श्री कल्कि पुराण दूसरा अंश \दूसरा अध्याय हिंदी से संस्कृत में
सूत उवाच
कल्किः सरोवरआभ्यासे जलाहरगवर्त्मनि।
स्वच्छ-स्फटिक-सोपाने प्रवालाचितवेदिके॥१
सूत जी बोले - घोड़े से उतर कर सरोवर के पास, जल लाने वाले मार्ग से, मूंगों से शोभायमान, कमलों की सुगन्ध से मस्त, भौंरों की गूंज से पूर्ण शोभायमान, कमलों की सुगन्ध से मस्त, भौंरों की गूंज से पूर्ण, साफ पारदर्शी स्फटिक की बनी सीढ़ियों के चबूतरे पर, कदम्ब वृक्ष के नए-नए पत्तों से छन कर आती हुई सूरज की किरणों के बीच बैठे कल्कि भगवान् ने शुक को पद्मावती के आश्रम में भेजा। वहाँ पहुँच कर नागकेसर के वृक्ष पर बैठे हुए शुक ने सखियों से घिरी हुई और अटारी के ऊपर कमल के पत्तों की सेज पर शयन करती पद्मा जी को देखा। उस ने देखा कि साँस की गर्मी से उनका कमल रूपी मुख मलिन हो गया है और वह अपनी सखियों के दिए हुए चन्दन की गंध से युक्त कमल को हाथ से हिला रही है। दक्षिण दिशा से आया हुआ, परागयुक्त पानी को धारण किए हुए, रसपूर्ण, प्रिय पवन तक भी पद्मावती के द्वारा निन्दित है (के सामने फीका पड़ रहा है)।
(ऐसे ही समय) करुणामय हृदय से शुक ने प्रिय वचन कह कर पद्मा जी को ढाढस बंधाया। तब पद्मा जी ने कहा- आओ-आओ, तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारा स्वागत है। शुक ने उत्तर दिया- शुभे (कल्याणि), मैं सकुशल हूँ।पद्मा जी ने कहा- हे शुक ! तुम्हारे जाने पर अर्थात् जब से तुम गए हो, तब से मैं बहुत व्याकुल हूँ। उत्तर में शुक ने कहा- अब रसायन द्वारा तुम्हें शान्ति मिलेगी।
पद्मावती ने उत्तर दिया- मेरे लिए रसायन मिलना भी कठिन है। शुक बोले- हे शिवजी की शिष्या, तुम्हारे लिए रसायन सुलभ ही है। (यहाँ रसायन का अभिप्राय श्री कल्कि प्राप्ति रूपी औषध है।) पद्मा जी बोली- हे शुक ! मुझ भाग्यहीन का मनोरथ किस तरह, कहाँ सफल होगा? शुक ने उत्तर दिया- हे श्रेष्ठ देवि ! इसी स्थान पर मैं उन (श्री कल्कि जी) को तालाब के किनारे पर बैठा कर यहाँ आया हूँ।
इस प्रकार पद्मा जी और शुक की आपस में बातचीत होने पर, अपने मनोरथ के पूरा होने के हर्ष में पद्मा जी आदरपूर्वक शुक के मुख के समक्ष अपना मुख करके, आँखों में आँखें डाल कर उसे आनन्दपूर्वक देखने लगीं। विमला, मालिनी, लोला, कमला, कामकन्दला, विलासिनी, चारूमती, कुमुदा- ये (पद्मा की) आठ नायिका-सखियाँ हैं। इन सखियों के साथ जल क्रीड़ा करने को तैयार हो कर पद्मा जी ने कहा- सखियों! मेरे साथ तालाब के किनारे चलो। यह कह कर सुन्दर