकर पद्मावती ने कहा- इस प्रकार संसार के ईश्वर पूर्णात्मा भगवान् विष्णु का चरणों से लेकर केशों तक ध्यान कर के पूजक मूल-मंत्र का जप करे। जप करने के बाद बुद्धिमान पूजा करने वाला व्यक्ति दण्डवत् (भूमि पर डंडे के समान लेट कर) प्रणाम करे। इसके बाद विश्वक्सेन आदि को पाद्य, अर्घ्य, नैवेद्य आदि देकर विष्णु भगवान् के प्रति अर्पित वस्त्र को हृदय पर रखकर सर्वव्यापी भगवान् विष्णु का स्मरण करते हुए मनोयोग से नृत्य, गान और श्री हरि का संकीर्तन करे। इसके बाद भगवान् विष्णु के बचे हुए निर्माल्य (चढ़ाए गए फूल आदि) को माथे पर धारण कर नैवेद्य (प्रसाद) को लेवे। हे शुक! लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु की पूजा की यह विधि है। इस प्रकार पूजा करने से इच्छा करने वाले व्यक्ति की इच्छा पूरी होती है और निष्काम व्यक्ति को मुक्ति प्राप्त होती है। यह कथा सुनने में सब को सुख देने वाली है तथा देव, गन्धर्व और मनुष्यों के हृदयों को प्रिय है।
शुक बोला- हे साध्वी ! (साधु का स्त्रीलिंग, जो सज्जन व उत्तम के अर्थ में प्रयुक्त होता है)। तुमने मुझ जैसे पापी पक्षी को भी संसार से मुक्ति देने वाले भगवान् विष्णु की भक्ति के लक्षण बताए। इन लक्षणों को तुम्हारी कृपा से मैंने सुना। (किन्तु) स्ल और आभूषणों से सजी-धजी सोने की सजीव मूर्ति-सी, जिसके समान रूप मिलना संसार में दुर्लभ है, ऐसी तुम लक्ष्मी को मैं देखता हूँ। तुम्हारे समान रूप, शील और गुण वाली स्त्री (मैं) संसार में दूसरी नहीं देखता और न संसार में तुम्हारे योग्य गुणवान् भर्त्ता (पति) ही कहीं दिखाई देता है। किन्तु समुद्र के पार अत्यन्त अद्भुत और गुणवाले साक्षात् ईश्वर रूप किसी अलौकिक मनुष्य को मैंने देखा है। (उस व्यक्ति का) सर्वांग सुन्दर शरीर विधाता का बनाया हुआ नहीं मालूम पड़ता। अगर ध्यान से देखा जाए तो श्री वासुदेव भगवान् और उस के बीच कोई अन्तर नहीं प्रतीत होता। तुम ने असीम तेजवान् भगवान् विष्णु के जिस रूप का ध्यान किया है, उस रूप के साथ मिलान करने से दोनों में कोई भी अन्तर नहीं मालूम पड़ता।
पद्मा जी बोलीं- हे शुक! तुम ने क्या कहा ? फिर से कहो। उन्होंने कहाँ जन्म लिया है? यदि तुम उनके किए हुए कर्मों का विशेष वृतान्त जानते हो, तो उसे यहाँ विस्तार से बताओ। वृक्ष से उतर कर तुम नीचे आओ, मैं विधिपूर्वक तुम्हारी पूजा (आदर-सत्कार) करूँगी। बिजौरे (गलगल) के फलों का आहार कर, स्वच्छ जल/दूध पियो। मैं तुम्हारी (ऊपर और नीचे वाली) दोनों चोचों को पद्मराग मणि और रत्नों से लाल रंग की चमक वाली