पितृ-वंश-वर्णन तथा सतीके वृत्तान्त प्रसङ्गमें देवीके एक सौ आठ नामोंका विवरण | pitr-vansh-varnan tatha sateeke vrttaant prasangamen deveeke ek sau aath naamonka vivaran

मत्स्य पुराण तेरहवाँ अध्याय

पितृ-वंश-वर्णन तथा सतीके वृत्तान्त प्रसङ्गमें देवीके एक सौ आठ नामोंका विवरण

मनुरुवाच

भगवञ्छ्रोतुमिच्छामि पितृणां वंशमुत्तमम् । 
रवेश्च श्राद्धदेवत्वं सोमस्य च विशेषतः ॥ १

मनुने पूछा- भगवन् । अब मैं पितरोंके उत्तम वंशका वर्णन सुनना चाहता हूँ। उसमें भी विशेषरूपसे यह जाननेकी अभिलाषा है कि सूर्य और चन्द्रमा श्राद्धके देवता कैसे हो गये ? ॥ १॥ 

मत्स्य उवाच

हन्त ते कथयिष्यामि पितॄणां वंशमुत्तमम् ।
स्वर्गे पितृगणा सप्त त्रयस्तेषाममूर्त्तयः ॥ २

मूर्तिमन्तोऽथ चत्वारः सर्वेषाममितौजसः । 
अमूर्त्तयः पितृगणा वैराजस्य प्रजापतेः ॥ ३

यजन्ति यान् देवगणा वैराजा इति विश्रुताः । 
ये चैते योगविभ्रष्टाः प्राप्य लोकान् सनातनान् ।। ४

पुनर्ब्रह्मदिनान्ते तु जायन्ते ब्रह्मवादिनः। 
सम्प्राप्य तां स्मृति भूयो योगं सांख्यमनुत्तमम् ॥ ५

सिद्धिं प्रयान्ति योगेन पुनरावृत्तिदुर्लभाम् ।
योगिनामेव देयानि तस्माच्छाद्धानि दातृभिः ॥ ६

एतेषां मानसी कन्या पत्नी हिमवतो मता।
मैनाकस्तस्य दायादः क्रौञ्चस्तस्याग्रजोऽभवत्। 
क्रौञ्चद्वीपः स्मृतो येन चतुर्थो घृतसंवृतः ॥ ७

मेना च सुषुवे तित्रः कन्या योगवतीस्ततः ।
उमैकपर्णा पर्णा च तीव्रव्रतपरायणाः ॥ ८

रुद्रस्यैका सितस्यैका जैगीषव्यस्य चापरा।
दत्ता हिमवता बालाः सर्वा लोके तपोऽधिकाः ॥ ९

ऋषय ऊचुः

कस्माद् दाक्षायणी पूर्व ददाहात्मानमात्मना।
हिमवहुहिता तद्वत् कथं जाता महीतले ॥ १०

