पुरूरवा का सूर्य-चन्द्र के साथ समागम और पितृ तर्पण, पर्वसंधि का वर्णन तथा श्रद्ध भोजी पितरों का निरूपण | puroorava ka soory-chandr ke saath samaagam aur pitr tarpan, parvasandhi ka varnan tatha shraddh bhojee pitaron ka niroopan |

मत्स्य पुराण एक सौ एकतालीसवाँ अध्याय

पुरूरवा का सूर्य-चन्द्र के साथ समागम और पितृतर्पण, पर्वसंधि का वर्णन तथा श्रद्ध भोजी पितरों का निरूपण

ऋषय ऊचुः

कथं गच्छत्यमावास्यां मासि मासि दिवं नृपः। 
ऐलः पुरूरवाः सूत तर्पयेत कथं पितॄन् । 
एतदिच्छामहे श्रोतुं प्रभावं तस्य धीमतः ॥ १९

ऋषियोंने पूछा- सूतजी! इलानन्दन महाराज पुरूरवा प्रति मासकी अमावास्याको किस प्रकार स्वर्गलोकमें जाते हैं और वहाँ अपने पितरोंको कैसे तृप्त करते हैं? उन बुद्धिमान् नरेशके इस प्रभावको हमलोग सुनना चाहते हैं॥ १॥

सूत उवाच

एतदेव तु पप्रच्छ मनुः स मधुसूदनम्। 
सूर्यपुत्राय चोवाच यथा तन्मे निबोधत ॥ २

सूतजी कहते हैं-ऋषियो। पूर्वकालमें महाराज मनुने भगवान् मधुसूदनसे यही प्रश्न किया था। उस समय भगवान्ने उन सूर्यपुत्र मनुके प्रति जो कुछ कहा था, वही में बतला रहा हूँ, आपलोग ध्यान देकर सुनिये ॥ २॥

मत्स्य उवाच

तस्य चाहं प्रवक्ष्यामि प्रभावं विस्तरेण तु। 
ऐलस्य दिवि संयोगं सोमेन सह धीमता ॥ ३

सोमाच्चैवामृतप्राप्तिः पितृणां तर्पणं तथा।
सौम्या बर्हिषदः काव्या अग्निष्वात्तास्तथैव च ॥ ४

यदा चन्द्रश्च सूर्यश्च नक्षत्राणां समागती। 
अमावास्यां निवसत एकस्मिन्नथ मण्डले ॥ ५

तदा स गच्छति द्रष्टुं दिवाकरनिशाकरौ। 
अमावास्याममावास्यां मातामहपितामहौ ॥ ६

अभिवाद्य तु तौ तत्र कालापेक्षः स तिष्ठति । 
प्रचस्कन्द ततः सोममर्चयित्वा परिश्रमात् ॥ ७

ऐलः पुरूरवा विद्वान् मासि श्राद्धचिकीर्षया। 
ततः स दिवि सोमं वै ह्युपतस्थे पितृनपि ॥ ८

द्विलवं कुहुमात्रं च तावुभौ तु निधाय सः । 
सिनीवालीप्रमाणाल्यकुहूमात्रव्रतोदये ॥ ९

कुहूमात्रं पित्रुद्देशं ज्ञात्वा कुडूमुपासते। 
तमुपास्य ततः सोमं कलापेक्षी प्रतीक्षते ॥ १०

स्वधामृतं तु सोमाद् वै वसंस्तेषां च तृप्तये। 
दशभिः पञ्चभिश्चैव स्वधामृतपरिस्त्रवैः । 
कृष्णपक्षभुजां प्रीतिद्रुह्यते परमांशुभिः ॥ ११

सद्योऽभिक्षरता तेन सौम्येन मधुना च सः। 
निवापेष्वथ दत्तेषु पित्र्येण विधिना तु वै ॥ १२

स्वधामृतेन सौम्येन तर्पयामास वै पितृन्। 
सौम्या बर्हिषदः काव्या अग्निष्वात्तास्तथैव च ॥ १३

ऋतुरग्निः स्मृतो विप्रैऋतुं संवत्सरं विदुः । 
जज्ञिरे ऋतवस्तस्मादृतुभ्यो ह्यार्तवाऽभवन् ॥ १४ 

पितरोऽऽर्तवोऽर्धमासा विज्ञेया ऋतुसूनवः । 
पितामहास्तु ऋतवो ह्यमावास्याब्दसूनवः । 
प्रपितामहाः स्मृता देवाः पञ्चाब्दा ब्रह्मणः सुताः ॥ १५

