श्री कल्कि पुराण पाँचवाँ अध्याय हिंदी से संस्कृत
शूक उवाच
गते बहुतिथे काले पद्मां वीक्ष्य बृहद्रथः ।
निरूढ-यौवनां पुत्रीं विस्मितः पाप-शङ्कया॥१
शुक ने कहा- 'बहुत समय बीतने पर अपनी पुत्री पद्मावती को यौवनावस्था में प्राप्त होते देख कर बृहद्रथराज पाप की शंका से चिन्तित हो गए। राजा ने अपनी रानी कौमुदी से कहा- हे सुभगे, पद्मा के विवाह के लिए उत्तम कुल में उत्पन्न किस शीलवान् राजा को स्वीकार करूँ ? उस देवी कौमुदी ने अपनी पति से शिवजी द्वारा कहे गए वचन को कहा कि इस के पति भगवान् विष्णु होंगे, इसमें संशय नहीं है।
रानी के ये वचन सुनकर राजा ने प्रश्न किया - सब के हृदयों में वास करने वाले विष्णु भगवान् इस कन्या के साथ पाणिग्रहण कब करेंगे? हे कौमुदी, मेरा ऐसा कोई भाग्य उदय नहीं हुआ है कि जिससे वेदवती के पिता तपस्वी मुनि की भाँति स्वयंवर सभा में भगवान् विष्णु को दामाद के रूप में वरण कर सकूँ। देवासुर संग्राम में समुद्र मन्थन से पैदा हुई पद्मा (लक्ष्मी) की भाँति भगवान् विष्णु इस स्वयंवरा पद्मावती को ग्रहण कर लें, ऐसा प्रयत्न मैं करूँगा।
यह विचार कर राजा बृहद्रथ ने गुण-शील वाले, तरुण आयु वाले, रूपवान्, विद्वान एवं धनवान राजाओं को सम्मान सहित निमन्त्रित किया। सिंहल देश में पद्मा के स्वयंवर के लिए अनेक प्रकार के मंगल आयोजन होने लगे। राजाओं के निवास के लिए विचारकर उपयुक्त स्थान सज्जित किया जाने लगा (और) विवाह के लिए निश्चय करने वाले समस्त राजा सोने और रत्न आदि के आभूषणों से सज-धज कर अपनी सेना सहित सिंहल देश में आने लगे। वे महाबलवान् राजागण रथ, हाथी और घोड़ों पर सवार हो कर वहाँ उपस्थित हुए। सफेद छत्रों से उन पर छाया की गई और सफेद चॅवरों से उन पर हवा की गई। शस्त्र और अस्त्रों के तेज से दमकते हुए राजागण इन्द्रसहित देवतागण की भाँति प्रतीत हुए। रूचिराश्व, सुकर्मा, मदिराक्ष, दृढ़ाशुग, कृष्णसार, पारद, जीमूत, क्रूरमर्दन, काश, कुशाम्बु, वसुमान, कंक, क्रथन, संजय, गुरुमित्र, प्रमाथी, विजृम्भ, सृजय, अक्षम तथा अन्य बहुत पराक्रमवाले राजागण सिंहल देश में इकट्ठे हुए। विचित्र माला और वस्त्रों को धारण कर, गाने-बजाने में संहृष्ट (मस्त) राजा लोग रंगभूमि में पधारे। आदर सहित पूजे जाने पर वे अपने-अपने आसनों पर बैठे।
नाना प्रकार के भोग और सुखों से आसक्त, रमणीय चरित्र वाले और सबको प्रसन्न करने वाले राजागण को देख कर राजा बृहद्रथ ने श्रेष्ठ वर का वरण करने वाली अपनी कन्या को (स्वयंवर-स्थल में) बुलाया। गौरी, चन्द्रमुखी, श्यामा, रमणीय हार से शोभित और मणि, मोती, मूँगों के सब अलंकारों से शोभित पद्मावती, क्या महामोहमयी माया है या स्वयं कामदेव की प्रिया पृथ्वी पर आई है! मैं तो स्वर्गलोक, मृत्युलोक, पाताल लोक - सभी जगह जाता हूँ, किन्तु मैंने पद्मावती की भाँति रूप और सुन्दरता से सम्पन्न ऐसी दूसरी कन्या नहीं देखी। ऐसा सभी राजागण सोच रहे थे। पद्मावती के पीछे अनेक दासियाँ थीं और वह सखियों से घिरी हुई थी। नगर के बाहर द्वारपालगण हाथों में बेत लिए अन्तःपुर की देख-रेख कर रहे थे। बन्दीगण आगे खड़े थे। राजकुमारी ने वहाँ धीरे-धीरे प्रवेश किया।
