श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \तीसरा अध्याय | Shri Kalki Puran Third Part \Third Chapter

श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \तीसरा अध्याय हिंदी से संस्कृत में

सूत उवाच

सुस्वागतान् मुनीन् दृष्ट्वा कल्किः परम-धर्म-वित्।
पूजयित्वा च विधिवत् सुखासीना’नुवाच तान्॥१

सूत जी बोले- परम धार्मिक कल्कि जी ने आनन्दपूर्वक आए हुए और आराम से बैठे हुए मुनियों को देखकर उनकी विधिपूर्वक पूजा करके कहा- साक्षात् सूर्य के समान तेजस्वी, तीर्थ यात्रा के लिए तैयार, तीनों लोकों की भलाई करने वाले आप कौन हैं ? आज आप लोग हमारे भाग्य से ही यहाँ उपस्थित हुए हैं। आज मैं इस संसार में पुण्यवान्, भाग्यवान् और यशस्वी हुआ हूँ, क्योंकि आप लोगों ने आज मुझे कृपापूर्ण नेत्रों से देखा है।इसके बाद, वामदेव, अत्रि, वसिष्ठ, गालव, भृगु, पराशर, नारद, अश्वत्थामा, परशुराम, कृपाचार्य, त्रित, दुर्वासा, देवल, कण्व, वेदप्रमिति और अंगिरा आदि सभी मुनिगण तथा अन्यान्य महाव्रत धारण करने वाले ऋषिगण, चन्द्र और सूर्यकुल में उत्पन्न, महावीर्यवान् सदैव तपस्या में लगे महाराज मरू और देवापि को सामने कर (मुनि लोग) पापों का नाश करने वाले कल्कि जी से ऐसे ही बोले जैसे प्रसन्नचित्त देवता लोग महासागर के तट पर स्थित विष्णु जी से बोले थे।


मुनिगण बोले- 'हे समस्त संसार के विजेता, हे जगन्नाथ, हे समस्त लोकों के अन्तःकरण को जानने वाले, हे सृष्टि की स्थिति और प्रलय के स्वामी, हे परमात्मन् आप प्रसन्न होवें। हे पद्मा जी के स्वामी, आप काल-स्वरूप हैं। संसार के गुण और कर्म आप में ही रहते हैं। ब्रह्मा आदि देवतागण भी आपके कमल के समान चरणों की पूजा करते हैं। आप इस समय हमसे प्रसन्न होवें।' इस प्रकार मुनियों के वचन सुनकर संसार के स्वामी कल्कि जी बोले- 'हे मुनियो ! आप लोगों के सामने ये दो महाबलवान्, पराक्रमी और तपस्वी लोग कौन हैं? ये दोनों लोग गंगा जी की स्तुति कर प्रसन्नचित यहाँ किस कारण आए हैं ? तथा (श्री कल्कि ने उन दोनों से पूछा कि) आप किस कारण गंगा जी की स्तुति करते हैं और आपके नाम क्या हैं ?'

तब उन दोनों महाशयों में से एक, मरु प्रसन्न होकर, हाथ जोड़कर सामने खड़े होकर विनम्र वाणी में अपने वंश की कीर्ति का वर्णन करने लगे- 'आप सर्वव्यापी, परमात्मा और अन्तर्यामी हैं, हे प्रभो! आप तो सब कुछ जानते हैं। आपकी आज्ञा से सबकुछ बताता हूँ। आप सुनिए। आपकी नाभि से ब्रह्मा उत्पन्न हुए। ब्रह्मा के पुत्र मरीचि, मरीचि के मनु और मनु के सत्य पराक्रमी इक्ष्वाकु उत्पन्न हुए थे। इक्ष्वाकु के पुत्र युवनाश्व, युवनाश्व के पुत्र मान्धाता, मान्धाता के पुत्र पुरुकुत्स हुए पुरुकुत्स के पुत्र बुद्धिमान् अनरण्य पैदा हुए। अनरण्य के पुत्र त्रसदस्यु, उनके हर्यश्व, के पुत्र अरुण हुए। अरुण के पुत्र बुद्धिमान् त्रिशंकु और त्रिशंकु के प्रतापवान् महाराजा हरिश्चन्द्र हुए थे। महाराजा हरिश्चन्द्र के पुत्र हरित (हरीत या रोहित), हरित के पुत्र भरुक, भरुक के पुत्र वृक् (या रुरूक), वृक् के पुत्र सगर और सगर के पुत्र असमञ्जस और असमञ्जस के पुत्र अंशुमान हुए। अंशुमान के पुत्र दिलीप और दिलीप के भगीरथ नामक प्रसिद्ध पुत्र थे। वे (भगीरथ) ही गंगा को लाए थे। इसी कारण गंगा जी भागीरथी नाम से प्रसिद्ध हुई। आपके चरणों से उत्पन्न होने के कारण संसार के लोग इनकी स्तुति, प्रणाम और पूजा करते हैं। भगीरथी के पुत्र नाभ (या नाभाग), नाभ के पुत्र बलवान् सन्धुद्वीप हुए और सिन्धुद्वीप के अयुताश्व ने जन्म लिया। 