सौम्या बर्हिषदः काव्या अग्निष्वात्ता इति त्रिधा।

मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन्। मैं इलापुत्र पुरूरवाका प्रभाव, स्वर्गलोकमें उसका बुद्धिमान् चन्द्रमाके साथ संयोग, उन चन्द्रमासे अमृतकी उपलब्धि तथा पितृतर्पणकी बात विस्तारपूर्वक बतला रहा हूँ। सौम्य, बर्हिषद्, काव्य तथा अग्निष्वात्तसंज्ञक पितरों तथा नक्षत्रोंपर विचरण करते हुए सूर्य और चन्द्रमा जिस समय अमावास्या तिथिको एक मण्डल अर्थात् एक राशिपर स्थित होते हैं, उस समय वह प्रत्येक अमावास्याको सूर्य और चन्द्रमाका दर्शन करनेके लिये स्वर्गमें जाता है और वहाँ मातामह (नाना) और पितामह (बाबा) दोनोंको अभिवादन कर कालकी प्रतीक्षा करता हुआ कुछ दिनतक ठहरा रहता है। चन्द्रमासे अमृतके क्षरण होनेपर उससे परिश्रम पूर्वक पितरोंकी पूजा करके लौटता है। किसी महीनेमें श्राद्ध करनेकी इच्छासे इलानन्दन विद्वान् पुरूरवा स्वर्गलोकमें चन्द्रमा और पितरोंके निकट गया और दो लवमात्र कुडू अमावास्यामें उसने दोनोंको स्थापित किया; क्योंकि पितृ-व्रतमें जब सिनीवालीका प्रमाण थोड़ा तथा कुडू (अमावास्या) प्रशस्त मानी गयी है। 

अतः कुहूका समय प्राप्त हुआ जानकर वह पितरोंके उद्देश्यसे कुहूकी उपासना करता है। उसकी उपासना करनेके पश्चात् वह कालकी प्रतीक्षा करता हुआ चन्द्रमाकी भी प्रतीक्षा करता है। वहाँ रहते हुए उसे पितरोंकी तृप्तिके लिये चन्द्रमासे स्वधारूप अमृत प्राप्त होता है। चन्द्रमाकी पंद्रह किरणोंसे स्वधामृतका क्षरण होता है। कृष्णपक्षमें श्राद्धभोजी पितरोंका उन श्रेष्ठ किरणोंसे बड़ा प्रेम रहता है तथा अन्य पितर उनसे द्वेष करते हैं। पुरूरवा तुरंत अभिक्षरित हुए उस उत्तम मधुको पितृ-श्राद्धकी विधिके अनुसार श्राद्धके समय पितरोंको प्रदान करता है। इस प्रकार वह उत्तम स्वधामृतसे सौम्य, बर्हिषद्, काव्य तथा अग्निष्वात्त पितरोंको तृप्त करता रहता है। महर्षियोंने ऋतुको अग्नि बतलाया है और ऋऋतुको संवत्सर भी कहते हैं। उस संवत्सरसे ऋतुकी उत्पत्ति होती है और ऋतुओंसे उत्पन्न हुए पितर आर्तव कहलाते हैं। आर्तव और अर्धमास पितरोंको ऋतुका पुत्र तथा ऋतुस्वरूप पितामह और अमावास्याको संवत्सरका पुत्र जानना चाहिये। प्रपितामह और पञ्च संवत्सररूप देवगण ब्रह्माके पुत्र माने गये हैं॥३-१५॥

गृहस्था ये तु यज्वानो हविर्यज्ञार्तवाश्च ये। 
स्मृता बर्हिषदस्ते वै पुराणे निश्चयं गताः ॥ १६ 

गृहमेधिनश्च यज्वानो अग्निष्वात्तार्तवाः स्मृताः । 
अष्टकापतयः काव्याः पञ्चाब्दांस्तु निबोधत ॥ १७

तेषु संवत्सरो ह्यग्निः सूर्यस्तु परिवत्सरः। 
सोमस्त्विड्वत्सरश्चैव वायुश्चैवानुवत्सरः ॥ १८

रुद्रस्तु वत्सरस्तेषां पञ्चाब्दा ये युगात्मकाः । 
कालेनाधिष्ठितस्तेषु चन्द्रमाः स्त्रवते सुधाम् ॥ १९

एते स्मृता देवकृत्याः सोमपाश्चोष्मपाश्च ये। 
तांस्तेन तर्पयामास यावदासीत् पुरूरवाः ॥ २०

यस्मात्प्रसूयते सोमो मासि मासि विशेषतः । 
ततः स्वधामृतं तद्वै पितॄणां सोमपायिनाम्। 
एतत् तदमृतं सोममवाप मधु चैव हि ॥ २१

ततः पीतसुधं सोमं सूर्योऽसावेकरश्मिना। 
आप्यायते सुषुम्णेन सोमं तु सोमपायिनम् ॥ २२

निःशेषं वै कलाः पूर्वा युगपद्व्यापयन्पुरा। 
सुषुम्णाऽऽप्यायमानस्य भागं भागमहः क्रमात् ॥ २३

कलाः क्षीयन्ति कृष्णास्ताः शुक्ला ह्याप्याययन्ति च। 
एवं सा सूर्यवीर्येण चन्द्रस्याप्यायिता तनुः ॥ २४

पौर्णमास्यां स दृश्येत शुक्लः सम्पूर्णमण्डलः । 
एवमाप्यायितः सोमः शुक्लपक्षेऽप्यहः क्रमात् । 
देवैः पीतसुधं सोमं पुरा पश्चात्पिबेद् रविः ॥ २५