घुँघरुओं और किंकिणी की संसार को मोह लेने वाली ध्वनि करती हुई, वहाँ पधारे हुए राजाओं के कुलों के बहुत से शील तथा गुणों को सुनती हुई, हंस जैसी चालवाली, रत्नों की माला हाथ में लिए हुए, सुंदर अंगों को चलायमान करती हुई।
पद्मा देवी स्वयंवर में
और कटाक्ष से देखती हुई, चंचल कुंडलों वाली, केशों के समूह के हिलने से गर्दन की अपूर्व शोभा दिखाने वाली, सुन्दर मुस्कान वाली, खिले हुए मुख वाली और दाँतों की चमक वाली, वेदी के समान मध्य अंग (कमर) में लाल और रेशमी वस्त्रोंवाली, कोयल जैसी मीठे बोल वाली, अपने रूप और सुन्दरता से तीनों लोकों को मुग्ध करने वाली, ऐसी - मन को मोहने वाली कामिनी (राजकुमारी पद्मावती) को आया हुआ देखकर समस्त राजा कामदेव के वश में विह्वलचित्त हो गए अर्थात् ठगे-से रह गए और उनके वस्त्र, शस्त्र आदि (और वे स्वयं) पृथ्वी पर गिरने लगे। काम-विमोहित हो कर, वासनामय दृष्टि से देखने पर और वैसा स्मरण करने से उनका रूप सुन्दर अंगों वाली स्त्री का हो गया। ये स्त्रियाँ बड़े नितम्बवाली, स्तनों के भार से झुकी, सुन्दर कमर वाली थीं। विलासयुक्त हँसी वाली, व्यसन की चतुराई वाली, सुन्दर मुख वाली और कमल जैसे नेत्रों वाली स्त्री रूप में अपने को देखकर राजागण सहर्ष सहेली के वेश में पद्मा जी के पीछे चलने लगे।
पद्मा जी के विवाह का उत्सव देखने के लिए उत्सुक मैं निकट के एक वट के वृक्ष पर बैठा था। राजाओं ने स्त्री रूप धारण किया, यह दृश्य देखकर पद्मा जी हृदय में बहुत शोक व विलाप करने लगीं। मैं उन के विलाप को सुनने के लिए बैठा रहा। हे संसार के स्वामिन् ! मंगलमय विवाहोत्सव के इस प्रकार समाप्त हो जाने पर पद्मावती मन में शरणागत की रक्षा करने वाले शिव जी का ध्यान कर जैसी दुःखी हुईं, मैंने उसे सुना है। हे कल्कि जी, उस करुणा से भरे विलाप की कथा को आप सुनिए। पद्मावती ने देखा कि सभी राजागण उनको देख कर हाथी, घोड़े, रथों को छोड़ कर स्त्री रूप धारण करते हुए सहेली बन उनके साथ-साथ चलने लगे। पद्मा जी यह दृश्य देखकर दीन भाव से आभूषणों को उतार कर पाँव की उंगली से पृथ्वी को कुरेदने लगीं। फिर पद्मा जी महादेव जी के वरदान को सफल करने की इच्छा से संसार के स्वामी श्री हरि भगवान् का पति भाव से ध्यान करने लगीं।'
श्री कल्कि पुराण पाँचवाँ अध्याय संस्कृत में
शूक उवाच
गते बहुतिथे काले पद्मां वीक्ष्य बृहद्रथः ।
निरूढ-यौवनां पुत्रीं विस्मितः पाप-शङ्कया॥१
कौमुदीं प्राह महिषीं पद्मो’द्वाहे ऽत्र कं नृपम् ।
वरयिष्यामि सुभगे! कुल-शील-समन्वितम्॥२
सा तम् आह पतिं देवी शिवेन प्रति भाषितम् ।
विष्णुरस्याः पतिर् इति भविष्यति न संशयः॥३
इति तस्यावचः श्रुत्वा राजा प्राह कदे’ति ताम् ।
विष्नुः सर्वगुहावासः पाणिमस्या ग्रहीष्यति॥४
न मे भाग्योओदयः कश्चिद् येन जामातरं हरिम् ।
वरयिष्यामि कन्यार्थे वेदवत्या मुनेर् यथा॥५
इमां स्वयंवरां पद्मां पद्माम् इव महोदधेः ।
