मत्स्य पुराण बाईसवाँ अध्याय
श्राद्धके योग्य समय, स्थान (तीर्थ) तथा कुछ विशेष नियमोंका वर्णन
ऋषय ऊचुः
कस्मिन् काले च तच्छ्राद्धमनन्तफलदं भवेत् ।
कस्मिन् वासरभोगे तु श्राद्धकृच्छ्राद्धमाचरेत् ।
तीर्थेषु केषु च कृतं श्राद्धं बहुफलं भवेत् ॥ १
ऋषियोंने पूछा- सूतजी। श्राद्धकर्ताको दिनके किस भागमें श्राद्ध करना चाहिये? किस कालमें किया गया वह श्राद्ध अनन्त फलदायक होता है? तथा किन- किन तीर्थोंमें किया गया श्राद्ध अधिक-से-अधिक फल प्रदान करता है?॥ १॥
सूत उवाच
अपराह्न तु सम्प्राप्ते अभिजिद्रौहिणोदये।
यत्किञ्चिद् दीयते तत्र तदक्षयमुदाहृतम् ॥ २
तीर्थानि यानि सर्वाणि पितॄणां वल्लभानि च।
नामतस्तानि वक्ष्यामि संक्षेपेण द्विजोत्तमाः ॥ ३
पितृतीर्थं गयानाम सर्वतीर्थवरं शुभम्।
यत्रास्ते देवदेवेशः स्वयमेव पितामहः ॥ ४
तत्रैषा पितृभिर्गीता गाथा भागमभीप्सुभिः ॥ ५
एष्टव्या बहवः पुत्रा यद्येकोऽपि गयां व्रजेत्।
यजेत वाश्वमेधेन नीलं वा वृषमुत्सृजेत् ॥ ६
तथा वाराणसी पुण्या पितॄणां वल्लभा सदा।
यत्राविमुक्तसांनिध्यं भुक्तिमुक्तिफलप्रदम् ॥ ७
पितॄणां वल्लभं तद्वत् पुण्यं च विमलेश्वरम् ।
पितृतीर्थ प्रयागं तु सर्वकामफलप्रदम् ॥ ८
वटेश्वरस्तु भगवान् माधवेन समन्वितः।
योगनिद्राशयस्तद्वत् सदा वसति केशवः ॥ ९
सूतजी कहते हैं- ऋषियो ! अपराह्न काल (दिनके तीसरे पहरमें प्राप्त होनेवाले) अभिजित् मुहूर्तमें तथा रोहिणीके उदयकालमें (पितरोंके निमित्त) जो कुछ दिया जाता है, वह अक्षय बतलाया गया है। द्विजवरो! अब जो-जो तीर्थ पितरोंको परम प्रिय हैं, उन सबका नाम-निर्देशपूर्वक संक्षेपसे वर्णन कर रहा हूँ। गया नामक पितृतीर्थ सभी तीर्थोंमें श्रेष्ठ एवं मङ्गलदायक है, वहाँ देवदेवेश्वर भगवान् पितामह स्वयं ही विराजमान हैं। वहाँ श्राद्धमें भाग पानेकी कामनावाले पितरोंद्वारा यह गाथा गायी गयी है- 'मनुष्योंको अनेक पुत्रोंको अभिलाषा करनी चाहिये; क्योंकि उनमेंसे यदि एक भी पुत्र गयाकी यात्रा करेगा अथवा अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान कर देगा या नील वृष (साँड़) का उत्सर्ग कर देगा (तो हमारा उद्धार हो जायगा)।' उसी प्रकार पुण्यप्रदा वाराणसी नगरी सदा पितरोंको प्रिय है, जहाँ अविमुक्तके निकट किया गया श्राद्ध भुक्ति (भोग) एवं मुक्ति (मोक्ष) रूप फल प्रदान करता है। उसी प्रकार पुण्यप्रद विमलेश्वर तीर्थ भी पितरोंके लिये परम प्रिय है। पितृतीर्थ प्रयाग सम्पूर्ण मनोवाञ्छित फलोंका प्रदाता है। वहाँ माधवसमेत भगवान् वटेश्वर तथा उसी प्रकार योगनिद्रामें शयन करते हुए भगवान् केशव सदा निवास करते हैं॥२-९॥
दशाश्वमेधिकं पुण्यं गङ्गाद्वारं तथैव च।
नन्दाथ ललिता तद्वत्तीर्थं मायापुरी शुभा ॥ १०
तथा मित्रपदं नाम ततः केदारमुत्तमम् ।
गङ्गासागरमित्याङ्गुः सर्वतीर्थमयं शुभम् ॥ ११
तीर्थं ब्रह्मसरस्तद्वच्छतहुसलिले हृदे।
