श्री कल्कि पुराण तीसरा अध्याय हिंदी से संस्कृत | Shri Kalki Puran Third Chapter Hindi to Sanskrit

श्री कल्कि पुराण तीसरा अध्याय हिंदी से संस्कृत

सूत उवाच

ततो वस्तुं गुरुकुले यान्तं कल्किं निरीक्ष्य सः ।
महेन्द्रअद्रि स्थितो रामः समानीयआश्रमं प्रभुः॥१

सूत जी बोले-"इसके बाद, गुरुकुल में जाते हुए कल्कि जी को देख कर महेन्द्र पर्वत पर रहने वाले भगवान् परशुराम उन्हें अपने आश्रम ले आए, और बोले- 'मैं तुम्हे पढ़ाऊँगा। भृगुवंश में उत्पन्न, जमदग्नि का पुत्र, वेद-वेदांग को जानने वाला, धनुर्वेद में पारंगत मुझ को (तुम) धर्म से महा प्रभावशाली गुरु जानो। हे ब्राह्मण के पुत्र! मैं पृथ्वी को क्षत्रियहीन करके और (उसे) ब्राह्मणों को देकर महेन्द्र पर्वत पर तप करने आया हूँ। तुम यहाँ अपना वेदाध्यन करो और जो अन्य उत्तम शास्त्र हैं, उन्हें भी पढ़ो।' परशुराम जी के इस प्रकार के वचन सुनकर कल्कि जी के शरीर के रोंगटे आनन्द के कारण खड़े हो गए। उन्होंने पहले परशुराम जी को नमस्कार किया और फिर वेद पढ़ने के लिए सन्नद्ध हो गए। (अल्प समय में ही) चौंसठ कलाओं और वेदों को उनके अंगों सहित एवं धनुर्वेदादि पढ़ कर कल्कि जी ने भगवान् परशुराम से हाथ जोड़कर कहा- 'हे प्रभो! जिस दक्षिणा को आप को अर्पित कर मेरी सर्व सिद्ध होगी और जिस दक्षिणा से आप सन्तुष्ट होंगे, वह दक्षिणा क्या है? यह जानने की मेरी प्रार्थना है।'


परशुराम जी बोले- 'हे भूमन (श्रेष्ठ)! कलि के विनाश के लिए भगवान् ब्रह्मा जी ने सब के आश्रय, भगवान् विष्णु से (अवतरित होने की) प्रार्थना की थी। हे देव, वे ही आप विष्णु भगवान् शम्भल ग्राम में पैदा हुए हैं। मुझ से विद्या, शिवजी से अस्त्र और वेदज्ञ शुक से सिहंल देश की अपनी पत्नी पाकर (आप) पृथ्वी पर धर्म की स्थापना करेंगे। इस के बाद दिग्विजय करते समय, धर्महीन और कलि के प्रिय राजाओं तथा बौद्धों का विनाश कर आप धर्मराज मरू और देवापि को स्थापित करेंगे। आप के इस उत्तम कार्य के पूरा होने से ही हम संतुष्ट होंगे और यही हमारी दक्षिणा होगी, क्योंकि तभी हम यथोचित यज्ञ, दान, तप आदि कर्म कर सकेंगे।' इस प्रकार के वचन सुन कर, गुरु परशुराम जी को नमस्कार कर के कल्कि जी भगवान् बिल्वोदकेश्वर (बेल- पत्र व जल से जिनकी पूजा की जाती है) शिवजी के पास गए और उन शंकर भगवान् को इस प्रकार सन्तुष्ट किया।

कल्कि (महादेव जी के पास जाकर उन आशुतोष (जो स्तुति से जल्दी ही प्रसन्न हो जाते हैं), हृदय में रहने वाले, शान्त, महेश्वर शिवजी की विधिवत् पूजा कर फिर प्रणाम व ध्यान कर बोले- 'हे शिव, पार्वती के स्वामी, संसार के नाथ, सब प्राणियों को शरण में लेने वाले, वासुकि साँप का कण्ठ-भूषण धारण करने वाले, तीन नेत्र वाले, सघन आनन्द देने में दक्ष, पुरातन, पंचमुख आदि-देव मैं आप को प्रणाम करता हूँ। हे योगियों के स्वामी, काम-नाशक, भयंकर (कराल-दर्शन), गंगा-तरंग से समुज्ज्वल (पवित्र) मूर्द्धा (सिर) वाले, जटाजूट से ढके हुए, महाकाल, चन्द्रमा से शोभित मस्तक वाले ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप भूत वैताल के साथ श्मशान में निवास करने वाले हैं, आप अपनी भयंकर लम्बी भुजाओं से भाँति-भाँति के शस्त्र, तलवार और शूल आदि धारण करने वाले हैं

