मत्स्य पुराण सातवाँ अध्याय
मरुतों की उत्पत्ति के प्रसङ्गमें दिति की तपस्या, मदनद्वादशी व्रत का वर्णन, कश्यप द्वारा दिति को वरदान, गर्भिणी स्त्रियों के लिये नियम तथा मरुतों की उत्पत्ति
ऋषय ऊचुः
दितेः पुत्राः कथं जाता मरुतो देववल्लभाः ।
देवैर्जग्मुश्च सापत्त्रैः कस्मात्ते सख्यमुत्तमम् ॥ १
ऋषियोंने पूछा- सूतजी ! (दैत्योंकी जननी) दितिके पुत्र उनचास मरुत देवताओंके प्रिय कैसे बन गये? तथा अपने सौतेले भाई देवताओंके साथ उनकी प्रगाढ़ मैत्री कैसे हो गयी ? ॥ १ ॥
सूत उवाच
पुरा देवासुरे युद्धे हतेषु हरिणा सुरैः।
पुत्रपौत्रेषु शोकार्ता गत्वा भूर्लोकमुत्तमम् ॥ २
स्यमन्तपञ्चके क्षेत्रे सरस्वत्यास्तटे शुभे।
भर्तुराराधनपरा तप उग्रं चचार ह।। ३
तदा दितिर्दैत्यमाता ऋषिरूपेण सुव्रत ।
फलाहारा तपस्तेपे कृच्छ्रं चान्द्रायणादिकम् ॥ ४
यावद् वर्षशतं सायं जराशोकसमाकुला।
ततः सा तपसा तप्ता वसिष्ठादीनपृच्छत ।। ५
कथयन्तु भवन्तो मे पुत्रशोकविनाशनम्।
व्रतं सौभाग्यफलदमिह लोके परत्र च ॥ ६
ऊचुर्वसिष्ठप्प्रमुखा मदनद्वादशीव्रतम् ।
यस्याः प्रभावादभवत् सुतशोकविवर्जिता ॥ ७
सूतजी कहते हैं- सुव्रत मुनियो! प्राचीनकालकी बात है, देवासुर संग्राममें भगवान् विष्णु तथा देवगणोंद्वारा अपने पुत्र-पौत्रोंका संहार हो जानेपर दैत्यमाता दिति शोकसे विह्वल हो गयी। वह उत्तम भूलोकमें जाकर स्यमन्तपञ्चकक्षेत्रमें सरस्वतीके मङ्गलमय तटपर अपने पतिदेव महर्षि कश्यपकी आराधनामें तत्पर रहती हुई घोर तपमें निरत हो गयी। उस समय उसने ऋषियोंके समान फलाहारपर निर्भर रहकर कृच्छु-चान्द्रायण आदि व्रतोंका पालन किया। इस प्रकार बुढ़ापा और शोकसे अत्यन्त आकुल हुई दिति सौ वर्षोंतक उस कठोर तपका अनुष्ठान करती रही। तदनन्तर उस तपस्यासे सन्तप्त हुई दितिने वसिष्ठ आदि महर्षियोंसे पूछा- 'ऋषियो! आप लोग मुझे ऐसा व्रत बतलाइये, जो पुत्र- शोकका विनाशक तथा इहलोक एवं परलोकमें सौभाग्यरूपी फलका प्रदाता हो।' तब वसिष्ठ आदि ऋषियोंने उसे मदनद्वादशी व्रतका विधान बतलाया, जिसके प्रभावसे वह पुत्रशोकसे उन्मुक्त हो गयी ॥ २-७॥
ऋषय ऊचुः
श्रोतुमिच्छामहे सूत मदनद्वादशीव्रतम् ।
सुतानेकोनपञ्चाशद् येन लेभे दितिः पुनः ॥ ८
ऋषियोंने पूछा- सूतजी। जिसका अनुष्ठान करनेसे दितिको पुनः उनचास पुत्रोंकी प्राप्ति हुई, उस मदन-द्वादशी व्रत के विषयमें हमलोग भी सुनना चाहते हैं॥ ८ ॥
सूत उवाच
यद् वसिष्ठादिभिः पूर्व दितेः कथितमुत्तमम् ।
विस्तरेण तदेवेदं मत्सकाशान्निबोधत ॥ ९
चैत्रे मासि सिते पक्षे द्वादश्यां नियतव्रतः ।
स्थापयेदव्रणं कुम्भं सिततण्डुलपूरितम् ॥ १०