तीर्थं तु नैमिषं नाम सर्वतीर्थफलप्रदम् ॥ १२
गङ्गोद्भदस्तु गोमत्यां यत्रोद्भूतः सनातनः ।
तथा यज्ञवराहस्तु देवदेवश्च शूलभृत् ॥ १३
यत्र तत्काञ्चनं द्वारमष्टादशभुजो हरः।
नेमिस्तु हरिचक्रस्य शीर्णा यन्त्राभवत् पुरा ॥ १४
तदेतन्नैमिषारण्यं सर्वतीर्थनिषेवितम् ।
देवदेवस्य तत्रापि वाराहस्य तु दर्शनम् ॥ १५
यः प्रयाति स पूतात्मा नारायणपदं व्रजेत्।
कृतशौचं महापुण्यं सर्वपापनिषूदनम् ॥ १६
यत्रास्ते नारसिंहस्तु स्वयमेव जनार्दनः।
तीर्थमिक्षुमती नाम पितृणां वल्लभं सदा ॥ १७
सङ्गमे यत्र तिष्ठन्ति गङ्गायाः पितरः सदा।
कुरुक्षेत्रं महापुण्यं सर्वतीर्थसमन्वितम् ॥ १८
तथा च सरयूः पुण्या सर्वदेवनमस्कृता।
इरावती नदी तद्वत् पितृतीर्थाधिवासिनी ॥ १९
यमुना देविका काली चन्द्रभागा दृषद्वती।
नदी वेणुमती पुण्या परा वेत्रवती तथा ॥ २०
पितृणां वल्लभा होताः श्राद्धे कोटिगुणा मताः ।
जम्बूमार्ग महापुण्यं यत्र मार्गों हि लक्ष्यते ॥ २१
अद्यापि पितृतीर्थं तत् सर्वकामफलप्रदम् ।
नीलकुण्डमिति ख्यातं पितृतीर्थ द्विजोत्तमाः ॥ २२
पुण्यमय दशाश्वमेधिक तीर्थ, गङ्गाद्वार (हरिद्वार), नन्दा, ललिता तथा मङ्गलमयी मायापुरी (ऋषिकेश) - ये सभी तीर्थ भी उसी प्रकार पितरोंको प्रिय हैं। मित्रपद (तीर्थ) भी श्रेष्ठ हैं। उत्तम केदारतीर्थ और सर्वतीर्थमय एवं मङ्गलप्रद गङ्गासागरतीर्थको भी पितृप्रिय कहा गया है। उसी तरह शतद्व (सतलज) नदीके जलके अन्तर्गत कुण्डमें स्थित ब्रह्मसर तीर्थ भी श्रेष्ठ हैं। नैमिषारण्य सम्पूर्ण तीर्थोंका एकत्र फल प्रदान करनेवाला है। यह पितरोंको (बहुत) प्रिय है। यहीं गोमती नदीमें गङ्गाका सनातन स्रोत प्रकट हुआ है। यहाँ त्रिशूलधारी महादेव और सनातन यज्ञवराह विराजते हैं। यहाँ अष्टादश भुजाधारी शंकरकी प्रतिमा है। यहाँका काञ्चनद्वार प्रसिद्ध है। यहाँ पूर्वकालमें भगवान् विष्णुद्वारा दिये गये धर्मचक्रकी नेमि शीर्ण होकर गिरी थी। यह सम्पूर्ण तीथर्थोद्वारा निषेवित नैमिषारण्य नामक तीर्थ है। यहाँ देवाधिदेव भगवान् वाराहका भी दर्शन होता है। जो वहाँको यात्रा करता है, वह पवित्रात्मा होकर नारायणपदको प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार सम्पूर्ण पापोंका विनाशक एवं महान् नदी) पितरोंको सदा प्रिय है। (कन्नौजके पास इस पुण्यशाली कृतशीच नामक तीर्थ है, जहाँ भगवान् जनार्दन नृसिंहरूपसे विराजमान रहते हैं। तीर्थभूता इक्षुमती (काली इक्षुमतीके साथ) गङ्गाजीके संगमपर पितरलोग सदा निवास करते हैं। सम्पूर्ण तीर्थोंसे युक्त कुरुक्षेत्र नामक महान् पुण्यप्रद तीर्थ है। इसी प्रकार समस्त देवताओंद्वारा नमस्कृत पुण्यसलिला सरयू, पितृ-तीर्थोंकी अधिवासिनीरूपा इरावती नदी, यमुना, देविका (देग), काली (कालीसिंध), चन्द्रभागा (चनाब), दृषद्वती (गग्गर), पुण्यतोया वेणुमती (वेण्वा) नदी तथा सर्वश्रेष्ठा वेत्रवती (बेतवा)- ये नदियाँ पितरोंको परम प्रिय हैं। इसलिये श्राद्धके विषयमें करोड़ों गुना फलदायिनी मानी गयी हैं। द्विजवरो! जम्बूमार्ग (भडोंच) नामक तीर्थ महान् पुण्यदायक एवं सम्पूर्ण मनोऽभिलषित फलोंका प्रदाता है, यह पितरोंका प्रिय तीर्थ है। वहाँसे पितृलोक जानेका मार्ग अभी भी दिखायी पड़ता है। नीलकुण्ड तीर्थ भी पितृतीर्थरूपसे विख्यात है॥ १०-२२॥