और मन को मोहने वाली कराऊँगी। मैं तुम्हारी गर्दन को सोने से युक्त सूर्यकान्त मणि से सजाऊँगी और तुम्हारे दोनों पंखों को मोतियों से मढ़वाऊँगी। तुम्हारे पंख तथा शरीर को केसर से रंगवाकर तुम्हारा ऐसा रूप बनाऊँगी कि तुम्हें देखते ही सबकी आँखों को सुख मिलेगा। तुम्हारी पूँछ को स्वच्छ मणि से गूँथ दूँगी, जिस से तुम्हारे उड़ते समय घर्घर की आवाज़ होगी और तुम्हारे चरणों को घुँघरुओं से ऐसे सजाऊँगी कि तुम्हारे चलने के समय (नूपुर की) सुमधुर ध्वनि निकलेगी। तुम्हारी अमृत-सी कथा को सुनकर मेरे मन की सारी व्यथा दूर हो गई। मुझे आज्ञा दो और और बताओ कि मैं तुम्हारा क्या काम करूँ। मैं सखियों के साथ तुम्हारी सेवा करने को तैयार हूँ।
पद्मा जी के इस प्रकार के वचन सुनकर प्रसन्न हृदय शुक ने धीरे-धीरे उनके पास जा कर कहना आरंभ किया - ब्रह्मा जी द्वारा प्रार्थना किए जाने पर धर्म की स्थापना के उद्देश्य से अत्यन्त करुणामय, लक्ष्मी जी के पति भगवान् विष्णु ने शम्भल नाम के गाँव में रहने वाले विष्णुयश के घर में जन्म लिया है। वे चार भाइयों, जाति और गोत्र वालों के साथ हैं। उपनयन संस्कार के बाद कल्कि जी ने परशुराम जी के पास जा कर वेदों का अध्ययन किया। इसके बाद वे धनुर्वेद, संगीत विद्या (गान्धर्वेद) सीख कर भगवान् शंकर से घोड़ा तलवार, शुक, कवच और वर प्राप्त करके अपने संभल ग्राम लौट आए।
शुक और पद्मा जी
इसके बाद उन बुद्धिमान कल्कि जी के पास विशाखयूपराज गए और तब कल्कि जी ने राजा की अधर्म युक्त शंकाओं का निवारण किया (और धर्म को प्रकट और अधर्म को दूर किया)। यह समाचार सुनकर प्रसन्न मुख वाली पद्मावती ने कल्कि जी को आदर सहित लाने के लिए शुक को कहा, फिर उस शुक को सोने तथा रत्नों से सजा कर, हाथ जोड़ का उस से बोली- जो कुछ मुझे निवेदन करना है, उसे तुम जानते हो। तुम से (उसके अलावा) और क्या कहूँ, स्त्री-स्वभाव के कारण मेरी आत्मा डर रही है। यदि (मेरे कर्म-दोष के कारण) वे प्रभु न आएँ, तब भी उनको मेरी ओर से प्रणाम करके मेरे कर्मों के दोष के कारण जो कुछ हुआ है, वह सब कह कर उन्हें यह भी बताना कि भगवान् शिव ने जो यह वर मुझे दिया है कि जो पुरुष मुझे वासना की दृष्टि से देखेगा, वह उसी समय स्त्री बन जाएगा, वह मेरे लिए शाप बन गया है।