संहरन्ती किमुक्तासौ सुता वा ब्रह्मसूनुना ।
दक्षेण लोकजननी सूत विस्तरतो वद ॥ ११

मत्यभगवान् कहने लगे- राजर्षे । बड़े आनन्दकी बात है, अब मैं तुमसे पितरोंके श्रेष्ठ वंशका वर्णन कर रहा हूँ; सुनो। स्वर्गमें पितरोंके सात गण हैं। उनमें तीन मूर्तिरहित और चार मूर्तिमान् हैं। वे सब के सब अमित तेजस्वी हैं। अमूर्त पितृगण वैराजनामक प्रजापतिकी संतान हैं, इसीलिये वैराज नामसे प्रसिद्ध हैं। देवगण उनकी पूजा करते हैं। ये सभी सनातन लोकोंको प्राप्त करनेके पश्चात् योगमार्गसे च्युत हो जाते हैं तथा ब्रह्माके दिनके अन्तमें पुनः ब्रह्मवादीरूपमें उत्पन्न होते हैं। उस समय ये पूर्वजन्मकी स्मृति हो जानेसे पुनः सर्वोत्तम सांख्ययोगका आश्रय लेकर योगाभ्यासद्वारा आवागमनके चक्रसे मुक्त करनेवाली सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। इस कारण दाताओंद्वारा योगियोंको ही श्राद्धीय वस्तुएँ प्रदान करनी चाहिये। इन उपर्युक्त पितरोंकी मानसी कन्या मेना हिमवान्‌की पत्नी मानी गयी है। मैनाक उसका पुत्र है। क्रौञ्च उससे भी पहले पैदा हुआ था। इसी क्रौञ्चके नामपर घृतसे परिवेष्टित चतुर्थ द्वीप क्रौञ्चद्वीप नामसे विख्यात है। तत्पश्चात् मेनाने उमा, एकपर्णा और अपर्णा नामकी तीन कन्याओंको जन्म दिया, जो सब- की-सब योगाभ्यासमें निरत, कठोर व्रतमें तत्पर तथा लोकमें सर्वश्रेष्ठ तपस्विनी थीं। हिमवान्ने इनमेंसे एक कन्या रुद्रको, एक सितको तथा एक जैगीषव्यको प्रदान कर दी॥ २-९॥ ऋषियोंने पूछा- सूतजी। पूर्वकालमें दक्ष-पुत्री सतीने अपने शरीरको अपने-आप ही क्यों जला डाला? तथा पुनः उसी प्रकारका शरीर धारणकर वे भूतलपर हिमवान्‌की कन्याके रूपमें कैसे प्रकट हुईं? उस समय ब्रह्माके पुत्र दक्षने लोकजननी सतीको, जो उन्हींकी पुत्री थीं, कौन- सी ऐसी बात कह दी थी, जिससे वे स्वयं ही जल मरीं? ये सभी बातें हमें विस्तारपूर्वक बतलाइये ॥ १०-११॥

सूत उवाच

दक्षस्य यज्ञे वितते प्रभूतवरदक्षिणे।
समाहूतेषु देवेषु प्रोवाच पितरं सती ॥ १२

किमर्थ तात भर्ता मे यज्ञेऽस्मिन्नाभिमन्त्रितः । 
अयोग्य इति तामाह दक्षो यज्ञेषु शूलभृत् ॥ १३

उपसंहारकृद् रुद्रस्तेनामङ्गलभागयम् ।
चुकोपाथ सती देहं त्यक्ष्यामीति त्वदुद्भवम् ॥ १४

दशानां त्वं च भविता पितृणामेकपुत्रकः । 
क्षत्रियत्वेऽश्वमेधे च रुद्रात् त्वं नाशमेष्यसि ॥ १५

इत्युक्त्वा योगमास्थाय स्वदेहोद्भवतेजसा । 
निर्दहन्ती तदात्मानं सदेवासुरकिन्नरैः ॥ १६

किं किमेतदिति प्रोक्ता गन्धर्वगणगुह्यकैः । 
उपगम्याब्रवीद् दक्षः प्रणिपत्याथ दुःखितः ॥ १७

त्वमस्य जगतो माता जगत्सौभाग्यदेवता।
दुहितृत्वं गता देवि ममानुग्रहकाम्यया ।। १८

न त्वया रहितं किंचिद् ब्रह्माण्डे सचराचरम्। 
प्रसादं कुरु धर्मज्ञे न मां त्यक्तुमिहार्हसि ॥ १९

प्राह देवी यदारब्धं तत् कार्यं मे न संशयः। 
किंत्ववश्यं त्वया मत्र्ये हतयज्ञेन शूलिना ॥ २०

प्रसादे लोकसृष्ट्यर्थं तपः कार्यं ममान्तिके। 
प्रजापतिस्त्वं भविता दशानामङ्गजोऽप्यलम् ॥ २१

मदंशेनाङ्गनाषष्टिर्भविष्यन्त्यङ्गजास्तव । 
मत्संनिधी तपः कुर्वन् प्राप्यसे योगमुत्तमम् ॥ २२

एवमुक्तोऽब्रवीद् दक्षः केषु केषु मयानघे।
तीर्थेषु च त्वं द्रष्टव्या स्तोतव्या कैश्च नामभिः ॥ २३