वेश वाली सखियों से घिरी हुई पद्मा जी पालकी पर सवार होकर अपने अन्तःपुर से शीघ्र ही बाहर निकली, जिस प्रकार रुक्मणि भगवान् कृष्ण के दर्शनों के लिए बाहर आई थी। पद्मा जी जिस रास्ते से चली, उस रास्ते के चौराहों पर अथवा दुकानों पर जो लोग थे, वे पद्मा जी को देखते ही स्त्री बन जाएँगे, इस डर से चारों ओर जहाँ जिन को राह मिली, उधर ही भाग गए। उन भागने वाले पुरुषों की स्त्रियाँ (वन-पर्वतों में) अपने पुरुषों के निरापद रहने के लिए देवपूजादि अनुष्ठान करने लगीं।
इस तरह रास्ता पुरुषों से खाली हो गया। (तब) मदमाती बलवती महिलाएँ पालकी को ले चलीं। पद्मा जी शुक के कहने के अनुसार उस पालकी में बैठी (और) उन सखियों से घिरी हुई वहाँ से चल दीं। इसके बाद सारस और हंस आदि की मधुर ध्वनि से गुंजायमान, खिले हुए कमल के पराग से सुगन्धित सरोवर के पानी में स्नान कर, कुमुदिनी फूल को खिलाने वाले चन्द्रमा के उदय होने की आशा में वे चन्द्रमुखी सुन्दरियाँ (वहाँ) घूमने लगीं। इन सुन्दरियों के कमल रूपी मुखों की सुगन्ध से भौरे अन्धे हो गए (भ्रम में पड़ गए) और इसीलिए वे और खिले हुए कमलों को छोड़कर उनके कमल रूपी मुखों पर बैठने (मँडराने) लगे। सुन्दरियाँ बार-बार इन भौंरों को उड़ाती हैं, पर वे उन मुखों में अत्यन्त सुगन्ध पा कर उन्हें छोड़ते नहीं हैं।
सरस हँसी-मज़ाक, बाजे तथा नाच के साथ हाथ-में- हाथ मिला कर जल में क्रीड़ा करने व तैरने में मस्त सखियों के मन को पद्मा जी ने तथा पद्मा जी के मन को सखियों ने हर लिया। इस के बाद (वह) पद्मा जी काम से व्याकुल मन में शुक के वचनों पर विचार करती हुई सखियों सहित जल से बाहर निकल कर, मूल्यवान् आभूषणों को पहन कर, शुक द्वारा बताए हुए कदम्ब वृक्ष के नीचे पहुँची। शुक के साथ वहाँ जा कर मणियों से सजे चबूतरे पर महामणियों से विभूषित सूर्य की चमक से भी अधिक तेजोमय भगवान् कल्कि को अपने सामने सुख से सोते हुए (पद्मा जी ने देखा। तमाल के पत्तों के समान नीले रंग वाले, पीले वस्त्र पहले हुए, सुन्दर कमल जैसी आँखों वाले, घुटने तक पहुँच रही भुजाओं वाले, विशाल वक्ष तथा पतली कमर वाले, श्रीवत्स से चिह्नित हृदय वाले और छाती पर कौस्तुभ मणि की कान्ति से प्रकाशित कमला पति भगवान् कल्कि जी विराजमान हैं। उस अद्भुत रूप को देख कर पद्मा जी ठगी-सी रह गई और उचित आदर-सत्कार करना भूल गई।