शुक ने पद्मा जी के ये वचन सुनकर उन्हें ढाढस बंधाया और बार-बार प्रणाम कर उड़ते हुए वह कल्कि जी द्वारा पालित तथा रक्षित शंभल ग्राम में पहुँचा। शत्रुओं के नगरों को जीतने वाले कल्कि जी ने शुक का वहाँ पहुँचना सुन कर, अत्यन्त आनन्द देने वाले, सोने और रत्नों से सजे हुए शुक को अपनी गोद में ले लिया। परम तेजस्वी कल्कि जी ने पहले अपने बाएँ हाथ से स्वच्छ किए गए शुक को दूध पिला कर तृप्त किया। इस के बाद अपने मुँह को उसके मुँह से सटाकर कई तरह से बातें पूछीं, जैसे- कौन-से देश से घूम- फिर कर और कौन-सी अद्भुत चीज देखकर आए हो ? तुम अब तक कहाँ थे और कहाँ से तुमने ये मणि और सोने के आभूषण पाए हैं ? (श्री कल्कि ने कहा) - तुम से मिलने की रात-दिन और सब तरह से मेरी इच्छा रहती है। तुम्हें न देखने से मुझे एक क्षण भी एक युग के समान लगता रहा है।
कल्कि जी के इस प्रकार के वचन सुनकर शुक ने उन को बार-बार प्रणाम किया और पद्मा जी की पहले बताई गई पूरी कहानी सुनाई। इसके बाद, शुक ने नम्रतापूर्वक अपना पद्मा जी के साथ संवाद और अपने आभूषण धारण करने का हाल-सभी कुछ सुनाया। कल्कि जी इन वचनों को सुन कर, शीघ्र ही शिवजी द्वारा दिए गए घोड़े पर सवार हो कर प्रसन्नतापूर्वक शुक के साथ गए। समुद्र के पार, स्वच्छ जल के बीच तरह-तरह के विमानों से परिपूर्ण तथा मणि और सोने से जगमगाती हुई। महलों और ऊँचे मकानों पर फहराते हुए झंडे तथा तोरणों (द्वारों) से सजी हुई। सभा मंडपों, दुकानों, महलों व बस्तियों तथा नगर-द्वार की पांतों से शोभित एवं पद्मिनी स्त्रियों की कमल-गंध से प्रसन्न भौंरों वाली, सुनिर्मित सिंहल पुरी (द्वीप) में पहुँच कर कल्कि जी ने सामने स्थित नगरी को देखा।
हंसों के समूह के (इधर-उधर घूमने से नगरी के तालाब में हिलोरें उठ रही हैं। तालाब के खिले हुए कमलों में भौरे गूंज रहे हैं। तालाबों के चारों ओर हंस, सारस, जलमुर्ग (जल- कौवे) पक्षियों के समूह वहाँ कलरव कर रहे हैं। स्वच्छ जल की चंचल तंरगों के साथ (अथवा समान) वन में बयार चल रही है। कदम्ब, कांचन वृक्ष, शाल, ताल, आम, मौलश्री, कैथ, खजूर, बिजौर, नींबू, करंजन, पुन्नाग, पनस, नागरंग, अर्जुन, शिंशपा, सुपारी तथा नारियल आदि अनेक वृक्षों से वन शोभायमान है। इस प्रकार फलों, फूलों और पत्रों से शोभायमान वह वन कल्कि जी ने देखा। यह सब देख कर नगर के पास वाले वन में पुलकित शरीर वाले कल्कि जी शुक से करुणा-पूर्वक आदर के साथ ये प्रीतिपूर्ण वचन बोले- यहाँ सरोवर में स्नान करेंगे। इस प्रकार के वचन सुनकर श्री कल्कि भगवान् की बात को समझ कर शुक ने विनयपूर्वक यह निवेदन किया- अब मैं पद्मावती के घर जाता हूँ। फिर शुक ने पद्मावती के समीप जाकर कल्कि जी द्वारा कहे गए वचन और उनके आने की पूरी बात बताई।
श्री कल्कि पुराण दूसरा अंश \पहला अध्याय संस्कृत में
सूत उवाच