परशुराम के आश्रम में शिक्षा ग्रहण करते हुए भगवान

प्रलय के समय आपकी क्रोध रूपी आग से समस्त संसार भस्म हो जाने वाला है। आप ही भूतादि तन्मात्रा स्वरूप पंचभूत काल-कर्म स्वभाव से सृष्टि रचते हैं और फिर प्रलय करके जीवत्व को प्राप्त हो ब्रह्मानन्द का सुख लेते हैं- ऐसे आप को मै बार- बार नमस्कार करता हूँ। जिस की आज्ञा से संसार में पवन बहता है, आग जलती है, सूर्य प्रकाशित होते हैं, आकाश में ग्रह तारागण के साथ चन्द्रमा का विकास होता है- उनकी मै शरण लेता हूँ। जिनकी आज्ञा से पृथ्वी सब-कुछ धारण करने वाली है, बादल देवता समय पर वर्षा करते हैं, जो मेरू के बीच में समस्त भुवनों के पालन करने वाले हैं, ऐसे विश्वरूप ईशान को मैं नमस्कार करता हूँ।'

कल्कि जी की इस प्रकार स्तुति सुनकर सब कुछ जानने वाले महादेव जी, पार्वती जी के साथ साक्षात् प्रकट हुए। महादेव जी ने प्रसन्न हो कर कल्कि जी के समस्त शरीर पर हाथ फेर कर मुस्कराते हुए कहा- 'हे श्रेष्ठ, जो अभिलाषा हो, उस वर को माँगो। आपके द्वारा रचा हुआ यह स्तोत्र संसार में जो लोग पढ़ेंगे, इस लोक और परलोक में उनके सभी मनोरथ सफल होंगे। इस स्तोत्र को पढ़ने और सुनने से विद्यार्थी को विद्या, धर्मार्थी को धर्म (और) कामना वाले को उसकी कामना प्राप्त होती है। हे कल्कि जी, मैं आपको यह शीघ्र गति वाला, बहुरूपी गरुड़-अश्व और यह सब कुछ जानने वाला तोता देता हूँ। आप इन्हें लें। मनुष्य आप को सब शास्त्रों के विद्वान, सब वेदों में पारंगत और सब प्राणियों में विजयी बताएँगे। बहुत भार वाली, पृथ्वी के भार को दूर करने में सहायक, महा चमक वाली, भयंकर इस रत्नत्सरु नाम की (अथवा रत्न जड़ित मूठवाली) तलवार को आप ग्रहण कीजिए।'

महोदव जी के ये वचन सुनकर कल्कि जी महेश्वर को प्रणाम करके घोड़े पर सवार हो शीघ्र ही शम्भल ग्राम आए। वहाँ पहुँच कर विधिपूर्वक पिता, माता तथा भाइयों को नमस्कार कर जमदग्नि के पुत्र परशुराम जी द्वारा कही गई उन सब बातों का वर्णन किया। (और) महादेव जी के वरदान की बात भी कह कर परम तेजस्वी कल्कि जी अपनी जाति वालों से प्रसन्न चित्त हो शुभ कथा कहने लगे। गर्ग्य, भर्ग्य तथा विशाल आदि इस वृतान्त को सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और शम्भल ग्राम निवासियों में एक-दूसरे से कह कर इस कथा का प्रचार हुआ। शम्भल ग्राम निवासियों के मुख से यह संवाद सुनकर विशाखयूपराज समझ गए कि कलि को समाप्त करने के लिए हरि भगवान् ने पृथ्वी पर अवतार ले लिया है। (उसकी) अपनी महिष्मती पुरी में यज्ञ, दान, तप, व्रत आदि करने वाले ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र सभी से हरि प्रेम करने लगे। 