मथने ऽसुर-देवानां तथा विष्णुर् ग्रहीष्यति॥६
इति भूप-गणान् भूपः समाह्वय पुरस्कृतान् ।
गुण-शील-वयोरूप-विद्याद्रविण-संवृतान्॥७
स्वयंवरार्थं पद्मायाः सिंहले बहु-मङ्गले ।
विचार्य कारयामास स्थानं भूपनिवेशनाम्॥८
तत्रायाता नृपाः सर्वे विवाहकृतनिश्चयाः ।
निज-सैन्यैः परि-वृताः स्वर्ण-रत्न-विभूषिताः॥९
रथान् गजान् अश्व-वरान् समारूढा महाबलाः ।
श्वेतच्-छत्रकृतच्-छायाः श्वेतचामर-वीजिताः॥१०
शस्त्रअस्त्र-तेजसा दीप्ता देवाख् सेन्द्रा इव अभवन् ।
रुचिराश्वः सु-कर्मा च मदिराक्षो दृढाशुगः॥११
कृष्णसारः पारदश् च जीमूतः क्रूरमर्दनः ।
काशः कुशाम्बुर् वसुमान् कङ्कः कथन-सञ्जयाव्॥१२
गुरु-मित्रः प्रमाथी च विजृम्भः सृञ्जयो ऽक्षमः ।
एते चान्ये च बहवः समायाता महाबलाः॥१३
विविशुस्ते रङ्गगताः स्व-स्वस्थानेषु पूजिताः ।
वान्द्यताण्डव-संहृष्टाश् चित्रमाल्याम्बराधराः॥१४
नाना-भोग-सुखो’द्रिक्ताः कामरामा रतिप्रदाः ।
तानालोक्य सिंहलेशः सुआं कन्यां वरवर्निनीम्॥१५
गौरीं चन्द्राननां श्यामां तारहारविभूषिताम् ।
मणिमुक्ताप्रवालैश् च सर्वअङ्गअलंकृतां शुभाम्॥१६
किं मायां मोहजननीं किं वा कामप्रियां भुवि ।
रूप-लावण्य-सम्पत्त्या न चअन्याम् इह दृष्टवान्॥१७
स्वर्गे क्षितौ वा पाताले ऽप्य् अहं सर्वत्रगो यदि ।
पश्चाद्-दासी-गणाकीर्णां सखीभिः परिवारिताम्॥१८
दैवारिकैर् वेत्रहस्तैः शासितान्तः पुराद्बहिः ।
पुरोबन्दि-गणाकीर्णां प्रापयामास तां शनैः॥१९
नूपुरैः किङ्किणीभिश् च क्वणन्तीं जनमोहिनीम् ।
स्वागतानां नृपाणाञ् च कुल-शील- गुणान् भहून्॥२०
शृण्वन्ती हंसगमना रत्न-माला-करग्रहा ।
रुचिराअपाङ्ग-भङ्गेन प्रेक्षन्ती लोल-कुण्डला॥२१
नृत्यत्-कुन्तलसोपान-गण्ड-मण्डल-मण्दिता ।
किञ्चित् स्मेरो’ल्-लसद्-वक्त्र-दशनद्योतदीपिता॥२२
वेदी-मध्यारुणक्षौम-वसना कोकिल-स्वना ।
रूप-लावण्य-पण्येन क्रेतुकामा जगत्-त्रयम्॥२३
समागतां तां प्रसमीक्ष्य बूपाः संमोहिनीं कामविमूढचित्ताः ।
पेतुः क्षितौ विस्मृतवस्त्र-शस्त्राः रथअश्वमत्तद्विपवाहनास्ते॥२४
तस्याः स्मरक्षोभनिरीक्षणेन स्त्रियो बभूवुः कमनीयरूपाख् ।
बृहन्-नितम्ब-स्तनभारनम्राः सुमध्यमास्-तत्स्मृतिजानरूपाख्॥२५
विलासहासव्यसनातिचित्राः कान्ताननाः शोण-सरोज-नेत्राः ।
स्त्री-रूपमात्मानमवेक्ष्य भूपास् ताम् अन्व्-अगच्छन्विशदानुवृत्त्या॥२६
अहं वटस्थः परिधर्षितात्मा पद्मा-विवाहो’त्सव-दर्शनाकुलः ।
तस्या वचो ऽन्तर्-हृदि दुःखितायाः श्रोतुं स्थितः स्त्रीत्वामितेषु तेषु॥२७
जहीहि कल्के चमलाविलापं श्रुतं विचित्रं जगताम् अदीश ।
गते विवाहो’त्सव-मङ्गले सा शिवं शरण्यं हृदये निधाय॥२८
तान् दृष्ट्वा नृपतीन् गजअश्व-रथिभिस् त्यक्तान् सखित्वं गतान् ।
स्त्रीभावेन समन्विताननुगतान् पद्मां विलोक्यान्तिके
दीना त्यक्त-विभूषणा विलिखती पदाङ्गुलैः कामिनी ।
ईशं कर्तुं निज-नाथम् ईश्वर-वचस् तथ्यं हरिं सा ऽस्मरत्॥२९
इति श्री-कल्कि-पुराणे ऽनुभागवते भविष्ये पद्मा-स्वयंवरे भूपतीनां स्त्रीत्वकथनं-नाम-पञ्चमो ऽध्यायः॥५
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