इति पद्मावचः श्रुत्वा कीरो धीरः सतां मतः।
कल्कि-दूतः सखी-मध्ये स्थितां पद्माम्थअब्रवीत्॥१
वद पद्मे साङ्ग-पूजां हरेर् अद्भुत-कर्मणः।
यामास्थाय विधानेन चरामि भुवन-त्रयम्॥२
पद्मो’वाच
एवं पादादि केशान्तं ध्यात्वा तं जगद्-ईश्वरम्।
पूर्णात्मा देशिको मूलं मन्त्रं जपति मन्त्रवित्॥३
जपादनन्तरं दण्ड-प्रणतिं मतिमांश् चरेत्।
विष्वक्-सेनादिकानान्तु दत्त्वा विष्णु-निवेदितम्॥४
तत उद्वास्य हृदये स्नापयेन् मनसा सह।
नृत्यन् गायन् हरेर् नाम तं पश्यन् सर्वतः स्थितम्॥५
ततः शेषं मस्तकेन कृत्वा नैवेद्य-भुग्भवेत्।
इत्य् एतत् कथितं कीर! कमला-नाथ-सेवनम्॥६
सकामानां कामपूरम् अकामअमृत-दायकम्।
श्रोत्रआनन्द-करं देव-गन्धर्व-नर-हृत्-प्रियम्॥७
शुक उवाच
समीरितं श्रुतं साध्वि भगवद्-भक्ति-लक्षणम्।
त्वत् प्रसादात् पापिनो मे कीरस्य भुवि मुक्तिदम्॥८
किन्तु त्वां काञ्चनमयीं प्रतिमां रत्न-भूषिताम्।
सजीवाम् इव पश्यामि दुर्लभां रूपिणीं श्रियम्॥९
नान्यां पश्यामि सदृशीं रूप-शील-गुणैस् तव।
नान्यो योग्यो गुणी भर्ता भुवने ऽपि न दृश्यते॥१०
किन्तु पारे समुद्रस्य परमाश्चर्यरूपवान्।
गुणवान् ईश्वरः साक्षात् कश्चिद् दृष्तो ऽतिमानुषः॥११
न हि धातृ-कृतं मन्ये शरीरं सर्व-सौभगम्।
यस्य श्री-वासुदेवस्य नान्तरं ध्यान-योगतः॥१२
त्वया ध्यातं तु यद् रूपं विष्णोर् अमित-तेजसः।
तत् साक्षात् कृतम् इत्य् एव न तत्र कियदन्तरम्॥१३
पद्मो’वाच
ब्रूहि तन् मम किं कुत्र जातः कीर परावरम्।
जानासि तत्कृतं कर्म विस्तरेणात्र वर्णय॥१४
वृक्षादागच्छ पूजां ते करोमि विधिबोधिताम्।
बीजपूर-फलाहारं कुरु साधु पयः पिव॥१५
तव चंचुयुगं पद्म-रागाद् अरुणम् उज्ज्वलम्।
रत्न-संघट्टितम् अहं करोमि मनसः प्रियम्॥१६
कन्धरं सूर्य-कान्तेन मणिना स्वर्ण-घट्टिना।
करोम्य् आच्छादनं चारु-मुक्ताभिः पक्षतिं तव॥१७
पतत्त्रं कुंकुमेनअंगं सौरभेणअतिचित्रितम्।
करोमि नयनआनन्द-दायकं रूपमीदृशम्॥१८
पुच्छयच्छ-मणिव्रात-घर्घरेणअतिशब्दितम्।
पादयोर् नूपुरालाप-लापिनं त्वां करोम्य् अहम्॥१९
तवअमृतकथाव्रातत्यक्ताधिं शाधि माम् इह।
सखीभिः संगिताभिस् ते किं करिष्यामि तद् वद॥२०
इति पद्मा वचः श्रुत्वा तदन्तिकम् उपागतः।
कीरो धीरः प्रसन्नात्मा प्रवक्तुम् उपचक्रमे॥२१
कीर उवाच
भ्रह्मणा प्रार्थितः श्रीशो महाकारुणिको बभौ।
शंभले विष्णुयशसो गृहे धर्म-रिरक्षिषुः॥२२
चतुर्भिर् भ्रातृभिर् ज्ञाति-गोत्रजैः परिवारितः।
कृतो’पनयनो वेदमधीत्य राम-सन्निधौ॥२३
धनुर्-वेदञ् च गान्धर्वं शिवाद् अश्वम् असिं शुकम्।
कवचञ् च वरं लब्धा शम्भलं पुनर्-आगतः॥२४
विशाखयूप-भूपालं प्राप्य शिक्षा-विशेषतः।