नानाफलयुतं तद्वदिक्षुदण्डसमन्वितम् ।
सितवस्त्रयुगच्छन्नं सितचन्दनचर्चितम् ॥ ११
नानाभक्ष्यसमोपेतं सहिरण्यं तु शक्तितः ।
ताम्रपात्रं गुडोपेतं तस्योपरि निवेशयेत् ॥ १२
तस्मादुपरि कामं तु कदलीदलसंस्थितम् ।
कुर्याच्छर्करयोपेतां रतिं तस्य च वामतः ॥ १३
गन्धं धूपं ततो दद्याद् गीतं वाद्यं च कारयेत्।
तदभावे कथां कुर्यात् कामकेशवयोर्नरः ।। १४
कामनाम्नो हरेर्चा स्त्रापयेद् गन्धवारिणा।
शुक्लपुष्पाक्षततिलैरर्चयेन्मधुसूदनम्॥ १५
कामाय पादौ सम्पूज्य जड्डे सौभाग्यदाय च।
ऊरू स्मरायेति पुनर्मन्मथायेति वै कटिम् ॥ १६
स्वच्छोदरायेत्युदरमनङ्गायेत्युरो हरेः ।
मुखं पद्ममुखायेति बाहू पञ्चशराय वै ॥ १७
नमः सर्वात्मने मौलिमर्चयेदिति केशवम्।
ततः प्रभाते तं कुम्भं ब्राह्मणाय निवेदयेत् ॥ १८
ब्राह्मणान् भोजयेद् भक्त्या स्वयं च लवणादृते।
भुक्त्वा तु दक्षिणां दद्यादिमं मन्त्रमुदीरयेत् ॥ १९
प्रीयतामत्र भगवान् कामरूपी जनार्दनः।
हृदये सर्वभूतानां य आनन्दोऽभिधीयते ॥ २०
सूतजी कहते हैं-ऋषियो! पूर्वकालमें वसिष्ठ आदि महर्षियोंने दितिके प्रति जिस उत्तम मदनद्वादशी- व्रतका वर्णन किया था, उसीको आपलोग मुझसे विस्तारपूर्वक सुनिये। व्रतधारीको चाहिये कि वह चैत्रमासमें शुक्लपक्षकी द्वादशी तिथिको श्वेत चावलोंसे परिपूर्ण एवं छिद्ररहित एक घट स्थापित करे। उसपर श्वेत चन्दनका अनुलेप लगा हो तथा वह श्वेत वस्त्रके दो टुकड़ोंसे आच्छादित हो। उसके निकट विभिन प्रकारके ऋतुफल और गन्नेके टुकड़े रखे जायें। वह विविध प्रकारकी खाद्य सामग्रीसे युक्त हो तथा उसमें यथाशक्ति सुवर्ण-खण्ड भी डाला जाय। तत्पश्चात् उसके ऊपर गुड़से भरा हुआ ताँबेका पात्र स्थापित करना चाहिये। उसके ऊपर केलेके पत्तेपर काम तथा उसके वाम भागमें शक्करसमन्वित रतिकी स्थापना करे। फिर गन्ध, धूप आदि उपचारोंसे उनकी पूजा करे और गीत, वाद्य आदिका भी प्रबन्ध करे। (अर्थाभावके कारण) गौत-वाद्य आदिका प्रबन्ध न हो सकनेपर मनुष्यको कामदेव और भगवान् विष्णुकी कथाका आयोजन करना चाहिये। पुनः कामदेव नामक भगवान् विष्णुकी अर्चना करते समय उन्हें सुगन्धित जलसे खान कराना चाहिये। श्वेत पुष्प, अक्षत और तिलोंद्वारा उन मधुसूदनकी विधिवत् पूजा करे। उस समय उन 'विष्णुके पैरोंमें कामदेव, जङ्घाओंमें सौभाग्यदाता, ऊरुओंमें स्मर, कटिभागमें मन्मथ, उदरमें स्वच्छोदर, वक्षःस्थलमें अनङ्ग, मुखमें पद्ममुख, बाहुओंमें पञ्चशर और मस्तकमें सर्वात्माको नमस्कार है'- यों कहकर भगवान् केशवका साङ्गोपाङ्ग पूजन करे। तदनन्तर प्रातः काल वह घट ब्राह्मणको दान कर दे। पुनः भक्तिपूर्वक ब्राह्मणोंको भोजन कराकर स्वयं भी नमकरहित भोजन करे और ब्राह्मणोंको दक्षिणा देकर इस मन्त्रका उच्चारण करे- 'जो सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें स्थित रहकर आनन्द नामसे कहे जाते हैं, वे कामरूपी भगवान् जनार्दन मेरे इस अनुष्ठानसे प्रसन्न हों।' ॥ ९-२० ॥
