महाराज पृथु का चरित्र और पृथ्वी दोहन का वृत्तांत | mahaaraaj prthu ka charitr aur prthvee dohan ka vrttaant

मत्स्य पुराण दसवाँ अध्याय

महाराज पृथुका चरित्र और पृथ्वी दोहनका वृत्तान्त

ऋषय ऊचुः

बहुभिर्धरणी भुक्ता भूपालैः श्रूयते पुरा। 
पार्थिवाः पृथिवीयोगात् पृथिवी कस्य योगतः ॥ १

किमर्थं च कृता संज्ञा भूमेः किं पारिभाषिकी। 
गौरितीयं च विख्याता सूत कस्माद् ब्रवीहि नः ॥ २

ऋषियोंने पूछा- सूतजी। सुना जाता है कि पूर्वकालमें बहुत-से भूपाल इस पृथ्वीका उपभोग कर चुके हैं। पृथ्वी के सम्बन्ध से ही वे 'पार्थिव' या पृथ्वीपति कहे गये हैं, परंतु भूमिका 'पृथ्वी' यह पारिभाषिक नाम किस सम्बन्ध से तथा किस कारण पड़ा एवं यह 'गौ' नाम से क्यों विख्यात हुई? इनका रहस्य हमें बतलाइये ॥१-२॥

सूत उवाच

वंशे स्वायम्भुवस्यासीदङ्गो नाम प्रजापतिः । 
मृत्योस्तु दुहिता तेन परिणीता सुदुर्मुखा ॥ ३

सुनीथा नाम तस्यास्तु वेनो नाम सुतः पुरा। 
अधर्मनिरतश्चासीद् बलवान् वसुधाधिपः ॥ ४

लोकेऽप्यधर्मकृज्जातः परभार्यापहारकः । 
धर्माचारस्य सिद्धयर्थं जगतोऽथ महर्षिभिः ॥ ५

। अनुनीतोऽपि न ददावनुज्ञां स यदा ततः ।
शापेन मारयित्वैनमराजक भयार्दिताः ॥ ६

ममन्युर्बाह्मणास्तस्य बलाद् देहमकल्मषाः। 
तत्कायान्मध्यमानात्तु निपेतुम्लेंच्छजातयः ॥ ७

शरीर मातुरंशेन कृष्णाञ्जनसमप्रभाः । 
पितुरंशस्य चांशेन धार्मिको धर्मचारिणः ॥ ८

उत्पन्नो दक्षिणाद्धस्तात् सधनुः सशरो गदी। 
दिव्यतेजोमयवपुः सरनकवचाङ्गदः ॥ ९

पृथोरेवाभवद् यत्नात् ततः पृथुरजायत ।
स विप्रैरभिषिक्तोऽपि तपः कृत्वा सुदारुणम् ॥ १०

विष्णोर्वरेण सर्वस्य प्रभुत्वमगमत् पुनः । 
निःस्वाध्यायवषट्‌कारं निर्धर्म वीक्ष्य भूतलम् ॥ ११

दग्धुमेवोद्यतः कोपाच्छरेणामितविक्रमः । 
ततो गोरूपमास्थाय भूः पलायितुमुद्यता ॥ १२

पृष्ठतोऽनुगतस्तस्याः पृथुर्दीप्तशरासनः ।
ततः स्थित्वैकदेशे तु किं करोमीति चाब्रवीत् ॥ १३

पृथुरप्यवदद् वाक्यमीप्सितं देहि सुनते। 
सर्वस्य जगतः शीघ्रं स्थावरस्य चरस्य च ॥ १४

तथैव साब्रवीद् भूमिर्दुदोह स नराधिपः। 
स्वके पाणी पृथुर्वत्सं कृत्वा स्वायम्भुवं मनुम् ॥ १५