अयुताश्व के पुत्र ऋतुपर्ण, ऋतुपर्ण के पुत्र सुदास, सुदास के पुत्र सौदास, सौदास के पुत्र बुद्धिमान् अश्मक हुए। अश्मक के पुत्र मूलक, मूलक के पुत्र दशरथ (प्रथम) हुए और दशरथ के एडविड ने जन्म लिया। एडविड के पुत्र विश्वासह, विश्वासह के पुत्र खट्वांग और खट्वांग के पुत्र दीर्घबाहु थे। दीर्घबाहु के पुत्र रघु, रघु के पुत्र अज, अज के पुत्र दशरथ (द्वितीय) हुए। दशरथ से साक्षात् संसार के स्वामी अवतार रूप में श्रीराम ने जन्म लिया।' रामावतार की कथा सुनकर कल्कि जी अत्यन्त प्रसन्न हुए और श्रीराम-चरित्र का विस्तार से वर्णन करने के लिए मरु से कहा। मरु ने कहा- 'इस पृथ्वी में ऐसा कौन है, जो सीता जी के पति श्री रामचन्द्र जी के कर्मों का वर्णन कर सके। हज़ार मुख वाले अनन्त जी भी उनके यश का गुणगान करने में असमर्थ हैं, फिर भी आप की आज्ञा से अपनी बुद्धि के अनुसार पाप-ताप को नाश करने वाले श्री रामचन्द्र जी के पावन चरित का वर्णन करता हूँ। प्राचीन समय में ब्रह्मा आदि देवताओं द्वारा (राक्षसों के विनाश के लिए) प्रार्थना किए जाने पर सूर्यवंश में राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, इन चार अंशों के रूप में, अज-पुत्र दशरथ जी के यहाँ, राक्षसों का नाश करने वाले, जानकी जी के पति श्री रामचन्द्र जी ने अवतार लिया था।

राम दरबार

उन्होंने शैशवास्था में ऋषि विश्वामित्र के यज्ञ में विघ्न डालने वाले राक्षसों को अपने बल से नष्ट कर श्रेष्ठता को सिद्ध किया। जिनकी कृपा से इच्छाओं वाले संसार में पुनर्जन्म नहीं होता, जो महाबलवान् और प्रभा वाले हैं, ऐसे समस्त शस्त्र विद्याओं में पारंगत श्री रामचन्द्र जी संसार को मोहने वाला और काम को भी लजाने वाला सुन्दर रूप धारण कर अपने छोटे भाई सहित मुनि (विश्वामित्र) के साथ राजा जनक की सभा में गए। (ब्रह्मा जी के पीछे) सुशोभित चन्द्रमा की भाँति अनुपम तेजस्वी श्री रामचन्द्र जी अपने छोटे भाई (लक्ष्मण) सहित विश्वामित्र मुनि के पीछे विधिपूर्वक बैठे, आदि देव परमात्मा को सामने देख कर राजा जनक जी ने सोचा कि ये जानकी के योग्य वर हैं और अपने प्रण की कठोरता को समझ कर मन-ही-मन अपनी भर्त्सना की और श्री रामचन्द्र जी के पास गए। श्री रामचन्द्र जी ने राजा जनक का सम्मान पाकर और सीता जी की चितवन से सत्कार पाकर, अत्यन्त कठोर धनुष को हाथ में लेकर उसके दो टुकड़े कर दिए। इससे 'श्री रामचन्द्र की जय', 'श्री रामचन्द्र की जय' की ऊँची ध्वनि हुई, जो तीनों लोकों में फैल गई। (इस प्रकार) श्री रामचन्द्र जी अति शोभित हुए।

इसके बाद राजा जनक ने दशरथ जी के चार पुत्रों को यानी राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न को अपनी अलंकृत चार पुत्रियों का यानी क्रमशः सीता, उर्मिला, माण्डवी और श्रुतिकीर्ति का प्रसन्नतापूर्वक कन्यादान कर दिया। जब सब लोग आनन्दपूर्वक विवाह करके अवधपुरी को जा रहे थे, तब रास्ते में भृगुपुत्र परशुराम जी ने श्री रामचन्द्र जी पर अपनी असीम वीरता दर्शायी। इसके बाद राजा दशरथ जी ने अपनी राजधानी अयोध्या में पहुँचने पर मंत्रियों से सलाह की और सीतापति श्री रामचन्द्र जी को अपने विचित्र सिंहासन पर अभिषिक्त करने का विचार किया। राज्याभिषेक (श्री रामचन्द्र जी को गद्दी पर बैठाने) की सभी तैयारियाँ होने लगीं। परिजन लोग (सेवक आदि) अभिषेक का सामान इकट्ठा करने लगे। तभी कैकेयी ने आकर राज्याभिषेक करने के लिए तत्पर राजा दशरथ जी को रोका।