कल्कि जी को वरदान देते हुए भगवान शिव और पार्वती जी

लक्ष्मीपति श्री कल्कि भगवान, के प्रादुर्भाव होने से सभी वर्णों को अपने-अपने धर्म में लगे रहते देख कर राजा स्वयं ही प्रजा का पालन करने वाले, शुद्ध मन वाले तथा धर्म- परायण हुए। लालच, झूठ आदि धर्महीन कार्यों के वंश वाले लोग, महिष्मती नगरी के निवासियों को धर्म-परायण देख कर बहुत दुःखी हो कर वहाँ से चले गए। (तब) तेज चमक वाली तलवार तथा धनुष बाण सहित श्री कल्कि जी शिवजी द्वारा दिए हुए विजय प्राप्त करने वाले घोड़े पर सवाल होकर नगरी के बाहर आए। इस पर सज्जनों को प्रिय लगने वाले विशाखयूपराज शंभल ग्राम में विष्णु जी के अंश से आविर्भूत कल्कि जी का अवतार देखने के लिए चल पड़े।

राजा विशाखयूपराज ने नगर से बाहर निकलकर देखा कि भगवान् कल्कि पधार रहे हैं, उनके अंग-अंग से कान्ति छिटक रही है। कवि, प्राज्ञ और सुमन्त्रक उनके आगे-आगे चल रहे हैं। गर्ग्य, भर्ग्य तथा बहुत बड़ी संख्या में बन्धु- बान्धव उनको चारों ओर से घेरे हुए हैं। इस प्रकार वे ऐसे लग रहे हैं, मानों ताराओं के बीच में चन्द्रमा अथवा देवताओं से घिरे उच्चैःश्रवा घोड़े पर विराजमान इन्द्र हों। कल्कि जी को देख कर विशाखयूपराज का शरीर रोमांचित हो गया, वे झुक गए और तत्काल पूर्ण वैष्णव हो गए। राजा के साथ रहते हुए (वार्तालाप करते हुए) कल्कि जी ने पहले बताए गए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि वर्णों तथा आश्रमों के धर्मों को पुनः संक्षेप में बताया। (कल्कि जी ने कहा) - हमारे अंश कलि के पाप से भ्रष्ट हुए थे, हमारे जन्म लेने पर (अब) धर्म-मार्ग से मिले हैं। आप लोग राजसूय और अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान कर, उनके साथ मेरी उपासना करें, क्योंकि मैं ही परलोक हूँ, मैं ही सनातन धर्म हूँ।

काल, स्वाभाव और संस्कार मेरे अनुगत होकर ही काम करते हैं। चन्द्रवंश में उत्पन्न देवापि और सूर्यवंश में उत्पन्न मरू नाम के (दोनों) राजाओं को स्थापित कर मैं सत्युग की स्थापना कर सद्गति को प्राप्त होऊँगा। यह वचन सुन कर राजा विशाखयूपराज ने श्री कल्कि, (हरि भगवान्) को प्रणाम कर मनोवांछित श्रेष्ठ वैष्णव धर्म के बारे में बताने को कहा। इस प्रकार राजा के वचन सुन कर कलि-कुल को नाश करने की अभिलाषा से अवतार लेने वाले श्री कल्कि जी ने अपने परिजनों और परिषद् के लोगों को प्रसन्न करने वाले मधुर वचन से साधु-धर्म की व्याख्या करनी आरंभ की।

श्री कल्कि पुराण तीसरा अध्याय संस्कृत में 

सूत उवाच

ततो वस्तुं गुरुकुले यान्तं कल्किं निरीक्ष्य सः ।
महेन्द्रअद्रि स्थितो रामः समानीयआश्रमं प्रभुः॥१

प्राह त्वां पाठयिष्यामि गुरुं मां विद्वि धर्मतः ।
भृगु-वंश-सम्-उत्-पन्नं जामदग्न्यं महाप्रभुम्॥२

वेद-वेदअङ्ग-तत्त्व-ज्ञं धनुर्-वेद-विशारदम् ।
कृत्वा निःक्षत्त्रियां पृथ्वीं दत्त्वा विप्राय दक्षिणां॥३

महेन्द्र-अद्रौ तपस् तप्तुम् आगतो ऽहं द्विजआत्मज ।
त्वं पठअत्र निजं वेदं यच् चअन्यच् छास्त्रम् उत्तमम्॥४

इति तद् वच आश्रुत्य सम्प्रहृष्टतनूरुहः ।
कल्किः पुरो नमस्कृत्य वेदअधीती ततो ऽभवत्॥५