पीतं पञ्चदशाहं तु रश्मिनैकेन भास्करः। 
आप्यायत्सुषुम्णेन भागं भागमहः क्रमात् ॥ २६

सुषुम्णाप्यायमानस्य शुक्ला वर्धयन्ति वै कलाः । 
तस्माद्धसन्ति वै कृष्णाः शुक्ला ह्याप्याययन्ति च ।। २७

एवमाप्यायते सोमः क्षीयते च पुनः पुनः। 
समृद्धिरेवं सोमस्य पक्षयोः शुक्लकृष्णयोः ॥ २८

इत्येष पितृमान् सोमः स्मृतस्तद्वत्सुधात्मकः । 
कान्तः पञ्चदशैः सार्धं सुधामृतपरिस्त्रवैः ॥ २९

सौम्य, बर्हिषद्, काव्य और अग्रिष्वात्त- पितरोंके ये तीन भेद हैं। इनमें जो गृहस्थ, यज्ञकर्ता और हवन करनेवाले हैं, वे आर्तव पितर पुराणमें बर्हिषद् नामसे निश्चित किये गये हैं। गृहस्थाश्रमी और यज्ञकर्ता आर्तव पितर अग्रिष्वात्त कहलाते हैं। अष्टकापति आर्तव पितरोंको काव्य कहा जाता है। अब पञ्चाब्दोंको सुनिये। इनमें, अग्नि संवत्सर, सूर्य परिवत्सर, सोम इड्वत्सर, वायु अनुवत्सर और रुद्र वत्सर हैं। ये पञ्चाब्द युगात्मक होते हैं। समयानुसार इनपर स्थित हुए चन्द्रमा अमृतका क्षरण करते हैं। ये देवकर्म कहे जाते हैं। जबतक पुरूरवा वहाँ रहता था तबतक वह जो सोमप और ऊष्मप पितर हैं, उनको भी उसी अमृतसे तृप्त करता था। चूँकि चन्द्रमा प्रत्येक मासमें विशेषरूपसे अमृतका क्षरण करते हैं और वह सोमपायी पितरोंको स्वधामृतरूपसे प्राप्त होता है। इसीलिये वह अमृतस्वरूप मधु सोमको प्राप्त होता है। इस प्रकार पितरोंद्वारा चन्द्रमाका अमृत पी लिये जानेपर सूर्यदेव अपनी एकमात्र सुषुम्णा नामकी किरणद्वारा उन सोमपायी चन्द्रमाको पुनः परिपूर्ण कर देते हैं। 

इस प्रकार सूर्य सुषुम्णाद्वारा पूर्ण किये जाते हुए चन्द्रमाकी पहलेकी सम्पूर्ण कलाओंको दिनके क्रमसे थोड़ा-थोड़ा करके पूर्ण करते हैं। चन्द्रमाकी कलाएँ कृष्णपक्षमें क्षीण हो जाती हैं और शुक्लपक्षमें वे पुनः पूर्ण हो जाती हैं। इस प्रकार सूर्यके प्रभावसे चन्द्रमाका शरीर पूर्ण होता रहता है। इसी कारण शुक्लपक्षमें दिनके क्रमसे परिपूर्ण किये गये चन्द्रमाका सम्पूर्ण मण्डल पूर्णिमा तिथिको श्वेत वर्णका दिखायी पड़ता है। पहले देवगण चन्द्रमासे लवित हुए अमृतको पीते हैं, उसके बाद सूर्य भी सोमका पान करते हैं। सूर्य अपनी एक किरणसे पंद्रह दिनोंतक सोमको पीते हैं और पुनः दिनके क्रमसे थोड़ा-थोड़ा कर सुषुम्णा किरणद्वारा उसे पूर्ण कर देते हैं। इसी कारण शुक्लपक्षमें चन्द्रमाकी कलाएँ बढ़ती हैं और कृष्णपक्षमें वे क्षीण होती हैं, यही इनका क्रम है। इस प्रकार चन्द्रमा पंद्रह दिनोंतक बढ़ते हैं और पुनः पंद्रह दिनतक क्षीण होते रहते हैं। चन्द्रमाकी इस प्रकारकी समृद्धि और हास शुक्लपक्ष एवं कृष्णपक्षके आश्रयसे होते हैं। इस प्रकार सुधामृतस्रावी पंद्रह किरणोंसे सुशोभित ये चन्द्रमा सुधात्मक एवं पितृमान् कहे जाते हैं॥ १६-२९॥

अतः परं प्रवक्ष्यामि पर्वाणां संधयश्च याः।
यथा ग्रश्नन्ति पर्वाणि आवृत्तादिक्षुवेणुवत् ॥ ३०

तथाब्दमासाः पक्षाश्च शुक्लाः कृष्णास्तु वै स्मृताः ।
पौर्णमास्यास्तु यो भेदो ग्रन्थयः संधयस्तथा ॥ ३१

अर्थमासस्य पर्वाणि द्वितीयाप्रभृतीनि च।
अग्न्याधानक्रिया यस्तान्नीयन्ते पर्वसन्धिषु ॥ ३२