हृदय में शंका होने के कारण पद्मा जी ने उन्हें जगाने को मना किया। (पद्माजी ने सोचा) - कहीं ऐसा न हो कि मुझे देखने से ये महान् बलवान, अत्यन्त सुन्दर पुरुष स्त्री बन जाए। तब यहाँ मेरा क्या होगा, कहीं मेरे लिए शिव का वरदान अभिशाप का रूप न ले ले। इसके बाद, इस जड़ और चेतन संसार के स्वामी भगवान् कल्कि जी पद्मा जी के मन की बात को समझ कर जागे और देखा कि परम रूपवती पद्मा जी वहाँ खड़ी हैं, मानों मधुसूदन भगवान् विष्णु के सामने लक्ष्मी खड़ी हों। सखियों के साथ आई हुई, बिना पलक मारे कटाक्ष करती (आँखों के हाव-भाव से मोहती) हुई पद्मा जी को देख कर उस साक्षात् माया के समान मोहिनी रूप राजकुमारी पद्मा जी से श्री कल्कि जी ने काम से व्याकुल होते हुए कहा- हे सुन्दरी (कान्ते)! यहाँ आओ।
सौभाग्य से तुम्हारा यहाँ आना मेरे लिए शुभ हुआ है। तुम्हारे चन्द्रमा के समान सुन्दर मुख से मेरी वासना का ताप दूर होकर सुख बढ़ेगा। हे चंचल नेत्रों वाली ! मुझ संसार के विधाता को काम रूपी साँप ने डसा है। तुम्हारी सुन्दरता के रस रूपी अमृत से उसकी शान्ति हो सकती है। यह शान्ति बहुत पुण्य करके भी कठिनता से प्राप्त होती है और यह शान्ति तुम्हारा सहारा पाने वाले का जीवन है। महावत जिस तरह मस्त हाथी के कुम्भ पर अंकुश घुमाता है, (मेरी इच्छा है कि) तुम्हारी ये सुन्दर और बड़ी बाँहें श्रेष्ठ नाखून रूपी अंकुश द्वारा मेरे हृदय में स्थित कामदेव रूपी हाथी के कुंभ को छेद डालें। वस्त्र से ढके तुम्हारे ये दोनों गोल स्तन कामदेव के चाबुक की भाँति सिर उठा रहे हैं। मेरे प्रगाढ़ आलिंगन से अभिमान-भंग और विनीत बनकर मुझे परम सुख देंगे। हे प्रिय ! तुम्हारी कमर यज्ञ की वेदी के बीच के भाग की तरह पतली है। उस में तीन बल पड़े हुए हैं, उन पर सुन्दर रोएँ उगे हैं। मैं जानता हूँ कि त्रिवली रेखा तुम्हारे प्रिय के काम मार्ग में उतरने की सीढ़ी है।
भगवान कल्कि के समीप पहुँचकर उन्हें निहारती पद्मा जी
हे रंभा के समान जंघा वाली, पुलिन के समान तुम्हारे नितम्ब बिम्ब हमारे संभोग सुख को पूरा करें। हे पतली काया वाली! झीने वस्त्र से ढके तुम्हारे नितम्ब मंडल पर कामदेव से मस्त हुए पुरुष के भोग की इच्छा पूरी हो जाती है। इस समय ये नितम्ब हमें संभोग का सुख प्रदान करें। मेरे निर्मल हृदय रूपी जल में कामदेव रूपी साँप के काटने से विष पैदा हो गया है, जिस की शान्ति तुम्हारे अति सुन्दर चरण कमल कर सकते हैं; जो उंगली रूपी पत्र से चित्रित और हंस के समान शब्द करने वाले घुँघुरुओं से शोभायमान हैं।