अनेन विधिना सर्व मासि मासि व्रतं चरेत्।
उपवासी त्रयोदश्यामर्चयेद् विष्णुमव्ययम् ॥ २१
फलमेकं च सम्प्राश्य द्वादश्यां भूतले स्वपेत्।
ततस्त्रयोदशे मासि घृतधेनुसमन्विताम् ॥ २२
शव्यां दद्यादनङ्गाय सर्वोपस्करसंयुताम्।
काञ्चनं कामदेवं च शुक्लां गां च पयस्विनीम् ॥ २३
वासोभिर्द्विजदाम्पत्यं पूज्यं शक्त्या विभूषणैः ।
शव्यागन्धादिकं दद्यात् प्रीयतामित्युदीरयेत् ॥ २४
होमः शुक्लतिलैः कार्यः कामनामानि कीर्तयेत् ।
गव्येन हविषा तद्वत् पायसेन च धर्मवित् ॥ २५
विप्रेभ्यो भोजनं दद्याद् वित्तशाठयं विवर्जयेत्।
इक्षुदण्डानथो दद्यात् पुष्पमालाश्च शक्तितः ॥ २६
यः कुर्याद् विधिनानेन मदनद्वादशीमिमाम्।
स सर्वपापनिर्मुक्तः प्राप्नोति हरिसाम्यताम् ।। २७
इह लोके वरान् पुत्रान् सौभाग्यफलमश्नुते।
यः स्मरः संस्मृतो विष्णुरानन्दात्मा महेश्वरः ॥ २८
सुखार्थी कामरूपेण स्मरेदङ्गजमीश्वरम् ।
एतच्छ्रुत्वा चकारासौ दितिः सर्वमशेषतः ॥ २९
इसी विधिसे प्रत्येक मासमें मदनद्वादशीव्रतका अनुष्ठान करना चाहिये। व्रतीको चाहिये कि वह द्वादशीके दिन एक फल खाकर भूतलपर शयन करे और त्रयोदशीके दिन अविनाशी भगवान् विष्णुका पूजन करे। तेरहवाँ महीना आनेपर घृतधेनुसहित एवं समस्त सामग्रियोंसे सम्पन्न शय्या, कामदेवकी स्वर्ण-निर्मित प्रतिमा और श्वेत रंगकी दुधारू गौ अनङ्ग (कामदेव) को समर्पित करे (अर्थात् अनङ्गके उद्देश्यसे ब्राह्मणको दान दे)। उस समय शक्तिके अनुसार वस्त्र एवं आभूषण आदिद्वारा सपत्नीक ब्राह्मणको पूजा करके उन्हें शय्या और सुगन्ध आदि प्रदान करते हुए ऐसा कहना चाहिये कि 'आप प्रसन हों।' तत्पश्चात् उस धर्मज्ञ व्रत्तीको गोदुग्धसे बनी हुई हवि, खीर और श्वेत तिलोंसे कामदेवके नामोंका कीर्तन करते हुए हवन करना चाहिये। पुनः कृपणता छोड़कर ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये और उन्हें यथाशक्ति गन्ना और पुष्पमाला प्रदानकर संतुष्ट करना चाहिये। जो इस विधिके अनुसार इस मदनद्वादशी व्रतका अनुष्ठान करता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त होकर भगवान् विष्णुको समताको प्राप्त हो जाता है तथा इस लोकमें श्रेष्ठ पुत्रोंको प्राप्तकर सौभाग्य-फलका उपभोग करता है। जो स्मर, आनन्दात्मा, विष्णु और महेश्वरनामसे कहे गये हैं, उन्हीं अङ्गज भगवान् विष्णुका सुखार्थीको स्मरण करना चाहिये। यह सुनकर दितिने सारा कार्य यथावत्-रूपसे सम्पन्न किया (अर्थात् मदनद्वादशीव्रतका अनुष्ठान किया) ॥ २१-२९॥