तथा रुद्रसरः पुण्यं सरो मानसमेव च।
मन्दाकिनी तथाच्छोदा विपाशाथ सरस्वती ॥ २३
पूर्वमित्रपदं तद्वद् वैद्यनाथं महाफलम् ।
क्षिप्रा नदी महाकालस्तथा कालञ्जरं शुभम् ॥ २४
वंशोद्भेदं हरोद्भदं गङ्गोद्भेदं महाफलम्।
भद्रेश्वरं विष्णुपदं नर्मदाद्वारमेव च ॥ २५
गयापिण्डप्रदानेन समान्याहुर्महर्षयः ।
एतानि पितृतीर्थानि सर्वपापहराणि च ॥ २६
स्मरणापि लोकानां किमु श्राद्धकृतां नृणाम्।
ओंकारं पितृतीर्थं च कावेरी कपिलोदकम् ॥ २७
सम्भेदश्चण्डवेगायास्तथैवामरकण्टकम्।
कुरुक्षेत्राच्छतगुर्ण तस्मिन् स्नानादिकं भवेत् ॥ २८
शुक्रतीर्थं च विख्यातं तीर्थं सोमेश्वरं परम्।
सर्वव्याधिहरं पुण्यं शतकोटिफलाधिकम् ॥ २९
श्राद्धे दाने तथा होमे स्वाध्याये जलसंनिधी।
कायावरोहणं नाम तथा चर्मण्वती नदी ॥ ३०
गोमती वरुणा तद्वत्तीर्थमौशनसं परम्।
भैरवं भृगुतुङ्गं च गौरीतीर्थमनुत्तमम् ॥ ३१
तीर्थ वैनायकं नाम भद्रेश्वरमतः परम्।
तथा पापहरं नाम पुण्याथ तपती नदी ॥ ३२
मूलतापी पयोष्णी च पयोष्णीसङ्गमस्तथा।
महाबोधिः पाटला च नागतीर्थमवन्तिका ।। ३३
तथा वेणा नदी पुण्या महाशालं तथैव च।
महारुद्रं महालिङ्गं दशार्णा च नदी शुभा ॥ ३४
इसी प्रकार पुण्यप्रद रुद्रसर, मानससर, मन्दाकिनी, अच्छोदा (अच्छावत), विपाशा (व्यास नदी), सरस्वती, पूर्वमित्रपद, महान् फलदायक वैद्यनाथ, शिप्रा नदी, महाकाल, मङ्गलमय कालञ्जर, वंशोद्भेद, हरोद्भेद, महान् फलप्रद गङ्गोद्भेद, भद्रेश्वर, विष्णुपद और नर्मदाद्वार- ये सभी पितृप्रिय तीर्थ हैं। इन तीर्थोंमें श्रद्ध करनेसे गया तीर्थमें पिण्ड-प्रदानके तुल्य ही फल प्राप्त होता है-ऐसा महर्षियोंने कहा है। ये सभी पितृतीर्थ जब स्मरणमात्र कर लेनेसे लोगोंक सम्पूर्ण पापोंको नष्ट करते हैं, तब (वहाँ जाकर) श्राद्ध करनेवाले मनुष्योंकि पापनाशकी तो बात ही क्या है। इसी तरह ओंकार पितृतीर्थ है। कावेरी, कपिलोदका चण्डवेगा और नर्मदाका संगम तथा अमरकण्टक-इन पितृतीर्थोंमें स्रान आदि करनेसे कुरुक्षेत्रसे सौगुने अधिक फलकी प्राप्ति होती है। शुक्रतीर्थ भी पितृतीर्थरूपसे विख्यात है तथा सर्वोत्तम सोमेश्वरतीर्थ स्रान, श्राद्ध, दान, हवन तथा स्वाध्याय करनेपर समस्त व्याधियोंका विनाशक, पुण्यप्रदाता और सौ करोड़ गुना फलसे भी अधिक फलदायी है। कायावरोहण (गुजरातका कारावन) नामक तीर्थ, चर्मण्वती (चम्बल) नदी, गोमती, वरुणा (वरणा), उसी प्रकार औशनस नामक उत्तम तीर्थ, भैरव, (केदारनाथके पास) भृगुतुङ्ग, सर्वश्रेष्ठ गौरीतीर्थ, वैनायक नामक तीर्थ, उसके बाद भद्रेश्वरतीर्थ तथा पापहर नामक तीर्थ, पुण्यसलिला तपती नदी, मूलतापी, पयोष्णी तथा पयोष्णी-संगम, महाबोधि, पाटला, नागतीर्थ, अवन्तिका (उज्जैनी) तथा पुण्यतोया वेणानदी, महाशाल, महारुद्र, महालिङ्ग और मङ्गलमयी दशार्णा (धसान) नदी तो अत्यन्त ही शुभ हैं॥ २३-३४॥