इसके बाद, अपने पिता की आज्ञानुसार श्री रामचन्द्र जी सुमित्रा के पुत्र अर्थात् अपने छोटे भाई लक्ष्मण और जानकी जी के सहित वन को गए। साथ-साथ चलने वाले नगर निवासियों को छोड़कर फिर भगवान् राम गुह के घर पहुँचे और वहाँ (उन्होंने) राज-चिह्नों (राजकीय वस्त्राभूषण) को हटाकर जटा-वल्कल (जटा का अर्थ बाल और वल्कल का अर्थ पेड़ की छाल से बने वस्त्र है) धारण कर लिए।

जंगल में अपनी पत्नी और छोटे भाई सहित श्री रामचन्द्र मुनिवेश में (सभी लोगों द्वारा) पूजे जाने लगे और पंचवटी आश्रम में रहने लगे। इसके बाद भरत जी दुःखी होकर उनके पास आए। श्री रामचन्द्र जी अपने पिता की मृत्यु का समाचार सुनकर दुःखी हुए। भरत जी को समझाया। उसके बाद अनेक वर्ष तपोवन में बिताए। इसके बाद, कामदेव के बाण से पीड़ित, श्रेष्ठ वेश वाली, सुन्दरी, हंसी-मजाक करती हुई, वराभिलाषी, रावण की बहन शूर्पणखा को देखकर श्री रामचन्द्र जी ने लक्ष्मण जी को इशारा किया और लक्ष्मण जी ने तेज़ तलवार से उस राक्षसी को कुरूप कर दिया। इसके बाद (श्री रामचन्द्र जी ने रास्ते में एक दानव को नष्ट कर, रावण के अनुगामी चौदह हजार सेना के स्वामी खर-दूषण को उसके सेवकों सहित नष्ट किया। इसके उपरान्त (अपनी प्रिय) सीता जी की प्रिय इच्छा के अनुसार सोने के चंचल हिरण (रूपी राक्षस) को मार डाला।

इसके बाद में राम को (सोने के हिरण के रूप में राक्षस का पीछा करते हुए) व लक्ष्मण को जाते हुए देखकर, रावण ने शीघ्रतापूर्वक श्री राम के आश्रम से सीता का हरण कर लिया। अपनी घास-फूस की बनी कुटिया में सीता जी को न देखकर 'हा सीते ! हा सीते !' विलाप करते हुए श्री रामचन्द्र जी मूच्छित हो गए। इसके बाद, वन में ऋषियों के आश्रमों, पहाड़ों की गुफाओं, जल-स्थानों और जोहड़ों अर्थात् सभी स्थानों में सीता जी को ढूँढ़ते हुए रास्ते में उन्होंने अधमरे-से जटायु को पड़ा हुआ देखा। उस जटायु से रावण द्वारा सीता जी को हरण किए जाने का समाचार सुना। जटायु की मृत्यु होने पर श्री रामचन्द्र जी ने पितृतुल्य उसका अन्तिम (अग्नि) संस्कार किया। सीता जी के वियोग से दुःखी धनुर्धरों में अग्रणी श्री रामचन्द्र जी ने श्री लक्ष्मण जी के साथ ऋष्यमूक पर्वत पर नव-परिचय प्राप्त वानरों की सेना को देखा और सूर्यपुत्र बलि के छोटे भाई सुग्रीव के मंत्री, पवन पुत्र (श्री हनुमान जी) से मिले। फिर सुग्रीव और हनुमान जी द्वारा प्रार्थना किए जाने पर श्री रामचन्द्र जी ने सप्त ताल को भेद डाला और बाण से बालि को मार कर सुग्रीव से मित्रता की और उन्हें वानरों का राजा बनाया।

इसके बाद, पवन पुत्र हनुमान जी सीता जी को ढूँढ़ते हुए सम्पाति (जटायु के बड़े भाई) के कहने के अनुसार समुद्र को पार कर लंकापुरी में प्रवेश करके अशोक वन में सीता जी के साथ बातचीत करके उन्हें आनन्द दिया और तब श्री रामचन्द्र जी के पास आए। यह जानकर कि हनुमान जी ने अपनी शक्ति से अनेक राक्षसों का नाश किया है
और लंका को जलाया है, श्री रामचन्द्र जी ने समुद्र को भयभीत कर (या समुद्र की सलाह से) पर्वतों-शिलाओं से समुद्र को बाँध कर बन्दरों के समूह के साथ लंका को प्रस्थान किया और क्रोधित होकर राक्षसों के स्वामी रावण के नगर, प्राचीर आदि का विनाश कर डाला। इसके बाद लक्ष्मण जी सहित भगवान् राम युद्ध में प्रबल व भयंकर धनुष को धारण कर, तेज बाणों सहित, हाथी, घोड़े और रथ से युक्त और काल की जीभ जैसी भयंकर तलवार से राक्षसों का नाश करके शोभित हुए।

