महर्षि कौशिक के पुत्रोंका वृत्तान्त तथा पिपीलिका की कथा | maharshi kaushik ke putrom ka vruttant tatha pipilika ki katha

मत्स्य पुराण बीसवाँ अध्याय

महर्षि कौशिक के पुत्रों का वृत्तान्त तथा पिपीलिका की कथा

ऋषय ऊचुः

कथं कौशिकदायादाः प्राप्तास्ते योगमुत्तमम् । 
पञ्चभिर्जन्मसम्बन्धैः कथं कर्मक्षयो भवेत् ॥ १

ऋषियोंने पूछा- सूतजी! महर्षि कौशिकके वे पुत्र किस प्रकार उत्तम योगको प्राप्त हुए तथा पाँच ही बार जन्म ग्रहण करनेसे उनके अशुभ कर्मोंका विनाश कैसे हुआ ? ॥ १॥

सूत उवाच

कौशिको नाम धर्मात्मा कुरुक्षेत्रे महानृषिः । 
नामतः कर्मतस्तस्य सुतान् सप्त निबोधत ॥ २

स्वसृपः क्रोधनो हिंस्त्रः पिशुनः कविरेव च। 
वाग्दुष्टः पितृवर्ती च गर्गशिष्यास्तदाभवन् ॥ ३

पितर्युपरते तेषामभूद् दुर्भिक्षमुल्बणम् । 
अनावृष्टिश्च महती सर्वलोकभयंकरी ॥ ४

गर्गादेशाद् वने दोग्धीं रक्षन्तस्ते तपोधनाः । 
खादामः कपिलामेतां वयं क्षुत्पीडिता भृशम् ॥ ५

इति चिन्तयतां पापं लघुः प्राह तदानुजः । 
यद्यवश्यमियं वध्या श्राद्धरूपेण योज्यताम् ॥ ६

श्राद्धे नियोज्यमानेयं पापात् त्रास्यति नो ध्रुवम् । 
एवं कुर्वित्यनुज्ञातः पितृवर्ती तदाग्रजैः ॥ ७

चक्रे समाहितः श्राद्धमुपयुज्य च तां पुनः । 
द्वौ दैवे भ्रातरौ कृत्वा पित्रे त्रीनप्यनुक्रमात् ॥ ८

तथैकमतिथिं कृत्वा श्राद्धदः स्वयमेव तु । 
चकार मन्त्रवच्छ्राद्धं स्मरन् पितृपरायणः ॥ ९

विना गवा वत्सकोऽपि गुरवे विनिवेदितः । 
व्याघ्रण निहता धेनुर्वत्सोऽयं प्रतिगृह्यताम् ॥ १०

एवं सा भक्षिता धेनुः सप्तभिस्तैस्तपोधनैः ।
वैदिकं बलमाश्रित्य कुरे कर्मणि निर्भयाः ॥ ११

ततः कालावकृष्टास्ते व्याधा दाशपुरेऽभवन्।
जातिस्मरत्वं प्राप्तास्ते पितृभावेन भाविताः ॥ १२

यत् कृतं क्रूरकर्माणि श्रद्धरूपेण तैस्तदा। 
तेन ते भवने जाता व्याधानां क्रूरकर्मिणाम् ॥ १३

पितृणां चैव माहात्म्याज्जाता जातिस्मरास्तु ते। 
ते तु वैराग्ययोगेन आस्थायानशनं पुनः ॥ १४

जातिस्मराः सप्त जाता मृगाः कालञ्जरे गिरौ। 
नीलकण्ठस्य पुरतः पितृभावानुभाविताः ॥ १५

तत्रापि ज्ञानवैराग्यात् प्राणानुत्सृज्य धर्मतः । 
लोकैरवेक्ष्यमाणास्ते तीर्थान्तेऽनशनेन तु ॥ १६

मानसे चक्रवाकास्ते सञ्जाताः सप्त योगिनः ।
नामतः कर्मतः सर्वाञ्छृणुध्वं द्विजसत्तमाः ॥ १७

सुमनाः कुमुदः शुद्धश्छिद्रदर्शी सुनेत्रकः ।
सुनेत्रश्चांशुमांश्चैव सप्तैते योगपारगाः ॥ १८

योगभ्रष्टास्त्रयस्तेषां बभ्रमुश्चाल्पचेतनाः ।
दृष्ट्वा विभ्राजमानं तमुद्याने स्वीभिरन्वितम् ॥ १९