सूतजी कहते हैं-ऋषियो! प्राचीनकालमें दक्षने एक विशाल यज्ञका अनुष्ठान किया था; उसमें प्रचुर धनराशि दक्षिणाके रूपमें बाँटी गयी थी तथा सभी देवता (अपना- अपना भाग ग्रहण करनेके लिये) आमन्त्रित किये गये थे। (परंतु द्वेषवश शिवजीको निमन्त्रण नहीं भेजा गया था। तब वहाँ अपने पतिका भाग न देखकर) सतीने पिता दक्षसे पूछा- 'पिताजी। अपने इस विशाल यज्ञमें आपने मेरे पतिदेवको क्यों नहीं आमन्त्रित किया ?' तब दक्षने सतीसे कहा-'बेटी! तुम्हारा पति त्रिशूल धारण कर रुद्ररूपसे जगत्‌का उपसंहार करता है, जिससे वह अमङ्गल-भागी है, इस कारण वह यज्ञोंमें भाग पानेके लिये अयोग्य है।' यह सुनकर सती क्रोधसे तमतमा उठीं और बोलीं- ' तात! अब मैं तुम्हारे पापी शरीरसे उत्पन्न हुए अपनी देहका परित्याग कर दूँगी। तुम दस पितरोंके एकमात्र पुत्र होगे और क्षत्रिय- योनिमें जन्म लेनेपर अश्वमेध यज्ञके अवसरपर रुद्रद्वारा तुम्हारा विनाश हो जायगा।' ऐसा कहकर सतीने योगबलका आश्रय लिया और स्वतः शरीरसे प्रकट हुए तेजसे अपने शरीरको जलाना प्रारम्भ कर दिया। तब देवता, असुर और किन्नरोंके साथ गन्धर्व एवं गुह्यकगण 'अरे। यह क्या हो रहा है? यह क्या हो रहा है?' इस प्रकार हो-हल्ला मचाने लगे। यह देखकर दक्ष भी दुःखी हो सतीके निकट गये और प्रणाम करके बोले- 'देवि! तुम इस जगत्‌की जननी तथा जगत्‌को सौभाग्य प्रदान करनेवाली देवता हो। तुम मुझपर अनुग्रह करनेकी कामनासे ही मेरी पुत्री होकर अवतीर्ण हुई हो। धर्मज्ञे। इस निखिल ब्रह्माण्डमें समस्त चराचर वस्तुओंमें कुछ भी तुमसे रहित नहीं है अर्थात् सबमें तुम्हारी सत्ता व्याप्त है। मुझपर कृपा करो। इस अवसरपर तुम्हें मेरा परित्याग नहीं करना चाहिये।' (दक्षके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर) देवीने कहा- 'दक्ष। मैंने जिस कार्यका आरम्भ कर दिया है, उसे तो निःसंदेह अवश्य ही पूर्ण करूँगी, किंतु त्रिशूलधारी शिवजीद्वारा यज्ञ-विध्वंस हो जानेपर उनको प्रसन्न करनेके लिये तुम मृत्युलोकमें लोक-सृष्टिकी इच्छासे मेरे निकट तपस्या करना। उसके प्रभावसे तुम प्रचेता नामके दस पिताओंके एकमात्र पुत्र होनेपर भी प्रजापति हो जाओगे। उस समय मेरे अंशसे तुम्हें साठ कन्याएँ उत्पन्न होंगी तथा मेरे समीप तपस्या करते हुए तुम्हें उत्तम योगकी प्राप्ति हो जायगी।' ऐसा कहे जानेपर दक्षने पूछा- 'पाप-रहित देवि । इस कार्यके निमित्त मुझे किन-किन तीर्थस्थानोंमें जाकर तुम्हारा दर्शन करना चाहिये तथा किन-किन नामोंद्वारा तुम्हारा स्तवन करना चाहिये ' ॥ १२-२३ ॥

देव्युवाच

सर्वदा सर्वभूतेषु द्रष्टव्या सर्वतो भुवि।
सर्वलोकेषु यत् किंचिद् रहितं न मया विना ॥ २४