शतरुद्रा शताह्वा च तथा विश्वपदं परम्।
अङ्गारवाहिका तद्वन्नदौ तौ शोणघर्घरी ॥ ३५
कालिका च नदी पुण्या वितस्ता च नदी तथा।
एतानि पितृतीर्थानि शस्यन्ते स्नानदानयोः ॥ ३६
श्राद्धमेतेषु यद् दत्तं तदनन्तफलं स्मृतम्।
द्रोणी वाटनदी धारासरित् क्षीरनदी तथा ॥ ३७
गोकर्ण गजकर्णं च तथा च पुरुषोत्तमः ।
द्वारका कृष्णतीर्थं च तथार्बुदसरस्वती ।। ३८
नदी मणिमती नाम तथा च गिरिकणिका।
धूतपापं तथा तीर्थ समुद्रो दक्षिणस्तथा ॥ ३९
एतेषु पितृतीर्थेषु श्राद्धमानन्त्यमश्नुते।
तीर्थं मेघंकरं नाम स्वयमेव जनार्दनः ॥ ४०
यत्र शार्ङ्गधरो विष्णुर्मेखलायामवस्थितः ।
तथा मन्दोदरीतीर्थ तीर्थ चम्पा नदी शुभा ॥ ४१
तथा सामलनाथश्च महाशालनदी तथा।
चक्रवाकं चर्मकोटं तथा जन्मेश्वरे महत् ॥ ४२
अर्जुनं त्रिपुरं चैव सिद्धेश्वरमतः परम्।
श्रीशैलं शांकरं तीर्थं नारसिंहमतः परम् ॥ ४३
महेन्द्रं च तथा पुण्यमथ श्रीरङ्गसंज्ञितम् ।
एतेष्वपि सदा श्रद्धमनन्तफलदं स्मृतम् ॥ ४४
दर्शनादपि चैतानि सद्यः पापहराणि वै।
तुङ्गभद्रा नदी पुण्या तथा भीमरथी सरित् ॥ ४५
भीमेश्वरं कृष्णवेणा कावेरी कुड्मला नदी।
नदी गोदावरी नाम त्रिसंध्या तीर्थमुत्तमम् ॥ ४६
तीर्थं त्रैयम्बकं नाम सर्वतीर्थनमस्कृतम् ।
यत्रास्ते भगवानीशः स्वयमेव त्रिलोचनः ।। ४७
श्रद्धमेतेषु सर्वेषु कोटिकोटिगुणं भवेत्।
स्मरणादपि पापानि नश्यन्ति शतधा द्विजाः ।। ४८
शतरुद्रा, शताहा तथा श्रेष्ठ विश्वपद, अङ्गारवाहिका, उसी प्रकार शोण और घर्धर (घाघरा) नामक दो नद, पुण्यजला कालिका नदी तथा वितस्ता (झेलम) नदी- ये पितृतीर्थ खान और दानके लिये प्रशस्त माने गये हैं। इनमें जो श्रद्ध आदि कर्म किया जाता है, वह अनन्त फलदायक कहा गया है। द्रोणी, वाटनदी, धारानदी, क्षीरनदी, गोकर्ण, गजकर्ण, पुरुषोत्तम क्षेत्र, द्वारका, कृष्णतीर्थ तथा अर्बुदगिरि (आबू), सरस्वती, मणिमती नदी गिरिकणिका, धूतपापतीर्थ तथा दक्षिण समुद्र-इन पितृतीर्थोंमें किया गया श्राद्ध अनन्त फलदायक होता है। इसके पश्चात् मेघंकर नामक तीर्थ (गुजरातमें) है, जिसकी मेखलामें शार्ङ्गधनुष धारण करनेवाले स्वयं जनार्दन भगवान् विष्णु स्थित हैं।
इसी प्रकार मन्दोदरीतीर्थ तथा मङ्गलमयी चम्पा नदी, सामलनाथ, महाशाल नदी, चक्रवाक, चर्मकोट, महान् तीर्थ जन्मेश्वर, अर्जुन, त्रिपुर इसके बाद सिद्धेश्वर, श्रीशैल (मल्लिकार्जुन), शाङ्करतीर्थ, इसके पश्चात् नारसिंहतीर्थ, महेन्द्र तथा पुण्यप्रद श्रीरङ्ग नामक तीर्थ हैं। इनमें भी किया गया श्राद्ध सदा अनन्त फलदाता माना गया है तथा ये दर्शनमात्रसे ही तुरंत पापोंको हर लेते हैं। पुण्यसलिला तुङ्गभद्रा नदी तथा भीमरथी