क्रीडन्तं विविधैर्भावैर्महाबलपराक्रमम् । 
पाञ्चालान्वयसम्भूतं प्रभूतबलवाहनम् ॥ २०

राज्यकामोऽभवच्चैकस्तेर्षा मध्ये जलौकसाम्। 
पितृवर्ती च यो विप्रः श्राद्धकृत् पितृवत्सलः ॥ २१

अपरौ मन्त्रिणौ दृष्ट्वा प्रभूतबलवाहनौ। 
मन्त्रित्वे चक्रतुश्चेच्छामस्मिन् मत्यें द्विजोत्तमाः ॥ २२

तन्मध्ये ये तु निष्कामास्ते बभूवुर्द्विजोत्तमाः । 
विभ्राजपुत्रस्त्वेकोऽभूद् ब्रह्मदत्त इति स्मृतः ॥ २३

मन्त्रिपुत्रौ तथा चोभौ कण्डरीकसुबालकौ। 
ब्रह्मदत्तोऽभिषिक्तः सन् पुरोहितविपश्चिता ॥ २४

पाञ्चालराजो विक्रान्तः सर्वशास्त्रविशारदः । 
योगिवत् सर्वजन्तूनां रुतवेत्ताभवत् तदा ॥ २५

तस्य राज्ञोऽभवद् भार्या देवलस्यात्मजा शुभा। 
संनतिर्नाम विख्याता कपिला याभवत् पुरा ॥ २६

पितृकार्ये नियुक्तत्वादभवद् ब्रह्मवादिनी। 
तया चकार सहितः स राज्यं राजनन्दनः ॥ २७

सूतजी कहते हैं-ऋषियो! कुरुक्षेत्रमें कौशिक नामक एक धर्मात्मा महर्षि थे। उनके सात पुत्र थे। (उन पुत्रोंके वृत्तान्त) नाम एवं कर्मानुसार बतला रहा हूँ, सुनिये। उनके स्वसूप, क्रोधन, हिंस्र, पिशुन, कवि, वाग्दुष्ट और पितृवर्ती ये नाम थे। पिताकी मृत्युके पश्चात् वे सभी महर्षि गर्गके शिष्य हुए। उस समय समस्त लोकोंको भयभीत करनेवाली महती अनावृष्टि हुई, जिसके कारण भीषण अकाल पड़ गया। इसी बीच वे सभी तपस्वी अपने गुरु गर्गाचार्यकी आज्ञासे उनकी सेवामें लग गये। वहाँ वनमें वे सभी भूखसे अत्यन्त पीड़ित हो गये। जब सुधा शान्तिका कोई अन्य उपाय न सूझा, तब छोटे भाई पितृवर्तीने श्राद्ध कर्म करनेकी सम्मति दी। बड़े भाइयोंद्वारा 'अच्छा, ऐसा ही करो'- ऐसी आज्ञा पाकर पितृवर्तीने समाहित-चित्त होकर श्राद्धका उपक्रम आरम्भ किया। 

उस समय उसने छोटे- बड़ेके क्रमसे दो भाइयोंको देव-कार्यमें, तीनको पितृकार्यमें और एकको अतिथिरूपमें नियुक्त किया तथा स्वयं श्राद्धकर्ता बन गया। इस प्रकार पितृपरायण पितृवर्तीने पितरोंका स्मरण करते हुए मन्त्रोच्चारणपूर्वक श्राद्धकार्य सम्पन्न किया। कालक्रमानुसार मृत्युके उपरान्त आद्धवैगुण्यरूप कर्मदोषसे वे सभी दाशपुर (मन्दसौर) नामक नगरमें बहेलिया होकर उत्पन्न हुए, किंतु पितृ- नेह (श्राद्धकृत्य) से भावित होनेके कारण उन्हें पूर्वजन्मके वृत्तान्तोंका स्मरण बना रहा। पूर्वजन्मके कर्मोंके परिणाम- स्वरूप वे क्रूरकर्मी बहेलियोंके घरमें पैदा तो हुए परंतु पितरोंक ही माहात्म्यसे वे सभी जातिस्मर (पूर्वजन्मके वृत्तान्तोंके ज्ञाता) बने ही रहे। पुनः श्राद्ध-कर्मके फलसे वैराग्य उत्पन्न हो जानेके कारण उन सभीने अनशन करके अपने-अपने उस शरीरका त्याग कर दिया। तदनन्तर वे सातों कालञ्जर पर्वतपर भगवान् नीलकण्ठके समक्ष मृग- योनिमें उत्पन्न हुए। वहाँ भी पितरोंके खेहसे अनुभावित होनेके कारण वे जातिस्मर बने ही रहे। उस योनिमें भी ज्ञान और वैराग्य उत्पन्न हो जानेके कारण उन लोगोंने तीर्थ-स्थानमें अनशन करके लोगोंके देखते-देखते धर्मपूर्वक  प्राणोंका उत्सर्ग कर दिया। तत्पश्चात् उन सातों योगाभ्यासी जनोंने मानसरोवरमें चक्रवाककी योनिमें जन्म धारण किया। 