साङ्गं चतुः षष्टिकलं धनुर्-वेदआदिकञ् च यत् । 
सम्-अधीत्य जामदग्न्यात् कल्किः प्राह कृताञ्जलिः॥६

दक्षिणां प्रार्थय विभो! या देया तव सन्निधौ ।
यया मे सर्व-सिद्धिः स्याद् या स्यात् त्वत् तोष-कारिणी॥७

राम उवाच

ब्रह्मणा प्रार्थतो भूमन्! कलि-निग्रह-कारणात् । 
विष्नुः सर्वआश्रयः पूर्णः स जातः शम्भले भवान्॥८

मत्तो विद्यां शिवाद् अस्त्रं लब्ध्वा वेद-मयं शुकम् ।
सिंहले च प्रियां पद्मां धर्मान् संस्थापयिष्यसि॥९

ततो दिग्-विजये भूपान् धर्म-हीनान् कलि-प्रियान् ।
निगृह्य बौद्धान् देवापिं मरुञ् च स्थापयिष्यसि॥१०

वयम् एतैस् तु संतुष्ताः साधु-कृत्यैः स-दक्षिणाः ।
यज्ञं दानं तपः कर्म करिष्यामो यथो’चितम्॥११

इत्य् एतद् वचनं श्रुत्वा नमस्कृत्य मुनिं गुरुम् ।
बिल्वोदकेश्वरं देवं गत्वा तुष्टाव शङ्करम्॥१२

पूजयित्वा यथा’न्यायं शिवं शान्तं महेश्वरम् ।
प्रणिपत्याशुतोषं तं ध्यात्वा प्राह हृदि-स्थितम्॥१३

कल्किर् उवाच

गौरी-नाथं विश्व-नाथं शरण्यं भूतावासं वासुकी-कण्थ-भूषम् ।
तृयक्षं पञ्चा’स्यआदि-देवं पुराणं वन्दे सान्द्रानन्द-सन्दोहदक्षम्॥१४

योगअदीशं काम-नाशं करालं गङ्गासङ्गाक्लिन्नमूर्धानम् ईशम्
जटाजूटाटोओपरिक्षिप्तभावं महाकालं चन्द्रभालं नमामि॥१५

श्मशानस्थं भूत-वेतालसंगं नाना-शस्त्रैः खड्ग्-शूलआदिभिश्च ।
व्यग्रअत्युग्रा बाहवो लोक-नाशे यस्य क्रोधो’द्धूत-लोको’स्तमेति॥१६

यो भूतादिः पञ्च-भूतैः सिसृक्षुस् तन्मात्रात्मा काल-कर्म-स्वभावैः
प्रहृतिऽएदं प्राप्य जीवत्वम् ईशो ब्रह्मानन्दो रमते तं नमामि॥१७

स्थितौ विष्नुः सर्व-जिष्नुः सुरात्मा लोकान् साधून् धर्म-सेतून् बिभर्ति ।
ब्रह्माद्यांशे यो ऽभिमानी) गुणात्मा शब्दाद्यङ्गैस् तं परेशं नमामि॥१८

यस्यआज्ञया वायवो वान्ति लोके ज्वलत्य् अग्निः सविता याति तप्यन् ।
शीतांशुः खे नारकैः सग्रहैश् च प्रवर्तते तं परेशं प्रपद्ये॥१९

यस्यअश्वासात् सर्व-धात्री धरित्री देवो वर्षत्य् अम्बु कालः प्रमाता  ।
मेरुर् मध्ये भुवनानाञ् च भर्ता तम् ईशानं विश्व-रूपं नमामि॥२०

इति कल्कि-स्तवं श्रुत्वा शिवः सर्वात्म-दर्शनः ।
साक्षात् प्राह हसन्निशः पार्वती-सहितोग्रतः॥२१

कल्केः संस्पृश्य हस्तेन समस्तावयवं मुदा ।
तम् आह वरय प्रेष्ठ! वरं यत् ते ऽभिकांक्षितम्॥२२

त्वया कृतम् इदं स्तोत्रं ये पठन्ति जना भुवि ।
तेषां सर्वार्थ-सिद्धिः स्याद् इह लोके परत्र च॥२३

विद्यार्थी चअप्नुयाद् विद्यां धर्मार्थी धर्मम् अप्नुयत् ।
कामान् अवाप्नुयत् कामी पठनाच् छ्रवणाद् अपि॥२४