नदी,भीमेश्वर, कृष्णवेणा, कावेरी, कुड्मला नदी, गोदावरी नदी, त्रिसंध्या नामक उत्तम तीर्थ तथा समस्त तीथौँद्वारा नमस्कृत त्रैयम्बक नामक तीर्थ, जहाँ त्रिनेत्रधारी भगवान् शंकर स्वयं ही निवास करते हैं- इन सभी तीर्थोंमें किया गया श्राद्ध करोड़ों-करोड़ों गुना फलदायक होता है। ब्राह्मणो ! इन तीर्थोंका स्मरणमात्र करनेसे पापसमूह सैकड़ों टुकड़ोंमें चूर-चूर होकर नष्ट हो जाते हैं।॥३५-४८॥
श्रीपर्णी ताम्रपर्णी च जयातीर्थमनुत्तमम् ।
तथा मत्स्यनदी पुण्या शिवधारं तथैव च ॥ ४९
भद्रतीर्थं च विख्यातं पम्पातीर्थं च शाश्वतम्।
पुण्यं रामेश्वरं तद्वदेलापुरमलंपुरम् ॥ ५०
अङ्गारक च विख्यातमामर्दकमलम्बुषम् ।
आम्रातकेश्वरं तद्वदेकानकमतः परम् ॥ ५१
गोवर्धनं हरिश्चन्द्रं कृपुचन्द्रं पृथूदकम्।
सहस्राक्षं हिरण्याक्षं तथा च कदली नदी ॥ ५२
रामाधिवासस्तत्रापि तथा सौमित्रिसङ्गमः ।
इन्द्रकीलं महानादं तथा च प्रियमेलकम् ॥ ५३
एतान्यपि सदा श्रद्धे प्रशस्तान्यधिकानि तु।
एतेषु सर्वदेवानां सांनिध्यं दृश्यते यतः ॥ ५४
दानमेतेषु सर्वेषु दत्तं कोटिशताधिकम् ।
बाहुदा च नदी पुण्या तथा सिद्धवनं शुभम् ॥ ५५
तीर्थ पाशुपतं नाम नदी पार्वतिका शुभा।
श्रद्धमेतेषु सर्वेषु दत्तं कोटिशतोत्तरम् ॥ ५६
तथैव पितृतीर्थं तु यत्र गोदावरी नदी।
युता लिङ्गसहस्त्रेण सर्वान्तरजलावहा ॥ ५७
जामदग्न्यस्य तत् तीर्थ क्रमादायातमुत्तमम्।
प्रतीकस्य भयाद् भिन्नं यत्र गोदावरी नदी ॥ ५८
तत् तीर्थं हव्यकव्यानामप्सरोयुगसंज्ञितम् ।
श्राद्धाग्निकार्यदानेषु तथा कोटिशताधिकम् ॥ ५९
तथा सहस्त्रलिङ्ग च राघवेश्वरमुत्तमम् ।
सेन्द्रफेना नदी पुण्या यत्रेन्द्रः पतितः पुरा ॥ ६०
निहत्य नमुचिं शक्रस्तपसा स्वर्गमाप्तवान्।
तत्र दत्तं नरैः श्राद्धमनन्तफलदं भवेत् ॥ ६१
तीर्थं तु पुष्करं नाम शालग्रामं तथैव च।
सोमपानं च विख्यातं यत्र वैश्वानरालयम् ॥ ६२
तीर्थ सारस्वतं नाम स्वामितीर्थं तथैव च।
मलन्दरा नदी पुण्या कौशिकी चन्द्रिका तथा ॥ ६३
वैदर्भी चाथ वेणा च पयोष्णी प्राङ्मुखा परा।
कावेरी चोत्तरा पुण्या तथा जालंधरो गिरिः ॥ ६४
इसी प्रकार श्रीपर्णी, ताम्रपर्णी, सर्वश्रेष्ठ जयातीर्थ, पुण्यतोया मत्स्य नदी, शिवधार, सुप्रसिद्ध भद्रतीर्थ, सनातन पम्पातीर्थ, पुण्यमय रामेश्वर, एलापुर, अलम्पुर, अङ्गारक, प्रख्यात आमर्दक, अलम्बुष, (अलम्बुषा देवीका स्थान) आम्रातकेश्वर एवं एकाग्रक (भुवनेश्वर) हैं। इसके बाद गोवर्धन, हरिश्चन्द्र, कृपुचन्द्र, पृथूदक, सहस्राक्ष, हिरण्याक्ष, कदली नदी, रामाधिवास, उसमें भी सौमित्रिसंगम, इन्द्रकील, महानाद तथा प्रियमेलक- ये सभी श्राद्धमें सदा सर्वाधिक प्रशस्त माने गये हैं। चूँकि इन तीर्थोंमें सम्पूर्ण देवताओंका सांनिध्य देखा जाता है, इसलिये इन सभीमें दिया गया दान सैकड़ों कोटि गुनासे भी अधिक फलदायी होता है। पुण्यजला बाहुदा (धवला) नदी, मङ्गलमय सिद्धवन, पाशुपत नामक तीर्थ तथा शुभदायिनी पार्वतिका नदी- इन सभी तीर्थोंमें किया गया श्राद्ध सौ करोड़ गुनासे भी अधिक फलदाता होता है। उसी प्रकार यह भी एक पितृतीर्थ है, जहाँ सहस्रों शिवलिङ्गॉसे युक्त एवं अन्तरमें सभी नदियोंका जल प्रवाहित करनेवाली गोदावरी नदी बहती है। वहींपर जामदग्न्यका वह उत्तम तीर्थ क्रमशः आकर सम्मिलित हुआ है, जो प्रतीकके भयसे पृथक् हो गया था।