द्विजवरो। अब आपलोग नाम एवं कर्मानुसार उन सभीका वृत्तान्त श्रवण कीजिये। इस योनिमें उनके नाम है- सुमना, कुमुद, शुद्ध, छिद्रदर्शी, सुनेत्रक, सुनेत्र और अंशुमान्। ये सातों योगके पारदर्शी थे। इनमेंसे अल्पबुद्धिवाले तीन तो योगसे भ्रष्ट हो गये और इधर-उधर भ्रमण करने लगे। उसी समय एक पाञ्चालवंशी नरेश, जो महान् बल और पराक्रमसे सम्पन्न था तथा जिसके पास अधिक-से- अधिक सेना और वाहन थे, अपने क्रीडोद्यानमें स्त्रियोंके साथ अनेकविध हाव-भावोंसे क्रीडा कर रहा था। उस शोभाशाली राजाको देखकर उन जलपक्षियोंमेंसे एकको, जो पितृभक्त श्राद्धकर्ता पितृवर्ती नामक ब्राह्मण था, राज्य- प्राप्तिकी आकाङ्‌क्षा उत्पन्न हो गयी। इसी प्रकार दूसरे दोनोंने राजाके दो मन्त्रियोंको प्रचुर सेना और वाहनोंसे युक्त देखकर इस मृत्युलोकमें मन्त्रि-पद प्राप्त करनेकी इच्छा व्यक्त की। द्विजवरो। उनमें जो चार निष्काम थे, वे सभी श्रेष्ठ ब्राह्मणकुलमें पैदा हुए। उन तीनोंमेंसे पहला राजा विभ्राजके पुत्ररूपमें ब्रह्मदत्त नामसे विख्यात हुआ तथा अन्य दो कण्डरीक और सुबालक नामसे मन्त्रीके पुत्र हुए। (राजा विभाजकी मृत्युके उपरान्त) विद्वान् पुरोहितने ब्रह्मदत्तको राज्यपर अभिषिक्त कर दिया। वह पाञ्चाल- नरेश ब्रह्मदत्त प्रबल पराक्रमी, सभी शास्त्रोंमें प्रवीण, योगज्ञ और सभी जन्तुओंकी बोलीका ज्ञाता था। देवलकी सुन्दरी कन्या, जो संनति नामसे विख्यात थी, राजा ब्रह्मदत्तकी पत्नी हुई। वह ब्रह्मवादिनी थी। उस पत्नीके साथ रहकर राजकुमार ब्रह्मदत्त राज्य-भार सँभालने लगा ॥२-२७ ॥ 

कदाचिदुद्यानगतस्तया सह॒ स॒ पार्थिवः। 
ददशं कीटमिथुनमनङ्गकलहाकुलम्‌॥ २८

पिपीलिकामनुनयन्‌ परितः कीटकामुकः। 
पञ्चबाणाभितप्ताङ्ः सगद्रदमुवाच ह ॥ २९

न त्वया सदृशी लोके कामिनी विद्यते क्रचित्‌ ।
मध्यक्षामातिजघना बृहद्वक्षोऽभिगामिनी ॥ ३

सुवर्णवर्णा सुश्रोणी मञ्जूक्ता चारुहासिनी ।
सुलक्ष्यनेत्ररसना गुडशर्करवत्सला ॥ ३९

भोश्यसे मयि भुड्क्ते त्वं नासि स्नाते तथा मयि। 
प्रोषिते सति दीना त्वं क्रुद्धेऽपि भयचञ्चला ॥ ३२