सूतजी कहते हैं- ऋषियो ! प्राचीनकालमें स्वायम्भुव मनुके वंशमें अङ्ग नामक एक प्रजापति हुए थे। उन्होंने मृत्युकी कन्या सुनीथाके साथ विवाह किया। सुनीथाका मुख बड़ा कुरूप था। उसके गर्भसे वेन नामक एक महाबली पुत्र उत्पन्न हुआ, जो आगे चलकर चक्रवर्ती सम्राट् हुआ; किंतु वह सदा अधर्ममें ही निरत रहता था। परायी स्त्रियोंका अपहरण उसका नित्यका काम था। इस प्रकार वह लोकमें भी अधर्मका ही प्रचार करने लगा। तब महर्षियोंने जागतिक धर्माचरणकी सिद्धिके लिये उससे (बड़ी) अनुनय-विनय की; परंतु अन्तःकरण अशुद्ध होनेके कारण जब उसने उनकी बात न मानी (प्रजाको अभय नहीं किया), तब महर्षियोंने उसे शाप देकर मार डाला। तत्पश्चात् (शासकहीन राज्यमें) अराजकताके भयसे भीत होकर उन निष्पाप ब्राह्मणोंने बलपूर्वक वेनके शरीरका मन्थन किया। मन्थन करनेपर उसके शरीरसे शरीरस्थित माताके अंशसे म्लेच्छ जातियाँ प्रकट हुई, जिनका रंग काले अञ्जनका-सा था। (फिर) उसके शरीरस्थित धर्मपरायण पिता (अङ्ग) के अंशभूत दाहिने हाथसे एक धार्मिक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका शरीर दिव्य तेजसे सम्पन्न था। वह रत्नजटित कवच और बाजूबंदसे विभूषित था, उसके हाथोंमें धनुष बाण और गदा शोभा पा रहे थे। महान् प्रयत्नसे मथे जानेपर वह वेनकी पृथु (मोटी) भुजासे प्रकट हुआ था, अतः पृथु नामसे प्रसिद्ध हुआ। यद्यपि ब्राह्मणोंने उसे (पिताके राज्यपर) अभिषिक्त कर दिया था, तथापि उसने परम दारुण तपस्या करके विष्णुभगवान्‌को प्रसन्न किया और उनके वरदानके प्रभावसे (चराचर लोकको जीतकर) पुनः स्वयं भी समस्त भूमण्डलकी अध्यक्षता प्राप्त की। तदनन्तर अमित पराक्रमी पृथु भूतलको स्वाध्याय, वषट्‌कार और धर्मसे विहीन देखकर क्क्रुद्ध हो उठे और धनुषपर बाण चढ़ाकर उसे भस्म कर देनेके लिये उद्यत हो गये। यह देखकर भूमि (भयभीत होकर) गौका रूप धारणकर भाग चली। इधर प्रचण्ड धनुर्धर पृथु भी उसके पीछे दौड़ पड़े। (इस प्रकार पृथुको पीछा करते देख वह गौरूपा भूमि हताश होकर) एक स्थानपर खड़ी हो गयी और बोली (नाथ! आपकी प्रसन्नताके लिये) मैं क्या करूँ?' तब पृथुने ऐसी बात कही' सुव्रते ! तुम शीघ्र ही इस सम्पूर्ण चराचर जगत्‌को मनोवाञ्छित वस्तुएँ प्रदान करो।' यह सुनकर पृथ्वी बोली' अच्छा, ऐसा ही होगा।' (इस प्रकार पृथ्वीकी अनुमति जानकर) उन नरेश्वर पृथुने स्वायम्भुव मनुको बछड़ा बनाकर अपनी हथेलीमें गौरूपी पृथ्वीका दोहन किया। वह दुहा हुआ पदार्थ शुद्ध अन्न हुआ, जिससे प्रजाका जीवन-निर्वाह होता है ॥ ३-१५ ॥

तदन्नमभवच्छुद्धं प्रजा जीवन्ति येन वै।
ततस्तु ऋषिभिर्दुग्धा वत्सः सोमस्तदाभवत् ॥ १६

दोग्धा बृहस्पतिरभूत् पात्रं वेदस्तपो रसः।
देवैश्च वसुधा दुग्धा दोग्धा मित्रस्तदाभवत् ॥ १७

इन्द्रो वत्सः समभवत् क्षीरमूर्जस्करं बलम् । 
देवानां काञ्चनं पात्रं पितृणां राजतं तथा ॥ १८

अन्तकश्चाभवद् दोग्धा यमो वत्सः स्वधा रसः । 
अलाबुपात्रं नागानां तक्षको वत्सकोऽभवत् ॥ १९