गोदावरी नदीमें स्थित हव्यकव्य- भोजी पितरोंका वह परम प्रियतीर्थ अप्सरोयुग नामसे प्रसिद्ध है। यह भी श्राद्ध, हवन और दान आदि कार्योंमें सैकड़ों कोटि गुनेसे अधिक फल देनेवाला है तथा सहस्रलिङ्ग, उत्तम राघवेश्वर और पुण्यतोया इन्द्रफेना नदी नामक तीर्थ है, जहाँ पूर्वकालमें इन्द्रका पतन हो गया था तथा पुनः उन्होंने अपने तपोबलसे नमुचिका वध करके स्वर्गलोकको प्राप्त किया था। वहाँ मनुष्योंद्वारा किया गया श्रद्ध अनन्त फलदायक होता है। पुष्कर नामक तीर्थ, शालग्राम और जहाँ वैश्वानरका निवासस्थान है, वह सुप्रसिद्ध सोमपानतीर्थ,सारस्वततीर्थ, स्वामितीर्थ, मलन्दरा नदी, कौशिकी और चन्द्रिका ये पुण्यजला नदियाँ हैं। वैदर्भा, वैणा, पूर्वमुख बहनेवाली श्रेष्ठा पयोष्णी, उत्तरमुख बहनेवाली पुण्यसलिला कावेरी तथा जालंधर गिरि-इन श्राद्धसम्बन्धी तीर्थोंमें किया गया श्राद्ध अनन्त फलदायक होता है॥ ४९-६४ ॥
एतेषु श्रद्धतीर्थेषु श्रद्धमानन्त्यमश्नुते।
लोहदण्डं तथा तीर्थ चित्रकूटस्तथैव च ॥ ६५
विन्ध्ययोगश्च गङ्गायास्तथा नदीतटं शुभम्।
कुब्जाएं तु तथा तीर्थमुर्वशीपुलिनं तथा ॥ ६६
संसारमोचनं तीर्थं तथैव ऋणमोचनम्।
एतेषु पितृतीर्थेषु श्रद्धमानन्त्यमश्नुते ॥ ६७
अट्टहासं तथा तीर्थ गौतमेश्वरमेव च।
तथा वसिष्ठं तीर्थं तु हारीतं तु ततः परम् ॥ ६८
ब्रह्मावर्त कुशावर्त हयतीर्थ तथैव च।
पिण्डारकं च विख्यातं शङ्खोद्धारं तथैव च ॥ ६९
घण्टेश्वरं बिल्वकं च नीलपर्वतमेव च।
तथा च धरणीतीर्थ रामतीर्थं तथैव च ॥ ७०
उसी प्रकार लोहदण्डतीर्थ, चित्रकूट, विन्ध्ययोग, गङ्गा नदीका मङ्गलमय तट, कुब्जान (ऋषिकेश) तीर्थ, उर्वशीपुलिन, संसारमोचनतीर्थ तथा ऋणमोचन- इन पितृतीर्थोंमें श्राद्धका फल अनन्त हो जाता है। अट्टहासतीर्थ, गौतमेश्वर, वसिष्ठतीर्थ, उसके बाद हारीततीर्थ, ब्रह्मावर्त, कुशावर्त, हयतीर्थ, (द्वारकाके पास) प्रख्यात पिण्डारक, शङ्खोद्धार, घण्टेश्वर, बिल्वक, नीलपर्वत, धरणीतीर्थ, रामतीर्थ तथा अश्वतीर्थ (कन्नौज)- ये सब भी श्राद्ध एवं दानके लिये अनन्त फलदायक रूपसे विख्यात हैं ॥ ६५-७० ॥
अश्वतीर्थ च विख्यातमनन्तं श्राद्धदानयोः ।
तीर्थं वेदशिरो नाम तथैवौघवती नदी ॥ ७९
तीर्थं वसुप्रदं नामच्छागलाण्डं तथैव च।
एतेषु श्रद्धदातारः प्रयान्ति परमं पदम् ॥ ७२
तथा च बदरीतीर्थं गणतीर्थं तथैव च।
जयन्तं विजयं चैव शक्रतीर्थं तथैव च ॥ ७३
श्रीपतेश्च तथा तीर्थ तीर्थ रैवतकं तथा।
तथैव शारदातीर्थ भद्रकालेश्वरं तथा ।। ७४