इसके बाद, वानरों के राजा सुग्रीव, पवनसुत हनुमान जी, नल, अंगद, ऋक्ष जामवन्त आदि महाबलवान (ऋक्ष और) वानरों ने वृक्षों और पर्वतों की भयंकर चोट से महाबली, पराक्रमी, देवताओं के वैरी रावण के सेवक राक्षसों का नाश किया। ये राक्षस जानकी जी के क्रोध से पहले ही नष्ट हो रहे थे। फिर, अति बलवान् लक्ष्मण जी ने घनघोर शब्द करने वाले और रक्त पीने वाले सेवकों से घिरे हुए देवशत्रु, रावण- पुत्र (इन्द्रजीत) मेघनाथ का वध किया। इसके बाद क्रोधित होकर (उन्होंने) निकुम्भ, मकराक्ष और विकटादि राक्षसों को भी मार डाला।

इसके बाद, रावण ने भी करोड़ों हाथियों, रथों और घोड़ों पर सवार तथा पैदल सेनाओं के साथ युद्ध स्थल में जाकर, वानर सेना के स्वामी सुग्रीव के प्रभु अनन्त दिव्य अस्त्रों के धारण करने वाले श्री रामचन्द्र जी के पास आकर युद्ध करना शुरू किया। रघुवीर श्री रामचन्द्र जी ने ब्रह्मा जी के वर से जिस रावण को खुशहाली प्राप्त हुई थी और जो महाबली और पराक्रमी था और युद्ध भूमि में जो पहाड़ की तरह अविचल था, राक्षसों के सेनापति उस शत्रु रावण को और (उसके भाई) कुम्भकर्ण को तीक्ष्ण बाणों से बेध डाला।

इसके बाद श्री राम और रावण ने आपस में तीक्ष्ण बाण चलाए, जिनसे बादलों की घटा के समान पूरा आकाश ढक गया। बाणों के आपस में टकराने से आवाजें हुई और (टकराव से) आग की चिंगारियाँ निकलने लगीं। (उन चिंगारियों के निकलने से) बिजली के चमकने जैसी शोभा दिखाई दी। धनुषों की टंकार ऐसी थी, मानों सारी पृथ्वी पर बिजली कड़क रही हो। उससे युद्ध भूमि बहुत भयंकर मालूम होने लगी। वह रावण, जिससे इन्द्र तक भयभीत होता था, सीता जी के क्रोध से व्याप्त तथा श्री रामचन्द्र जी के आग उगलने वाले अस्त्रों से भस्म होकर भूमि पर गिर पड़ा। रावण के मारे जाने पर वानरों में श्रेष्ठ हनुमान जी ने अग्नि द्वारा शुद्ध और पवित्र की गई (या अग्नि से भी जो जलाई नहीं जा सकी) ऐसी जानकी जी को श्री रामचन्द्र जी को समर्पित किया और श्री रामचन्द्र जी प्रसन्न होकर अपनी पुरी को गए।

इसके बाद, देवताओं के राजा इन्द्र के कहने के अनुसार श्री रामचन्द्र जी ने तुरन्त विभीषण को (जो अब भयरहित और शान्त था) राजगद्दी पर बैठाया। वानरों (के राजाओं) से घिरे हुए, सीता जी तथा लक्ष्मण जी सहित, श्री रामचन्द्र जी अत्यन्त सुन्दर शोभायमान पुष्पक विमान पर चढ़कर अयोध्या पुरी आए। मार्ग में आते हुए बीच जंगल में घुसते समय भगवान् राम अपना मुनिवेश और गुह की मित्रता को याद करने लगे, तभी श्रेष्ठ मुनियों ने आकर उनकी पूजा की। इसके उपरान्त, अपने लोगों से घिरे हुए श्री रामचन्द्र जी ने भरत की दुःखी माता (कैकयी) (या दुःखी भरत को) को ढाढस बंधाया और माताओं की आज्ञानुसार पिता के सिंहासन पर बैठे।

वशिष्ठ आदि श्रेष्ठ ऋषियों ने उनका राज्याभिषेक किया (गद्दी पर बैठाया। इसके बाद, वे (सब लोकों के स्वामी जन पालक श्रीराम) देवताओं के राजा इन्द्र के समान समस्त लोकों के पालन करने वाले रूप में शोभित हुए। उनकी प्रजा बहुत-से धन वाली हो गई और ब्राह्मण लोग तप में लग गए। सब लोग परस्पर प्रीति भाव रखकर, भय-रहित होकर अपने-अपने धर्म के कार्यों में लग गए। समय पर बादल बरसने लगे, जिस से पृथ्वी सदा हरित (हरी- भरी) हुई। महान् बलवान् पराक्रमी श्री रामचन्द्र जी के राज्यकाल में सारा संसार अच्छे मार्ग पर चलने लगा। इस प्रकार दस हज़ार वर्ष तक श्री रामचन्द्र जी ने अपने अनेक गुणों से प्रजा को प्रसन्न रखते हुए अपना मनोरथ पूरा करके अपनी प्रिय जानकी जी के मन को आनन्दित किया। महामुनियों के सहित तीन अश्वमेध यज्ञ भी बिना बाधा के पूरे किए और अनेक दक्षिणा व दान और यज्ञों द्वारा देवताओं को संतुष्ट किया।