तथापि येषु स्थानेषु द्रष्टव्या सिद्धिमीप्सुभिः । 
स्मर्तव्या भूतिकामैर्वा तानि वक्ष्यामि तत्त्वतः ॥ २५

वाराणस्यां विशालाक्षी नैमिषे लिङ्गधारिणी।
प्रयागे ललिता देवी कामाक्षी गन्धमादने ॥ २६

मानसे कुमुदा नाम विश्वकाया तथाम्बरे ॥ २७

गोमन्ते गोमती नाम मन्दरे कामचारिणी।
मदोत्कटा चैत्ररथे जयन्ती हस्तिनापुरे ॥ २८

कान्यकुब्जे तथा गौरी रम्भा मलयपर्वते।
एकानके कीर्तिमती विश्वा विश्वेश्वरे विदुः ॥ २९

पुष्करे पुरुहूतेति केदारे मार्गदायिनी।
नन्दा हिमवतः पृष्ठे गोकर्णे भद्रकर्णिका ॥ ३०

स्थाण्वीश्वरे भवानी तु बिल्वके बिल्वपत्रिका।
श्रीशैले माधवी नाम भद्रा भद्रेश्वरे तथा ॥ ३१

जया वराहशैले तु कमला कमलालये।
रुद्रकोट्यां च रुद्राणी काली कालंजरे गिरौ ॥ ३२

महालिङ्गे तु कपिला मर्कोटे मुकुटेश्वरी।
शालग्रामे महादेवी शिवलिङ्गे जलप्रिया ॥ ३३

मायापुर्या कुमारी तु संताने ललिता तथा।
उत्पलाक्षी सहस्त्राक्षे कमलाक्षे महोत्पला ॥ ३४

गङ्गायां मङ्गला नाम विमला पुरुषोत्तमे।
विपाशायाममोघाक्षी पाटला पुण्ड्रवर्धने ॥ ३५

नारायणी सुपार्श्वे तु विकूटे भद्रसुन्दरी।
विपुले विपुला नाम कल्याणी मलयाचले ॥ ३६

कोटवी कोटितीर्थे तु सुगन्धा माधवे वने।
गोदाश्रमे त्रिसंध्या तु गङ्गाद्वारे रतिप्रिया ॥ ३७

शिवकुण्डे शिवानन्दा नन्दिनी देविकातटे।
रुक्मिणी द्वारवत्यां तु राधा वृन्दावने वने ॥ ३८

देवीने कहा- दक्ष ! यद्यपि भूतलपर समस्त प्राणियोंमें सब ओर सर्वदा मेरा ही दर्शन करना चाहिये; क्योंकि सम्पूर्ण लोकोंमें जो कुछ पदार्थ है, वह सब मुझसे रहित नहीं है, अर्थात् सभी पदार्थोंमें मेरी सत्ता विद्यमान है, तथापि सिद्धिकी कामनावाले अथवा ऐश्वर्याभिलाषी जनोंद्वारा जिन-जिन तीर्थस्थानोंमें मेरा दर्शन और स्मरण करना चाहिये, उनका मैं यथार्थरूपसे वर्णन कर रही हूँ। मैं वाराणसीमें विशालाक्षी, नैमिषारण्यमें लिङ्गधारिणी, प्रयागमें ललितादेवी, गन्धमादन पर्वतपर कामाक्षी, मानसरोवरतीर्थमें कुमुदा, अम्बरमें विश्वकाया, गोमन्त (गोआ) में गोमती, मन्दराचलपर कामचारिणी, चैत्ररथवनमें मदोत्कटा, हस्तिनापुरमें जयन्ती, कान्यकुब्नमें गौरी, मलयपर्वतपर रम्भा, एकाम्रक (भुवनेश्वर) तीर्थमें कीर्तिमती, विश्वेश्वरमें विश्वा, पुष्कर में पुरुहूता, केदारतीर्थमें मार्गदायिनी, हिमवान्‌के पृष्ठभागमें नन्दा, गोकर्णतीर्थमें भद्रकर्णिका, स्थानेश्वर (थानेश्वर) में भवानी, बिल्वतीर्थमें बिल्वपत्रिका, श्रीशैलपर माधवी, भद्रेश्वरतीर्थमें भद्रा, वराहशैलपर जया, कमलालयतीर्थमें कमला, रुद्रकोटिमें रुद्राणी, कालञ्जर गिरिपर काली, महालिङ्गतीर्थमें कपिला, मर्कोटमें मुकुटेश्वरी, शालग्रामतीर्थमें महादेवी, शिवलिङ्गमें जलप्रिया, मायापुरी (ऋषिकेश) में कुमारी, संतानतीर्थमें ललिता, सहस्राक्षतीर्थमें उत्पलाक्षी, कमलाक्षतीर्थमें महोत्पला, गङ्गामें मङ्गला, पुरुषोत्तमतीर्थ (जगनाथपुरी) में विमला, विपाशामें अमोघाक्षी, पुण्ड्वर्धनमें पाटला, सुपार्श्वतीर्थमें नारायणी, विकूटमें भद्रसुन्दरी, विपुलमें विपुला, मलयाचलपर कल्याणी, कोटितीर्थमें कोटवी, माधव-वनमें सुगन्धा, गोदाश्रममें त्रिसंध्या, गङ्गाद्वार (हरिद्वार) में रतिप्रिया, शिवकुण्डतीर्थमें शिवानन्दा, देविका (पंजाबकी देवनदी) के तटपर नन्दिनी, द्वारकापुरीमें रुक्मिणी और वृन्दावनमें राधा हूँ॥ २४-३८ ॥ 