तस्मात्तु पर्वणो ह्यादौ प्रतिपद्यादिसंधिषु।
सायाद्धे अनुमत्याञ्च द्वौ लवौ काल उच्यते। 
लवौ द्वावेव राकायाः कालो ज्ञेयोऽपराह्निकः ॥ ३३ 

प्रकृतिः कृष्णपक्षस्य कालेऽतीतेऽपराह्निके।
सायाले प्रतिपद्येष स कालः पौर्णमासिकः ॥ ३४

व्यतीपाते स्थिते सूर्ये लेखादूर्ध्वं युगान्तरम् । 
युगान्तरोदिते चैव चन्द्रे लेखोपरि स्थिते ॥ ३५ 

पूर्णमासव्यतीपातो यदा पश्येत्परस्परम्। 
तौ तु वै प्रतिपद्यावत्तस्मिन्काले व्यवस्थितौ ॥ ३६ 

तत्कालं सूर्यमुद्दिश्य दृष्ट्वा संख्यातुमर्हसि। 
स चैव सत्क्रियाकालः षष्ठः कालोऽभिधीयते ।। ३७

पूर्णेन्दुः पूर्णपक्षे तु रात्रिसंधिषु पूर्णिमा। 
तस्मादाप्यायते नक्तं पौर्णमास्यां निशाकरः ॥ ३८

यदान्योन्यवतो पाते पूर्णिमां प्रेक्षते दिवा। 
चन्द्रादित्योऽपराले तु पूर्णत्वात्पूर्णिमा स्मृता ॥ ३९

यस्मात्तामनुमन्यन्ते पितरो दैवतैः सह। 
तस्मादनुमतिर्नाम पूर्णत्वात् पूर्णिमा स्मृता ॥ ४०

अत्यर्थ राजते यस्मात्पौर्णमास्यां निशाकरः । 
रञ्जनाच्चैव चन्द्रस्य राकेति कवयो विदुः ॥ ४१ 

अमा वसेतामृक्षे तु यदा चन्द्रदिवाकरौ। 
एका पञ्चदशी रात्रिरमावस्या ततः स्मृता ॥ ४२ 

इसके बाद अब मैं पर्वोंकी जो संधियाँ हैं, उनका वर्णन कर रहा हूँ। जैसे गन्ने और बाँसमें गोलाकार गाँठें बनी रहती हैं वैसे ही वर्ष, मास, शुक्लपक्ष, कृष्णपक्ष, अमावास्या और पूर्णिमाके भेद ये सभी पर्वकी ग्रन्थियाँ और संधियाँ हैं। (प्रत्येक पक्षमें) प्रतिपद्-द्वितीया आदि पंद्रह तिथियाँ होती हैं। चूँकि अग्न्याधान आदि क्रियाएँ पर्वसंधियोंमें सम्पन्न की जाती हैं, अतः उन्हें (अमा, पूर्णिमा) पर्वकी तथा प्रतिपदाकी संधियोंमें करना चाहिये। चतुर्दशी और पूर्णिमा आदिके दो लवको पर्वकाल कहा जाता है तथा राकाके दूसरे दिनमें आनेवाले दो लवको पर्वकाल जानना चाहिये। कृष्णपक्षके अपराह्निक कालके व्यतीत हो जानेपर सायंकालमें प्रतिपदाके योगमें जो काल आता है उसे पौर्णमासिक कहते हैं। सूर्यके लेखा (विषुव) के ऊपर व्यतीपातमें स्थित होनेपर युगान्तर कहलाता है। उस समय चन्द्रमा लेखाके ऊपर स्थित युगान्तरमें उदित होते हैं। 

इस प्रकार जब चन्द्रमा और व्यतीपात परस्पर एक-दूसरेको देखें और प्रतिपदा तिथितक उसी अवस्थामें स्थित रहें तो उस समय सूर्यके उद्देश्यसे उस समयको देखकर गणना करनी चाहिये। उसे सत्क्रियाकाल नामक छठा काल कहते हैं। शुक्लपक्षके पूर्ण होनेपर रात्रिकी संधिमें जब पूर्णचन्द्र उदय होते हैं, तब उसे पूर्णिमा कहते हैं। इसीलिये चन्द्रमा पूर्णिमाकी रातमें अपनी सभी कलाओंसे पूर्ण हो जाते हैं। पूर्णिमा तिथिकी हास-वृद्धि होती रहती है, अतः यदि वृद्धिके समय दूसरे दिन सूर्य और चन्द्र दिनमें पूर्णिमामें दीखते हैं तो वह तिथि पूर्ण होनेके कारण पूर्णिमा कहलाती है। यदि दूसरे दिन प्रतिपदाका योग होनेमें चन्द्रमाकी एक कला हीन हो गयी तो उस पूर्णिमाको अनुमति कहते हैं। यह अनुमति देवताऑसहित पितरोंको परम प्रिय है। चूंकि पूर्णिमाकी रातमें चन्द्रमा अत्यन्त सुशोभित होते हैं, इसलिये चन्द्रमाको प्रिय होनेके कारण उस पूर्णिमाको विद्वानोंने राका नामसे अभिहित किया है। कृष्णपक्षकी पंद्रहवीं रात्रिको जब सूर्य और चन्द्र एक साथ एक नक्षत्रपर स्थित होते हैं, तब उसे अमावास्या कहा जाता है ॥ ३०-४२ ॥