इसके बाद श्री रामचन्द्र जी ने किसी कारणवश निर्दय चित्त (करके) जानकी जी को (परित्याग कर) जंगल में छोड़ दिया। फिर, प्रचेता-पुत्र दयालु वाल्मीकि जी ने अपनी बनाई हुई रामायण को याद किया और दुःखी चित्त से श्री रामचन्द्र जी की परम प्रिय जानकी जी को अपने आश्रम ले गए। पृथ्वी की पुत्री जानकी जी से कुश और लव नाम के दो महाबलवान् पराक्रमी पुत्र पैदा हुए। इन दो राजकुमारों ने श्री रामचन्द्र जी के पास जाकर उनकी कीर्ति का गायन किया। मुनिवर श्री वाल्मीकि जी ने इन दोनों पुत्रों के सहित निन्दारहित, देवताओं द्वारा पूजी गई सीता जी को श्री रामचन्द्र जी को समर्पित किया।

इसके उपरान्त श्री रामचन्द्र जी ने अपने सामने पुत्रों सहित उपस्थित रोती हुई जानकी जी से कहा- तुम अपनी शुद्धि के लिए फिर अग्नि में प्रवेश करो। श्री रामचन्द्र जी का यह वाक्य सुनकर सीता जी उनके कमल रूपी चरणों में प्रणाम करती हुई अपनी माता पृथ्वी के साथ मणियों के समूह के समान उज्ज्वल पाताल में प्रवेश कर गईं।श्री रामचन्द्र जी जानकी जी के इस प्रकार पाताल में प्रवेश को याद करते हुए गुरु वशिष्ठ, छोटे भाइयों, परिजनों तथा पशुओं सहित प्रसन्न चित्त सरयू नदी के जल को छूकर सुन्दर विमान में बैठकर वैकुण्ठ धाम को चले गए। श्री रामचन्द्र जी के इस चरित्र को, जो कानों के लिए अमृत के समान है, आदर से सुनेंगे, श्री रामचन्द्र जी की कृपा से उनकी सभी बाधाएँ दूर होंगी, रोगों की शान्ति होगी, वंश बढ़ेगा, धन और जन की सम्पत्ति और स्वर्गादि की सम्पत्ति उन्हें मिलेगी। इसके पाठ करने से अन्तःकरण में आनन्द उत्पन्न होगा और संसार-सागर सूख जाएगा और परम प्रभु का पद प्राप्त होगा।

श्री कल्कि पुराण तीसरा अंश \तीसरा अध्याय संस्कृत में

सूत उवाच

सुस्वागतान् मुनीन् दृष्ट्वा कल्किः परम-धर्म-वित्।
पूजयित्वा च विधिवत् सुखासीना’नुवाच तान्॥१

कल्किर् उवाच

के यूयं सूर्य-सङ्काशा मम भाग्यादुपस्थिताः।
तीर्थाटनोत्सुका लोक-त्रयाणाम् उपकारकाः॥२

वयं लोके पुण्यवन्तो भग्यवन्तो यशस्विनः।
यतः कृपाकटाक्षेण युष्माभिर् अवलोकिताः॥३

ततस् ते वामदेवो ऽत्रिर् वसिष्ठो गालवो भृगुः।
पराशरो नारदो ऽश्वत्थामा रामः कृपस् त्रितः॥४ 

दुर्वासा देवलः कण्वो वेदप्रमितिर् अङ्गिराः।
एते चअन्ये च बहवो मुनयः शंसित-व्रताः॥५

कृत्वाग्रे मरुदेवापी चन्द्र-सूर्य-कुलो’द्भवौ।
राजानौ तौ महावीर्यौ तपस्याअभिरतौ चिरम्॥६

ऊचुः प्रहृष्टमनसः कल्किं कल्कविनाशनम्।
महोदधेस् तीरगतं विष्णुं सुरगणा यथा॥७

मुनय ऊचुः

जयअशेष-जगन्नाथ! विदितअखिल-मानस।
सृष्टि-स्थिति-लयाध्यक्ष! परमात्मन् प्रसीद नः॥८

काल-कर्म-गुणावास प्रसारित-निज-क्रिय।
ब्रह्मादिनुतपादाब्ज! पद्मानाथ प्रसीद नः॥९

इति तेषां वचः श्रुत्वा कल्किः प्राह जगत्पतिः।
कावेतौ भवतामग्रे महासत्त्वौ तपस्विनाव्॥१०