विषं क्षीरं ततो दोग्धा धृतराष्ट्रोऽभवत् पुनः ।
असुरैरपि दुग्धेयमायसे शक्रपीडिनीम् ॥ २०

पात्रे मायामभूद् वत्सः प्राह्वादिस्तु विरोचनः ।
दोग्धा द्विमूर्धा तत्रासीन्माया येन प्रवर्तिता ॥ २१

यक्षैश्च वसुधा दुग्धा पुरान्तर्धानमीप्सुभिः ।
कृत्वा वैश्रवणं वत्समामपात्रे महीपते ॥ २२

प्रेतरक्षोगणैर्दुग्धा धारारुधिरमुल्बणम् । 
रौप्यनाभोऽभवद् दोग्धा सुमाली वत्स एव तु ॥ २३

गन्धर्वैश्च पुरा दुग्धा वसुधा साप्सरोगणैः।
वत्सं चैत्ररथं कृत्वा गन्धान् प‌द्मदले तथा ।। २४

दोग्धा वररुचिर्नाम नाट्यवेदास्य पारगः।
गिरिभिर्वसुधा दुग्धा रत्नानि विविधानि च ॥ २५

औषधानि च दिव्यानि दोग्धा मेरुर्महाचलः ।
वत्सोऽभूद्धिमवांस्तत्र पात्रं शैलमयं पुनः ॥ २६

वृक्षैश्च वसुधा दुग्धा क्षीरं छिन्नप्ररोहणम्।
पालाशपात्रे दोग्धा तु शालः पुष्पलताकुलः ॥ २७

प्लक्षोऽभवत्ततो वत्सः सर्ववृक्षधनाधिपः ।
एवमन्यैश्च वसुधा तदा दुग्धा यथेप्सितम् ॥ २८

(फिर क्या था? अब तो दोहनकी शृङ्खला हो चल पड़ी) पुनः ऋषियोंने भी उस पृथ्वीको दुहा। उस समय चन्द्रमा बछड़ा, दुहनेवाले महर्षि बृहस्पति, पात्र वेद और दुहा गया पदार्थ तप हुआ। देवताओंने भी पृथ्वीका दोहन किया। उस समय दुहनेवाले मित्र (देवता), इन्द्र बछड़ा तथा क्षीर (दुहा गया रस) ऊर्जस्वी बल हुआ। उस दोहन में देवताओं का पात्र स्वर्णमय था। अन्तकने भी पृथ्वीका दोहन किया, उसमें यमराज बछड़ा बने और स्वधा रस था। पितरोंका पात्र रजतमय था। नागोंके दोहनमें नागराज धृतराष्ट्र दुहनेवाले, नागराज तक्षक बछड़ा, पात्र तुम्बी और क्षीर-दुहा हुआ पदार्थ-विष था। असुरोंद्वारा भी इस पृथ्वीका दोहन किया गया था। उन्होंने लौहमय पात्रमें इन्द्रको पीड़ित करनेवाली मायाको दुहा। उस कार्यमें प्रह्लाद-पुत्र विरोचन बछड़ा और मायाका प्रवर्तक द्विमूर्धा दुहनेवाला था। महीपते। यक्षोंको अन्तर्धान-विद्याकी अभिलाषा थी, अतः उन्होंने कुबेरको बछड़ा बनाकर कच्चे पात्रमें पृथ्वीका दोहन किया था। प्रेतों और राक्षसोंने पृथ्वीसे भयंकर रुधिरकी धाराका दोहन किया। उसमें रौप्यनाभ नामक प्रेत दुहनेवाला और सुमाली नामक प्रेत बछड़ा बना था। अप्सराओंके साथ गन्धवौने भी पूर्वकालमें चैत्ररथको बछड़ा बनाकर कमलके पत्तेमें पृथ्वीसे सुगन्धोंका दोहन किया था; उस कार्यमें नाट्य-वेदका पारगामी विद्वान् वररुचि नामक गन्धर्व दुहनेवाला था। पर्वतोंने पृथ्वीसे अनेक प्रकारके रत्नों और दिव्य औषधियोंका दोहन किया। उसमें महाचल सुमेरु दुहनेवाला, हिमवान् बछड़ा और पात्र शैलमय था। वृक्षोंने पृथ्वीसे पलाशपत्रके पात्रमें (टहनी आदिके) कटनेके बाद पुनः उगनेवाला दूध दुहा। उस समय पुष्प और लताओंसे लदा हुआ शालवृक्ष दुहनेवाला था और समृद्धिशाली एवं सर्ववृक्षमय पाकड़का वृक्ष बछड़ा बना था। इसी प्रकार अन्यान्य वर्गक प्राणियोंने भी उस समय अपने-अपने इच्छानुसार पृथ्वीका दोहन किया था ॥ १६-२८॥