उद्दिश्य ताममावास्यां यदा दर्श समागतौ।
द्वौ द्वौ लवावमावास्यां स कालः पर्वसंधिषु। 
द्वयक्षरः कुहुमात्रश्च पर्वकालस्तु स स्मृतः ॥ ४४

दृष्टचन्द्रा त्वमावास्या मध्याह्नप्रभृतीह वै। 
दिवा तदूर्ध्वं रात्र्यां तु सूर्ये प्राप्ते तु चन्द्रमाः। 
सूर्येण सहसोद्गच्छेत्ततः प्रातस्तनात्तु वै ॥ ४५ 

समागम्य लवी द्वौ तु मध्याह्नान्निपतन् रविः । 
प्रतिपच्छुक्लपक्षस्य चन्द्रमाः सूर्यमण्डलात् ॥ ४६

निर्मुच्यमानयोर्मध्ये तयोर्मण्डलयोस्तु वै। 
स तदान्वाहुतेः कालो दर्शस्य च वष‌क्रियाः । 
एतदृतुमुखं ज्ञेयममावास्यां तु पार्वणम् ॥ ४७

दिवा पर्व त्वमावास्यां क्षीणेन्दौ धवले तु वै। 
तस्माद् दिवा त्वमावास्यां गृह्यते यो दिवाकरः ॥ ४८

कुद्धेति कोकिलेनोक्तं यस्मात्कालात् समाप्यते। 
तत्कालसंज्ञिता होषा अमावास्या कुहूः स्मृता ॥ ४९

सिनीवालीप्रमाणं तु क्षीणशेषो निशाकरः । 
अमावास्या विशत्यर्क सिनीवाली तदा स्मृता ॥ ५०

अनुमतिश्च राका च सिनीवाली कुहूस्तथा। 
एतासां द्विलयः कालः कुरुमात्रा कुहूः स्मृता ॥ ५१

इत्येष पर्वसन्धीनां कालो वै द्विलवः स्मृतः। 
पर्वणां तुल्यकालस्तु तुल्याहुतिवष‌क्रियाः ॥ ५२ 

चन्द्रसूर्यव्यतीपाते समे वै पूर्णिमे उभे। 
प्रतिपत्प्रतिपन्नस्तु पर्वकालो द्विमात्रकः ॥ ५३

कालः कुहूसिनीवाल्यो समृद्धो द्विलवः स्मृतः । 
अर्कनिर्मण्डले सोमे पर्वकालः कलाः स्मृताः ॥ ५४ 

यस्मादापूर्वते सोमः पञ्चदश्यां तु पूर्णिमा। 
दशभिः पञ्चभिश्चैव कलाभिर्दिवसक्रमात् ॥ ५५

तस्मात् पञ्चदशे सोमे कला वै नास्ति षोडशी। 
तस्मात् सोमस्य विप्रोक्तः पञ्चदश्यां मया क्षयः ॥ ५६

इत्येते पितरो देवाः सोमपाः सोमवर्धनाः ।
आर्तवा ऋतवोऽथाब्दा देवास्तान्भावयन्ति हि ।। ५७

अन्योन्यं चन्द्रसूर्यौ तु दर्शनाद् दर्श उच्यते ॥ ४३

उस अमावास्याको लक्ष्य कर जब सूर्य और चन्द्रमा दर्शपर आ जाते हैं और परस्पर एक-दूसरेको देखते हैं, तब उसे दर्श कहते हैं।  अमावास्या में पर्वसंधि के अवसर पर दो-दो लव पर्वकाल कहलाते हैं। इनमें प्रतिपदाके योगवाला पर्वकाल कुरु कहलाता है। जिस दिन दोपहरतक अमावास्यामें चन्द्रमाका सम्पर्क बना रहे और उसके बाद रात्रिके प्राप्त होनेपर चन्द्रमा सहसा सूर्यके निकट पहुँच जायँ, पुनः प्रातःकाल सूर्यमण्डलसे पृथक् हो जाय तो शुक्लपक्षकी प्रतिपदामें प्रातःकाल दो लव पर्वकाल कहलाता है। इस प्रकार सूर्यमण्डल और चन्द्रमण्डलके पृथक् होते समय अमावास्याके उस मध्यवर्ती कालको अन्वाहुति कहते हैं। इसमें पितरोंके निमित्त वषट् क्रियाएँ की जाती हैं। इसे ऋतुमुख और अमावास्याको पार्वण जानना चाहिये। दिनमें जब क्षीण चन्द्रमा सूर्यके साथ मिलते हैं तब अमावास्याका वह काल पर्वकाल कहलाता है। इसीलिये दिनमें अमावास्याके उस पर्वकालमें सूर्यके पहुँचनेपर सूर्य गृहीत हो जाते हैं अर्थात् सूर्यग्रहण लगता है। कोयलद्वारा उच्चरित 'कुहू' शब्द जितने समयमें समाप्त होता है, अमावास्याका उतना मुख्य काल 'कुहू' नामसे कहा जाता है। 