देवकी मथुरायां तु पाताले परमेश्वरी। 
चित्रकूटे तथा सीता विन्ध्ये विन्ध्याधिवासिनी ॥ ३९

सह्याद्रावेकवीरा तु हरिश्चन्द्रे तु चन्द्रिका।
रमणा रामतीर्थे तु यमुनायां मृगावती ॥ ४०

करवीरे महालक्ष्मीरुमादेवी विनायके।
अरोगा वैद्यनाथे तु महाकाले महेश्वरी ॥ ४१

अभयेत्युष्णतीर्थेषु चामृता विन्ध्यकन्दरे।
माण्डव्ये माण्डवी नाम स्वाहा माहेश्वरे पुरे ॥ ४२

छागलाण्डे प्रचण्डा तु चण्डिका मकरन्दके।
सोमेश्वरे वरारोहा प्रभासे पुष्करावती ॥ ४३

देवमाता सरस्वत्यां पारावारतटे मता।
महालये महाभागा पयोष्णयां पिङ्गलेश्वरी ॥ ४४

सिंहिका कृतशौचे तु कार्तिकेये यशस्करी।
उत्पलावर्तके लोला सुभद्रा शोणसंगमे ॥ ४५ 

माता सिद्धपुरे लक्ष्मीरङ्गना भरताश्रमे।
जालंधरे विश्वमुखी तारा किष्किन्धपर्वते ॥ ४६

देवदारुवने पुष्टिर्मेधा काश्मीरमण्डले।
भीमा देवी हिमाद्रौ तु पुष्टिर्विश्वेश्वरे तथा ।। ४७

कपालमोचने शुद्धिर्माता कायावरोहणे।
शङ्खोद्धारे ध्वनिर्नाम धृतिः पिण्डारके तथा ॥ ४८

काला तु चन्द्रभागायामच्छोदे शिवकारिणी।
वेणायाममृता नाम बदर्यामुर्वशी तथा ॥ ४९

औषधी चोत्तरकुरौ कुशद्वीपे कुशोदका।
मन्मथा हेमकूटे तु मुकुटे सत्यवादिनी ॥ ५०

अश्वत्थे वन्दनीया तु निधिर्वैश्रवणालये।
गायत्री वेदवदने पार्वती शिवसंनिधौ ॥ ५१

देवलोके तथेन्द्राणी ब्रह्मास्येषु सरस्वती।
सूर्यबिम्बे प्रभा नाम मातृणां वैष्णवी मता ॥ ५२