कलि कुल का नाश करने वाले कल्कि जी के इस अमृत के समान वचन को सुनकर उनके सत्पुरुषत्व से हर्षित, सखियों से घिरी हुई पद्मा जी को अत्यन्त आनन्द प्राप्त हुआ। (पद्मा जी के समक्ष होने पर उनकी कामना करते हुए भी कल्कि जी का पुरुषत्व अक्षत रहा। अन्य पुरुषों/राजाओं की भाँति स्त्रीत्व में परिवर्तित नहीं हुआ)। फिर मन्त्र-मुग्ध सी क्लान्त मन हुई पद्मा जी अपने कान्त (कल्कि जी) के मन को खिन्न देखकर अपनी सखियों सहित गर्दन झुकाकर, हाथों की अंजली बाँधकर धीरता पूर्वक अपने पति को प्रणाम कर कहने लगीं।
श्री कल्कि पुराण दूसरा अंश \दूसरा अध्याय संस्कृत में
सूत उवाच
कल्किः सरोवरआभ्यासे जलाहरगवर्त्मनि।
स्वच्छ-स्फटिक-सोपाने प्रवालाचितवेदिके॥१
सरोज-सौरभ-व्यग्र-भ्रमद्भ्रमरनादिते।
कदम्ब-पोतपत्रालि-वारित-आदित्य-दर्शने॥२
समुवासासने चित्रे सदश्वेनावतारितः।
कल्किः प्रस्थापयाम् आस शुकं पद्माश्रमं मुदा॥३
स नागेश्वर-मध्य-स्थः शुको गत्वा ददर्श ताम्।
हर्म्यस्थां बिसिनीपत्र-शायिनीं सखीभिर् वृताम्॥४
निश्वासवाततापेन म्लायतीं वदनअम्बुजम्।
उत्क्षिपन्तीं सखीदत्त-कमलं चन्दनो’क्षितम्॥५
रेवा-वारिपरिस्नातं परागास्यं समागतम् ।
धृतनीरं रसगतं निन्दन्तीं पवनं प्रियम्॥६
शुकः स-करुणः साधु-वचनैस् ताम् अतोषयत्।
सा) त्वमेह्येहि) ते स्वस्ति स्वागतं? स्वस्ति मे शुभे!॥७
गते त्वय्य् अतिव्यग्राहं शान्तिस् ते ऽस्तु रसायनात्।
रसायनं दुर्लभं मे सुलभं ते शिवाश्रमे॥८
क्व मे भाग्य-विहीनाया इहैव वरवर्णिनि।
देवि! तं सरसस्तीरे प्रतिष्थाप्यागता वयम्॥९
एउअमन्योन्यसंवाद-मुदितात्म-मनोरथे।
मुखं मुखेन नयनं नयने सादृता ददौ॥१०
विमला मालिनी लोला कमला कामकन्दला।
विलासिनी चारुमती कुमुदे’त्य् अष्ट-नायिकाः॥११
सख्य एता मतास् ताभिर् जल-क्रीडार्थमुद्यता।
पद्मा प्राह) सरस्तीरम् आयान्त्व् एता मया स्त्रियः॥१२
इत्य् आख्यायाशु शिबिकाम् आरुह्य परिवारिता।
सखीभिश् चारुवेशाभिर् भूत्वा स्वान्तः पुराद् बहिः।
प्रययौ त्वरितं द्रष्तुं भैष्मी यदु-पतिं यथा॥१३
जनाः पुमांसः पथि ये पुरस्थाः प्रदुद्रुवुः स्त्रीत्वभयाद् दिगन्तरम् ।
शृङ्गाटके वा विपणिस्थिता ये) निजाङ्गगास्थापित-पुण्यकार्याः॥१४
निवारितां तां शिबिकां वहन्त्यो नार्यो ऽतिमत्ता बलवत्तराश् च।
पद्मा शुको’क्त्या तद् उपर्युपस्था जगाम ताभिः परिवारिताभिः॥१५
सरोजलं सारस-हंस-नादितं प्रफुल्ल-पद्मो’द्भव-रेणु-वासितम्।
चेरुर्विगाह्याशु सुधाकरालसाः कुमुद्वतीनामुदयाय शोभनाः॥१६
तासां मुखामोदमदान्ध-भृङ्गा विहाय पद्मानि मुखअरविन्दे।
लग्नाः सुगन्धाधि-कमाकलय्य निवारिताश् च अपि न तत्यजुस् ते॥१७