सिनीवालीका प्रमाण यह है कि जब क्षीण चन्द्रमा सूर्यमें प्रवेश करते हैं तब वह अमावास्या सिनीवाली कही जाती है। अनुमति राका, सिनीवाली और कुहू-इनका दो लवकाल पर्वकाल होता है। कुहू शब्दके उच्चारणपर्यन्त कालको कुहू कहते हैं। इस प्रकार पर्वसंधियोंका यह काल दो लवका बतलाया जाता है और यह पर्वोंके समान फलदायक होता है। इसमें हवन और वषट् क्रियाएँ की जाती हैं। चन्द्रमा और सूर्यका व्यतिपातपर स्थित होना तथा दोनों (अमावास्या और पूर्णिमा) पूर्णिमाएँ-ये सभी एक-से पुण्यदायक हैं। प्रतिपदाके संयोगसे उत्पन्न होनेवाला पर्वकाल दो लवका होता है। इसी प्रकार कुहू और सिनीवालीके सम्बन्धसे उत्पन्न हुआ पर्वकाल भी दो लवका ही माना जाता है। चन्द्रमा जब सूर्यमण्डलसे बाहर होते हैं, तब वह पर्वकाल एक कलाका बतलाया जाता है। चूँकि दिनके क्रमसे पंद्रहवीं तिथिको चन्द्रमा पंद्रह कलाओंद्वारा पूर्ण किये जाते हैं, इसलिये उस तिथिको पूर्णिमा कहते हैं। इस प्रकार चन्द्रमा पंद्रह कला ओं वाले ही हैं, उनमें सोलहवीं कला नहीं है। इसी कारण मैंने पंद्रहवीं तिथिको चन्द्रमा का क्षय बतलाया है। इस प्रकार ये सोमपायी देव-पितर सोमकी वृद्धि करनेवाले हैं और ऋतु एवं अब्दसे सम्बन्धित आर्तवसंज्ञक देवगण उन्हींके परिपोषक हैं ॥४३-५७॥

अतः परं प्रवक्ष्यामि पितृश्रद्धभुजस्तु ये। 
तेषां गतिं च सत्तत्त्वं प्राप्तिं श्राद्धस्य चैव हि ॥ ५८

न मृतानां गतिः शक्या ज्ञातुं वा पुनरागतिः । 
तपसा हि प्रसिद्धेन किं पुनर्मांसचक्षुषा ॥ ५९

अत्र देवान्पितूंश्चैते पितरो लौकिकाः स्मृताः ।
तेषां ते धर्मसामर्थ्यात्स्मृताः सायुज्यगा द्विजैः ॥ ६०

यदि वाश्रमधर्मेण प्रज्ञानेषु व्यवस्थितान्।
अन्ये चात्र प्रसीदन्ति श्रद्धायुक्तेषु कर्मसु ॥ ६१

ब्रह्मचर्येण तपसा यज्ञेन प्रजया भुवि।
श्राद्धेन विद्यया चैव चान्नदानेन सप्तधा ॥ ६२

कर्मस्वेवैषु ये सक्ता वर्तन्त्या देहपातनात्। 
देवैस्ते पितृभिः सार्धमूष्मपैः सोमपैस्तथा। 
स्वर्गता दिवि मोदन्ते पितृमन्त उपासते ॥ ६३

प्रजावतां प्रसिद्धषा उक्ता श्राद्धकृतां च वै।
तेषां निवापे दत्तं हि तत्कुलीनैस्तु बान्धवैः ॥ ६४

मासश्राद्धं हि भुञ्जानास्तेऽप्येते सोमलौकिकाः । 
एते मनुष्याः पितरो मासश्राद्धभुजस्तु वै ॥ ६५ 

तेभ्योऽपरे तु ये त्वन्ये सङ्कीर्णाः कर्मयोनिषु। 
भ्रष्टाश्चाश्रमधर्मेषु स्वधास्वाहाविवर्जिताः ।। ६६

भिन्ने देहे दुरापन्नाः प्रेतभूता यमक्षये। 
स्वकर्माण्यनुशोचन्तो यातनास्थानमागताः ॥ ६७

दीर्घाश्चैवातिशुष्काश्च श्मश्रुलाश्च विवाससः । 
क्षुत्पिपासाभिभूतास्ते विद्रवन्ति त्वितस्ततः ॥ ६८ 

सरित्सरस्तडागानि पुष्करिण्यश्च सर्वशः । 
परान्नान्यभिकाङ्गन्तः काल्यमाना इतस्ततः ॥ ६९ 

स्थानेषु पात्यमाना ये यातनास्थेषु तेषु वै। 
शाल्मल्यां वैतरण्यां च कुम्भीपाकेद्धवालुके ॥ ७० 

असिपत्रवने चैव पात्यमानाः स्वकर्मभिः । 
तत्रस्थानां तु तेषां वै दुःखितानामशायिनाम् ।। ७१