अरुंधती सतीनां तु रार्मासु च तिलोत्तमा ।
चित्ते ब्रह्मकला नाम शक्तिः सर्वशरीरिणाम् ॥ ५३

मैं मधुरापुरीमें देवकी, पातालमें परमेश्वरी, चित्रकूटमें सीता, विन्ध्यपर्वतपर विन्ध्याधिवासिनी, सह्याद्रिपर एकवीरा, हरिश्चन्द्रतीर्थमें चन्द्रिका, रामतीर्थमें रमणा, यमुनामें मृगावती, करवीर (कोल्हापुर)-में महालक्ष्मी, विनायकतीर्थमें उमादेवी, वैद्यनाथमें अरोगा, महाकालमें महेश्वरी, उष्णतीर्थोंमें अभया, विन्ध्यकन्दर में अमृता, माण्डव्यतीर्थमें माण्डवी, माहेश्वरपुरमें स्वाहा छागलाण्डमें प्रचण्डा, मकरन्दमें चण्डिका, सोमेश्वरतीर्थमें वरारोहा, प्रभासमें पुष्करावती, सरस्वतीमें देवमाता, समुद्रतटवर्ती महालयतीर्थमें महाभागा, पयोष्णी- (पैनगङ्गा) में पिङ्गलेश्वरी, कृतशौचतीर्थमें सिंहिका, कार्त्तिकेयमें यशस्करी, उत्पलावर्तकमें लोला, शोणसंगममें सुभ्रदा, सिद्धपुरमें लक्ष्मी माता, भरताश्रममें अङ्गना, जालन्धरपर्वतपर विश्वमुखी, किष्किन्धापर्वतपर तारा, देवदारुवनमें पुष्टि, काश्मीरमण्डलमें मेधा, हिमगिरिपर भीमादेवी, विश्वेश्वरमें पुष्टि, कपालमोचनमें शुद्धि, कायावरोहण (कारावन, गुजरात) में माता, शङ्खोद्धारमें ध्वनि, पिण्डारक क्षेत्रमें धृति, चन्द्रभागा (चनाब) में काला, अच्छोदमें शिवकारिणी, वेणामें अमृता, बदरीतीर्थमें उर्वशी, उत्तरकुरुमें औषधी, कुशद्वीपमें कुशोदका, हेमकूटपर्वतपर मन्मथा, मुकुटमें सत्यवादिनी, अश्वत्थतीर्थमें वन्दनीया, वैश्रवणालयमें निधि, वेदवदनमें गायत्री, शिव-सन्निधिमें पार्वती, देवलोकमें इन्द्राणी, ब्रह्माके मुखोंमें सरस्वती, सूर्य-बिम्बमें प्रभा, माताओंमें वैष्णवी, सतियोंमें अरुन्धती, सुन्दरी स्त्रियोंमें तिलोत्तमा, चित्तमें ब्रह्मकला और अखिल शरीरधारियोंमें शक्ति-नामसे निवास करती हूँ।॥ ३९-५३ ॥

एतदुद्देशतः प्रोक्तं नामाष्टशतमुत्तमम् । 
अष्टोत्तरं च तीर्थानां शतमेतदुदाहृतम् ॥ ५४

यः स्मरेच्छृणुयाद् वापि सर्वपापैः प्रमुच्यते।
एषु तीर्थेषु यः कृत्वा स्नानं पश्यति मां नरः ॥ ५५

सर्वपापविनिर्मुक्तः कल्पं शिवपुरे वसेत्। 
यस्तु मत्परमं कालं करोत्येतेषु मानवः ॥ ५६

स भित्त्वा ब्रह्मसदनं पदमभ्येति शाङ्करम् । 
नाम्नामष्टशतं यस्तु श्रवयेच्छिवसन्निधौ ।। ५७

तृतीयायामथाष्टम्यां बहुपुत्रो भवेत्ररः। 
गोदाने आद्धदाने वा अहन्यहनि वा बुधः ॥ ५८

देवार्चनविधौ विद्वान् पठन् ब्रह्माधिगच्छति। 
एवं वदन्ती सा तत्र ददाहात्मानमात्मना ॥ ५९