वैकुण्ठतीर्थं च परं भीमेश्वरमथापि वा।
एतेषु श्रद्धदातारः प्रयान्ति परमां गतिम् ॥ ७५
तीर्थं मातृगृहं नाम करवीरपुरं तथा।
कुशेशयं च विख्यातं गौरीशिखरमेव च ॥ ७६
नकुलेशस्य तीर्थं च कर्दमालं तथैव च।
दिण्डिपुण्यकरं तद्वत् पुण्डरीकपुरं तथा ॥ ७७
सप्तगोदावरी तीर्थ सर्वतीर्थेश्वरेश्वरम्।
तत्र श्राद्धं प्रदातव्यमनन्तफलमीप्सुभिः ॥ ७८
वेदशिर नामक तीर्थ, उसी तरह ओघवती नदी, वसुप्रद नामक तीर्थ एवं छागलाण्डतीर्थ-इन तीर्थोंमें श्राद्ध प्रदान करनेवाले लोग परमपदको प्राप्त हो जाते हैं। बदरीतीर्थ, गणतीर्थ, जयन्त, विजय, शक्रतीर्थ, श्रीपतितीर्थ, रैवतकतीर्थ, शारदातीर्थ, भद्रकालेश्वर, वैकुण्ठतीर्थ, श्रेष्ठ भीमेश्वरतीर्थ इन तीर्थोंमें श्राद्ध करनेवाले लोग परमगतिको प्राप्त हो जाते हैं। मातृगृह नामक तीर्थ, करवीरपुर, कुशेशय, सुप्रसिद्ध गौरी- शिखर, नकुलेशतीर्थ, कर्दमाल, दिण्डिपुण्यकर, उसी तरह पुण्डरीकपुर तथा समस्त तीर्थेश्वरोंका भी अधीश्वर सप्तगोदावरीतीर्थ इन तीर्थोंमें अनन्त फलप्राप्तिके इच्छुकोंको श्राद्ध प्रदान करना चाहिये ॥ ७१-७८ ॥
एष तूद्देशतः प्रोक्तस्तीर्थानां संग्रहो मया।
वागीशोऽपि न शक्नोति विस्तरात् किमु मानुषः ॥ ७९
सत्यं तीर्थं दया तीर्थं तीर्थमिन्द्रियनिग्रहः ।
वर्णाश्रमाणां गेहेऽपि तीर्थ तु समुदाहृतम् ॥ ८०
एतत्तीर्थेषु यच्छाद्धं तत् कोटिगुणमिष्यते।
यस्मात्तस्मात् प्रयत्नेन तीर्थे श्राद्धं समाचरेत् ॥ ८१
प्रातःकालो मुहूर्तास्त्रीन् सङ्गवस्तावदेव तु।
मध्याह्नस्त्रिमुहूर्तः स्यादपराह्नस्ततः परम् ॥ ८२
सायाह्नस्विमुहूर्त्तः स्याच्छ्राद्धं तत्र न कारयेत् ।
राक्षसी नाम सा वेला गर्हिता सर्वकर्मसु ॥ ८३
अह्नो मुहूर्ता विख्याता दश पञ्च च सर्वदा।
तत्राष्टमो मुहूर्त्ता यः स कालः कुतपः स्मृतः ॥ ८४
मध्याह्ने सर्वदा यस्मान्मन्दो भवति भास्करः ।
तस्मादनन्तफलदस्तदारम्भो भविष्यति ॥ ८५
मध्याह्नखङ्गपात्रं च तथा नेपालकम्बलः ।
रूप्यं दर्भास्तिला गावो दौहित्रश्चाष्टमः स्मृतः ॥ ८६
पापं कुत्सितमित्याहुस्तस्य संतापकारिणः ।
अष्टावेते यतस्तस्मात् कुतपा इति विश्रुताः ॥ ८७
ऊर्ध्वं मुहूर्त्तात् कुतपाद्यन्मुहूर्तचतुष्टयम् ।
मुहूर्तपञ्चकं चैतत् स्वधाभवनमिष्यते ॥ ८८
विष्णोर्देहसभूद्भूताः कुशाः कृष्णास्तिलास्तथा।
श्राद्धस्य रक्षणायालमेतत्प्राहुर्दिवौकसः ॥ ८९
तिलोदकाञ्जलिर्देयो जलस्थैस्तीर्थवासिभिः ।
सदर्भहस्तेनैकेन श्रद्धमेवं विशिष्यते ॥ ९०
श्राद्धसाधनकाले तु पाणिनैकेन दीयते।
तर्पणं तूभयेनैव विधिरेष सदा स्मृतः ॥ ९१
इस प्रकार मैंने तीर्थोंके इस संग्रहका संक्षेपमें वर्णन किया; वैसे इनका विस्तृत वर्णन करनेमें तो बृहस्पति भी समर्थ नहीं हैं, फिर मनुष्यकी तो गणना ही क्या है? सत्यतीर्थ, दयातीर्थ तथा इन्द्रियनिग्रहतीर्थ-ये सभी वर्णाश्रम- धर्म माननेवालोंके घरमें भी तीर्थरूपसे बतलाये गये हैं। चूंकि इन तीर्थोंमें जो श्राद्ध किया जाता है, वह कोटिगुना फलदायक होता है, अतः प्रयत्नपूर्वक तीर्थोंमें श्राद्ध- कार्य सम्पन्न करना चाहिये। प्रातः काल तीन मुहूर्ततकका काल संगव कहलाता है। उसके बाद तीन मुहूर्ततकका काल मध्याह्न और उसके बाद उतने ही समयतक अपराह्न है। फिर तीन मुहूर्ततक सायंकाल होता है, उसमें श्राद्ध नहीं करना चाहिये।