तेषां लोकान्तरस्थानां बान्धवैर्नामगोत्रतः । 
भूमावसव्यं दर्भेषु दत्ताः पिण्डास्त्रयस्तु वै। 
प्राप्तांस्तु तर्पयन्त्येव प्रेतस्थानेष्वधिष्ठितान् ॥ ७२

इसके बाद अब मैं जो श्राद्धभोजी पितर हैं, उनकी गति, उनका उत्तम तत्त्व तथा उनके निमित्त दिये गये श्राद्धकी प्राप्तिका वर्णन कर रहा हूँ। मृतकोंके आवागमनका रहस्य तो उत्कृष्ट तपोबलसम्पन्न तपस्वी भी नहीं जान सकते, फिर चर्मचक्षुधारी साधारण मनुष्यकी तो बात ही क्या है। इन ब्राद्धभोजियोंमें देवता और पितर दोनों हैं। इनमें जो अपने धर्मके बलसे सायुज्य मुक्तिको प्राप्त कर चुके हैं अथवा आश्रमधर्मका पालन करते हुए ज्ञान-प्राप्तिमें लगे हुए हैं और श्रद्धायुक्त कर्मोंके सम्पन्न होनेपर प्रसन्न होते हैं, उन्हें महर्षिगण लौकिक पितर कहते हैं। ब्रह्मचर्य, तप, यज्ञ, संतान, श्राद्ध, विद्या और अन्नदान- ये भूतलपर प्रधान धर्म कहे गये हैं। जो लोग मृत्युपर्यन्त इन सातों धर्मोंका पालन करते हुए इनमें आसक्त रहते हैं, वे ऊष्मप तथा सोमप देवताओं और पितरोंके साथ स्वर्गलोकमें जाकर आनन्दका उपभोग करते हुए पितरोंकी उपासना करते हैं। ऐसी प्रसिद्धि उन संतानयुक्त श्राद्धकर्ताओंके लिये कही गयी है, जिनके लिये उनके कुलीन भाई-बन्धुओंने दानके अवसरपर श्राद्ध आदि प्रदान किया है। मासिक श्राद्धमें भोजन करनेवाले पितर चन्द्रलोकवासी हैं। 

ये मासश्राद्धभोजी पितर मनुष्योंके पितर हैं। इनके अतिरिक्त जो अन्य लोग कर्मानुसार प्राप्त हुई योनियोंमें कष्ट झेल रहे हैं, आश्रमधर्मसे भ्रष्ट हो गये हैं, जिनके लिये स्वाहा-स्वधाका प्रयोग हुआ ही नहीं है, जो शरीरके नष्ट होनेपर यमलोकमें प्रेत होकर दुर्गति भोग रहे हैं, नरक-स्थानपर पहुँचकर अपने कर्मोंपर पश्चात्ताप करते हैं, लम्बे शरीरवाले, अत्यन्त कृशकाय, लम्बी दाढ़ियोंसे युक्त, वस्त्रहीन और भूख एवं प्याससे व्याकुल होकर इधर-उधर दौड़ते हैं, नदी, सरोवर, तडाग और जलाशयोंपर सब ओर दूसरोंके द्वारा दिये गये अन्नकी ताकमें इधर-उधर घूमते रहते हैं, शाल्मली, वैतरणी, कुम्भीपाक, तप्तवालुका और असिपत्रवन नामक भीषण नरकोंमें अपने कर्मानुसार गिराये जाते हैं तथा उन नरकोंमें पड़े हुए जो निद्रारहित हो दुःख भोग रहे हैं, उन लोकान्तरमें स्थित जीवोंके लिये उनके भाई बन्धुओंद्वारा यहाँ भूतलपर जब उनका नाम गोत्र उच्चारण कर अपसव्य होकर कुशोंपर तीन पिण्ड प्रदान किये जाते है तब प्रेतस्थानोंमें स्थित होनेपर भी वे पिण्ड उन्हें प्राप्त होकर तुम करते हैं।॥ ५८-७२॥

अप्राप्ता यातनास्थानं प्रभ्रष्टा ये च पञ्चधा।
पश्चाद्ये स्थावरान्ते वै भूतानीके स्वकर्मभिः ॥ ७३

नानारूपासु जातीनां तिर्यग्योनिषु मूर्तिषु।
यदाहारा भवन्त्येते तासु तास्विह योनिषु ॥ ७४

तस्मिस्तस्मिस्तदाहारे श्राद्धे दत्तं तु प्रीणयेत् ।
काले न्यायागतं पात्रे विधिना प्रतिपादितम्। 
प्राप्नुवन्त्यन्त्रमादत्तं यत्र यत्रावतिष्ठति ।। ७५ 

यथा गोषु प्रनष्टासु वत्सो बिन्दति मातरम् ।
तथा श्राद्धेषु दृष्टान्तो मन्त्रः प्रापयते तु तम् ॥ ७६ 

एवं ह्यविकलं श्राद्धं श्रद्धादत्तं मनुर्ब्रवीत्।
सनत्कुमारः प्रोवाच पश्यन् दिव्येन चक्षुषा ।। ७७