हासोपहासैः सरसप्रकाशैर् वाद्यैश् च नृत्यैश् च जले विहारैः।
करग्रहैस् ता जलयोधनार्ताश् चकर्षताभिर् वनिताभिर् उच्चैः॥१८
सा काम-तप्ता मनसा शुको’क्तिं विविच्य पद्मा सखिभिः समेता।
जलात् समुत्थाय महार्ह-भूषा जगाम निर्दिष्ट-कदम्ब-षण्डम्॥१९
मुखे शयानं मणिवेदिकागतं कल्किं पुरस्ताद् अतिसूर्यवर्चसम्।
महामणिव्रातविभूषणाचितं शुकेएन सार्धं तमुदैक्षतेशम्॥२०
तमाल-नीलं कमला-पतिं प्रभुं पीताम्बरं चारु-सरोज-लोचनम्।
आजानुबाहुं पृथुपीनवक्षसं श्रीवत्स-सत्कौस्तुभ-कान्तिराजितम्॥२१
तद् अद्भुतं रूपम् अवेक्ष्य पद्मा सस्तम्भिता विस्मृत-सत्क्रियार्था।
सुप्तं तु संबोधयितुं प्रवृत्तं निवारयाम् आस विशङ्कितात्मा॥२२
कदाचिद् एषो ऽतिबलो ऽतिरूपी मद् दर्शनात् स्त्रीत्वम् उपैति साक्षात्।
तदअत्र किं मे भविता भवस्य वरेण शाप-प्रतिमेन लोके॥२३
चराचरआत्मा जगताम् अधीशः प्रबोधितस् तद् धृदयं विविच्य।
ददर्श पद्मां प्रिय-रूप-शोभां यथा रमा श्री-मधुसूदनाग्रे॥२४
संवीक्ष्य मायाम् इव मोहिनीं तां जगाद कामाकुलितः स कल्किः।
सखीभिरीशां समुपागतां तां कटाक्ष-विक्षेपविनामितास्याम्॥२५
इहैहि सुस्वागतम् अस्तु भाग्यात् समागमस् ते कुशलाय मे स्यात्।
तवअनने’न्दुः किल कामपूरतअपाप-नोदाय सुखाय कान्ते!॥२५
लोलाक्षि! लावण्य-रसामृतं ते कामाहिदष्टस्य विधातुरस्य।
तनोतु शान्तिं सुकृतेन कृत्या सुदुर्लभां जीवनम् आश्रितस्य॥२७
बाहू तवै’तौ कुरुतां मनोज्ञौ हृदि स्थितं काममुदन्तवासम्।
चार्व्-आयतौ चारु-नखअङ्कुशेन द्विपं यथा सादिविदीर्ण-कुम्भम्॥२८
स्तनाव् इमाव् उत्थित-मस्तकौ ते काम-प्रतोदाव् इव वाससाक्तौ।
ममोरसा भिन्न-निजअभिमानौ सुवर्तुलौ व्यादिशतां प्रियं मे॥२९
कान्तस्य सोपानम् इदं वलित्रयं सूत्रेण लोमावलिलेखलक्षितम्।
विभाजितं वेदिविलग्नमध्यमे! कामस्य दुर्गाश्रयम् अस्तु मे प्रियम्॥३०
रम्भोरु! सम्भोगसुखायमे स्यान् नितम्बबिम्बं पुलिनोपमं ते।
तन्वङ्गि! तन्व्-अंशुकसंगशोभं प्रमत्तकामाविमदो’द्यमालम्॥३१
पादाम्बुजं ते ऽङ्गुलि-पत्र-चित्रितं वरं मरालक्वण-नूपुरावृतम्।
कामाहिदष्टस्य ममास्तु शान्तये हृदि स्थितं पद्मघने सुशोभने॥३२
श्रुत्वै’तद् वचनअमृतं कलिकुलध्वंसस्य कल्केर् अलं।
दृष्ट्वा सत्पुरुषत्वमस्य मुदिता पद्मा सखीभिर् वृता।
कान्तं क्लान्तमना कृताञ्जलिपुटा प्रोवाच तत्सादरम्।
धीरं धीरपुरस्कृतं निजपतिं नत्वा नमत्कन्धरा॥३३
इति श्री-कल्कि-पुराणे ऽनुभागवते भविष्ये द्वितीयांसे पद्मा-कल्कि-साक्षात्-संवादो नाम द्वितीयो’ध्यायः॥२
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