कथमत्रागतौ स्तुत्वा गङ्गां मुदितमानसौ।
का वा स्तुतिस् तु जाह्नव्या युवयोर्नामनीचके॥११

तयोर् मरुः प्रमुदितः कृताञ्जलि-पुटः कृती।
आदाव् उवाच विनयी निज-वंशा’नुकीर्तनम्॥१२

मरुर् उवाच

सर्वं वेत्सि परात्मापि अन्तर्यामिन् हृदि स्थितः।
तवाज्ञया सर्वम् एतत् कथयामि शृणु प्रभो॥१३

तव नाभेर् अभूद् ब्रह्मा मरीचिस् तत् सुतो ऽभवत्।
ततो मनुस् तत् सुतो ऽभूद् ईक्ष्वाकुः सत्य-विक्रमः॥१४

युवनाश्व इति ख्यातो मान्धाता तत् सुतो ऽभवत्।
पुरुकुत्सस् तत् सुतो ऽभूद् अनरणिओ महामतिः १५

त्रसद्दस्युः पिता तस्माद् धर्यश्वस् तृय् अरुणस् ततः ।
त्रिशङ्कुस् तत् सुतो धीमान् हरिश् चन्द्रः प्रतापवान्॥१६

हरितस् तत् सुतस् तस्माद् भरुकस् तत् सुतो वृकः।
तत् सुतः सगरस् तस्माद् असमञ्जास् ततो ऽशुमान्॥१७

ततो दिलीपस् तत् पुत्रो भगीरथ इति स्मृतः।
येनानीता जाह्नवीयं ख्याता भगीरथी भुवि ।
स्तुता नुता पूजिते’यं तव पादम् उसद्भवा॥१८

भगीरथात् सुतस् तस्मान् नाभस् तस्माद् अभूद् बली।
सिन्धुद्वीप-सुतस् तस्माद् आयुतायुस् ततो ऽभवत्॥१९

र्तुपर्णस् तत् सुतो ऽभूत् सुदासस् तत् सुतो ऽभवत्।
सौदासस् तत् सुतो धीमान् अश्मकस् तत् सुतो मतः॥२०

मूलकात् स दसरथस् तस्माद् एडविडस् ततः।
राजा विश्वसहस् तस्मात् खट्वाङ्गो दीर्घबाहुकः॥२१

ततो रघुर् अजस् तस्मात् सुतो दशरथः कृती।
तस्माद् रामो हरिः साक्षाद् आविर्भूतो जगत्पतिः॥२२

रामावतारम् आकर्ण्य कल्किः परमहर्षितः।
मरुं प्राह विस्तरेण श्रीरामचरितं वद॥२३

सीता-पतेः कर्म वक्तुं कः समर्थो ऽस्ति भूतले।
शेषः सहस्रवदनइर् अपि लालायितो भवेत्॥२४

तथापि शेमुषी मे ऽस्ति वर्णयामि तवा’ज्ञया।
रामस्य चरितं पुण्यं पाप-ताप-प्रमोचनम्॥२५

अजादिविबुधार्थितो ऽजनि चतुर्भिर् अंशौः कुले ।
रवेर् अजसुताद् अजो जगति यातुधान-क्षयः।

शिशुः कुशिकजा-ध्वरक्षयकरक्षयो यो बलाद्।
बली ललितकन्धरो जयति जानकी-वल्लभः॥२६

मुनेर् अनुसहा’नुजो निखिल-शस्त्र-विद्या’तिगो गयावति-वन-प्रभो जनक-राज-राजत्सभाम्।
विधाय जनमोहनद्युतिमतीव कामद्रुहःप्रचणकरचण्दिमा भवनभञ्जने जन्मनः॥२७

तमः प्रतिम-तेजसं दशरथात्मजं सअनुजं मुनेर् अनु यथा विधेः शशिवदादिदेवं परम् ।
निरीक्ष्य जनको मुदा क्षिति-सुता-पतिं संमतं निजोचितपणक्षमं मनसि भर्त्सयन्न् आययौ॥२८

स भूप-परिपूजितो जनकजे’क्षितैर् अर्चितः करालकठिनं धनुः करसरोरुहे संहितं ।
विभज्य बलवद् दृढं जय रघुउद्वहे’त्य् उच्चकैर् ध्वनिं त्रिजगतीगतं परिविधाय रामो बभौ॥२९

ततो जनक-भूपतिर् दशरथात्मजेभ्यो ददौ।
चतस्र उषतीर् मुदा वरचतुर्भ्य उद्वाहने ।

स्वलंकृतनिजात्मजाः पथि ततो बलं भार्गवश् ।
चकार उररीनिजं रघुपतौ महो’ग्रं त्यजन्॥३०