गतागतज्ञः प्रेतानां प्राप्तिं श्राद्धस्य चैव हि।
कृष्णपक्षस्त्वहस्तेषां शुक्लः स्वप्नाय शर्वरी ॥ ७८

इत्येते पितरो देवा देवाश्च पितरश्च वै।
अन्योऽन्यपितरो होते देवाश्च पितरो दिवि ॥ ७९

एते तु पितरो देवा मनुष्याः पितरश्च ये।
पिता पितामहश्चैव तथैव प्रपितामहः ॥ ८०

इत्येष विषयः प्रोक्तः पितॄणां सोमपायिनाम् ।
एतत्पितृमहत्त्वं हि पुराणे निश्चयं गतम् ॥ ८१

इत्येष सोमसूर्याभ्यामैलस्य च समागमः ।
अवाप्तिं श्रद्धया चैव पितृणां चैव तर्पणम् ॥ ८२

पर्वणां चैव यः कालो यातनास्थानमेव च।
समासात्कीर्तितस्तुभ्यं सर्ग एष सनातनः ॥ ८३

वैरूप्यं येन तत्सर्वं कथितं त्वेकदेशिकम्।
अशक्यं परिसंख्यातुं श्रद्धेयं भूतिमिच्छता ॥ ८४

स्वायम्भुवस्य देवस्य एष सर्गो मयेरितः।
विस्तरेणानुपूर्वाच्च भूयः किं कथयामि वः ॥ ८५

जो नरकों में न जाकर पाँच प्रकारसे विभक्त होकर भ्रष्ट हो चुके हैं अर्थात् जो मृत्युके उपरान्त अपने कर्मोंके अनुसार स्थावर, भूत-प्रेत, अनेकों प्रकारकी जातियों, तिर्यग्योनियों एवं अन्य जन्तुओंमें जन्म ले चुके हैं, वहाँ उन-उन योनियोंमें वे जैसे आहारवाले होते हैं, उन्हीं उन्हीं योनियोंमें उसी आहारके रूपमें परिणत होकर श्राद्धमें दिया गया पिण्ड उन्हें तृप्त करता है। यदि श्राद्धोपयुक्त कालमें न्यायोपार्जित अन्न (मृतकोंके निमित्त) विधिपूर्वक सत्पात्रको दान किया जाता है तो वह अन्न वे मृतक जहाँ-कहीं भी रहते हैं, उन्हें प्राप्त होता है। जैसे बछड़ा गौओंमें विलीन हुई अपनी माँको ढूँढ़ निकालता है उसी प्रकार श्राद्धोंमें प्रयुक्त हुआ मन्त्र (दानकी वस्तुओंको) उस जीवके पास पहुँचा देता है। इस प्रकार विधानपूर्वक श्रद्धासहित दिया गया श्राद्ध-दान उस जीवको प्राप्त होता है-ऐसा मनुने कहा है। साथ ही महर्षि सनत्कुमारने भी, जो प्रेतोंके गमनागमनके ज्ञाता हैं, दिव्य चक्षुसे देखकर श्राद्धकी प्राप्तिके विषयमें ऐसा ही बतलाया है। कृष्ण पक्ष उन पितरों का दिन है 

तथा शुक्लपक्ष शयन करनेके लिये उनकी रात्रि है। इस प्रकार ये पितृदेव और देवपितर स्वर्गलोकमें परस्पर एक-दूसरेके देवता और पितर हैं। यह तो स्वर्गीय देवों और पितरोंकी बात हुई। मनुष्योंके पितर पिता, पितामह और प्रपितामह हैं। इस प्रकार मैंने सोमपायी पितरोंके विषयमें वर्णन कर दिया। पितरोंका यह महत्त्व पुराणोंमें निश्चित्त किया गया है। इस प्रकार मैंने इला नन्दन पुरूरवाका चन्द्रमा और सूर्यके साथ समागम, पितरोंको श्रद्धापूर्वक दी गयी वस्तुको प्राप्ति, पितरोंका तर्पण, पर्व-काल और यातनास्थान (नरक) का संक्षिप्त वर्णन आपको सुना दिया, यही सनातन सर्ग है। इसका विस्तार बहुत बड़ा है। मैंने संक्षेपमें ही इसका वर्णन किया है; क्योंकि पूर्णरूपसे वर्णन करना तो असम्भव है। इसलिये कल्याणकामीको इसपर श्रद्धा रखनी चाहिये। मैंने स्वायम्भुव मनुके इस सर्गका विस्तारपूर्वक आनुपूर्वी वर्णन कर दिया। अब पुनः आपलोगोंको क्या बतलाऊँ ? ॥ ७३-८५॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे मन्वन्तरानुकीर्तने आद्धानुकीर्तनं नामैकचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४१ ॥

इस प्रकार श्री मत्स्यमहा पुराण के मन्वन्तरानुकीर्तनके प्रसङ्गमें श्राद्धानुकीर्तन नामक एक सौ एकतालीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १४१ ॥

टिप्पणियाँ