किमर्थं वद्‌ कल्याणि सरोषवदना स्थिता। 
सा तमाह सकोपा तु किमालपसि मां शठ ॥ ३३

त्वया मोदकचूर्ण तु मां विहाय विनेष्यता। 
प्रदत्तं समतिक्रान्ते दिनेऽन्यस्याः समन्मथ॥ ३४

एक बार राजा ब्रह्मदत्त अपनी पत्नी संनतिके साथ भ्रमण करनेके लिये उद्यानमें गया। वहाँ उसने काम-कलहसे व्याकुल एक कीट-दम्पति (चींटा-चींटी)- को देखा। वह कीट, जिसका शरीर कामदेवके बाणोंसे संतप्त हो उठा था, चारों ओरसे चीटींसे अनुनय विनय करता हुआ गद्‌गद वाणीमें बोला-प्रिये! इस जगत्‌में तुम्हारे समान सुन्दरी स्त्री कहीं कोई भी नहीं है। तुम्हारा कटिप्रदेश पतला और जंघे मोटे हैं, तुम स्तनोंके भारी भारसे विनम्र होकर चलनेवाली, स्वर्णक समान गौरवर्णा, सुन्दर कमरवाली, मृदुभाषिणी, मनोहर हास्यसे युक्त, भलीभाँति लक्ष्यको भेदन करनेवाले नेत्रों और जीभसे समन्वित तथा गुड़ और शक्करकी प्रेमी हो। तुम मेरे भोजन कर लेनेके पश्चात् भोजन करती हो तथा मेरे जान कर लेनेपर स्नान करती हो। इसी प्रकार मेरे परदेश चले जानेपर तुम दीन हो जाती हो और क्रुद्ध होनेपर भयभीत हो उठती हो। कल्याणि। बतलाओ तो सही, तुम किस कारण क्रोधसे मुँह फुलाये बैठी हो।' तब क्रोधसे भरी हुई चींटी उस कोटसे बोली- 'शठ ! तुम क्या मुझसे व्यर्थ बकवाद कर रहे हो? अरे धूर्त! अभी कल ही तुमने मेरा परित्याग करके लड्डूका चूर्ण ले जाकर दूसरी चींटीको नहीं दिया है?'॥ २८-३४॥

पिपीलिक उवाच

त्वत्सादृश्यान्मया दत्तमन्यस्यै वरवर्णिनि। 
तदेकमपराधं मे क्षन्तुमर्हसि भामिनि॥ ३५

नैतदेवं करिष्यामि पुनः क्रापीह सुत्रते।
स्पृशामि पादौ सत्येन प्रसीद प्रणतस्य मे॥। ३६

सूत उवाच

इति तद्वचनं श्रुत्वा सा प्रसन्नाभवत्‌ ततः।
आत्मानमर्पयामास मोहनाय पिपीलिका ॥ ३७

ब्रह्मदत्तोऽप्यशेषं तं ज्ञात्वा विस्मयमागमत्‌।
सर्वसत्तवरुतन्ञत्वात्‌ प्रसादाच्यक्रपाणिनः॥ ३८

पिपीलिक उवाच - वरवर्णिनि ! तुम्हारे सदृश रूप-रंगवाली होनेके कारण मैंने भूलसे दूसरी चींटीको लड्डू दे दिया है, अतः भामिनि । तुम मेरे इस एक अपराधको क्षमा कर दो। सुव्रते। मैं पुनः कभी भी इस प्रकारका कार्य नहीं करूंगा। मैं सत्यकी दुहाई देकर तुम्हारे चरण छूता हूँ तुम मुझ विनीतपर प्रसन्न हो जाओ सूतजी कहते हैं- ऋषियो! इस प्रकार उस चींटेका कथन सुनकर वह चींटी प्रसन्न हो गयी। इधर, चक्रपाणि भगवान् विष्णुकी कृपासे समस्त प्राणियोंकी बोलीका ज्ञाता होनेके कारण ब्रह्मदत्त भी उस सारे वृत्तान्तको जानकर विस्मयविमुग्ध हो गये ॥ ३५-३८ ॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे आद्धकल्पे श्रद्धमाहात्म्ये पिपीलिकावहासो नाम विंशोऽध्यायः ॥ २०॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके श्राद्धकल्पके ब्राद्धमाहात्म्यमें पिपीलिकावहास नामक बीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २० ॥

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