ततः स्वपुरम् आगतो दशरथस् तु सीतापतिं ।
नृपं सचिवसंयुतो निज-विचित्र-सिंहासने।

विधातुम् अमलप्रभं परिजनैः कृयाकारिभिः ।
समुद्यतमतिं तदा द्रुतम् अवारयत् केकयी॥३१

ततो गुरुनिदेशतो जनक-राज-कन्यायुतः।
प्रयाणमकरोत्सुधीर्यदनुगः सुमित्रासुतः ।

वनं निजगणं त्यजन् गुह-गृहे वसन्नादरात् ।
व्सृज्य नृपलाञ् छनं रघुपतिर् जटाचीरभृत्॥३२

प्रियानुजयुतस् ततो मुनिमतो वने पूजितः।
स पञ्चवटिकाश्रमे भरतम् आतुरं संगतम्।

निवार्य मरणं पितुः सम्वधार्य दुःखातुरस्।
तपोवनगतो ऽउअसद् रघुपतिस् ततस् ताः समाः॥३३

दशाननसहोदरां विषम-बाण-वेधआतुरां।
समीक्ष्य वररूपिणीं प्रहसतीं सतीं सुन्दरीम् ।

निजाश्रयम् अभीप्सतीं जनकजापतिर् लक्ष्मणात्।
कराल-करवालतः समकरोद्विरूपां ततः॥३४

समाप्य पथि दानवं खरशरैः शनैर् नाशयन्।
चतुर्दश-सहस्रकं समहनत् खरं सअनुगम्।

दशाननवशानुगं कनकचारुचञ्चन् मृगं।
प्रियअप्रियकरो वने समवधीद् बलाद् राक्षसम्॥३५

ततो दशमुखस् त्वरंस् तम् अभिवीक्ष्य रामं रुषा ।
व्रजन्तम् अनुलक्ष्मणं जनकजा जहाराश्रमे ।

ततो रघुपतिः प्रियां दलकुटीरसंस्थापितां ।
न वीक्ष्य तु विमूर्छितो बहु विलप्य सीतेति ताम्॥३६

वने निज-गणाश्रमे नगतले जले पल्वले ।
विचित्य पतितं खगं पथि ददर्श सौमित्रिणा ।

जटायुवचनात् ततो दशमुखाहृतां जानकीं ।
विविच्य कृतवान् मृते पितरि वह्निकृत्यं प्रभुः॥३७

प्रिवा-विरह-कातरो ऽनुजपुरः सरो राघवो ।
धनुर्धरधुरन्धरो हरिबलं नवालापिनम् ।

ददर्श ऋषभाचलाद्रविजवालिराजानुज ।
प्रियं पवननन्दनं परिणतं हितं प्रेषितम्॥३८

ततस् तद् उदितम् मतं पवनपुत्रसुग्रीवयोस्।
तृणाधिपति-भेदनं निज-नृपासन-स्थापितम् ।

विविच्य व्यवसायकैर् निजसखाप्रियं वालिनं ।
निहत्य हरिभूपतिं निज-सखं स रामो ऽकरोत्॥३९

अथो’त्तरम् इमां हरिर् जनकजां समन्वेषयन् ।
जटायुसहजोदितैर्जलनिधिं तरन्वायुजः ।

दसनन-पुरं विशञ् जनकजां समानन्दयन्न् ।
अशोकवनिकाश्रमे रघुपतिं पुनः प्राययाव्॥४०

ततो हनुमता बलाद् अमितरक्षसां नाशनं ।
ज्वलज्ज्वलनसंकुलज्वलितदग्ध-लङ्का-पुरम् ।

विविच्य रघुनायको जलनिधिं रुषा शोषयन् ।
बबन्ध हरियूथपैः परिवृतो नगैर् ईश्वरः॥

बभञ्ज पुर-पत्तनं विविधसर्गदुर्गक्षमं ।
निशाचरपतेः क्रुधा रघुपतिः कृती सद्गतिः॥४१

ततो ऽनुजयुतो युधि प्रबलचण्डकोदण्डभृत् ।
शरैः खरतरैः कृधा गज-रथअश्व-हंसाकुले ।

कराल-करवालतः प्रबलकालजिह्वाग्रतो ।
निहत्य वरराक्षसान् नरपतिर् बभौ सअनुगः॥४२

ततो ऽतिबलवान् अरैर् गिरिमहीरुहो’द्यत्करैः ।
करालतरताडनैर् जनकजारुषा नाशितान् ।

निजघ्नुरमरार्दनानतिबलन्दशास्यानुगान् ।
नलाङ्गदहरीश्वर ऽशुगसुतर्क्षराजादयः॥४३

ततो ऽतिबल-लक्ष्मणस् त्रिदसनाथसत्रुंरणे ।
जघान घनघोषणानुगगणैर् असृक् प्राशनैः ।

प्रहस्त विकटादिकानपि निशाचरान् सङ्गतान् ।
निकुम्भमकराक्षकान्निशित-खड्ग-पातैः क्रुधा॥४४