त्वं गारुडम् इदं चअश्वं कामगं बहु-रूपिणम् ।
शुक-मेनञ्च सर्वज्ञं मया दत्तं गृहाण भोः॥२५

सर्व-शास्त्रअस्त्र-विद्वंसं सर्व-वेदअर्थ-पारगम् ।
जयिनं सर्व-भूतानां त्वाम् वदिष्यन्ति मानवाः॥२६

रत्नत्सरुं करालञ् च करवालं महा-प्रभम् ।
गृहाण गुरुभारायाः पृथिव्या भारसाधनम्॥२७

इति तद् वच आश्रुत्य नमस्कृत्य महेश्वरम् ।
शम्भल-ग्रामम् अगमत् तुरगेण त्वरा’न्वितः॥२८

पितरं मातरं भ्रातॄन् नमस्कृत्य यथाविधि ।
सर्वं तद् वर्णयाम् आस जामदग्न्यस्य भाषितम्॥२९

शिवस्य वरदानञ् च कथयित्वा शुभाः कथाः ।
कल्किः परम-तेजस्वी ज्ञातिभ्यो ऽप्यवदन् मुदा॥३०

विशाखयूप-भूपालः श्रुत्वा तेषाञ् च भाषितम् ।
प्रादुर्भावं हरेर् मेने कलि-निग्रह-कारकम्॥३२

माहिष्मत्यां निज-पुरे याग-दान-तपो-व्रतान् ।
भ्राह्मनान् क्षत्रियान् वैश्याञ् शूद्रान् अपि हरेः प्रियान्॥३३

स्व-धर्म-निरतान् दृष्ट्वा धर्मिष्ठो’भून् नृपः स्वयम्
प्रजापालः शुद्धमनाः प्रादुर्भावाच् छ्रियः पतेः॥३४

अधर्म-वंश्यांस् तान् दृष्ट्वा जनान् धर्मक्रियापरान्
लोभअनृतादयो जग्मुस् तद् देशाद् दुःखिता भयम्॥३५

जैत्रं तुरगमारुह्य खड्ग्ञ् च विमल-प्रभम्
दंशितः सशरं चापं गृहीत्वागात् पुराद् बहिः॥३६

विशाखयूप-भूपालः प्रयात् साधु-जन-प्रियः
कल्किं द्रष्तुं हरेर् अंशम् आविर्भूतञ् च शम्भले॥३७

कविं प्राज्ञं सुमन्तुञ् च पुरस्कृत्य महाप्रभम्
गार्ग्य-भर्ग्य-विशालैश् च ज्ञातिभिः परिवारितम्॥३८

विशाखयूपो ददृशे चन्द्रं तारा-गणैर् इव
पुराद्बहिः सुरैर् यद् वद् इन्द्रम् उच्चैः श्रवः स्थितम्॥३९

विशाखयूपो’वनतः संप्रहृष्ट-तनूरुहः
कल्केर् आलोकनात् सद्यः पूर्णात्मा वैष्णवो ऽभवत्॥४०

सह रज्ञा वसन् कल्किः धर्मान् आह पुरोदितान्
ब्राह्मण-क्षत्रिय-विशाम् आश्रमाणां समासतः॥४१

मम अंशान् कलि-विभ्रष्टान् इति मज् जन्म-संगतान्
राजसूयअश्वमेधाभ्यां मां यजस्व समाहितः॥४२

अहम् एव परो लोके धर्मश् च अहं सनातनः
काल-स्वभाव-संस्काराः कर्मअनुगतयो मम॥४३

सोम-सूर्य-कुले जातौ देवापि-मरु-संज्ञकौ
स्थापयित्वा कृतयुगं कृत्वा यास्यामि सद्गतिम्॥४४

इति तद् वचनं श्रुत्वा राजा कल्किं हरिं प्रभुम्
प्रणम्य प्राह सद्धर्मान् वैष्णवान् मनसे’प्सितान्॥४५

इति नृप-वचनं निशम्य कल्किःकलि-कुल-नाशनवासनअवतारः
निज-जन-परिषद्-विनोदकारी मधुर-वचोभिर् आह साधु-धर्मान्॥४६ 

इति श्री-कल्कि-पुराणे ऽनुभावगते भविष्ये कल्कि-वर-लाभ-नामकस् तृतीयो ऽध्यायः॥

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