कश्यपो व्रतमाहात्य्यादागत्य परया मुदा।
चकार कर्कशां भूयो रूपयौवनशालिनीम् ॥ ३०
वरेणच्छन्दयामास सा तु वने ततो वरम् ।
पुत्रं शक्रवधार्थाय समर्थममितौजसम् ॥ ३१
वरयामि महात्मानं सर्वामरनिषूदनम्।
उवाच कश्यपो वाक्यमिन्द्रहन्तारमूर्जितम् ।। ३२
प्रदास्याम्यहमेवेह किंत्वेतत् क्रियतां शुभे।
आपस्तम्बः करोत्विष्टिं पुत्रीयामद्य सुव्रते ।। ३३
विधास्यामि ततो गर्भमिन्द्रशत्रुनिषूदनम् ।
आपस्तम्बस्ततश्चक्रे पुत्रेष्टिं द्रविणाधिकाम् ॥ ३४
इन्द्रशत्रुर्भवस्वेति जुहाव च सविस्तरम्।
देवा मुमुदिरे दैत्या विमुखाः स्युश्च दानवाः ।। ३५
दितिके उस व्रतानुष्ठानके प्रभावसे प्रभावित होकर महर्षि कश्यप उसके निकट पधारे और परम प्रसन्नता- पूर्वक उन्होंने उसे पुनः रूप-यौवनसे सम्पन्न नवयुवती बना दिया तथा वर माँगनेको कहा। तब वर माँगनेके लिये उद्घात हुई दितिने कहा- 'पतिदेव। मैं आपसे एक ऐसे पुत्रका वरदान चाहती हूँ, जो इन्द्रका वध करनेमें समर्थ, अमित पराक्रमी, महान् आत्मबलसे सम्पन्न और समस्त देवताओंका विनाशक हो।' यह सुनकर महर्षि कश्यपने उससे ऐसी बात कही- 'शुभे! मैं तुम्हें अत्यन्त ऊर्जस्वी एवं इन्द्रका वध करनेवाला पुत्र प्रदान करूँगा, किंतु इस विषयमें तुम यह काम करो कि आपस्तम्ब ऋषिसे प्रार्थना करके उनके द्वारा आज ही पुत्रेष्टि-यज्ञका अनुष्ठान कराओ। सुनते ! यज्ञकी समाप्ति होनेपर मैं (तुम्हारे उदरमें) इन्द्ररूपी शत्रुके विनाशक पुत्रका गर्भाधान करूँगा। तत्पश्चात् महर्षि आपस्तम्बने उस अत्यन्त खर्चीले पुत्रेष्टि-यज्ञका अनुष्ठान किया। उस समय उन्होंने 'इन्द्रशत्रुर्भवस्व- इन्द्रका शत्रु उत्पन्न हो'- इस मन्त्रसे विस्तारपूर्वक अग्रिमें आहुति दी। (इस यज्ञसे देवताओंको रुष्ट होना चाहता था, परंतु) वे यह जानकर प्रसन्न हुए कि दैत्यों और दानवोंको इस यज्ञफलसे विमुख होना पड़ेगा ॥ ३०-३५ ॥
दित्यां गर्भमथाधत्त कश्यपः प्राह तां पुनः ।
त्वया यत्त्रो विधातव्यो हास्मिन् गर्ने वरानने ।। ३६
संवत्सरशतं त्वेकमस्मिन्नेव तपोवने।
संध्यायां नैव भोक्तव्यं गर्भिण्या वरवर्णिनि ॥ ३७
न स्थातव्यं न गन्तव्यं वृक्षमूलेषु सर्वदा।
नोपस्करेषूपविशेन्मुसलोलूखलादिषु ॥ ३८
जले च नावगाहेत शून्यागारं च वर्जयेत्।
वल्मीकायां न तिष्ठेत न चोद्विग्नमना भवेत् ॥ ३९
विलिखेन्न नखैर्भूमिं नाङ्गारेण न भस्मना।