सायंकालका समय राक्षसी वेला नामसे प्रसिद्ध है। यह सभी कार्योंमें निन्दित है। एक दिनमें पन्द्रह मुहूर्त होते हैं, यह तो सदासे विख्यात है। उनमें जो आठवाँ मुहूर्त है, वह कुतप नामसे प्रसिद्ध है। चूंकि मध्याह्नके समय सूर्य सदा मन्द हो जाते हैं, इसलिये उस समय अनन्त फलदायक उस (कुतप) का आरम्भ होता है। मध्याह्नकाल, खड्गपात्र, नेपालकम्बल, चाँदी, कुश, तिल, गौ और आठवाँ दौहित्र (कन्याका पुत्र)- ये आठों चूंकि पापको, जिसे कुत्सित कहा जाता है, संतप्त करनेवाले हैं, इसलिये 'कुतप 'नामसे विख्यात हैं। इस कुतप मुहूर्तके उपरान्त चार मुहूर्त अर्थात् कुल पाँच मुहूर्त स्वधावाचनके लिये उत्तम काल हैं। कुश तथा काला तिल-ये दोनों भगवान् विष्णुके शरीरसे प्रादुर्भूत हुए हैं, अतः ये श्राद्धकी रक्षा करनेमें सर्वसमर्थ हैं- ऐसा देवगण कहते हैं। तीर्थवासियोंको जलमें प्रवेश करके एक हाथमें कुश लेकर तिलसहित जलाञ्जलि देनी चाहिये। ऐसा करनेसे श्राद्धकी विशेषता बढ़ जाती है। श्राद्ध करते समय (पिण्ड आदि तो) एक ही हाथसे दिया जाता है, परंतु तर्पण दोनों हाथोंसे किया जाता है- यह विधि सदासे प्रचलित है ॥ ७९-९१ ॥
सूत उवाच
पुण्यं पवित्रमायुष्यं सर्वपापविनाशनम् ।
पुरा मत्स्येन कथितं तीर्थश्राद्धानुकीर्तनम् ।
शृणोति यः पठेद् वापि श्रीमान् संजायते नरः ॥ ९२
श्राद्धकाले च वक्तव्यं तथा तीर्थनिवासिभिः ।
सर्वपापोपशान्त्यर्थमलक्ष्मीनाशनं परम् ॥ ९३
इदं पवित्रं यशसो निधान-मिदं महापापहरं च पुंसाम्।
ब्रह्मार्करुद्रैरपि पूजितं च श्राद्धस्य माहात्यमुशन्ति तज्ञाः ॥ ९४
सूतजी कहते हैं- ऋषियो ! पूर्वकालमें मत्स्यभगवान्ने इस तीर्थ श्राद्धका वर्णन किया था। यह पुण्यप्रद, परम पवित्र, आयुवर्धक तथा सम्पूर्ण पापोंका विनाशक है। जो मनुष्य इसे सुनता है अथवा स्वयं इसका पाठ करता है, वह श्रीसम्पन्न हो जाता है। तीर्थनिवासियोंद्वारा समस्त पापोंकी शान्तिके निमित्त श्राद्धके समय इस परम श्रेष्ठ दरिद्रताविनाशक (श्राद्ध-माहात्म्यरूप) प्रसङ्गका पाठ करना चाहिये। यह श्राद्ध-माहात्म्य परम पवित्र, यशका आश्रयस्थान, पुरुषोंके महान्-से-महान् पापोंका विनाशक तथा ब्रह्मा, सूर्य और रुद्रद्वारा भी पूजित (सम्मानित) है॥ ९२-९४॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणे श्राद्धकल्पे द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके श्राद्धकल्पमें बाईसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २२॥
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