आयुर्धनानि सौख्यं च पृथौ राज्यं प्रशासति ।
न दरिद्रस्तदा कश्चिन्न रोगी न च पापकृत् ॥ २९

नोपसर्गभयं किञ्चित् पृथौ राजनि शासति ।
नित्यं प्रमुदिता लोका दुःखशोकविवर्जिताः ॥ ३०

धनुष्कोट्या च शैलेन्द्रानुत्सार्य स महाबलः।
भुवस्तलं समं चक्रे लोकानां हितकाम्यया ॥ ३१

न पुरग्रामदुर्गाणि न चायुधधरा नराः।
क्षयातिशयदुःखं च नार्थशास्त्रस्य चादरः ॥ ३२

धर्मैकवासना लोकाः पृथौ राज्यं प्रशासति ।
कथितानि च पात्राणि यत् क्षीरं च मया तव ॥ ३३

येषां यत्र रुचिस्तत्तद् देयं तेभ्यो विजानता।
यज्ञश्राद्धेषु सर्वेषु मया तुभ्यं निवेदितम् ॥ ३४

दुहितृत्वं गता यस्मात् पृथोर्धर्मवतो मही।
तदानुरागयोगाच्च पृथिवी विश्रुता बुधैः ॥ ३५

महाराज पृथुके राज्यमें प्रजा दीर्घायु, धन-धान्य एवं सुख-समृद्धिसे सम्पन्न थी। उस समय न कोई दरिद्र था, न रोगी और न कोई पाप-कर्म ही करता था। महाराज पृथुके शासनकालमें किसी उपसर्ग (आधिदैविक एवं आधिभौतिक उपद्रव) का भय नहीं था। लोग दुःख- शोकसे रहित होकर सदा सुखमय जीवनयापन करते थे। उन महाबली पृथुने प्रजाओंकी हितकामनासे प्रेरित होकर अपने धनुषकी कोटिसे बड़े-बड़े पर्वतोंको उखाड़कर पृथ्वीके धरातलको समतल कर दिया था। पृथुके राज्यकालमें न तो पुर, ग्राम और दुर्ग थे, न मनुष्य अस्त्र- शस्त्र धारण करते थे। (उस समय आत्मरक्षाके लिये इनकी कोई आवश्यकता न थी। रोगोंका सर्वथा अभाव था। क्षय-विनाश एवं सातिशयता परस्परकी विषमताका दुःख उन्हें नहीं देखना पड़ता था। प्रजाओंमें अर्थशास्त्रके प्रति आदर नहीं था, अर्थात् लोभका चिह्नमात्र भी नहीं था। उनमें एकमात्र धर्मकी ही वासना थी। ऋषियो! इस प्रकार मैंने आपसे पृथ्वीके दोहनपात्रोंका तथा जैसा-जैसा दूध दुहा गया था, उसका भी वर्णन किया। उनमें जिस वर्णके प्राणियोंकी जिस पदार्थकी प्राप्तिकी रुचि हो, उसे वही पदार्थ यज्ञों और श्राद्धोंमें अर्पित करना चाहिये। इस प्रकार यह पृथ्वी दोहनका प्रसङ्ग मैंने तुम्हें सुना दिया। यतः पृथ्वी धर्मात्मा पृथुकी कन्या बन चुकी थी, अतः पृथुके अतिशय अनुरागके कारण विद्वानोंद्वारा 'पृथ्वी' नामसे कही जाने लगी ॥२९-३५॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे वैन्याभिवर्णनो नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें वैन्याभिवर्णन नामक दसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १०॥

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