न शयालुः सदा तिष्ठेद् व्यायामं च विवर्जयेत् ।। ४०
न तुषाङ्गारभस्मास्थिकपालेषु समाविशेत्।
वर्जयेत् कलहं लोकैर्गात्रभङ्गं तथैव च ॥ ४१
न मुक्तकेशा तिष्ठेत नाशुचिः स्यात् कदाचन।
न शयीतोत्तरशिरा न चापरेशिराः क्वचित् ॥ ४२
न वस्त्रहीना नोद्विग्ना न चार्द्रचरणा सती।
नामङ्गल्यां वदेद् वाचं न च हास्याधिका भवेत् ॥ ४३
कुर्यात्तु गुरुशुश्रूषां नित्यं माङ्गल्यतत्परा।
सर्वोषधीभिः कोष्णेन वारिणा स्त्रानमाचरेत् ।। ४४
कृतरक्षा सुभूषा च वास्तुपूजनतत्परा ।
तिष्ठेत् प्रसन्नवदना भर्तुः प्रियहिते रता ॥ ४५
दानशीला तृतीयायां पार्वण्यं नक्तमाचरेत्।
इतिवृत्ता भवेन्नारी विशेषेण तु गर्भिणी ॥ ४६
यस्तु तस्या भवेत् पुत्रः शीलायुर्वृद्धिसंयुतः ।
अन्यथा गर्भपतनमवाप्नोति न संशयः ॥ ४७
तस्मात्त्वमनया वृत्त्या गर्भेऽस्मिन् यत्नमाचर।
स्वस्त्यस्तु ते गमिष्यामि तथेत्युक्तस्तया पुनः ।। ४८
पश्यतां सर्वभूतानां तत्रैवान्तरधीयत।
ततः सा कश्यपोक्तेन विधिना समतिष्ठत ॥ ४९
(यज्ञकी समातिके बाद) कश्यपने दितिके उदरमें गर्भाधान किया और पुनः उससे कहा- 'वरानने। एक सौ वर्षोंतक तुम्हें इसी तपोवनमें रहना है और इस गर्भकी रक्षाके लिये प्रयत्न करना है। वरवर्णिनि! गर्भिणी स्त्रीको संध्याकालमें भोजन नहीं करना चाहिये। उसे न तो कभी वृक्षके मूलपर बैठना चाहिये, न उसके निकट ही जाना चाहिये। वह घरकी सामग्री मूसल, ओखली आदिपर न बैठे, जलमें घुसकर खान न करे, सुनसान घरमें न बैठे, मनको उद्विग्र न करे, नखसे, लुआठीसे अथवा राखसे पृथ्वीपर रेखा न खींचे, सदा नींदमें अलसायी हुई न रहे, कठिन परिश्रमका काम न करे, भूसी, लुआठी, भस्म, हड्डी और खोपड़ीपर न बैठे, लोगोंके साथ वाद-विवाद न करे और शरीरको तोड़े-मरोड़े नहीं। वह बाल खोलकर न बैठे, कभी अपवित्र न रहे, उत्तर दिशामें सिरहाना करके एवं कहीं भी नीचे सिर करके न सोये, न नंगी होकर, न उद्विग्रचित्त होकर एवं न भीगे चरणोंसे ही कभी शयन करे, अमङ्गलसूचक वाणी न बोले, अधिक जोरसे हँसे नहीं, नित्य माङ्गलिक कार्योंमें तत्पर रहकर गुरुजनोंकी सेवा करे और (आयुर्वेदद्वारा गर्भिणीके स्वास्थ्यके लिये उपयुक्त बतलायी गयी) सम्पूर्ण ओषधियोंसे युक्त गुनगुने गरम जलसे स्नान करे। वह अपनी रक्षाका ध्यान रखे, स्वच्छ वेष-भूषासे युक्त रहे, वास्तु- पूजनमें तत्पर रहे, प्रसन्नमुखी होकर सदा पतिके हितमें संलग्न रहे, तृतीया तिथिको दान करे, पर्व सम्बन्धी व्रत एवं नक्तव्रतका पालन करे। जो गर्भिणी स्त्री विशेषरूपसे इन नियमोंका पालन करती है, उसका उस गर्भसे जो पुत्र उत्पन्न होता