स्वायम्भुवोऽपि कालेन दक्षः प्राचेतसोऽभवत्। 
पार्वती साभवद् देवी शिवदेहार्धधारिणी ॥ ६०

मेनागर्भसमुत्पन्ना भुक्तिमुक्तिफलप्रदा। 
अरुन्धती जपन्त्येतत् प्राप योगमनुत्तमम् ॥ ६१

पुरूरवाश्च राजर्षिर्लोके व्यजेयतामगात्। 
ययातिः पुत्रलाभं च धनलाभं च भार्गवः ॥ ६२

तथान्ये देवदैत्याश्च ब्राह्मणाः क्षत्रियास्तथा। 
वैश्याः शूद्राश्च बहवः सिद्धिमीयुर्यथेप्सिताम् ॥ ६३

यत्रैतल्लिखितं तिष्ठेत् पूज्यते देवसंनिधौ।
न तत्र शोको दौर्गत्यं कदाचिदपि जायते ॥ ६४

इस प्रकार मैंने अपने एक सौ आठ श्रेष्ठ नामोंका वर्णन कर दिया। इसीके साथ एक सौ आठ तीर्थोंका भी नामोल्लेख हो गया। जो मनुष्य मेरे इन नामोंका स्मरण करेगा अथवा दूसरेके मुखसे श्रवणमात्र कर लेगा, वह अपने निखिल पापोंसे मुक्त हो जायगा। इसी प्रकार जो मनुष्य इन उपर्युक्त तीर्थोंमें ज्ञान करके मेरा दर्शन करेगा, वह समस्त पापोंसे मुक्त होकर कल्पपर्यन्त शिवपुरमें निवास करेगा तथा जो मानव इन तीथोंमें मेरे इस परम अन्तिम समयका स्मरण करेगा, वह ब्रह्माण्डका भेदन करके शङ्करजीके परम पद (शिवलोक) को प्राप्त हो जायगा। जो मनुष्य तृतीया अथवा अष्टमी तिथिके दिन शिवजीके संनिकट जाकर मेरे इन एक सौ आठ नामोंका पाठ करके उन्हें सुनायेगा, वह बहुत-से पुत्रोंवाला हो जायगा। जो विद्वान् गोदान, श्राद्धदान अथवा प्रतिदिन देवार्चनके समय इन नामोंका पाठ करेगा, वह परब्रह्म- पदको प्राप्त हो जायगा। इस प्रकारकी बातें कहती हुई सतीने दक्षके उस यज्ञमण्डपमें अपने-आप ही अपने शरीरको जलाकर भस्म कर दिया। पुनः यथोक्त समय आनेपर ब्रह्माके पुत्र दक्ष प्रचेताओंके पुत्ररूपमें उत्पन्न हुए तथा सतीदेवी शिवजीके अर्धाङ्गमें विराजमान होनेवाली पार्वतीरूपसे मेनाके गर्भसे प्रादुर्भूत हुई, जो भुक्ति (भोग) और मुक्तिरूप फल प्रदान करनेवाली हैं। इन्हीं पूर्वोक्त एक सौ आठ नामोंका जप करनेसे अरुन्धतीने सर्वोत्तम योगसिद्धि प्राप्त की, राजर्षि पुरूरवा लोकमें अजेय हो गये, ययातिने पुत्र-लाभ किया और भृगुनन्दनको धन-सम्पत्तिको प्राप्ति हुई। इसी प्रकार अन्यान्य बहुत-से देवता, दैत्य, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रोंने भी (इन नामोंक जपसे) मनौवाञ्छित सिद्धियाँ प्राप्त कीं। जहाँ यह नामावली लिखकर रखी रहती है अथवा किसी देवताके संनिकट रखकर इसकी पूजा होती है, वहाँ कभी शोक और दुर्गतिका प्रवेश नहीं होता ॥५४-६४॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे पितृवंशान्वये गौरीनामाष्टोत्तरशतकथनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें पितरोंके वंश-वर्णन प्रसङ्ग में गौरीनामाष्टोत्तरशतकथन नामक तेरहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १३॥

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