धर्मान् आख्याय मतिमान् अधर्मांश् च निराकरोत्॥२५
इति पद्मा तद् आख्यानं निशम्य मुदितानना।
प्रस्थापयामास शुकं कल्केर् आनयनादृता॥२६
भूषयित्वा स्वर्ण-रत्नैस् तम् उवाच कृताञ्जलिः॥२७
पद्मो’वाच
निवेदितं तु जानासि किम् अन्यत् कथयाम्य् अहम्।
स्त्रीभाव-भयभीतात्मा यदि नायाति स प्रभुः॥२८
तथापि मे कर्मदोषात् प्रणतिं कथयिष्यसि।
शिवेन यो वरो दत्तः स मे शापो ऽभवत् किल॥२९
पुंसां मद् दर्शनेनअपि स्त्रीभावं कामतः शुक।
श्रुत्वेति पद्माम् आमन्तृय प्रणम्य च पुनः पुनः॥३०
उड्दीय प्रययौ कीरः शम्भलं कल्कि-पालितम्।
तम् आगतं समाकर्ण्य कल्किः परपुरञ्जयः॥३१
क्रोडे कृत्वा तं ददर्श स्वर्ण-रत्न-विभूषितम्।
सानन्दं परमानन्द-दायकं प्राह तं तदा॥३२
कल्किः परम-तेजस्वी परस्मिन्नमलं शुकम्।
पूजयित्वा करे स्पृष्ट्वा पयः पानेन तर्पयन्॥३३
तन्-मुखे स्व-मुखं दत्त्वा पप्रच्छ विविधाः कथाः।
कस्माद् देशाच् चरित्वा त्वं दृष्ट्वापूर्वं किम् आगतः॥३४
कुत्रोषितः कुतो लब्धं मणि-काञ्चन-भूषणम्।
अहर्निशं त्वन् मिलनं वाञ्छितं मम सर्वतः॥३५
तवानालोकनेनअपि क्षणं मे युगवद्भवेत्॥३६
इति कल्केर् वचः श्रुत्वा प्रणिपत्य शुको भृशम्।
कथयाम् आस पद्मायाः कथाः पूर्वो’दिता यथा॥३७
संवादम् आत्मनस् तस्या निजालङ्कारधारणम्।
सर्वं तद् वर्णयाम् आस तस्याः प्रणतिपूर्वकम्॥३८
श्रुत्वेति वचनं कल्किः शुकेन सहितो मुदा।
जगाम त्वरितो ऽश्वेन शिव-दत्तेन तन्मनाः॥३९
समुद्र-पारम् अमलं सिंहलं जलसंकुलम् ।
नाना-विमान-बहुलं भास्वरं मणि-काञ्चनैः॥४०
प्रासादसदनाग्रेषु पताका-तोरणाकुलम्।
श्रेणी-सभा-पणाट्ताल-पुर-गोपुर-मण्दितम्॥४१
पुरस्त्री-पद्मिनी-पद्मगन्धा-मोद-द्विरेफिणीम्।
पुरीं कारुमतीं तत्र ददर्श पुरतः स्थिताम्॥४२
मराल-जाल-सञ्चाल-विलोल-कमलान्तराम्।
उन्मीलितअब्ज-मालालि-कलिताकुलितं सरः॥४३
लजकुक्कुट-दात्यूह-नीदितं हंस-सारसैः।
ददर्श स्वच्छ-पथसां लहरीलोलवीजितम्॥४४
वनं कदम्ब-कुद्दाल-शाल-तालआम्र-केसरैः।
कपित्थअश्वत्थ-खर्जूर-बीजपूर-करंजकैः॥४५
पुन्नाग-पनसैर् नागरङ्गैर् अर्जन-शिंशपैः ।
क्रमुकैर् नारिकेलैश् च नाना-वृक्षैश् च शोभितम् ।
वनं ददर्श रुचिरं फल-पुष्प-दलआवृतम्॥४६
दृष्ट्वा हृष्ट-तनुः शुकं सकरुणः कल्किः पुरान्ते वने।
प्राह प्रीतिकरं वचो ऽत्र सरसि स्नानव्यमित्यादृतः।।
तच् छ्रुत्वा विनयान्वितः प्रभुमतं यामीति पद्माश्रमं।
तत्सन्देशम् इह प्रयाणमधुना गत्वा स कीरोऽवदत्॥४७
इति श्री-कल्कि-पुराणे ऽनुभागवते भविष्ये द्वितीयांशे कल्केर् आगमनवर्णनं नाम प्रथमो ऽध्यायः॥
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