है, वह शीलवान् एवं दीर्घायु होता है। इन नियमोंका पालन न करनेपर निस्संदेह गर्भपातकी आशङ्का बनी रहती है। प्रिये। इसलिये तुम इन नियमोंका पालन करके इस गर्भकी रक्षाका प्रयत्न करो। तुम्हारा कल्याण हो, अब मैं जा रहा हूँ।' दितिके द्वारा पतिकी आज्ञा स्वीकार कर लेनेपर महर्षि कश्यप वहीं सभी जीवोंके देखते-देखते अन्तर्धान हो गये। तब दिति महर्षि कश्यपद्वारा बताये गये नियमोंका पालन करती हुई समय व्यतीत करने लगी ॥ ३६-४९ ॥
अथ भीतस्तथेन्द्रोऽपि दितेः पार्श्वमुपागतः ।
विहाय देवसदनं तच्छुश्रूषुरवस्थितः ॥ ५०
दितिछिद्रान्तरप्रेप्सुरभवत् पाकशासनः ।
विनीतोऽभवदव्यग्रः प्रशान्तवदनो बहिः ॥ ५१
अजानन् किल तत्कार्यमात्मनः शुभमाचरन्।
ततो वर्षशतान्ते सा न्यूने तु दिवसैस्त्रिभिः ॥ ५२
मेने कृतार्थमात्मानं प्रीत्या विस्मितमानसा।
अकृत्वा पादयोः शौचं प्रसुप्ता मुक्तमूर्धजा ॥ ५३
निद्राभरसमाक्रान्ता दिवापरशिराः क्वचित्।
ततस्तदन्तरं लब्ध्वा प्रविष्टस्तु शचीपतिः ॥ ५४
वज्रेण सप्तधा चक्रे तं गर्भ त्रिदशाधिपः ।
ततः सप्तैव ते जाताः कुमाराः सूर्यवर्चसः ॥ ५५
रुदन्तः सप्त ते बाला निषिद्धा गिरिदारिणा।
भूयोऽपि रुदतश्चैतानेकैकं सप्तधा हरिः ॥ ५६
चिच्छेद वृत्रहन्ता वै पुनस्तदुदरे स्थितः ।
एवमेकोनपञ्चाशद् भूत्वा ते रुरुदुर्भृशम् ॥ ५७
इन्द्रो निवारयामास मा रोदिष्टः पुनः पुनः।
ततः स चिन्तयामास किमेतदिति वृत्रहा ।। ५८
धर्मस्य कस्य माहात्म्यात् पुनः सञ्जीवितास्त्वमी।
विदित्वा ध्यानयोगेन मदनद्वादशीफलम् ॥ ५९
नूनमेतत् परिणतमधुना कृष्णपूजनात् ।
वज्रेणापि हताः सन्तो न विनाशमवाप्नुयुः ॥ ६०
एकोऽप्यनेकतामाप यस्मादुदरगोऽप्यलम्।
अवध्या नूनमेते वै तस्माद् देवा भवन्त्विति ॥ ६१
यस्मान्मा रुदतेत्युक्ता रुदन्तो गर्भसंस्थिताः ।
मरुतो नाम ते नाम्ना भवन्तु मखभागिनः ॥ ६२
ततः प्रसाद्य देवेशः क्षमस्वेति दितिं पुनः ।
अर्थशास्त्रं समास्थाय मयैतद् दुष्कृतं कृतम् ॥ ६३
कृत्वा मरुद्गणं देवैः समानममराधिपः ।
दितिं विमानमारोप्य ससुतामनयद् दिवम् ॥ ६४
यज्ञभागभुजो जाता मरुतस्ते ततो द्विजाः ।
न जग्मुरैक्यमसुरैरतस्ते सुरवल्लभाः ।। ६५
इस कार्यकलापकी सूचना पानेपर) इन्द्र भयभीत हो उठे और तुरन्त देवलोकको छोड़कर दितिके निकट आ पहुँचे। वे दितिकी सेवा करनेकी इच्छासे उसके समीप ही रहने लगे। इन्द्र सदा दितिके छिद्रान्वेषणमें ही लगे रहे। ऊपरसे तो वे विनम्र, प्रशान्त और प्रसन्न मुखवाले दीखते थे, परंतु भीतरसे वे दितिके कार्योंकी कुछ परवाह न करके सदा अपने ही हित-साधनमें दत्तचित्त रहते थे। इस प्रकार सौ वर्षोंकी