ततो दशमुखो रणे गज-रथअश्वपत्तीश्वरैर् ।
अलङ्/घ्यगणकोटिभिः परिवृतो युयोधायुधैः ।

कपीश्वरचमूपतेः पतिमनन्तदिव्यायुधं ।
रघूद्वहमनिन्दितं सपदि सङ्गतो दुर्जयः॥४५

दशाननम् अरिंततो विधिवरस्मयावर्धितं ।
महाबलपराक्रमं गिरिम् इवाचलं संयुगे ।

जघान रघुनायको निशितसायकैर् उद्धतं ।
निशाचरचमूपतिं प्रबलकुम्भकर्णं ततः॥४६

तयोः खरतरैः शरैर् गगनमच्छमाच्छादितं ।
बभौ घनघटासमं मुखरमत्तडिद्वह्निभिः।

धनुर्गुणमहाशनिध्वनिभिर् आवृतं भूतलं ।
भयङ्कर-निरन्तरं रघुपतेश् च रक्षःपतेः॥४७

ततो धरणिजारुषा विविधरामबाणौजसा ।
पपात भुवि रावणस् त्रिदशनाथविद्रावणः ।

ततो ऽतिकुतुकी हरिर् ज्वलनरक्षितां जानकीं ।
समर्प्य रघुपुङ्गवे निजपुरीं ययौ हर्षितः॥४८

पुरन्दरकथादरः सपदि तत्र रक्षःपतिम् ।
बिभीषणम् अभीषणं समकरोत् ततो राघवः॥४९

हरीश्वरगणावृतो ऽवनिसुतायुतः सानुजो ।
रथे शिवसखेरिते सुविमले लसत्-पुष्पके ।

मुनीश्वरगणार्चितो रघुपतिस् त्व् अयोध्यां ययौ ।
विविच्य मुनिलाञ्छनं गुहगृहे ऽतिसख्यं स्मरन्॥५०

ततो निजगणावृतो भरतम् आतुरं सान्त्वयन् ।
स्वमातृगणवाक्यतः पितृनिजासने भूपतिः ।

वसिष्ठमुनिपुङ्गवाय्ः कृतनिजअभिषेको विभुः ।
समस्तजनपालकः सुरपतिर् यथा संबभौ॥५१

नरा बहुधनाकरा द्विजवरास् तपस् तत्पराः ।
स्वधर्मकृतनिश्चयाः स्वजनसङ्गता निर्भयाः ।

घनाः सुबहुवर्षिणो वसुमती सदा हर्षिता ।
भवत्य् अतिबले नृपे रघुपताव् अभूत् सज्जगत्॥५२

गतायुतसमाः प्रियैर् निजगुणैः प्रजा रञ्जयन् ।
निजां रघुपतिः प्रियां निज-मनोभवैर् मोहयन् ।

मुनिइन्द्र-गण-संयुतो ऽप्य् अयजद् आदि-देवान् मखैर् ।
धनैर् विपुलदक्षिणैर् अतुल-वाजि-मेघैस् त्रिभिः॥५३

ततः किमपि कारणं मनसि भावयन् भूपतिर् ।
जहौ जनकजां वने रघुवरस् तदा निर्घृणः ।

ततो निजमतं स्मरन् समनयत् प्रचेतः सुतो ।
निजाश्रमम् उदारधी रघुपतेः प्रियां दुःखिताम्॥५४

ततः कुश-लवौ सुतौ प्रसुषुवे धरित्री-सुता ।
महाबल-पराक्रमौ रघुपतेर् यशोगायनौ ।

स ताम् अपि सुतान्वितां मुनिवरस् तु रामा’न्तिके ।
समर्पयद् अनिन्दितां सुरवरैः सदा वन्दिताम्॥५५

ततो रघुपतिस् तु तां सुतयुतां रुदन्तीं पुरो ।
जगाद दहने पुनः प्रविश शोधनायात्मनः ।

इतिइरितम् अवेक्ष्य सा रघुपतेः पदाब्जे नता ।
विवेश जननीयुता मणिगणोज्ज्वलं भूतलम्॥५६

निरीक्ष्य रघुनायको जनकजाप्रयाणं स्मरन् ।
वसिष्ठ-गुरु-योगतो ऽनुज-युतो ऽगमत् स्वं पदम् ।

पुरः स्थितजनैः सुअकैः पशुभिर् ईश्वरः संस्पृशन् ।
मुदा सरयुजीवनं रथ-वरैः परीतो विभुः॥५७

ये शृण्वन्ति रघूद्वहस्य चरितं कर्नामृतं सादरात् ।
संसारअर्णव-शोषणञ् च पठताम् आमोददं मोक्षदम् ।

रोगाणाम् इह शान्तये धन-जन-स्वर्गआदि-सम्पत्तये ।
वंशानाम् अपि वृद्धये प्रभवति श्रीशः परेशः प्रभुः॥५८

इति श्री-कल्कि-पुराणे ऽनुभागवते भविष्ये तृतीयअंशे सूर्य-वंशअनुवर्णने श्री-रामचन्द्र-चरितं नाम तृतीयो ऽध्यायः॥३

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