समाप्तिमें जब तीन दिन शेष रह गये, तब दिति प्रसत्रतापूर्वक अपनेको सफलमनोरथ मानने लगी। उस समय आश्चर्यसे युक्त मनवाली दिति नींदके आलस्यसे आक्रान्त होकर पैरोंको बिना धोये बाल खोलकर सिरको नीचे किये कहीं दिनमें ही सो गयी। तब दितिकी उस त्रुटिको पाकर शचीके प्राणपति देवराज इन्द्र उसके उदरमें प्रवेश कर गये और अपने वज्रसे उस गर्भके सात टुकड़े कर दिये। उन टुकड़ोंसे सूर्यके समान तेजस्वी सात शिशु उत्पन्न हो गये। वे रोने लगे। रोते हुए उन सातों शिशुओंको इन्द्रने मना किया, (परंतु जब वे चुप नहीं हुए, तब) इन्द्रने पुनः उन रोते हुए शिशुओंमें प्रत्येकके सात-सात टुकड़े कर दिये। उस समय भी इन्द्र दितिके उदरमें ही स्थित थे। इस प्रकार वे टुकड़े उनचास शिशुओंके रूपमें परिवर्तित होकर जोर-जोरसे रुदन करने लगे। इन्द्र उन्हें बारम्बार मना करते हुए कह रहे थे कि 'मत रोओ।' (परंतु वे जब चुप नहीं हुए, तब) इन्द्रने मनमें विचार किया कि इसका क्या रहस्य है? किस धर्मके माहात्म्यसे ये सभी (मेरे वज्रद्वारा काटे जानेपर भी) पुनः जीवित हैं? तत्पश्चात् ध्यानयोगके द्वारा इन्द्रको ज्ञात हो गया कि यह मदनद्वादशीव्रतका फल है। अवश्य ही श्रीकृष्णके पूजनके प्रभावसे इस समय यह घटना घटी है, जो वज्रद्वारा मारे जानेपर भी ये शिशु विनाशको नहीं प्राप्त हुए। इसी कारण उदरमें स्थित रहते हुए एकसे अनेक (उनचास) हो गये। इसलिये अवश्य ही ये अवध्य हैं और (मेरी इच्छा है कि ये) देवता हो जायें। चूँकि गर्भमें स्थित रहकर रोते हुए इनको मैंने 'मा रुदत'-मत रोओ ऐसा कहा है, इसलिये ये 'मरुत्' नामसे प्रसिद्ध होंगे और इन्हें भी यज्ञोंमें भाग मिलेगा। ऐसा कहकर इन्द्र दितिके उदरसे बाहर निकल आये और दितिको प्रसन्न करके उससे क्षमा-याचना करने लगे- 'देवि ! अर्थशास्त्रका आश्रय लेकर मैंने यह दुष्कर्म कर डाला है, मुझे क्षमा करो।' इस प्रकार देवराजने मरुद्रणको देवताओंके समान बनाया और पुत्रोंसमेत दितिको विमानमें बैठाकर वे अपने साथ स्वर्गलोकको ले गये। विप्रवरो! इसी कारण मरुद्रण यज्ञोंमें भाग पानेके अधिकारी हुए। उन्होंने असुरोंके साथ एकता नहीं की; इसीलिये वे देवताओंके प्रेमपात्र हो गये ॥५०-६५॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणे आदिसर्गे मरुदुत्पत्ती मदनद्वादशीवतं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके आदिसर्गमें मरुद्रणकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें मदनद्वादशीव्रत वर्णन नामक सातवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ७ ॥
टिप्पणियाँ